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२०. पश्चिम को हमसे यदि सीखना है तो यह सीखना है। पश्चिम को प्रतीति करवानी चाहिये कि इनके बिना वह कितना अधूरा है, कैसी मूल्यवान बातों से वह वंचित है। इस योग्यता को प्राप्त करने से पूर्व भारत को स्वयं इन्हें अपनाने का पुरुषार्थ करना है। तभी भारत भारत बन सकता है। <blockquote>भवानीशङ्करौ वन्दे श्रद्धा विश्वासरूपिणौ । </blockquote><blockquote>याभ्यां विना न पश्यन्ति सिद्धाः स्वान्तस्थ मीश्वरम् ।।</blockquote>जिनके अभाव में सिद्ध अपने अन्तःकरण में स्थित ईश्वर को भी देख नहीं सकते ऐसे श्रद्धा और विश्वास रूपी भवानी और शंकर को मैं प्रणाम करता हूँ।<blockquote>सद्धिस्तु लीलया प्रोक्तं शिलालिखितमक्षरम् ।</blockquote><blockquote>असद्भिः शपथेनापि जले लिखितमक्षरम् ।।</blockquote>सज्जनों ने हँसी मजाक में कहा हुआ भी शिलालेख समान होता है, दुर्जनों ने शपथ लेकर कहा हुआ भी जल पर लिखे अक्षरों के समान होता है।<blockquote>मनस्येकं वचस्येकं कर्मस्येकं महात्मनाम् । </blockquote><blockquote>मनस्यन्यद् वचस्यन्यत् कर्मस्यन्यद् दुरात्मनाम् ।।</blockquote>मन में एक, वाणी में वही और कृति में वही होने वाले महात्मा होते हैं, मन में एक, वाणी में दूसरा और कृति में तीसरा है ऐसे लोग दरात्मा होते हैं।
 
२०. पश्चिम को हमसे यदि सीखना है तो यह सीखना है। पश्चिम को प्रतीति करवानी चाहिये कि इनके बिना वह कितना अधूरा है, कैसी मूल्यवान बातों से वह वंचित है। इस योग्यता को प्राप्त करने से पूर्व भारत को स्वयं इन्हें अपनाने का पुरुषार्थ करना है। तभी भारत भारत बन सकता है। <blockquote>भवानीशङ्करौ वन्दे श्रद्धा विश्वासरूपिणौ । </blockquote><blockquote>याभ्यां विना न पश्यन्ति सिद्धाः स्वान्तस्थ मीश्वरम् ।।</blockquote>जिनके अभाव में सिद्ध अपने अन्तःकरण में स्थित ईश्वर को भी देख नहीं सकते ऐसे श्रद्धा और विश्वास रूपी भवानी और शंकर को मैं प्रणाम करता हूँ।<blockquote>सद्धिस्तु लीलया प्रोक्तं शिलालिखितमक्षरम् ।</blockquote><blockquote>असद्भिः शपथेनापि जले लिखितमक्षरम् ।।</blockquote>सज्जनों ने हँसी मजाक में कहा हुआ भी शिलालेख समान होता है, दुर्जनों ने शपथ लेकर कहा हुआ भी जल पर लिखे अक्षरों के समान होता है।<blockquote>मनस्येकं वचस्येकं कर्मस्येकं महात्मनाम् । </blockquote><blockquote>मनस्यन्यद् वचस्यन्यत् कर्मस्यन्यद् दुरात्मनाम् ।।</blockquote>मन में एक, वाणी में वही और कृति में वही होने वाले महात्मा होते हैं, मन में एक, वाणी में दूसरा और कृति में तीसरा है ऐसे लोग दरात्मा होते हैं।
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==== ८. प्राणशक्ति का अभाव ====
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# भारत का एक बौद्धिक व्यक्ति अपने भाषण अथवा लेख का प्रारम्भ करता है, 'भारत जैसे गरीब देश में...' अथवा 'भारत एक विकासशील देश है...' अथवा 'भारत में जनसंख्या जब एक विकट समस्या बनी है... ।' अर्थात् बौद्धिकों के लिये भारत की यह पहचान बनी है। बौद्धिकों से उतरते उतरते यह सामान्य जन तक पहुँचती है और वह भी यही बोलने लगता है।
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# हम ऐसे छोटे हैं, पिछडे हैं, गये बीते हैं तो फिर हम क्या कर सकते हैं ? हम विकसित नहीं हो सकते,  , हम नम्बर वन नहीं हो सकते । हम विज्ञान के क्षेत्र में सिद्धि हासिल नहीं कर सकते ।
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# ऐसा भाव दो कारणों से होता है। एक होता है हीनता बोध और दूसरा होता है प्राणशक्ति का अभाव । भारत में दोनों कारण उपस्थित हैं। हम भारतीय हीनताबोध से भी ग्रस्त हैं और प्राणशक्ति के अभाव से भी पीडित हैं। हीनताबोध से उबरने की चर्चा हमने पूर्व में की है। प्राणशक्ति की क्षीणता कैसे दूर करें इसका विचार हमें करना है ।
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# प्राणशक्ति का प्रथम भौतिक आधार शुद्ध वायु और पौष्टिक आहार है । हमें देश में शुद्ध वायु और पौष्टिक आहार की योजना करनी होगी। विडम्बना यह है कि पौष्टिक आहार की बात आते ही हमें सरकारी प्राथमिक विद्यालयों में दिये जानेवाले मध्याह्न भोजन की, कैदखानों में कैदियों को दिये जाने वाले आहार की, अनाथालयों में दिये जानेवाले आहार की याद आती है परन्तु आर्थिक दृष्टि से सम्पन्न घरों में मध्यम वर्गीय परिवारों में, होटलों में, ठेलों पर जो कचरे जैसा आहार पैसे खर्च करके खाया और खिलाया जाता है उसका स्मरण हमें नहीं आता।
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# वास्तव में इसमें सुधार की बहुत आवश्यकता है । इस सम्बन्ध में शिक्षा और प्रबोधन, विधि और निषेध, नियमन और नियन्त्रण की आवश्यकता है। परन्तु सर्वाधिक आवश्यकता भारतीय आहारशास्त्र के स्वीकार की है। आज पश्चिमी आहारशास्त्र का अवलम्बन लेकर हमने अपना स्वास्थ्य खराब कर लिया है।
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# आहार से प्राणों का पोषण होता है। जिस पश्चिम के पास प्राणिक ऊर्जा की संकल्पना तक नहीं है, वाइटेलिटी को जो भौतिक ही मानता है उसमें प्राणशक्ति विकास की संकल्पना भी कैसे होगी ? भारत ने प्राणशक्ति का विकास कर ऐसी आहारपद्धति का विकास करना होगा।
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# ७. प्राणशक्ति के विकास के लिये शुद्ध वायु की आवश्यकता है। रसायणों से अशुद्ध हुई वायु हमारे लिये बहुत नुकसानकारक है। वाहन, कारखाने, प्लास्टिक और रसायण हमें जैविक स्तर पर बर्बाद कर रहे हैं यह समझने के लिये बहुत कुशाग्र बुद्धि की आवश्यकता नहीं है।
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# प्राणशक्ति के विकास के लिये प्राणायाम उतना ही आवश्यक है। श्वसन की पद्धति भी ठीक करने की आवश्यकता है । भरपूर खेलना, व्यायाम करना, श्रम करना, पसीना नितारना, खले दिल से हँसना आवश्यक है। यह व्यक्तियों के लिये तो है ही देश के लिये भी आवश्यक है।
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# रात्रि में उचित समय पर उचित पद्धति से पर्याप्त नींद लेना और प्रातःकाल ब्राह्ममुहूर्त में जगना भी प्राणशक्ति के विकास के लिये आवश्यक है । कितनी छोटी छोटी बातों का हमने त्याग किया है और उसका कितना खामियाजा भुगत रहे हैं इसका हमें लेश मात्र ज्ञान नहीं है।
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# ये तो शारीरिक स्तर की भौतिक बातें हई। परन्तु इनके साथ हमें अपने इतिहास को जानना चाहिये, अपने पूर्वजों को जानना चाहिये, अपने महापुरुषों को जानना चाहिये और अपने आपको गौरवान्वित अनुभव करना चाहिये।
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# हमारे पूर्वज विश्व के सभी देशों में गये हैं और जहाँ गये वहाँ के लोगों का भला किया है। हम उनके सीधे वारिस हैं। हम क्यों ऐसा नहीं कर सकते ? हममें क्या कमी है ? हम जहाँ जायेंगे वहाँ अपने साथ शुभभावना लेकर जायेंगे और जीतेंगे। ऐसी भावना का विकास करना चाहिये ।
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# हमारा इतिहास यदि इतना समृद्ध है, ज्ञानविज्ञान के क्षेत्र में हमने यदि इतनी सिद्धि प्राप्त की है तो हम विजयी ही होंगे ऐसा विश्वास हमें जाग्रत करना है। हम प्रयास करें और यशस्वी न हों ऐसा हो ही नहीं सकता।
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# ऐसा मनोभाव स्थिर करने के लिये हमें अपने आपको कसना होगा । हमारी बुद्धि, हमारा साहस, हमारा बल कसा जाने की आवश्यकता है। विद्यालयों और महाविद्यालयों की परीक्षाओं में हम आसान प्रश्नों के उत्तर लिखकर उत्तीर्ण न हों । गणित जैसे विषयों में सौ प्रतिशत से कम अंकों से हम सन्तुष्ट न हों । जीवन की परीक्षा में भी हम मुसीबतों से बचकर चलने का प्रयास न करें। तभी हम विजीगीषु मनोवृत्ति का विकास कर सकते हैं।
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# अपना लक्ष्य नीचा न रखें, लक्ष्य निर्धारित कर उसे प्राप्त करने हेतु कठोर परिश्रम करने से न बचा यह शुरू किया है तो पूर्ण करना ही है ऐसा निर्धार बनायें । यही हमारी शिक्षा है जो हमें विजय के योग्य बनाती है।
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# हमारे लिये कोई भी बात कठिन कैसे हो सकती है ? कैसी भी कठिन बातों को हम आसान बनायेंगे । किसी भी लालच में नहीं फँसने का मनोबल हम प्राप्त करेंगे और कैसी भी कठिन समस्या को सुलझाने की तात्त्विक और व्यावहारिक बुद्धि को भी हम विकसित करेंगे।
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# जिन देशों का कोई प्राचीन इतिहास नहीं जिनकी समृद्धि लूट पर आधारित है, जिनके पास बुद्धि सामर्थ्य नहीं ऐसे देशों से प्रभावित होने की क्या आवश्यकता है ? उल्टे उन्हें चार बातें सिखाने की हमारी क्षमता है। भारत का एक सामान्य व्यक्ति भी सज्जनता के मामलो में विश्व के मान्धाताओं से बढकर है। फिर हमें अपने आपको नीचा मानने की क्या आवश्यकता है?
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# जो सम्पत्ति और बुद्धि आसुरी है * उसे तो पराभूत होना ही है नष्ट होना ही है। जो सज्जन सम्पत्ति है उसकी जय होने वाली ही है। इतिहास में कभी भी दुर्जनशक्ति की विजय नहीं हुई। आज की स्थिति में हमें सज्जनशक्ति बनना है और विश्व को दुर्जनता से मुक्त करना है। यह कार्य हम नहीं तो और कौन कर सकता है ?
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# इस प्रकार की मनोवृत्ति का विकास भारत को करना होगा। इसके लिये अपने आप को और पश्चिम को भी सम्यक रूप से जानने की आवश्यकता है। दोनों को जाने बिना न हमारे में विश्वास जगेगा, न रास्ता दिखेगा, यदि निश्चित किया तो यह सब कर पाना कठिन नहीं है । हाँ, निश्चय करना अवश्य कठिन है ।
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# यह कार्य सामाजिक संगठन बनाकर हो सकता है। सरकार, सामाजिक, सांस्कृतिक क्षेत्र में कार्यरत स्वयंसेवी संगठन, धार्मिक संगठन और सम्प्रदाय और विश्वविद्यालय मिलकर ऐसा संगठन बन सकता है। ऐसे संगठन ने यदि देशव्यापी योजना बनाई तो निश्चित ही यह कार्य हो सकता है।
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# यह भी स्मरण में रखना चाहिये कि विश्व में यदि कोई कर सकता है तो भारत ही यह कार्य कर सकता है। इतना भी यदि विश्वास हो जाता है तो आगे का मार्ग प्रशस्त हो सकता है।
    
==References==
 
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