− | मनुष्य की अनेक इच्छायें और आवश्यकतायें होती हैं। शरीर की आवश्यकताओं को तो आवश्यकता ही कहते हैं। मन, बुद्धि आदि की आवश्यकताओं को इच्छा कहते हैं। ये भौतिक और अभौतिक स्वरूप की होती हैं। अन्न, वस्त्र, मकान आदि भौतिक आवश्यकतायें हैं । ज्ञान, प्रेम, मैत्री, यश आदि अभौतिक आवश्यकतायें हैं । आवश्यकतायें शरीर, मन, बुद्धि आदि सभी स्तरों की होती हैं । शरीर की आवश्यकतायें सीमित स्वरूप की होती हैं। भूख सन्तुष्ट होने पर अन्न की आवश्यकता पूर्ण हो जाती है । वस्त्र एक समय में सीमित स्वरूप में ही पहने जाते हैं। जल की आवश्यकता प्यास बुझने पर समाप्त हो जाती है । परन्तु मन की इच्छायें असीमित होती हैं। वे कभी पूर्ण नहीं होती हैं । इस सम्बन्ध में महाभारत में ययाति कहते हैं कहते हैं...<blockquote>'''नजातु कामः कामानाम् उपभोगेनशाम्यते ।'''</blockquote><blockquote>'''हविषाकृष्णवत्वैव भूयएवाभिवर्तते ।।'''</blockquote>आहति देने योग्य पदार्थ ही अहम माना जाता था। किन्तु इसका लाक्षणिक अर्थ है, गुरु के लिये उपयोगी हो ऐसा कुछ न कछ लेकर जाना। क्या | + | मनुष्य की अनेक इच्छायें और आवश्यकतायें होती हैं। शरीर की आवश्यकताओं को तो आवश्यकता ही कहते हैं। मन, बुद्धि आदि की आवश्यकताओं को इच्छा कहते हैं। ये भौतिक और अभौतिक स्वरूप की होती हैं। अन्न, वस्त्र, मकान आदि भौतिक आवश्यकतायें हैं । ज्ञान, प्रेम, मैत्री, यश आदि अभौतिक आवश्यकतायें हैं । आवश्यकतायें शरीर, मन, बुद्धि आदि सभी स्तरों की होती हैं । शरीर की आवश्यकतायें सीमित स्वरूप की होती हैं। भूख सन्तुष्ट होने पर अन्न की आवश्यकता पूर्ण हो जाती है । वस्त्र एक समय में सीमित स्वरूप में ही पहने जाते हैं। जल की आवश्यकता प्यास बुझने पर समाप्त हो जाती है । परन्तु मन की इच्छायें असीमित होती हैं। वे कभी पूर्ण नहीं होती हैं । इस सम्बन्ध में महाभारत में ययाति कहते हैं कहते हैं...<blockquote>'''नजातु कामः कामानाम् उपभोगेनशाम्यते ।'''</blockquote><blockquote>'''हविषाकृष्णवत्वैव भूयएवाभिवर्तते ।।'''</blockquote>इच्छायें और आवश्यकतायें मनुष्य जीवन का अनिवार्य अंश है। इसलिये उसे काम पुरुषार्थ कहा है। इसका तिरस्कार नहीं किया गया है अपितु उसे धर्म की मर्यादा दी गई है। श्री भगवान कहते हैं, धर्माविरुद्धों भूतेषु कामोऽस्मि भरतर्षभ' । इस काम की पूर्ति के लिये मनुष्य जो करता है वह अर्थ पुरुषार्थ है । अर्थ को भी धर्म की मर्यादा दी गई है। |
| + | अर्थ का स्वरूप भौतिक है । धन अथवा द्रव्य उसका साधन है । सीधा-सादा सिद्धान्त यह है कि जो अभौतिक इच्छाएँ अथवा आवश्यकतायें हैं उनको अर्थ से नहीं नापा जा सकता है। शिक्षा, ज्ञान के आदान-प्रदान हेतु की गई व्यवस्था है । इसलिये शिक्षा को भी भारत में अर्थ निरपेक्ष रखा गया है। अर्थात न पढ़ने के लिये किसीको पैसे देने पड़ते हैं, न पढ़ाने के पैसे माँगे जाते हैं। वैसे तो अन्न और चिकित्सा भी भारत में अर्थनिरपेक्ष ही माने गये हैं। मनुष्य को जीवित रहने के लिये इन दोनों की अनिवार्य आवश्यकता होती हैं। जीना हर मनुष्य का जन्मसिद्ध अधिकार है, इसलिये इन दोनों बातों के लिये भारत में पैसे के माध्यम से लेनदेन नहीं होता है। ये दान और सेवा के क्षेत्र माने गये हैं। |
| + | वर्तमान समय की बात करें तो यह सिद्धान्त कल्पनातीत लगता है। छोटे बच्चों की शिशुवाटिका से लेकर आयुर्विज्ञान, अभियान्त्रिकी, संगणक, वाणिज्य आदि सभी क्षेत्रों की शिक्षा बहुत महँगी हो गई है। निर्धन या कम पैसे वाले लोग शिक्षा प्राप्त नहीं कर सकते । शिक्षा के लिये बैंकों से कर्जा अवश्य मिलता है परन्तु वह बहुत बड़ी चिन्ता का कारण बनता है, यह भी अनेक भुक्तभोगियों का अनुभव है। सरकार प्राथमिक शिक्षा निःशुल्क देने की व्यवस्था करती है परन्तु उसका लाभ लेने वाले कम ही लोग होते हैं। ऐसी स्थिति में अर्थ निरपेक्ष शिक्षा का प्रचलन अवास्तविक और अव्यावहारिक लगना स्वाभाविक है। परन्तु शिक्षा वैसी थी अवश्य । इसका सामाजिक सन्दर्भ ही इस व्यवस्था के लिये अनुकूल था, इसलिये यह समाज में स्वीकृत था। |
| आज हर विद्यालय सशुल्क ही चलता है । इसमें किसी को आपत्ति भी नहीं होती । विद्यालय की शुल्कव्यवस्था इस प्रश्नावली के प्रश्न पुछकर कुछ लोगों से बातचीत हुई उनसे प्राप्त उत्तर इस प्रकार रहे - | | आज हर विद्यालय सशुल्क ही चलता है । इसमें किसी को आपत्ति भी नहीं होती । विद्यालय की शुल्कव्यवस्था इस प्रश्नावली के प्रश्न पुछकर कुछ लोगों से बातचीत हुई उनसे प्राप्त उत्तर इस प्रकार रहे - |