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वर्तमान में प्राकृतिक संसाधनों का मूल्य तय करने की पध्दति बहुत ही गलत है । उस संसाधन को प्रकृति में से प्राप्त करने के लिये किये गये परिश्रम और व्यय के आधारपर यह मूल्य तय किये जाते हैं। इन संसाधनों पर सरकार का एकाधिकार होने से आर्थिक नियोजन में आनेवाले घाटे का भी विचार इस मूल्य निर्धारण में होता है। विविध प्रकार की रियायतों के कारण उपभोक्ता जो कीमत चुकाता है वह उस संसाधन के वास्तविक मूल्य का अंशमात्र ही होती है। ये रियायतें निम्न हैं:  
 
वर्तमान में प्राकृतिक संसाधनों का मूल्य तय करने की पध्दति बहुत ही गलत है । उस संसाधन को प्रकृति में से प्राप्त करने के लिये किये गये परिश्रम और व्यय के आधारपर यह मूल्य तय किये जाते हैं। इन संसाधनों पर सरकार का एकाधिकार होने से आर्थिक नियोजन में आनेवाले घाटे का भी विचार इस मूल्य निर्धारण में होता है। विविध प्रकार की रियायतों के कारण उपभोक्ता जो कीमत चुकाता है वह उस संसाधन के वास्तविक मूल्य का अंशमात्र ही होती है। ये रियायतें निम्न हैं:  
 
# प्रकृति में उपलब्ध संसाधनों के भण्डार में से जितना अधिक निकाल सकते है उतना निकाला जा रहा है । या जितना सरकार का या मंत्री-अधिकारियों का लोभ बडा होगा, उतना निकाला जा रहा है। वास्तव में मानव जाति के सृष्टि में जीवित रहने की जो सम्भावनाएँ हैं उन के हिसाब में ही संसाधन निकाले जाने चाहिये।   
 
# प्रकृति में उपलब्ध संसाधनों के भण्डार में से जितना अधिक निकाल सकते है उतना निकाला जा रहा है । या जितना सरकार का या मंत्री-अधिकारियों का लोभ बडा होगा, उतना निकाला जा रहा है। वास्तव में मानव जाति के सृष्टि में जीवित रहने की जो सम्भावनाएँ हैं उन के हिसाब में ही संसाधन निकाले जाने चाहिये।   
# अमानवीय परिस्थितियों में न्यूनतम पैसे देकर लोगों से कठोर परिश्रम से काम कराकर इन संसाधनों को प्राप्त किया जाता है। मजदूरों को उन के परिश्रम का सही मूल्य और काम करने लायक सुविधाएं दीं जाएं तो यह श्रम मूल्य कई गुना बढ जाएगा।  
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# अमानवीय परिस्थितियों में न्यूनतम पैसे देकर लोगोंं से कठोर परिश्रम से काम कराकर इन संसाधनों को प्राप्त किया जाता है। मजदूरों को उन के परिश्रम का सही मूल्य और काम करने लायक सुविधाएं दीं जाएं तो यह श्रम मूल्य कई गुना बढ जाएगा।  
# यातायात के लिये सड़कें बनाई जातीं है। इन के लिये भी संसाधनों का वास्तविक मूल्य नहीं लिया जाता। आंशिक मूल्य ही प्रत्यक्ष लोगों से लिया जाता है। इन पर जो वाहन चलते है, उन के उत्पादन में लगने वाले संसाधनों का भी रियायती मूल्य (उपर्युक्त बिन्दू १ के अनुसार) ही लोगों से लिया जाता है। सड़क बनाने के लिये और संसाधनों के भंडारण के लिये सरकार ऐसी कृषियोग्य जमीनें बाजार दर से बहुत कम ऐसे सस्ते मूल्य में अधिग्रहित कर लेती है। कृषियोग्य जमीन के मूल्य के अनुसार यदि गिनती करें और उस मूल्य की वसूली यातायात करनेवाले वाहनों से करें तो यातायात का मूल्य कई गुना बदेगा।  
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# यातायात के लिये सड़कें बनाई जातीं है। इन के लिये भी संसाधनों का वास्तविक मूल्य नहीं लिया जाता। आंशिक मूल्य ही प्रत्यक्ष लोगोंं से लिया जाता है। इन पर जो वाहन चलते है, उन के उत्पादन में लगने वाले संसाधनों का भी रियायती मूल्य (उपर्युक्त बिन्दू १ के अनुसार) ही लोगोंं से लिया जाता है। सड़क बनाने के लिये और संसाधनों के भंडारण के लिये सरकार ऐसी कृषियोग्य जमीनें बाजार दर से बहुत कम ऐसे सस्ते मूल्य में अधिग्रहित कर लेती है। कृषियोग्य जमीन के मूल्य के अनुसार यदि गिनती करें और उस मूल्य की वसूली यातायात करनेवाले वाहनों से करें तो यातायात का मूल्य कई गुना बदेगा।  
# इन यातायात के वाहनों में उपयोग किये जानेवाले इंधन का तथा वाहनों के लिए उपयोग में लाये गए खनिज का वास्तविक मूल्य नहीं आंशिक मूल्य ही (उपर्युक्त बिन्दू १ के अनुसार) लोगों से लिया जाता है । उपर्युक्त सभी रियायतों में २, ३, ४ इन मदों के कारण जो मूल्य बढता है वह तो मद क्र. १ की मूल्य वृद्धि में जुड़ता जाता है।  
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# इन यातायात के वाहनों में उपयोग किये जानेवाले इंधन का तथा वाहनों के लिए उपयोग में लाये गए खनिज का वास्तविक मूल्य नहीं आंशिक मूल्य ही (उपर्युक्त बिन्दू १ के अनुसार) लोगोंं से लिया जाता है । उपर्युक्त सभी रियायतों में २, ३, ४ इन मदों के कारण जो मूल्य बढता है वह तो मद क्र. १ की मूल्य वृद्धि में जुड़ता जाता है।  
    
== प्राकृतिक संसाधनों के उपभोग के व्यावहारिक सूत्र ==
 
== प्राकृतिक संसाधनों के उपभोग के व्यावहारिक सूत्र ==
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हमने जाना है कि स्थानिक संसाधनों के आधार पर जीने वाले परस्परावलंबी कुटुम्बों का स्वावलंबी लघुतम समाज ग्रामकुल कहलाता है। यह जितना लघुतम होगा इसकी व्यवस्थाएँ कम जटिल होंगी। जनसंख्या बढ़ने से परस्परावलंबन की पेचिदगियां बढ़ना स्वाभाविक है। उत्पादन का लघुतम केन्द्र कौटुम्बिक उद्योग है। और समाज की प्रमुख आवश्यकताओं को याने अन्न, वस्त्र, भवन, स्वास्थ्य और प्राथमिक शिक्षा के सन्दर्भ में स्वावलंबी समुदाय अपेक्षित है। इन मूलभूत आवश्यकताओं की पूर्ति भी जितनी अधिक स्थानिक संसाधनों के आधारपर की जाएगी स्वतन्त्रता अधिक होगी। जितने संसाधन ग्राम से दूर उतनी स्वतन्त्रता की मात्रा में कमी आती है। इस तरह ऐसे समुदाय की जनसंख्या का नियंत्रण प्रकृति में उपलब्ध स्थानिक संसाधन करते हैं। प्राकृतिक संसाधन जैसे भूमि, बारिश, हवा, धूप आदि विकेन्द्रित ही होते हैं। अपने आप ही यह ग्राम एक प्रकृति सुसंगत विकेंद्रित ईकाई के रूप में विकास पाता है।  
 
हमने जाना है कि स्थानिक संसाधनों के आधार पर जीने वाले परस्परावलंबी कुटुम्बों का स्वावलंबी लघुतम समाज ग्रामकुल कहलाता है। यह जितना लघुतम होगा इसकी व्यवस्थाएँ कम जटिल होंगी। जनसंख्या बढ़ने से परस्परावलंबन की पेचिदगियां बढ़ना स्वाभाविक है। उत्पादन का लघुतम केन्द्र कौटुम्बिक उद्योग है। और समाज की प्रमुख आवश्यकताओं को याने अन्न, वस्त्र, भवन, स्वास्थ्य और प्राथमिक शिक्षा के सन्दर्भ में स्वावलंबी समुदाय अपेक्षित है। इन मूलभूत आवश्यकताओं की पूर्ति भी जितनी अधिक स्थानिक संसाधनों के आधारपर की जाएगी स्वतन्त्रता अधिक होगी। जितने संसाधन ग्राम से दूर उतनी स्वतन्त्रता की मात्रा में कमी आती है। इस तरह ऐसे समुदाय की जनसंख्या का नियंत्रण प्रकृति में उपलब्ध स्थानिक संसाधन करते हैं। प्राकृतिक संसाधन जैसे भूमि, बारिश, हवा, धूप आदि विकेन्द्रित ही होते हैं। अपने आप ही यह ग्राम एक प्रकृति सुसंगत विकेंद्रित ईकाई के रूप में विकास पाता है।  
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ग्राम की आवश्यकताओं की पूर्ति करने के लिए विभिन्न कौशल विधाओं की आवश्यकता होती है। जैसे अन्न उपजाना, मकान के लिए और खेती के लिए विभिन्न वस्तुओं का उत्पादन करना, वस्त्र निर्माण करना। खाना पकाने के लिए, संग्रह के लिए और खाने के लिए बर्तन बनाना आदि अनेकों कुशलताओं की आवश्यकता ग्राम के लोगों को होती है। इन कुशलताओं के धनी पर्याप्त संख्या में ग्राम में होना आवश्यक होता है। कुशल लोगों की संख्या भी ग्राम की आवश्यकता के अनुसार होना आवश्यक होता है। कम होने से ग्राम की आवश्यकताओं की ठीक से पूर्ति नहीं हो पाती। अधिक होने से परस्परावलंबन बिगड़ जाता है। अतः यह आवश्यक होता है कि ग्राम की जनसंख्या के अनुपात में प्रत्येक आवश्यक कुशलता के लोगों की संख्या का अनुपात बना रहे। इस समस्या का हल कुशलता को आनुवांशिक बनाने से मिल जाता है। अतः परम्परागत कौटुम्बिक व्यवसाय की व्यवस्था की आवश्यकता होती है। वैसे भी व्यावसायिक कुशलता यह आनुवांशिकता से एक पीढी से दूसरी पीढी में संक्रमित होती ही है। इस दृष्टि से भी पारंपरिक कौटुम्बिक व्यवसाय की व्यवस्था यह प्रकृति सुसंगत ही है।   
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ग्राम की आवश्यकताओं की पूर्ति करने के लिए विभिन्न कौशल विधाओं की आवश्यकता होती है। जैसे अन्न उपजाना, मकान के लिए और खेती के लिए विभिन्न वस्तुओं का उत्पादन करना, वस्त्र निर्माण करना। खाना पकाने के लिए, संग्रह के लिए और खाने के लिए बर्तन बनाना आदि अनेकों कुशलताओं की आवश्यकता ग्राम के लोगोंं को होती है। इन कुशलताओं के धनी पर्याप्त संख्या में ग्राम में होना आवश्यक होता है। कुशल लोगोंं की संख्या भी ग्राम की आवश्यकता के अनुसार होना आवश्यक होता है। कम होने से ग्राम की आवश्यकताओं की ठीक से पूर्ति नहीं हो पाती। अधिक होने से परस्परावलंबन बिगड़ जाता है। अतः यह आवश्यक होता है कि ग्राम की जनसंख्या के अनुपात में प्रत्येक आवश्यक कुशलता के लोगोंं की संख्या का अनुपात बना रहे। इस समस्या का हल कुशलता को आनुवांशिक बनाने से मिल जाता है। अतः परम्परागत कौटुम्बिक व्यवसाय की व्यवस्था की आवश्यकता होती है। वैसे भी व्यावसायिक कुशलता यह आनुवांशिकता से एक पीढी से दूसरी पीढी में संक्रमित होती ही है। इस दृष्टि से भी पारंपरिक कौटुम्बिक व्यवसाय की व्यवस्था यह प्रकृति सुसंगत ही है।   
    
अब हम इन के समन्वय से समृद्धि शास्त्र कैसे निर्माण होता है और समृद्धि व्यवस्था कैसे बनती है इस का विचार करेंगे।  
 
अब हम इन के समन्वय से समृद्धि शास्त्र कैसे निर्माण होता है और समृद्धि व्यवस्था कैसे बनती है इस का विचार करेंगे।  
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=== ग्राम धर्म ===
 
=== ग्राम धर्म ===
# ग्राम के हर व्यक्ति के लिए सार्थक रोजगार की व्यवस्था करना यह ग्राम का सबसे महत्वपूर्ण धर्म है। यहाँ रोजगार का अर्थ केवल धनार्जन तक ही सीमित नहीं है। ऐसे कई काम हैं जो नि:शुल्क करने होते हैं। जैसे अन्न दान, कला, कारीगरी आदि या ऐसा कहें कि ज्ञान/ विज्ञान / तंत्रज्ञान की विविध विधाओं की शिक्षा, ग्राम की सुरक्षा, ग्राम सेवा (मुखिया, पञ्च, सरपञ्च आदि), वैद्यकीय सेवा आदि। वानप्रस्थी या उन्नत गृहस्थाश्रमी लोगों यह काम हैं। सेवा और नौकरी में अंतर है। सेवा नि:स्वार्थ भाव से की जाती है। नौकरी स्वार्थ भाव से होती है।  
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# ग्राम के हर व्यक्ति के लिए सार्थक रोजगार की व्यवस्था करना यह ग्राम का सबसे महत्वपूर्ण धर्म है। यहाँ रोजगार का अर्थ केवल धनार्जन तक ही सीमित नहीं है। ऐसे कई काम हैं जो नि:शुल्क करने होते हैं। जैसे अन्न दान, कला, कारीगरी आदि या ऐसा कहें कि ज्ञान/ विज्ञान / तंत्रज्ञान की विविध विधाओं की शिक्षा, ग्राम की सुरक्षा, ग्राम सेवा (मुखिया, पञ्च, सरपञ्च आदि), वैद्यकीय सेवा आदि। वानप्रस्थी या उन्नत गृहस्थाश्रमी लोगोंं यह काम हैं। सेवा और नौकरी में अंतर है। सेवा नि:स्वार्थ भाव से की जाती है। नौकरी स्वार्थ भाव से होती है।  
# ग्राम के सभी लोगों का चरितार्थ सम्मान के साथ चले। इस दृष्टि से रचना बनाना और चलाना। अनाथ, विधवा, वृद्ध, अपंग आदि दुर्बल घटकों के भी सम्मानपूर्ण आजीविका की व्यवस्था हो। आचार्य, विद्वान, कलाकार, वैद्य आदि की यथोचित सम्मानपूर्ण आजीविका की भी व्यवस्था हो।  
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# ग्राम के सभी लोगोंं का चरितार्थ सम्मान के साथ चले। इस दृष्टि से रचना बनाना और चलाना। अनाथ, विधवा, वृद्ध, अपंग आदि दुर्बल घटकों के भी सम्मानपूर्ण आजीविका की व्यवस्था हो। आचार्य, विद्वान, कलाकार, वैद्य आदि की यथोचित सम्मानपूर्ण आजीविका की भी व्यवस्था हो।  
 
# किसी पर भी अन्याय न हो। सुख शांति से जीवन चले। दुष्ट दुर्जनों और मूर्खों को नियंत्रण में रखना।  
 
# किसी पर भी अन्याय न हो। सुख शांति से जीवन चले। दुष्ट दुर्जनों और मूर्खों को नियंत्रण में रखना।  
 
# ग्राम के सभी सदस्यों की स्वाभाविक, शासकीय और आर्थिक स्वतन्त्रता की रक्षा हो।  
 
# ग्राम के सभी सदस्यों की स्वाभाविक, शासकीय और आर्थिक स्वतन्त्रता की रक्षा हो।  
# ग्राम के सभी लोगों और उनके धन की तथा ग्राम की सुरक्षा की व्यवस्था करना।  
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# ग्राम के सभी लोगोंं और उनके धन की तथा ग्राम की सुरक्षा की व्यवस्था करना।  
 
# ग्राम ग्रामकुल बने। ग्राम के सभी सदस्य कुटुम्ब भावना से रहें ऐसा व्यवहार हो, ऐसा वातावरण रहे, ऐसे कार्यक्रमों का ही आयोजन हो। हर कुटुम्ब का अतिथि ग्राम का अतिथि है ऐसा उससे व्यवहार करना।  
 
# ग्राम ग्रामकुल बने। ग्राम के सभी सदस्य कुटुम्ब भावना से रहें ऐसा व्यवहार हो, ऐसा वातावरण रहे, ऐसे कार्यक्रमों का ही आयोजन हो। हर कुटुम्ब का अतिथि ग्राम का अतिथि है ऐसा उससे व्यवहार करना।  
 
# विश्व की प्रत्येक श्रेष्ठ बात ग्राम में उपलब्ध हो। ऐसी कुशलताओं का यथासंभव विकास हो।  
 
# विश्व की प्रत्येक श्रेष्ठ बात ग्राम में उपलब्ध हो। ऐसी कुशलताओं का यथासंभव विकास हो।  
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== भारतीय समृद्धिशास्त्र की पुन: प्रतिष्ठा ==
 
== भारतीय समृद्धिशास्त्र की पुन: प्रतिष्ठा ==
समृद्धि व्यवस्था में स्वतन्त्रता और सहानुभूति का सन्तुलन  होता है। इस सन्तुलन के कारण धन का अभाव और प्रभाव दोनों निर्माण नहीं हो पाते। जब धन का संचय किसी के हाथों में हो जाता है उसमें उद्दंडता, मस्ती, अहंकार बढ़ता है। इससे वह धन के बल पर लोगों को पीड़ित करने लग जाता है। और अर्थ का प्रभाव समाज में दिखने लग जाता है। इसी तरह से जब धन के अभाव के कारण समाज के किन्ही सदस्यों में या वर्गों में दीनता, लाचारी का भाव पैदा होता है। कहा गया है{{Citation needed}} : <blockquote>यौवनं धन सम्पत्ति प्रभुत्वमविवेकिता। एकैकमप्यनर्थाय किमु यत्र चतुष्ट्य ।।</blockquote><blockquote>अर्थ : यौवन, धन/सम्पत्ति, असीम अधिकार और अविवेक इन चारों में से कोई एक भी होने से अनर्थ हो जाता है। यदि चारों एक साथ हों तो भगवान जाने क्या होगा?</blockquote>लेकिन धन का संचय होनेपर जब दान की भावना से वह पुन: अभावग्रस्त लोगोंमें वितरित हो जाता है, सड़क निर्माण, कुए या तालाबों का निर्माण, धर्मशालाओं का निर्माण आदि में व्यय होता है, तब धन का अनावश्यक संचय नहीं होता। धन का संचय न होने से अर्थ का प्रभाव नहीं होता। और उसका अभावग्रस्त लोगोंमें वितरण हो जाने से धन का अभाव भी नहीं रहता।  
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समृद्धि व्यवस्था में स्वतन्त्रता और सहानुभूति का सन्तुलन  होता है। इस सन्तुलन के कारण धन का अभाव और प्रभाव दोनों निर्माण नहीं हो पाते। जब धन का संचय किसी के हाथों में हो जाता है उसमें उद्दंडता, मस्ती, अहंकार बढ़ता है। इससे वह धन के बल पर लोगोंं को पीड़ित करने लग जाता है। और अर्थ का प्रभाव समाज में दिखने लग जाता है। इसी तरह से जब धन के अभाव के कारण समाज के किन्ही सदस्यों में या वर्गों में दीनता, लाचारी का भाव पैदा होता है। कहा गया है{{Citation needed}} : <blockquote>यौवनं धन सम्पत्ति प्रभुत्वमविवेकिता। एकैकमप्यनर्थाय किमु यत्र चतुष्ट्य ।।</blockquote><blockquote>अर्थ : यौवन, धन/सम्पत्ति, असीम अधिकार और अविवेक इन चारों में से कोई एक भी होने से अनर्थ हो जाता है। यदि चारों एक साथ हों तो भगवान जाने क्या होगा?</blockquote>लेकिन धन का संचय होनेपर जब दान की भावना से वह पुन: अभावग्रस्त लोगोंंमें वितरित हो जाता है, सड़क निर्माण, कुए या तालाबों का निर्माण, धर्मशालाओं का निर्माण आदि में व्यय होता है, तब धन का अनावश्यक संचय नहीं होता। धन का संचय न होने से अर्थ का प्रभाव नहीं होता। और उसका अभावग्रस्त लोगोंंमें वितरण हो जाने से धन का अभाव भी नहीं रहता।  
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जीवन का धार्मिक (भारतीय) प्रतिमान धर्माधिष्ठित है। अतः समृद्धि व्यवस्था की पुनर्प्रतिष्ठा के लिए धर्म के और शिक्षा क्षेत्र के जानकार लोगों को ही पहल करनी होगी। शासन व्यवस्था का भी इसमें सहयोग अनिवार्य है। लेकिन परिवर्तन का वातावरण निर्माण करना विद्वानों का काम होगा। यथावश्यक शासन की सहायता लेनी होगी। इस का विचार हमने [[Bharat's Social Paradigm (भारतीय समाज धारणा दृष्टि)|इस]] अध्याय में किया है। अतः यहाँ केवल मोटी मोटी बातों का विचार ही हम करेंगे। वर्तमान में जीवन का प्रतिमान अधार्मिक (अधार्मिक) है। इसमें कुटुम्ब व्यवस्था, ग्राम व्यवस्था, कौशल विधा याने जाति व्यवस्था ये व्यवस्थाएँ दुर्बल हो गईं हैं। और दुर्बल होती जा रहीं हैं। राष्ट्र की सभी व्यवस्थाओं के तंत्र पूर्णत: अधार्मिक (अधार्मिक) हैं। अतः हमें दो प्रकार के प्रयास करने होंगे:
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जीवन का धार्मिक (भारतीय) प्रतिमान धर्माधिष्ठित है। अतः समृद्धि व्यवस्था की पुनर्प्रतिष्ठा के लिए धर्म के और शिक्षा क्षेत्र के जानकार लोगोंं को ही पहल करनी होगी। शासन व्यवस्था का भी इसमें सहयोग अनिवार्य है। लेकिन परिवर्तन का वातावरण निर्माण करना विद्वानों का काम होगा। यथावश्यक शासन की सहायता लेनी होगी। इस का विचार हमने [[Bharat's Social Paradigm (भारतीय समाज धारणा दृष्टि)|इस]] अध्याय में किया है। अतः यहाँ केवल मोटी मोटी बातों का विचार ही हम करेंगे। वर्तमान में जीवन का प्रतिमान अधार्मिक (अधार्मिक) है। इसमें कुटुम्ब व्यवस्था, ग्राम व्यवस्था, कौशल विधा याने जाति व्यवस्था ये व्यवस्थाएँ दुर्बल हो गईं हैं। और दुर्बल होती जा रहीं हैं। राष्ट्र की सभी व्यवस्थाओं के तंत्र पूर्णत: अधार्मिक (अधार्मिक) हैं। अतः हमें दो प्रकार के प्रयास करने होंगे:
 
# कुटुम्ब व्यवस्था, ग्राम व्यवस्था, कौशल विधा याने जाति व्यवस्था व्यवस्थाओं के दोष दूर कर उनका शुद्धिकरण करना होगा। यह काम निम्न पद्धति से होगा:
 
# कुटुम्ब व्यवस्था, ग्राम व्यवस्था, कौशल विधा याने जाति व्यवस्था व्यवस्थाओं के दोष दूर कर उनका शुद्धिकरण करना होगा। यह काम निम्न पद्धति से होगा:
 
## राष्ट्र और राष्ट्र की इन प्रणालियों की श्रेष्ठ व्यवस्थाओं की सैद्धांतिक प्रस्तुति करनी होगी।
 
## राष्ट्र और राष्ट्र की इन प्रणालियों की श्रेष्ठ व्यवस्थाओं की सैद्धांतिक प्रस्तुति करनी होगी।

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