Line 1: |
Line 1: |
| {{One source|date=January 2019}} | | {{One source|date=January 2019}} |
− | '''सृष्टि निर्माण''' की भिन्न भिन्न मान्यताएँ भिन्न भिन्न समाजों में हैं। इन में कोई भी मान्यता या तो अधूरी हैं या फिर बुद्धियुक्त नहीं है। सेमेटिक मजहब मानते हैं कि जेहोवा या गॉड या अल्लाह ने पाँच दिन में अन्धेरा-उजाला, गीला-सूखा, वनस्पति और मानवेतर प्राणी सृष्टि का निर्माण किया। छठे दिन उसने आदम का निर्माण किया। तत्पश्चात आदम में से हव्वा का निर्माण किया और उनसे कहा कि यह पाँच दिन की बनाई हुई सृष्टि तुम्हारे उपभोग के लिए है। इस निर्माण का न तो कोई काल-मापन दिया है और न ही कारण। वर्तमान साइंटिस्ट मानते हैं कि एक अंडा था जो फटा और सृष्टि बनने लगी। इसमें भी कई प्रश्नों के उत्तर नहीं मिलते। इसलिए हम धार्मिक (धार्मिक) वेदों और उपनिषदों के चिंतन में प्रस्तुत मान्यता का यहाँ विचार करेंगे।<ref>जीवन का धार्मिक प्रतिमान-खंड १, अध्याय २, लेखक - दिलीप केलकर</ref> | + | '''सृष्टि निर्माण''' की भिन्न भिन्न मान्यताएँ भिन्न भिन्न समाजों में हैं। इन में कोई भी मान्यता या तो अधूरी हैं या फिर बुद्धियुक्त नहीं है। सेमेटिक मजहब मानते हैं कि जेहोवा या गॉड या अल्लाह ने पाँच दिन में अन्धेरा-उजाला, गीला-सूखा, वनस्पति और मानवेतर प्राणी सृष्टि का निर्माण किया। छठे दिन उसने आदम का निर्माण किया। तत्पश्चात आदम में से हव्वा का निर्माण किया और उनसे कहा कि यह पाँच दिन की बनाई हुई सृष्टि तुम्हारे उपभोग के लिए है। इस निर्माण का न तो कोई काल-मापन दिया है और न ही कारण। वर्तमान साइंटिस्ट मानते हैं कि एक अंडा था जो फटा और सृष्टि बनने लगी। इसमें भी कई प्रश्नों के उत्तर नहीं मिलते। अतः हम धार्मिक (धार्मिक) वेदों और उपनिषदों के चिंतन में प्रस्तुत मान्यता का यहाँ विचार करेंगे।<ref>जीवन का धार्मिक प्रतिमान-खंड १, अध्याय २, लेखक - दिलीप केलकर</ref> |
| | | |
| == सृष्टि निर्माण का प्रमाण == | | == सृष्टि निर्माण का प्रमाण == |
− | प्रमाण ३ प्रकार के होते हैं। '''प्रत्यक्ष, अनुमान और आप्तवचन या शास्त्र वचन'''। सृष्टि निर्माण के समय हममें से कोई भी नहीं था। किसी ने भी प्रत्यक्ष सृष्टि निर्माण होती नहीं देखी है। इसलिए प्रत्यक्ष प्रमाण नहीं मिल सकता। ऐसी स्थिति में अनुमान प्रमाण का भी प्रत्यक्ष प्रमाण जैसा ही महत्व होता है। अनुमान का आधार प्रत्यक्ष प्रमाण होना चाहिये। जैसे हम देखते और समझते भी हैं कि अपने आप कुछ नहीं होता। कुछ नहीं से ‘कुछ’ भी बन नहीं सकता। बिना प्रयोजन कोई कुछ नहीं बनाता। तो अनुमान यह बताता है कि सृष्टि यदि बनी है तो इसका बनानेवाला होना ही चाहिए। इसके निर्माण का कोई प्रयोजन भी होना चाहिए। यह यदि बनी है तो इसके बनाने के लिए ‘कुछ’ तो पहले से था। इससे कुछ प्रश्न उभरकर आते हैं। '''जैसे सृष्टि किसने निर्माण की है? इसका निर्माता कौन है? इसे किस ‘कुछ’ में से बनाया है? इसे क्यों बनाया है? इसके निर्माण का प्रयोजन क्या है?''' | + | प्रमाण ३ प्रकार के होते हैं। '''प्रत्यक्ष, अनुमान और आप्तवचन या शास्त्र वचन'''। सृष्टि निर्माण के समय हममें से कोई भी नहीं था। किसी ने भी प्रत्यक्ष सृष्टि निर्माण होती नहीं देखी है। अतः प्रत्यक्ष प्रमाण नहीं मिल सकता। ऐसी स्थिति में अनुमान प्रमाण का भी प्रत्यक्ष प्रमाण जैसा ही महत्व होता है। अनुमान का आधार प्रत्यक्ष प्रमाण होना चाहिये। जैसे हम देखते और समझते भी हैं कि अपने आप कुछ नहीं होता। कुछ नहीं से ‘कुछ’ भी बन नहीं सकता। बिना प्रयोजन कोई कुछ नहीं बनाता। तो अनुमान यह बताता है कि सृष्टि यदि बनी है तो इसका बनानेवाला होना ही चाहिए। इसके निर्माण का कोई प्रयोजन भी होना चाहिए। यह यदि बनी है तो इसके बनाने के लिए ‘कुछ’ तो पहले से था। इससे कुछ प्रश्न उभरकर आते हैं। '''जैसे सृष्टि किसने निर्माण की है? इसका निर्माता कौन है? इसे किस ‘कुछ’ में से बनाया है? इसे क्यों बनाया है? इसके निर्माण का प्रयोजन क्या है?''' |
| | | |
| इन सब प्रश्नों का उत्तर धार्मिक (धार्मिक) उपनिषदिक चिंतन में मिलता है। | | इन सब प्रश्नों का उत्तर धार्मिक (धार्मिक) उपनिषदिक चिंतन में मिलता है। |
Line 9: |
Line 9: |
| कहा है - प्रारम्भ में केवल परमात्मा ही था। भूमिती में बिन्दु के अस्तित्व का कोई मापन नहीं हो सकता फिर भी उसका अस्तित्व मान लिया जाता है। इस के माने बिना तो भूमिती का आधार ही नष्ट हो जाता है। इसी तरह सृष्टि को जानना हो तो परमात्मा के स्वरूप को समझना और मानना होगा। | | कहा है - प्रारम्भ में केवल परमात्मा ही था। भूमिती में बिन्दु के अस्तित्व का कोई मापन नहीं हो सकता फिर भी उसका अस्तित्व मान लिया जाता है। इस के माने बिना तो भूमिती का आधार ही नष्ट हो जाता है। इसी तरह सृष्टि को जानना हो तो परमात्मा के स्वरूप को समझना और मानना होगा। |
| | | |
− | सृष्टि निर्माण का प्रयोजन भी बताया है – '''‘एकाकी न रमते सो कामयत’''' याने अकेले मन नहीं रमता इसलिए इच्छा हुई। | + | सृष्टि निर्माण का प्रयोजन भी बताया है – '''‘एकाकी न रमते सो कामयत’''' याने अकेले मन नहीं रमता अतः इच्छा हुई। |
| | | |
| कैसे बनाया - एकोहं बहुस्याम:। अपनी इच्छा और ताप से अर्जित शक्ति से एक का अनेक हो गया। | | कैसे बनाया - एकोहं बहुस्याम:। अपनी इच्छा और ताप से अर्जित शक्ति से एक का अनेक हो गया। |
Line 20: |
Line 20: |
| | | |
| == मान्यताओं की बुद्धियुक्तता == | | == मान्यताओं की बुद्धियुक्तता == |
− | किसी भी विषय का प्रारम्भ तो कुछ मान्यताओं से ही होता है। इसलिए मान्यता तो सभी समाजों की होती हैं। मनुष्य एक बुद्धिशील जीव है। इसलिए मनुष्य को जो मान्यताएँ बुद्धियुक्त लगें, उन्हें मानना चाहिए। विश्व निर्माण की धार्मिक (धार्मिक) मान्यता को स्वीकार करने पर प्रश्नों के बुद्धियुक्त उत्तर प्राप्त हो जाते हैं। इसलिए इन मान्यताओं पर विश्वास रखना तथा इन्हें मानकर व्यवहार करना अधिक उचित है। धार्मिक (धार्मिक) विज्ञान यह मानता है कि सृष्टि की रचना की गयी है। यह करने वाला परमात्मा है। जिस प्रकार से मकडी अपने शरीर से ही अपने जाल के तंतु निर्माण कर उसी में निवास करती है, उसी तरह से इस परमात्मा ने सृष्टि को अपने में से ही बनाया है और उसी में वास करा रहा है। इसलिए चराचर सृष्टि के कण कण में परमात्मा है। | + | किसी भी विषय का प्रारम्भ तो कुछ मान्यताओं से ही होता है। अतः मान्यता तो सभी समाजों की होती हैं। मनुष्य एक बुद्धिशील जीव है। अतः मनुष्य को जो मान्यताएँ बुद्धियुक्त लगें, उन्हें मानना चाहिए। विश्व निर्माण की धार्मिक (धार्मिक) मान्यता को स्वीकार करने पर प्रश्नों के बुद्धियुक्त उत्तर प्राप्त हो जाते हैं। अतः इन मान्यताओं पर विश्वास रखना तथा इन्हें मानकर व्यवहार करना अधिक उचित है। धार्मिक (धार्मिक) विज्ञान यह मानता है कि सृष्टि की रचना की गयी है। यह करने वाला परमात्मा है। जिस प्रकार से मकडी अपने शरीर से ही अपने जाल के तंतु निर्माण कर उसी में निवास करती है, उसी तरह से इस परमात्मा ने सृष्टि को अपने में से ही बनाया है और उसी में वास करा रहा है। अतः चराचर सृष्टि के कण कण में परमात्मा है। |
| | | |
| == जीवन का आधार == | | == जीवन का आधार == |
Line 39: |
Line 39: |
| धार्मिक (धार्मिक) सृष्टि निर्माण की मान्यता में कई प्रकार हैं। इन में द्वैत, अद्वैत, द्वैताद्वैत, विशिष्टाद्वैत, त्रैत आदि हैं। हम यहाँ मुख्यत: वेदान्त की मान्यता का विचार करेंगे। वेद स्वत: प्रमाण हैं। वेदों के ऋचाओं के मोटे मोटे तीन हिस्से बनाए जा सकते हैं। एक है उपासना काण्ड दूसरा है कर्मकांड और तीसरा है ज्ञान काण्ड। ज्ञानकाण्ड की अधिक विस्तार से प्रस्तुति उपनिषदों में की गई है। | | धार्मिक (धार्मिक) सृष्टि निर्माण की मान्यता में कई प्रकार हैं। इन में द्वैत, अद्वैत, द्वैताद्वैत, विशिष्टाद्वैत, त्रैत आदि हैं। हम यहाँ मुख्यत: वेदान्त की मान्यता का विचार करेंगे। वेद स्वत: प्रमाण हैं। वेदों के ऋचाओं के मोटे मोटे तीन हिस्से बनाए जा सकते हैं। एक है उपासना काण्ड दूसरा है कर्मकांड और तीसरा है ज्ञान काण्ड। ज्ञानकाण्ड की अधिक विस्तार से प्रस्तुति उपनिषदों में की गई है। |
| | | |
− | छान्दोग्य उपनिषद के छठे अध्याय के दूसरे खंड में बताया है कि सृष्टि निर्माण से पूर्व केवल परमात्मा था। उसे अकेलापन खलने लगा। उसने विचार किया: एकाकी न रमते सो कामयत्। अकेले मन नहीं रमता। इसलिए इच्छा हुई। एको अहं बहुस्याम:। एक हूँ, अनेक हो जाऊँ। | + | छान्दोग्य उपनिषद के छठे अध्याय के दूसरे खंड में बताया है कि सृष्टि निर्माण से पूर्व केवल परमात्मा था। उसे अकेलापन खलने लगा। उसने विचार किया: एकाकी न रमते सो कामयत्। अकेले मन नहीं रमता। अतः इच्छा हुई। एको अहं बहुस्याम:। एक हूँ, अनेक हो जाऊँ। |
| | | |
| '''वेदों''' में सृष्टि निर्माण के विषय में लिखा है<ref>ऋग्वेद 10-129-1</ref> <ref>ऋग्वेद 10-129-3</ref>: | | '''वेदों''' में सृष्टि निर्माण के विषय में लिखा है<ref>ऋग्वेद 10-129-1</ref> <ref>ऋग्वेद 10-129-3</ref>: |
Line 47: |
Line 47: |
| तम आसीत्तमसा$गूळहमग्रे प्रकेतम् सलीलं सर्वम् इदम् ॥ 10-129-3॥ | | तम आसीत्तमसा$गूळहमग्रे प्रकेतम् सलीलं सर्वम् इदम् ॥ 10-129-3॥ |
| | | |
− | अर्थ : सृष्टि निर्माण से पहले न कुछ स्वरूपवान था और न ही अस्वरूपवान था। न व्योम था और न उससे परे कुछ था। एक अन्धकार था। केवल अन्धकार था। उस अन्धकार में निश्चल, गंभीर, जिसे जानना संभव नहीं है ऐसा तरल पदार्थ सर्वत्र भरा हुआ था। इस तरल पदार्थ का निर्माण सृष्टि निर्माण की प्रक्रिया का प्रारम्भिक कार्य था। इस तरल पदार्थ में कोई हलचल नहीं थी। इस तरल पदार्थ के परमाणुओं में त्रिगुण साम्यावस्था में थे। इसलिए इस अवस्था को साम्यावस्था कहा गया है। | + | अर्थ : सृष्टि निर्माण से पहले न कुछ स्वरूपवान था और न ही अस्वरूपवान था। न व्योम था और न उससे परे कुछ था। एक अन्धकार था। केवल अन्धकार था। उस अन्धकार में निश्चल, गंभीर, जिसे जानना संभव नहीं है ऐसा तरल पदार्थ सर्वत्र भरा हुआ था। इस तरल पदार्थ का निर्माण सृष्टि निर्माण की प्रक्रिया का प्रारम्भिक कार्य था। इस तरल पदार्थ में कोई हलचल नहीं थी। इस तरल पदार्थ के परमाणुओं में त्रिगुण साम्यावस्था में थे। अतः इस अवस्था को साम्यावस्था कहा गया है। |
| | | |
| '''सांख्य दर्शन''' में कहा है<ref>सांख्य 1-61</ref> <ref>सांख्य 1-123</ref><ref>सांख्य 1-127</ref>: | | '''सांख्य दर्शन''' में कहा है<ref>सांख्य 1-61</ref> <ref>सांख्य 1-123</ref><ref>सांख्य 1-127</ref>: |
Line 61: |
Line 61: |
| अर्थ : यह तीन गुण समान, परस्पर विरोधी और अत्यंत लघु थे। इन त्रिगुणों के बहिर्मुख होने के कारण इन कणों याने परमाणुओं में आकर्षण विकर्षण की प्रक्रिया आरम्भ हुई। इनमें दो आपस में आकर्षण और विकर्षण करते हैं। तीसरा विषाद गुणवाला याने अक्रिय (न्यूट्रल) है। इससे हलचल उत्पन्न हुई। इन कणों के अलग अलग मात्रा में एक दूसरे से जुड़ने के कारण परिमंडल निर्माण हुए। इन परिमंडलों की विविधता और आकारों के अनुसार सृष्टि के भिन्न भिन्न अस्तित्व निर्माण होने लगे। | | अर्थ : यह तीन गुण समान, परस्पर विरोधी और अत्यंत लघु थे। इन त्रिगुणों के बहिर्मुख होने के कारण इन कणों याने परमाणुओं में आकर्षण विकर्षण की प्रक्रिया आरम्भ हुई। इनमें दो आपस में आकर्षण और विकर्षण करते हैं। तीसरा विषाद गुणवाला याने अक्रिय (न्यूट्रल) है। इससे हलचल उत्पन्न हुई। इन कणों के अलग अलग मात्रा में एक दूसरे से जुड़ने के कारण परिमंडल निर्माण हुए। इन परिमंडलों की विविधता और आकारों के अनुसार सृष्टि के भिन्न भिन्न अस्तित्व निर्माण होने लगे। |
| | | |
− | '''श्रीमद्भगवद्गीता''' वेदों का सार है। इसलिए गीता के सन्दर्भ लेना उचित होगा। | + | '''श्रीमद्भगवद्गीता''' वेदों का सार है। अतः गीता के सन्दर्भ लेना उचित होगा। |
| | | |
| श्रीमद्भगवद्गीता के अध्याय ९ श्लोक ७ में कहा है<ref>श्रीमद्भगवद्गीता 9-7</ref>:<blockquote>सर्वभूतानि कौन्तेय प्रकृतिं यान्ति मामिकाम्। कल्पक्षये पुनस्तानि कल्पादौ विसृजाम्यहम्॥ (9-7) ॥ </blockquote>अर्थ : हे अर्जुन ! कल्प के अंत में सभी भूतमात्र याने सभी अस्तित्व मेरी प्रकृति में विलीन होते हैं और कल्प के प्रारम्भ में मैं उन्हें फिर उत्पन्न करता हूँ। | | श्रीमद्भगवद्गीता के अध्याय ९ श्लोक ७ में कहा है<ref>श्रीमद्भगवद्गीता 9-7</ref>:<blockquote>सर्वभूतानि कौन्तेय प्रकृतिं यान्ति मामिकाम्। कल्पक्षये पुनस्तानि कल्पादौ विसृजाम्यहम्॥ (9-7) ॥ </blockquote>अर्थ : हे अर्जुन ! कल्प के अंत में सभी भूतमात्र याने सभी अस्तित्व मेरी प्रकृति में विलीन होते हैं और कल्प के प्रारम्भ में मैं उन्हें फिर उत्पन्न करता हूँ। |
Line 76: |
Line 76: |
| | | |
| == भिन्न भिन्न अस्तित्वों के निर्माण का क्रम == | | == भिन्न भिन्न अस्तित्वों के निर्माण का क्रम == |
− | जड़ के बिना चेतन या जीव जी नहीं सकता। इसलिए पहले जड़ फिर चेतन। इसमें सभी एकमत हैं। जीवन के निर्माण के क्रम का अनुमान हम अवतार कल्पना से लगा सकते हैं। चेतन में भी सब से पहले निम्न चेतना के जीव निर्माण हुए। इसीलिये मत्स्यावतार, कूर्मावतार, वराहावतार से लेकर बुद्धावतार तक अवतारों में सृष्टि के निर्माण और विकास का क्रम ही समझ में आता है। | + | जड़ के बिना चेतन या जीव जी नहीं सकता। अतः पहले जड़ फिर चेतन। इसमें सभी एकमत हैं। जीवन के निर्माण के क्रम का अनुमान हम अवतार कल्पना से लगा सकते हैं। चेतन में भी सब से पहले निम्न चेतना के जीव निर्माण हुए। इसीलिये मत्स्यावतार, कूर्मावतार, वराहावतार से लेकर बुद्धावतार तक अवतारों में सृष्टि के निर्माण और विकास का क्रम ही समझ में आता है। |
| | | |
| चार प्रकार के जीव हैं : उद्भिज, स्वेदज, अंडज और योनिज। उद्भिज से जीव निर्माण का प्रारम्भ हुआ। योनिज सबसे अंत में आये। प्रारंभ में सारी जीव सृष्टि अयोनिज ही थी। अन्न और सूर्य के तेज से भिन्न भिन्न प्रकार के शुक्राणू और डिंब बने। इन से प्रारंभ में '''यत् पिंडे तत् ब्रह्मांडे''' के न्याय से पृथ्वी के गर्भ से ही (जैसे आज टेस्ट टयूब में बनते हैं) अयोनिज मानव और वनस्पतियों सहित अन्य प्राणियों का निर्माण होता रहा होगा। आगे कुछ काल तक अयोनिज और योनिज ऐसे दोनों प्रकार के मानव और वनस्पतियों सहित अन्य प्राणि बनते रहे होंगे। धीरे धीरे (१४ में से सातवें मन्वंतर में) पृथ्वी की गर्भ धारणा शक्ति कम हो जाने के कारण (जैसे मानव स्त्री ४५-५० वर्ष की आयु होने के बाद प्रसव योग्य नहीं रहती) पृथ्वी द्वारा अयोनिज निर्माण बंद हो गया। इसके बाद आज जैसा दिखाई देता है केवल योनिज प्राणि बनने लगे। कुछ काल तक अयोनिज और योनिज ऐसे दोनों प्रकार से प्राणी बनाते रहे होंगे । | | चार प्रकार के जीव हैं : उद्भिज, स्वेदज, अंडज और योनिज। उद्भिज से जीव निर्माण का प्रारम्भ हुआ। योनिज सबसे अंत में आये। प्रारंभ में सारी जीव सृष्टि अयोनिज ही थी। अन्न और सूर्य के तेज से भिन्न भिन्न प्रकार के शुक्राणू और डिंब बने। इन से प्रारंभ में '''यत् पिंडे तत् ब्रह्मांडे''' के न्याय से पृथ्वी के गर्भ से ही (जैसे आज टेस्ट टयूब में बनते हैं) अयोनिज मानव और वनस्पतियों सहित अन्य प्राणियों का निर्माण होता रहा होगा। आगे कुछ काल तक अयोनिज और योनिज ऐसे दोनों प्रकार के मानव और वनस्पतियों सहित अन्य प्राणि बनते रहे होंगे। धीरे धीरे (१४ में से सातवें मन्वंतर में) पृथ्वी की गर्भ धारणा शक्ति कम हो जाने के कारण (जैसे मानव स्त्री ४५-५० वर्ष की आयु होने के बाद प्रसव योग्य नहीं रहती) पृथ्वी द्वारा अयोनिज निर्माण बंद हो गया। इसके बाद आज जैसा दिखाई देता है केवल योनिज प्राणि बनने लगे। कुछ काल तक अयोनिज और योनिज ऐसे दोनों प्रकार से प्राणी बनाते रहे होंगे । |
Line 85: |
Line 85: |
| | | |
| == जड़ और जीव याने चेतन == | | == जड़ और जीव याने चेतन == |
− | सृष्टि में अनगिनत पदार्थ हैं। परमात्मा ने अपने में से ही इनका निर्माण किया है। इसलिए यह सभी परमात्मा की अभिव्यक्तियाँ हैं। ये पदार्थ दो प्रकार के घटकों से बने हैं। एक है आत्म तत्व और दूसरा है अष्टधा प्रकृति। मूलत: अष्टधा प्रकृति भी परम चैतन्यवान परमात्म तत्व से ही बनी है। लेकिन यह जड़ है। जड़ से मतलब है की वह अक्रिय है। जब तक कोई चेतन इसमें परिवर्तन न करे इसमें परिवर्तन नहीं होता। जैसे एक पत्थर जहाँ रखा हुआ है वहीं पडा रहेगा। जब कोई चेतन तत्व उसे हिलाएगा तब ही वह हिलेगा। इसी प्रकार से जो चेतन तत्व है वह अष्टधा प्रकृति के बिना अभिव्यक्त नहीं हो सकता। चेतन तत्व यह अष्टधा प्रकृति के साथ संयोग करने के लिए नियोजित परमात्मा का एक अंश ही है। | + | सृष्टि में अनगिनत पदार्थ हैं। परमात्मा ने अपने में से ही इनका निर्माण किया है। अतः यह सभी परमात्मा की अभिव्यक्तियाँ हैं। ये पदार्थ दो प्रकार के घटकों से बने हैं। एक है आत्म तत्व और दूसरा है अष्टधा प्रकृति। मूलत: अष्टधा प्रकृति भी परम चैतन्यवान परमात्म तत्व से ही बनी है। लेकिन यह जड़ है। जड़ से मतलब है की वह अक्रिय है। जब तक कोई चेतन इसमें परिवर्तन न करे इसमें परिवर्तन नहीं होता। जैसे एक पत्थर जहाँ रखा हुआ है वहीं पडा रहेगा। जब कोई चेतन तत्व उसे हिलाएगा तब ही वह हिलेगा। इसी प्रकार से जो चेतन तत्व है वह अष्टधा प्रकृति के बिना अभिव्यक्त नहीं हो सकता। चेतन तत्व यह अष्टधा प्रकृति के साथ संयोग करने के लिए नियोजित परमात्मा का एक अंश ही है। |
| | | |
| श्रीमद्भगवद्गीता में में कहा है<ref>श्रीमद्भगवद्गीता 15-7</ref>:<blockquote>ममैवांशो जीवलोके जीवभूत: सनातन:॥ 15-7 ॥</blockquote>जड की व्याख्या ब्रह्मसूत्र में दी गई है<ref>ब्रह्मसूत्र 2-2-4</ref>: <blockquote>व्यतिरेकानवस्थितेश्च अनपेक्षत्वात् ॥ 2-2-4 ॥</blockquote>अर्थ : जड पदार्थ अपनी स्थिति नहीं बदलता जब तक कोई अन्य शक्ति उसपर प्रभाव न डाले। | | श्रीमद्भगवद्गीता में में कहा है<ref>श्रीमद्भगवद्गीता 15-7</ref>:<blockquote>ममैवांशो जीवलोके जीवभूत: सनातन:॥ 15-7 ॥</blockquote>जड की व्याख्या ब्रह्मसूत्र में दी गई है<ref>ब्रह्मसूत्र 2-2-4</ref>: <blockquote>व्यतिरेकानवस्थितेश्च अनपेक्षत्वात् ॥ 2-2-4 ॥</blockquote>अर्थ : जड पदार्थ अपनी स्थिति नहीं बदलता जब तक कोई अन्य शक्ति उसपर प्रभाव न डाले। |
Line 110: |
Line 110: |
| | | |
| == सृष्टि निर्माण की अधार्मिक (अधार्मिक) मान्यताएँ == | | == सृष्टि निर्माण की अधार्मिक (अधार्मिक) मान्यताएँ == |
− | यहाँ वर्तमान यूरो अमरीकी साईन्टिस्टों द्वारा प्रस्तुत विकासवाद की बुद्धि-युक्तता समझना भी प्रासंगिक होगा। सेमेटिक मजहबों की याने यहूदी, ईसाई और मुस्लिम समाजों की सृष्टि निर्माण की मान्यताओं को वर्तमान साईंटिस्ट समुदाय ने अयुक्तिसंगत साबित किया है। इसलिए अभी हम केवल वर्तमान साईंटिस्ट समुदाय की मान्यता का विचार करेंगे। | + | यहाँ वर्तमान यूरो अमरीकी साईन्टिस्टों द्वारा प्रस्तुत विकासवाद की बुद्धि-युक्तता समझना भी प्रासंगिक होगा। सेमेटिक मजहबों की याने यहूदी, ईसाई और मुस्लिम समाजों की सृष्टि निर्माण की मान्यताओं को वर्तमान साईंटिस्ट समुदाय ने अयुक्तिसंगत साबित किया है। अतः अभी हम केवल वर्तमान साईंटिस्ट समुदाय की मान्यता का विचार करेंगे। |
| | | |
| सृष्टि निर्माण के तीन चरण हो सकते हैं। पहला है जड़ सृष्टि का निर्माण, दूसरा है प्रथम जीव का निर्माण, तीसरा है इस प्रथम जीव अमीबा से प्राणियों में सबसे अधिक विकसित मानव का निर्माण। इन तीनों से सम्बंधित साईन्टिस्टों की मान्यताएँ असिद्ध हैं। इन्हें आज भी पश्चिम के ही कई वैज्ञानिक परिकल्पना या हायपोथेसिस ही मानते हैं, सिद्धांत नहीं मानते। विकासवाद की प्रस्तुति को ‘डार्विन की थियरी’ ही माना जाता है, सिद्धांत नहीं। | | सृष्टि निर्माण के तीन चरण हो सकते हैं। पहला है जड़ सृष्टि का निर्माण, दूसरा है प्रथम जीव का निर्माण, तीसरा है इस प्रथम जीव अमीबा से प्राणियों में सबसे अधिक विकसित मानव का निर्माण। इन तीनों से सम्बंधित साईन्टिस्टों की मान्यताएँ असिद्ध हैं। इन्हें आज भी पश्चिम के ही कई वैज्ञानिक परिकल्पना या हायपोथेसिस ही मानते हैं, सिद्धांत नहीं मानते। विकासवाद की प्रस्तुति को ‘डार्विन की थियरी’ ही माना जाता है, सिद्धांत नहीं। |