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=== २. भारत को भारत बनने की आवश्यकता ===
 
=== २. भारत को भारत बनने की आवश्यकता ===
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भारत को विश्वगुरु बनना है। यह विश्व की आवश्यकता है और भारत की नियति । परन्तु अपना यह दायित्व निभाने के लिये भारत को भारत बनना होगा । आज जैसा है वैसा भारत विश्व का मार्गदर्शन नहीं कर सकता । आज भारत स्वयं यूरोअमरिकी तन्त्र से चल रहा है । यह तन्त्र यूरोअमेरिकी जीवनदृष्टि के आधार पर तो विकसित हुआ ही है, साथ ही भारत के तन्त्र को तोड़ने के लिये, भारत को लूटने के लिये, भारत को अपने नियन्त्रण में रखने के लिये और भारत का यूरोपीकरण करने के लिये थोपा गया है । इस तन्त्र को थोपने की प्रक्रिया कम से कम दो शतक तक चली है। दो प्रक्रियायें साथ साथ चली हैं। एक है भारतीय व्यवस्थायें तोडने की और दूसरी उसके स्थान पर यूरोअमेरिकी व्यवस्था स्थापित करने की। दैनन्दिन राष्ट्रजीवन को संचालित करने वाली ये व्यवस्थायें हैं।
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एक सरकारी दृष्टि से देखें तो दो शतकों में भारत में क्या हुआ है। ब्रिटीश आये तब और अपना आधिपत्य जमा रहे थे तब भारत में लोकतन्त्र नहीं था । हिन्दू राजा और मुसलमान नवाब अपने अपने राज्यों पर राज्य करते थे। यह तो ज्ञात इतिहास है कि भारत स्वाधीन हआ तब देश में पाँच सौ सैंतालीस राज्य थे जिनके विलीनीकरण का श्रेय सरदार वल्लभभाई पटेल को दिया जाता है। भारत में युगों से राजाशाही थी, गणराज्यों के बारे में भी इतिहास में हमने पढ़ा है, परन्तु आज के जैसा लोकतन्त्र भारत में कभी नहीं रहा । भारत के लिये यह संकल्पना सर्वथा अपरिचित है। भारत में लोकतन्त्र संज्ञा तो सुपरिचित है । वास्तव में 'लोक' सभी क्षेत्रों में प्रतिष्टित रहा है, परन्तु भारत का 'लोकतन्त्र' और वर्तमान डेमोक्रसी' मे कोई साम्य नहीं है। फिर भी स्वाधीन भारत में एक बार भी प्रश्न नहीं पूछा गया कि यह 'लोकतन्त्र' अचानक से कैसे आ गया । हमने उसे इतनी सहजता से अपना लिया जैसे हमेशा से हम इसी व्यवस्था में जी रहे हैं।
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ऐसी ही दूसरी व्यवस्था शिक्षा की है। वर्तमान में शिक्षा का जो तन्त्र चल रहा है वह भी भारत के लिये सर्वथा अपरिचित है। सरकार शिक्षा को नियन्त्रित और नियोजित करे ऐसा भारतीय जन ने स्वप्न में भी सोचा नहीं होगा । परन्तु आज वह प्रस्थापित तन्त्र हो गया है।
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ऐसा ही अर्थतन्त्र है। राज्य का व्यापार के क्षेत्र में सक्रिय होना भारत में सर्वथा अनपेक्षित और अवांछनीय रहा है। परन्तु ब्रिटीशों का तो राज्य ही व्यापार के लिये था । स्वाधीनता के बाद वह व्यवस्था भी वैसी ही रह गई।
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अर्थव्यवस्था, अर्थनीति, अर्थार्जन आदि सब धर्म के स्थान पर आ गये । इससे सारी व्यवस्था इतनी उलट पुलट हो गई कि हम आज तक न उसे ठीक से समझ पा रहे है न उससे उबर पा रहे हैं।
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उसी प्रकार से समाजव्यवस्था के मूल आधार छिन्नभिन्न हो गये हैं। जिस प्रकार खम्भे गिर जाने से सारा का सारा भवन ध्वस्त हो जाता है उसी प्रकार समाज व्यवस्था खण्डहर बन गई है। अन्य व्यवस्थाओं की तो पर्यायी व्यवस्था हुई भी है, भले ही वह यूरोअमेरिकी हो, पर समाज के लिये तो कोई व्यवस्था ही नहीं है।
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ऐसी मुख्य व्यवस्थाओं के साथ साथ छोटी छोटी परन्तु महत्त्वपूर्ण व्यवस्थाओं में भी परिवर्तन होना
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