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==== शिक्षक के योगक्षेम का प्रश्न ====
 
==== शिक्षक के योगक्षेम का प्रश्न ====
इसके बाद शिक्षक के योगक्षेम का प्रश्न आता है। शिक्षक को वैभवी जीवन के आकर्षण से मुक्त तो होना ही पड़ेगा । विद्या ही उसका धन है, वाणी ही उसका आभूषण है, इस बात का स्वीकार उसे करना ही होगा। सादगी, संयम, साधना, तपश्चर्या को अपनाने का और कोई विकल्प नहीं है। ये ही धर्म को भी प्रतिष्ठित करते हैं। ये ही ज्ञान को भी प्रतिष्ठित करते हैं। क्या शिक्षक को पत्नी और परिवार नहीं होता, क्या उसे भी चैन से रहने का अधिकार नहीं है, क्या उसने ही सादगी का ठेका लिया है ? ऐसे प्रश्न पूछे जाते हैं। स्वयं शिक्षक भी ऐसे प्रश्न पूछते हैं । ये प्रश्न स्वाभाविक हैं। उत्तर यह है कि हाँ, उसका घर परिवार होता है, उसका योगक्षेम चलना ही है, उसे चैन नहीं, आश्वस्ति चाहिये, उसने सादगी का ठेका लिया हआ है। यही शिक्षक का धर्म है। उसे समाज पर विश्वास रखना है और समाज को विश्वास करने योग्य बनाना है। शिक्षक अपने मूल स्वरूप में गुरु है। गुरु बड़ा होता है। वह सम्मान का तो अधिकारी है परन्तु कर्तव्य भी उसका सबसे बड़ा होता है। इसलिये इसका तो कोई विकल्प है ही नहीं।  
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* इसके बाद शिक्षक के योगक्षेम का प्रश्न आता है। शिक्षक को वैभवी जीवन के आकर्षण से मुक्त तो होना ही पड़ेगा । विद्या ही उसका धन है, वाणी ही उसका आभूषण है, इस बात का स्वीकार उसे करना ही होगा। सादगी, संयम, साधना, तपश्चर्या को अपनाने का और कोई विकल्प नहीं है। ये ही धर्म को भी प्रतिष्ठित करते हैं। ये ही ज्ञान को भी प्रतिष्ठित करते हैं। क्या शिक्षक को पत्नी और परिवार नहीं होता, क्या उसे भी चैन से रहने का अधिकार नहीं है, क्या उसने ही सादगी का ठेका लिया है ? ऐसे प्रश्न पूछे जाते हैं। स्वयं शिक्षक भी ऐसे प्रश्न पूछते हैं । ये प्रश्न स्वाभाविक हैं। उत्तर यह है कि हाँ, उसका घर परिवार होता है, उसका योगक्षेम चलना ही है, उसे चैन नहीं, आश्वस्ति चाहिये, उसने सादगी का ठेका लिया हआ है। यही शिक्षक का धर्म है। उसे समाज पर विश्वास रखना है और समाज को विश्वास करने योग्य बनाना है। शिक्षक अपने मूल स्वरूप में गुरु है। गुरु बड़ा होता है। वह सम्मान का तो अधिकारी है परन्तु कर्तव्य भी उसका सबसे बड़ा होता है। इसलिये इसका तो कोई विकल्प है ही नहीं।  
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* शिक्षकों के साथ-साथ शिक्षा हेतु अनेक उपकरण और भौतिक व्यवस्थाओं की भी आवश्यकता होती है। उदाहरण के लिये विद्यालय का भवन चाहिये, बैठने की, तापमान नियन्त्रण की, पानी आदि की सुविधायें चाहिये। शैक्षिक साधन-सामग्री भी चाहिये । इसकी क्या व्यवस्था हो ? वास्तव में यह ज़िम्मेदारी विद्यालय के पूर्व छात्रों की है। विद्यालय का शिक्षाक्रम ही ऐसा हो जिससे छात्रों को गुरुदक्षिणा की संकल्पना ठीक से समझ में आये और स्वीकार्य बने । शिक्षाक्रम यदि ठीक रहा तो पूर्व छात्र विद्यालय को कभी भी अभाव में रहने नहीं देंगे। जिस प्रकार परिवार में सन्तानें अपने मातापिता को अभावों में नहीं रहने देती और उनकी सेवा करना अपना धर्म समझती हैं, उसी प्रकार पूर्व छात्र अपने शिक्षकों और अपने विद्यालय को अभाव में न रहने दें। यह एक आदर्श व्यवस्था है।
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इस सन्दर्भ में अमेरिका के हार्वर्ड विश्वविद्यालय का उदाहरण ध्यान देने योग्य है। हार्वर्ड विश्वप्रसिद्ध श्रेष्ठ विश्वविद्यालय है। वह शासन से कोई अनुदान नहीं लेता है। उसकी सारी अर्थव्यवस्था उसके पूर्व छात्र ही सँभालते हैं। ये छात्र विश्वभर में फैले हुए हैं। व्यवसाय के क्षेत्र में उन्होंने नाम और दाम कमाये हैं। परन्तु अपने विश्वविद्यालय हेतु धनदान करना अपना धर्म मानते हैं। यदि आज के जमाने में अमेरिका जैसे देश में यह सम्भव है तो भारत तो स्वभाव से ही जिससे ज्ञान मिला उसका ऋण मानने वाला है। गुरुदक्षिणा की संकल्पना उसे सहज स्वीकार्य होगी। गुरुदक्षिणा की परम्परा को पुनः जीवित करना होगा।
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* साधन-सामग्री के सम्बन्ध में एक बात और विचारणीय है । वर्तमान सन्दर्भ में साधन-सामग्री और सुविधाओं की मात्रा बहुत कम करने की आवश्यकता है। वास्तव में इनके कारण से ही आज शिक्षा महँगी हो गई है । ज्ञानार्जन का सिद्धान्त तो स्पष्ट कहता है कि अध्ययन हेतु साधनों की नहीं साधना की आवश्यकता होती है। यदि छात्रों को साधना करना सिखाया जाय तो अनेक अतिरिक्त खर्चे बन्द हो जायेंगे। ज्ञानार्जन के विषय में हमने इस ग्रन्थमाला के प्रथम खण्ड में विस्तार से चर्चा की है, इसलिये पुनरावर्तन की आवश्यकता नहीं है।
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* इस सन्दर्भ में एक उदाहरण और है। गुजरात के सूरत में समग्र विकास का विद्यालय चलता है। वहाँ समर्थ भारत केन्द्र भी चलता है। इस केन्द्र में समर्थ बच्चों को जन्म देने हेतु माता-पिता को समर्थ बनने की शिक्षा दी जाती है। यह एक अभिनव प्रयोग है। इस केन्द्र में भारतीय परम्परा का अनुसरण करते हुए कोई शुल्क नहीं लिया जाता । परन्तु गर्भाधान आदि संस्कार करने हेतु यज्ञ आदि करने के लिये जो सामग्री उपयोग में लाई जाती है उस खर्च की भरपाई करने की दृष्टि से इक्यावन रुपये की राशि ली जाती थी। माता-पिता यह राशि खुशी से देते भी थे। परन्तु एक बार आचार्यों के मन में विचार आया कि इतनी सी राशि लेकर निःशुल्क शिक्षा की संकल्पना को क्यों दूषित करें। यह राशि भी समाज से प्राप्त कर लेंगे । ऐसा विचार कर उन्होंने इक्यावन रुपये की राशि लेना बन्द किया। दूसरी ओर जिन पर संस्कार होता था उन माता-पिता को लगा कि हमारे भावी बालक को समर्थ बनाने वाले संस्कार हम बिना दक्षिणा दिये कैसे करवा सकते हैं। कोई भी वस्तु मुफ्त में नहीं लेना, यह भारतीय मानस तो है ही। वर्तमान परिप्रेक्ष्य में उसका विस्मरण हुआ है। परन्तु निःशुल्क शिक्षा की व्यवस्था देखते ही वे सुप्त संस्कार जाग उठे और उन्होंने दक्षिणा देने का आग्रह शुरू किया। अतः आचार्यों ने दक्षिणा पात्र रख दिया। जो लोग शुल्क के रूप में इक्यावन रुपये देते थे उन्होंने दक्षिणा के रूप में दोसौ इक्यावन रुपये दिये । यह कलियुग की इक्कीसवीं शताब्दी का ही उदाहरण है। क्या यह इस बात का संकेत नहीं है कि समाज आज भी गुणग्राही है ! हाँ, इक्यावन के स्थान पर दोसौ इक्यावन मिलते हैं इसलिये ही जो निःशुल्क शिक्षा की सिद्धता करेगा उसे तो कदाचित इक्यावन भी नहीं मिलेंगे। मूल्य पैसे का नहीं, निरपेक्षता का है।
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* अत: निःशुल्क शिक्षा का प्रयोग साहस पूर्वक करना चाहिये।
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* किसी भी बड़े कार्य का प्रारम्भ छोटा ही होता है। अतः शिक्षकों के एक छोटे गट ने इस प्रकार की व्यवस्था का प्रयोग प्रारम्भ करना चाहिये । परन्तु इस संकल्पना की विद्वानों में, छात्रों में, शासकीय अधिकारियों में और आम समाज में चर्चा प्रसृत करने की अतीव आवश्यकता है। यदि सर्वसम्मति नहीं हुई तो यह प्रयोग तो चल जायेगा। ऐसे तो अनेक एकसे बढ़कर एक अच्छे प्रयोग देशभर में चलते ही है। परन्तु व्यवस्था नहीं बदलेगी। हमारा लक्ष्य प्रयोग करके सन्तुष्ट होना नहीं है, व्यवस्था में परिवर्तन करने का है।
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* शिक्षा के साथ जुड़े हुए तो ये सारे वर्ग हैं परन्तु उसका केन्द्रवर्ती स्थान और केन्द्रवर्ती दायित्व शिक्षक का ही है। जिस दिन इस देश का शिक्षक अपने आपको इस कार्य के लिये प्रस्तुत करेगा उस दिन से शिक्षा की अर्थव्यवस्था और समग्र शिक्षाक्षेत्र ठीक पटरी पर आ जायेगा यह निश्चित है । हमारा इतिहास और हमारी परम्परा भी यही कहती है।
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'''शिक्षा के नाम पर अनावश्यक खर्च'''
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शिक्षकों के साथ-साथ शिक्षा हेतु अनेक उपकरण और भौतिक व्यवस्थाओं की भी आवश्यकता होती है। उदाहरण के लिये विद्यालय का भवन चाहिये, बैठने की, तापमान नियन्त्रण की, पानी आदि की सुविधायें चाहिये। शैक्षिक साधन-सामग्री भी चाहिये । इसकी क्या व्यवस्था हो ? वास्तव में यह ज़िम्मेदारी विद्यालय के पूर्व छात्रों की है। विद्यालय का शिक्षाक्रम ही ऐसा हो जिससे छात्रों को गुरुदक्षिणा की संकल्पना ठीक से समझ में आये और स्वीकार्य बने । शिक्षाक्रम यदि ठीक रहा तो पूर्व छात्र विद्यालय को कभी भी अभाव में रहने नहीं देंगे। जिस प्रकार परिवार में सन्तानें अपने मातापिता को अभावों में नहीं रहने देती और उनकी सेवा करना अपना धर्म समझती हैं, उसी प्रकार पूर्व छात्र अपने शिक्षकों और अपने विद्यालय को अभाव में न रहने दें। यह एक आदर्श व्यवस्था है।
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पढ़ने के लिये जो अनावश्यक खर्च होता है उसके
 
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इस सन्दर्भ में अमेरिका के हार्वर्ड विश्वविद्यालय का उदाहरण ध्यान देने योग्य है। हार्वर्ड विश्वप्रसिद्ध श्रेष्ठ विश्वविद्यालय है। वह शासन से कोई अनुदान नहीं लेता है। उसकी सारी अर्थव्यवस्था उसके पूर्व छात्र ही सँभालते हैं। ये छात्र विश्वभर में फैले हुए हैं। व्यवसाय के क्षेत्र में उन्होंने नाम और दाम कमाये हैं। परन्तु अपने विश्वविद्यालय हेतु धनदान करना अपना धर्म मानते हैं। यदि आज के जमाने में अमेरिका जैसे देश में यह सम्भव है तो भारत तो स्वभाव से ही जिससे ज्ञान मिला उसका ऋण मानने वाला है। गुरुदक्षिणा की संकल्पना उसे सहज
      
आहति देने योग्य पदार्थ ही अहम माना जाता था। किन्तु इसका लाक्षणिक अर्थ है, गुरु के लिये उपयोगी हो ऐसा कुछ न कछ लेकर जाना। क्या
 
आहति देने योग्य पदार्थ ही अहम माना जाता था। किन्तु इसका लाक्षणिक अर्थ है, गुरु के लिये उपयोगी हो ऐसा कुछ न कछ लेकर जाना। क्या
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