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१८. वयोवृद्ध, कर्तृत्ववृद्ध, अनुभववृद्ध और ज्ञानवृद्ध के प्रति विनयशील होना, उनकी सेवा करना और उनके कृपापात्र बनकर उनसे सीखना छोटी आयु से ही शुरू हो जाना चाहिये । यदि अपने मातापिता और शिक्षकों से यह नहीं सीखे हैं तो होश सम्हालते ही सीखना शुरू करना चाहिये ।
 
१८. वयोवृद्ध, कर्तृत्ववृद्ध, अनुभववृद्ध और ज्ञानवृद्ध के प्रति विनयशील होना, उनकी सेवा करना और उनके कृपापात्र बनकर उनसे सीखना छोटी आयु से ही शुरू हो जाना चाहिये । यदि अपने मातापिता और शिक्षकों से यह नहीं सीखे हैं तो होश सम्हालते ही सीखना शुरू करना चाहिये ।
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१९. हमारा कोई न कोई जीवनकार्य बनना चाहिये । अथर्जिन हेतु किया जाने वाला व्यवसाय भी जीवनकार्य बन सकता है । जिस कार्य में स्वार्थ केन्द्र में नहीं है वही जीवनकार्य होता है । ऐसे जीवनकार्य के प्रति निष्ठा नहीं रही तो वह जीवनकार्य नहीं कहा जाता ।
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१९. हमारा कोई न कोई जीवनकार्य बनना चाहिये । अर्थार्जन हेतु किया जाने वाला व्यवसाय भी जीवनकार्य बन सकता है । जिस कार्य में स्वार्थ केन्द्र में नहीं है वही जीवनकार्य होता है । ऐसे जीवनकार्य के प्रति निष्ठा नहीं रही तो वह जीवनकार्य नहीं कहा जाता ।
    
२०. हमारे ध्यान में आयेगा कि धार्मिक समाजव्यवस्था में प्रत्येक व्यवसाय को जीवनकार्य का श्रेष्ठ दर्जा ही प्राप्त था । उसे परमात्मा की अर्चना ही माना जाता था । उससे मोक्ष प्राप्त होने की सम्भावना थी । इसलिये उसे छोटा या क्षुद्र नहीं माना जाता था और किसी की उसे छोडने की वृत्ति नहीं बनती थी । भारत की मनीषा की अध्यात्मनिष्ठ व्यवहारबुद्धि का यह विलक्षण उदाहरण है ।
 
२०. हमारे ध्यान में आयेगा कि धार्मिक समाजव्यवस्था में प्रत्येक व्यवसाय को जीवनकार्य का श्रेष्ठ दर्जा ही प्राप्त था । उसे परमात्मा की अर्चना ही माना जाता था । उससे मोक्ष प्राप्त होने की सम्भावना थी । इसलिये उसे छोटा या क्षुद्र नहीं माना जाता था और किसी की उसे छोडने की वृत्ति नहीं बनती थी । भारत की मनीषा की अध्यात्मनिष्ठ व्यवहारबुद्धि का यह विलक्षण उदाहरण है ।
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३८. जीवन के किसी पडाव पर नौकरी करना अनिवार्य बन गया है तो एक और अनिवार्यता समाप्त करना और दूसरी और नौकरी को सेवा में परिवर्तित करना चाहिये । यद्यपि यह अत्यन्त कठिन काम है परन्तु दिशा तो यही है । यह आचरण व्यक्तिगत है परन्तु उसका प्रभाव सार्वत्रिक है ।
 
३८. जीवन के किसी पडाव पर नौकरी करना अनिवार्य बन गया है तो एक और अनिवार्यता समाप्त करना और दूसरी और नौकरी को सेवा में परिवर्तित करना चाहिये । यद्यपि यह अत्यन्त कठिन काम है परन्तु दिशा तो यही है । यह आचरण व्यक्तिगत है परन्तु उसका प्रभाव सार्वत्रिक है ।
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३९. अथर्जिन हेतु नौकरी नहीं करने का संकल्प यदि शिक्षकों और मातापिता के द्वारा हुई शिक्षा से नहीं बना है तो जबसे हमारा स्वतन्त्र विचार शुरू हुआ है तबसे बनना चाहिये । अथर्जिन प्रारम्भ होने तक उसकी तैयारी करने में हमारी बुद्धि और शक्ति का विनियोग होना चाहिये ।
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३९. अर्थार्जन हेतु नौकरी नहीं करने का संकल्प यदि शिक्षकों और मातापिता के द्वारा हुई शिक्षा से नहीं बना है तो जबसे हमारा स्वतन्त्र विचार शुरू हुआ है तबसे बनना चाहिये । अर्थार्जन प्रारम्भ होने तक उसकी तैयारी करने में हमारी बुद्धि और शक्ति का विनियोग होना चाहिये ।
    
४०. निष्ठा, सेवा, श्रद्धा और विश्वास के गुण अत्यन्त परिश्रमपूर्वक विकसित करना चाहिये । प्रथम इस गुर्णों का उदय हमारे अन्दर होगा और उसके बाद हम अपने में दूसरों की निष्ठा आदि जाग्रत कर सकेंगे ।
 
४०. निष्ठा, सेवा, श्रद्धा और विश्वास के गुण अत्यन्त परिश्रमपूर्वक विकसित करना चाहिये । प्रथम इस गुर्णों का उदय हमारे अन्दर होगा और उसके बाद हम अपने में दूसरों की निष्ठा आदि जाग्रत कर सकेंगे ।

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