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शिक्षक स्वतन्त्र होना चाहिये यह बात सत्य है, परन्तु कोई भी व्यवस्था शिक्षक को स्वतन्त्र नहीं बना सकती। शिक्षक स्वयं स्वतन्त्र होना नहीं चाहता है। स्वतन्त्रता के साथ दायित्व एक सिक्के के दो पहलुओं की तरह जुड़ा है। स्वतन्त्र होने के लिये शिक्षक को दायित्व का स्वीकार प्रथम करना होगा । दायित्व के साथ-साथ अपने ज्ञानसामर्थ्य और शुद्ध वृत्ति की परीक्षा हेतु नित्यसिद्ध भी रहना होगा। स्वतन्त्रता दायित्व के साथ-साथ अनेक प्रकार के आहवानों से भी भरी होती है। अनेक प्रकार की सुरक्षाओं और सुविधाओं का मूल्य चुकाकर ही व्यक्ति स्वतन्त्रता का उपभोग ले सकता है। दायित्व के अभाव में स्वतन्त्रता, स्वच्छन्दता और स्वैरविहार में परिणत हो जाती है। स्वैरविहार अथवा स्वच्छन्दता व्यक्ति का अथवा समाज का भला नहीं कर सकते । सुरक्षा और सुविधा का मोह तो स्वतन्त्रता का नाश ही कर देता है । स्वतन्त्रता आध्यात्मिक मूल्य है और व्यक्ति की स्वाभाविक चाह है परन्तु मोह ग्रस्त व्यक्ति उसे समझता नहीं है। आज शिक्षकों की स्थिति ऐसी मोह ग्रस्त हो गई है। वैसे पूरा समाज ही सुरक्षा और सुविधा के आकर्षण में फंसकर मोह ग्रस्त और दुर्बल हो गया है । इसलिये स्वतन्त्रता का वास्तविक अर्थ और मूल्य समझता ही नहीं है । इस स्थिति में शिक्षक का अर्थ निरपेक्ष शिक्षा का पुरोधा होना अत्यन्त कठिन है।
 
शिक्षक स्वतन्त्र होना चाहिये यह बात सत्य है, परन्तु कोई भी व्यवस्था शिक्षक को स्वतन्त्र नहीं बना सकती। शिक्षक स्वयं स्वतन्त्र होना नहीं चाहता है। स्वतन्त्रता के साथ दायित्व एक सिक्के के दो पहलुओं की तरह जुड़ा है। स्वतन्त्र होने के लिये शिक्षक को दायित्व का स्वीकार प्रथम करना होगा । दायित्व के साथ-साथ अपने ज्ञानसामर्थ्य और शुद्ध वृत्ति की परीक्षा हेतु नित्यसिद्ध भी रहना होगा। स्वतन्त्रता दायित्व के साथ-साथ अनेक प्रकार के आहवानों से भी भरी होती है। अनेक प्रकार की सुरक्षाओं और सुविधाओं का मूल्य चुकाकर ही व्यक्ति स्वतन्त्रता का उपभोग ले सकता है। दायित्व के अभाव में स्वतन्त्रता, स्वच्छन्दता और स्वैरविहार में परिणत हो जाती है। स्वैरविहार अथवा स्वच्छन्दता व्यक्ति का अथवा समाज का भला नहीं कर सकते । सुरक्षा और सुविधा का मोह तो स्वतन्त्रता का नाश ही कर देता है । स्वतन्त्रता आध्यात्मिक मूल्य है और व्यक्ति की स्वाभाविक चाह है परन्तु मोह ग्रस्त व्यक्ति उसे समझता नहीं है। आज शिक्षकों की स्थिति ऐसी मोह ग्रस्त हो गई है। वैसे पूरा समाज ही सुरक्षा और सुविधा के आकर्षण में फंसकर मोह ग्रस्त और दुर्बल हो गया है । इसलिये स्वतन्त्रता का वास्तविक अर्थ और मूल्य समझता ही नहीं है । इस स्थिति में शिक्षक का अर्थ निरपेक्ष शिक्षा का पुरोधा होना अत्यन्त कठिन है।
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प्रश्न गम्भीर है। सरकार, शिक्षा संस्थाओं के संचालक, समाज, शैक्षिक संगठन, स्वयं शिक्षक आदि शिक्षा के साथ जुड़ा एक भी पक्ष अर्थ निरपेक्ष शिक्षा का
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प्रश्न गम्भीर है। सरकार, शिक्षा संस्थाओं के संचालक, समाज, शैक्षिक संगठन, स्वयं शिक्षक आदि शिक्षा के साथ जुड़ा एक भी पक्ष अर्थ निरपेक्ष शिक्षा का वास्तविक अर्थ ध्यान में नहीं ले रहा है। शिक्षा अर्थ निरपेक्ष हो यह समाज के भले के लिये अनिवार्य है परन्तु वह कार्य अत्यन्त कठिन है। कठिन ही नहीं, हमें तो असम्भव सा लगता है।
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==== अनुवर्ती योजना हेतु विचारणीय बिन्दु ====
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इसलिये मुद्दा गम्भीर है, शान्ति से, धैर्य के साथ और स्पष्टता पूर्वक हमें विषय पर सांगोपांग विचार करना चाहिये । चिन्तन और अनुवर्ती योजना हेतु कुछ बातें विचारणीय है।
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भारत में परम्परा से शिक्षा अर्थ निरपेक्ष रही है। उसके पीछे विचार की जो पार्श्वभूमि रही है, उसका उल्लेख प्रारम्भ में हुआ है। उसे फिर से संक्षेप में
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कहें तो -
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ज्ञान पवित्र है, श्रेष्ठ है, अर्थ से ऊपर है इसलिए उसे अर्थ से परे ही रखना चाहिये ऐसी कल्पना हमारे यहाँ रही है।
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२. ज्ञान और अर्थ दो भिन्न स्वरूप की बातें हैं। अर्थ भौतिक क्षेत्र का हिस्सा है जबकि ज्ञान का क्षेत्र अभौतिक है। वह मानसिक, बौद्धिक और आत्मिक क्षेत्र में विहार करता है। दोनों का स्वभाव भिन्न है, व्यवहार की पद्धति भिन्न है। इस कारण से भी शिक्षा का क्षेत्र अर्थ निरपेक्ष रहना चाहिये ऐसी सहज समझ हमारे समाज में विकसित हुई थी।
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३. शिक्षा अपने स्वयं के विकास के लिये तो अनिवार्य रूप से आवश्यक है ही, साथ ही वह समाजसेवा का बहुत बड़ा क्षेत्र है । यह शिक्षक और समाज इन दोनों की साझेदारी में ही चल सकता है, किसी तीसरी इकाई की आवश्यकता नहीं होनी चाहिये ऐसी व्यापक धारणा शिक्षक और समाज दोनों की बनी हुई थी।
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४. स्वायत्तता की कल्पना इतनी स्वाभाविक थी कि जिसका काम है वह अपने ही बलबूते पर करेगा, यह अपेक्षित ही था।
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५. कोई भी अच्छा कार्य, फिर चाहे व्यक्तिगत साधना, तपश्चर्या या सेवा का हो तो भी समाज उसके योगक्षेम की चिन्ता करना अपना धर्म समझता था । काम करने वाले को भी ऐसा विश्वास था।
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६. कुल मिलाकर ध्येयनिष्ठा, उच्च लक्ष्य सिद्ध करने के लिये परिश्रम करने की वृत्ति और अवरोधों को पार करने का साहस लोगों में अधिक था । जीवन की सार्थकता के मापदण्ड भौतिक कम और मानसिक, बौद्धिक और आत्मिक अधिक थे ।
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==== शिक्षा का रमणीयवृक्ष ====
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* इस आधार पर भारत में समाजव्यवस्था बनी हुई थी और शिक्षाव्यवस्था उसीका एक अंग थी। हमारा इतिहास बताता है कि ऐसी व्यवस्था सहस्रों वर्षों तक चली। धर्मपालजी की पुस्तक 'रमणीय वृक्ष' में अठारहवीं शताब्दी की भारतीय शिक्षा का वर्णन मिलता है। उसके अनुसार उस समय भारत में पाँच लाख प्राथमिक विद्यालय थे और उसी अनुपात में उच्च शिक्षा के केन्द्र थे परन्तु शिक्षकों को वेतन, छात्रों के लिये शुल्क और राज्य की ओर से अनुदान की कोई व्यवस्था नहीं थी। हाँ, मन्दिरों और धनी लोगों से दान अवश्य मिलता था। राज्य भी योगक्षेम की चिन्ता करता था। अर्थ व्यवस्था शिक्षक की स्वतन्त्रता और ज्ञान की गरिमा का मूल्य चुकाकर नहीं होती थी।
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* परन्तु अठारहवीं शताब्दी में अंग्रेजों ने इस देश की शिक्षा व्यवस्था में चंचुपात करना प्रारम्भ किया और स्थितियाँ शीघ्र ही बदलने लगीं। अंग्रेजों की जीवनदृष्टि जड़वादी थी। पूर्व में वर्णन किया है उस प्रकार आसुरी थी। भारत धर्मप्रधान जीवनदृष्टि वाला देश था परन्तु वे अर्थ प्रधान जीवनदृष्टि वाले थे। अतः उन्होंने ज्ञान को भी भौतिक पदार्थ प्राप्त करने का साधन मानकर उसके साथ वैसा ही व्यवहार शुरू किया। उन्होंने शिक्षा के तन्त्र को राज्य के अधीन बनाया और शिक्षा को आर्थिक लेनदेन के व्यवहार में जोड़ दिया। शिक्षा के क्षेत्र में अर्थ विषयक समस्याओं और विपरीत स्थितियों के मूल में यह जीवनदृष्टि है।
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* अंग्रेजों का भारत की शिक्षा के साथ खिलवाड़ सन १७७३ से शुरू हुआ। बढ़ते-बढ़ते सन १८५७ में वह पूर्णता को प्राप्त हुआ, जब ईस्ट इण्डिया कम्पनी के द्वारा भारत में तीन विश्वविद्यालय प्रारम्भ हुए। इसके साथ ही भारत की शिक्षा का अंग्रेजीकरण पूर्ण हुआ। १९४७ में जब हम स्वाधीन हुए तब तक यही व्यवस्था चलती रही । लगभग पौने दो सौ वर्षों के इस कालखण्ड में भारतीय शिक्षा व्यवस्था का पूर्ण रूप से अंग्रेजीकरण हो गया । हमारी लगभग दस पीढ़ियाँ इस व्यवस्था में शिक्षा प्राप्त करती रहीं । कोई आश्चर्य नहीं कि स्वाधीनता के बाद भी भारत में यही व्यवस्था बनी रही। शिक्षा तो क्या स्वाधीनता के साथ भारत की कोई भी व्यवस्था नहीं बदली । कारण स्पष्ट है, उचित अनुचित का विवेक करने वाली बुद्धि ही अंग्रेजीयत से ग्रस्त हो गई थी और कामप्रधान दृष्टि के प्रभाव में मन दुर्बल हो गया था । भारत की व्यवस्थाओं में परिवर्तन नहीं होना समझ में आने वाली बात है। आश्चर्य तो इस बात का होना चाहिये कि पौने दोसौ वर्षों की ज्ञान के क्षेत्र की दासता के बाद भी भारत में स्वत्व का सम्पूर्ण लोप नहीं हो गया । विश्व में इतनी बलवती जिजीविषा से युक्त देश और कोई नहीं है। इसलिये विवश और दुर्बल बन जाने के बाद भी अन्दर अन्दर हम भारतीय स्वभाव को जानते हैं और मानते भी हैं। इस कारण से तो हम अभी कर रहे हैं वैसी चर्चायें देश में स्थान-स्थान पर चलती हैं। अंग्रेजों द्वारा समाज जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में ढाये गये कहर को पहचानने और समझने का प्रयास चल रहा है और मार्ग ढूँढकर शिक्षा की गाड़ी पुनः भारतीयता की अपनी पटरी पर लाने का कार्य चल रहा है।
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* हमने यदि मूल को ठीक से जान लिया तो हमारे प्रयास की दिशा और स्वरूप ठीक रहेगा । इसी दृष्टि से कुछ बातों को फिर से कहा है। अब हमारा मुख्य काम है, शिक्षा को अर्थ निरपेक्ष बनाने के साथ-साथ उसकी अर्थ व्यवस्था का सम्यक् स्वरूप निर्धारित करना।
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* सर्व प्रथम काम, हमें शिक्षकों के साथ करना होगा। शिक्षा का क्षेत्र शिक्षकों का है । वह उनकी ज़िम्मेदारी से चलना चाहिये। उनमें दायित्वबोध जगाने का महत्त्वपूर्ण कार्य करना चाहिये । इसका दूसरा पक्ष है, शिक्षकों के विषय में गौरव और आदर निर्माण करना । प्रथम शिक्षकों के हृदय में शिक्षा के कार्य के प्रति, शिक्षा के व्यवसाय के प्रति आदर होना आवश्यक है। हम एक अत्यन्त महत्त्वपूर्ण और श्रेष्ठ कार्य कर रहे हैं, ऐसा भाव भी जागृत होना चाहिये । समाज के मन में भी शिक्षा के प्रति और शिक्षकों के प्रति आदर की भावना निर्माण करना आवश्यक है।
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==== मूले कुठाराघात आवश्यक है ====
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व्यवस्था की दृष्टि से हमें शिक्षा का अर्थार्जन के साथ जो सम्बन्ध बना है, वह समाप्त कर देना चाहिये । यह वर्तमान शिक्षाव्यवस्था में मूले कुठाराघात होगा। परन्तु मूल में ही आघात किये बिना अर्थव्यवस्था ठीक नहीं होगी। जब शिक्षा ग्रहण करने के बाद नौकरी नहीं मिलेगी तब ज्ञानार्जन के लिये शिक्षा ग्रहण करने हेतु ही छात्र इसमें आयेंगे । शिक्षा संख्या के भारी बोझ से मुक्त हो जायेगी। सारे विद्यालयीन पाठयक्रम और अन्य गतिविधियों में भारी परिवर्तन आयेगा। शिक्षा का क्षेत्र परिष्कृत होगा। शिक्षाक्षेत्र को ज्ञान का क्षेत्र बनाने हेतु ऐसा करना अनिवार्य है।
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अर्थार्जन व्यक्तिगत और सामाजिक जीवन का आवश्यक हिस्सा है। श्रेष्ठ समाज समृद्ध होता है। समाज की समृद्धि आवश्यक भौतिक वस्तुओं के उत्पादन पर निर्भर करती है। अर्थार्जन को उत्पादक व्यवसाय के क्षेत्र के साथ जोड़ना चाहिये । उत्पादन के लिये जो निर्माण क्षमता और कुशलता चाहिये वह भी सीखने से ही आती है। उसे हम अर्थकरी शिक्षा का नाम दे सकते हैं । अर्थकरी शिक्षा शिक्षाक्षेत्र का नहीं अपितु औद्योगिक क्षेत्र का अंगभूत हिस्सा होनी चाहिये । आजकी भाषा में जिसे व्यावसायिक शिक्षा कहते हैं वह वास्तव में अर्थकरी शिक्षा है।
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शिक्षा को अर्थ से मुक्त कर धर्म के साथ जोड़ना चाहिये । धर्म को समाज जीवन का नियन्त्रक आयाम बनाना चाहिये । आज यह बात अत्यन्त दुष्कर है, यह सत्य है। धर्म को ही आज इतना विवाद का विषय बना दिया गया है कि कोई धर्म का नाम लेने में ही अपराध बोध का अनुभव करेगा । परन्तु सत्य बात कितनी भी कठिन हो तो भी करनी ही चाहिये । धर्म को ही विवादों से मुक्त कैसे करना, इसकी चर्चा हम स्वतन्त्र रूप से करेंगे । अभी तो इतना कहना पर्याप्त है कि शिक्षा को धर्मानुसारी बनाने से वह अनेक प्रकार के अनिष्टकारी, अनुचित बन्धनों से मुक्त होगी।
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शिक्षा को धर्म की अनुसारिणी बनाने से अर्थ का क्षेत्र भी धर्म के नियमन में आयेगा । यदि वह अपने आप नहीं आता है तो उसे धर्म के नियन्त्रण में लाने की व्यवस्था करनी होगी। अर्थ के साथ-साथ शिक्षा को राज्य के नियन्त्रण से भी मुक्त करवानी होगी।
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==== शिक्षक के योगक्षेम का प्रश्न ====
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इसके बाद शिक्षक के योगक्षेम का प्रश्न आता है। शिक्षक को वैभवी जीवन के आकर्षण से मुक्त तो होना ही पड़ेगा । विद्या ही उसका धन है, वाणी ही उसका आभूषण है, इस बात का स्वीकार उसे करना ही होगा। सादगी, संयम, साधना, तपश्चर्या को अपनाने का और कोई विकल्प नहीं है। ये ही धर्म को भी प्रतिष्ठित करते हैं। ये ही ज्ञान को भी प्रतिष्ठित करते हैं। क्या शिक्षक को पत्नी और परिवार नहीं होता, क्या उसे भी चैन से रहने का अधिकार नहीं है, क्या उसने ही सादगी का ठेका लिया है ? ऐसे प्रश्न पूछे जाते हैं। स्वयं शिक्षक भी ऐसे प्रश्न पूछते हैं । ये प्रश्न स्वाभाविक हैं। उत्तर यह है कि हाँ, उसका घर परिवार होता है, उसका योगक्षेम चलना ही है, उसे चैन नहीं, आश्वस्ति चाहिये, उसने सादगी का ठेका लिया हआ है। यही शिक्षक का धर्म है। उसे समाज पर विश्वास रखना है और समाज को विश्वास करने योग्य बनाना है। शिक्षक अपने मूल स्वरूप में गुरु है। गुरु बड़ा होता है। वह सम्मान का तो अधिकारी है परन्तु कर्तव्य भी उसका सबसे बड़ा होता है। इसलिये इसका तो कोई विकल्प है ही नहीं।
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शिक्षकों के साथ-साथ शिक्षा हेतु अनेक उपकरण और भौतिक व्यवस्थाओं की भी आवश्यकता होती है। उदाहरण के लिये विद्यालय का भवन चाहिये, बैठने की, तापमान नियन्त्रण की, पानी आदि की सुविधायें चाहिये। शैक्षिक साधन-सामग्री भी चाहिये । इसकी क्या व्यवस्था हो ? वास्तव में यह ज़िम्मेदारी विद्यालय के पूर्व छात्रों की है। विद्यालय का शिक्षाक्रम ही ऐसा हो जिससे छात्रों को गुरुदक्षिणा की संकल्पना ठीक से समझ में आये और स्वीकार्य बने । शिक्षाक्रम यदि ठीक रहा तो पूर्व छात्र विद्यालय को कभी भी अभाव में रहने नहीं देंगे। जिस प्रकार परिवार में सन्तानें अपने मातापिता को अभावों में नहीं रहने देती और उनकी सेवा करना अपना धर्म समझती हैं, उसी प्रकार पूर्व छात्र अपने शिक्षकों और अपने विद्यालय को अभाव में न रहने दें। यह एक आदर्श व्यवस्था है।
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इस सन्दर्भ में अमेरिका के हार्वर्ड विश्वविद्यालय का उदाहरण ध्यान देने योग्य है। हार्वर्ड विश्वप्रसिद्ध श्रेष्ठ विश्वविद्यालय है। वह शासन से कोई अनुदान नहीं लेता है। उसकी सारी अर्थव्यवस्था उसके पूर्व छात्र ही सँभालते हैं। ये छात्र विश्वभर में फैले हुए हैं। व्यवसाय के क्षेत्र में उन्होंने नाम और दाम कमाये हैं। परन्तु अपने विश्वविद्यालय हेतु धनदान करना अपना धर्म मानते हैं। यदि आज के जमाने में अमेरिका जैसे देश में यह सम्भव है तो भारत तो स्वभाव से ही जिससे ज्ञान मिला उसका ऋण मानने वाला है। गुरुदक्षिणा की संकल्पना उसे सहज
    
आहति देने योग्य पदार्थ ही अहम माना जाता था। किन्तु इसका लाक्षणिक अर्थ है, गुरु के लिये उपयोगी हो ऐसा कुछ न कछ लेकर जाना। क्या
 
आहति देने योग्य पदार्थ ही अहम माना जाता था। किन्तु इसका लाक्षणिक अर्थ है, गुरु के लिये उपयोगी हो ऐसा कुछ न कछ लेकर जाना। क्या
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