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रवीन्ट्रनाथजी तो कहते हैं कि “शिक्षा के लिए अब भी हमें जंगलों और वनों की आवश्यकता है । समय के हेर फेर से स्थितियाँ चाहे कितनी ही क्यों न बदल जायें, परन्तु इस गुरुकुल शिक्षा प्रणाली के लाभदायक सिद्ध होने में कदापि तनिक भी अन्तर नहीं पड़ सकता । कारण यह है कि यम नियम मनुष्य के चरित्र के अमर सत्य पर निर्भर हैं ।
 
रवीन्ट्रनाथजी तो कहते हैं कि “शिक्षा के लिए अब भी हमें जंगलों और वनों की आवश्यकता है । समय के हेर फेर से स्थितियाँ चाहे कितनी ही क्यों न बदल जायें, परन्तु इस गुरुकुल शिक्षा प्रणाली के लाभदायक सिद्ध होने में कदापि तनिक भी अन्तर नहीं पड़ सकता । कारण यह है कि यम नियम मनुष्य के चरित्र के अमर सत्य पर निर्भर हैं ।
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==== (४) विद्यालयीन व्यवस्था शास्त्रानुसार हो ====
 
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(४) विद्यालयीन व्यवस्था शास्त्रानुसार हो
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हमारे शास्त्रों ने किसी भी व्यवस्था के प्रमुख
 
हमारे शास्त्रों ने किसी भी व्यवस्था के प्रमुख
 
मार्गदर्शक सिद्धान्त बताएँ हैं । व्यवस्था निर्माण करते समय
 
मार्गदर्शक सिद्धान्त बताएँ हैं । व्यवस्था निर्माण करते समय
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(उ) व्यवस्था सुविधापूर्ण हो ।
 
(उ) व्यवस्था सुविधापूर्ण हो ।
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आजकल विद्यालयों की स्थापना के समय यूरोप व
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आजकल विद्यालयों की स्थापना के समय यूरोप व अमरीका के धनी देशों के कान्वेंट स्कूल हमारे सम्मुख आदर्श होते हैं । उनके मार्गदर्शक सिद्धान्त भिन्न होते हैं, वहाँ सुविधापूर्ण व्यवस्था पर सर्वाधिक बल रहता है । पैसा भले ही अधिकाधिक लगे। किन्तु व्यवस्था आधुनिक उपकरणों से युक्त उच्च स्तर की हो । ऐसे विद्यालयों में भवन, उपस्कर व आधुनिक उपकरणों में ७५ प्रतिशत अनावश्यक वस्तुएँ होती हैं । हम जितनी अधिक
अमरीका के धनी देशों के कान्वेंट स्कूल हमारे सम्मुख
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अनावश्यक वस्तुओं को आवश्यक और अनिवार्य बनाते जायेंगे उतनी ही अधिक हमारी शक्तियाँ व्यर्थ नष्ट होती रहेंगी । यही कारण है कि आज हमारी अधिकांश शक्ति विद्यालय भवन और फर्निचर की व्यवस्था में ही समाप्त हो जाती है । व्यक्ति का स्वास्थ्य और पर्यावरण संरक्षण के सिद्धान्त तो उनके पाठ्यक्रम से बाहर की बातें होती हैं ।
आदर्श होते हैं । उनके मार्गदर्शक सिद्धान्त भिन्न होते हैं,
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वहाँ सुविधापूर्ण व्यवस्था पर सर्वाधिक बल रहता है ।
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पैसा भले ही अधिकाधिक लगे। किन्तु व्यवस्था
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आधुनिक उपकरणों से युक्त उच्च स्तर की हो । ऐसे
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विद्यालयों में भवन, उपस्कर व आधुनिक उपकरणों में ७५
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प्रतिशत अनावश्यक वस्तुएँ होती हैं । हम जितनी अधिक
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अनावश्यक वस्तुओं को आवश्यक और अनिवार्य बनाते
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जायेंगे उतनी ही अधिक हमारी शक्तियाँ व्यर्थ नष्ट होती
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रहेंगी । यही कारण है कि आज हमारी अधिकांश शक्ति
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विद्यालय भवन और फर्निचर की व्यवस्था में ही समाप्त हो
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जाती है । व्यक्ति का स्वास्थ्य और पर्यावरण संरक्षण के
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सिद्धान्त तो उनके पाठ्यक्रम से बाहर की बातें होती हैं ।
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(५) विद्यालयीन व्यवस्था का केन्द्र बिन्दु बालक
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हमारे यहाँ विद्यालय बालक को शिक्षित करने का
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केन्द्र है, इसलिए विद्यालय का केन्द्र बिन्दु बालक है ।
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उस बालक के लिए जैसी व्यवस्थाएँ होंगी, वैसा ही
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उसका निर्माण होगा । अत्यधिक सुविधापूर्ण व्यवस्थाएँ
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बालक को सुविधाभोगी ही बनायेंगी । अगर हम चाहते हैं
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कि हमारा बालक परिश्रमी हो, तपस्वी हो, साधक हो
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रश्द
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भारतीय शिक्षा के व्यावहारिक आयाम
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तथा उसमें तितिक्षा हो अर्थात्‌ सर्दी, गर्मी, वर्षा, भूख-
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प्यास आदि को सहन करने की क्षमता हो, तो ऐसी
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व्यवस्था जिसमें उसको अपने हाथ से पानी की गिलास
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भी नहीं भरता हो तो वह योगी कैसे बनेगा, भोगी अवश्य
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बन जायेगा । अतः आवश्यक है कि व्यवस्थाएँ विद्यार्थी
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को केन्द्र में रखकर की जाय ।
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(६) विद्यालय भवन निर्माण वास्तुशास्त्र के अनुसार हो
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वास्तुशास्त्र कहता है कि भवन पूर्व तथा उत्तर में
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नीचा तथा पश्चिम व दक्षिण में ऊँचा होना चाहिए।
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मत्स्यपुराण के अनुसार दक्षिण दिशा में ऊँचा भवन मनुष्य
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की सब कामनाओं को पूर्ण करता है ।
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ये बातें भी ध्यान में रखने योग्य हैं :
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(क) भवन निर्माण में वास्तु के साथ साथ हवा एवं सूर्य
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प्रकाश की उपलब्धता का ध्यान रखा जाना
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चाहिए । जिस भवन में सूर्य किरण एवं वायु प्रवेश
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नहीं करतीं वह शुभ नहीं होता ।
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(ख) हमारे जैसे गरम प्रदेशों में सिमेन्ट और लोहे का
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अत्यधिक प्रयोग. करके. बनाये. गये. भवन
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TART होते हैं ।
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() विद्यालय भवन में तड़कभड़क नहीं, स्वच्छता,
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==== () विद्यालयीन व्यवस्था का केन्द्र बिन्दु बालक ====
सुन्दरता एवं पवित्रता होनी चाहिए
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हमारे यहाँ विद्यालय बालक को शिक्षित करने का केन्द्र है, इसलिए विद्यालय का केन्द्र बिन्दु बालक है । उस बालक के लिए जैसी व्यवस्थाएँ होंगी, वैसा ही उसका निर्माण होगा । अत्यधिक सुविधापूर्ण व्यवस्थाएँ बालक को सुविधाभोगी ही बनायेंगी । अगर हम चाहते हैं कि हमारा बालक परिश्रमी हो, तपस्वी हो, साधक ह  तथा उसमें तितिक्षा हो अर्थात्‌ सर्दी, गर्मी, वर्षा, भूख- प्यास आदि को सहन करने की क्षमता हो, तो ऐसी व्यवस्था जिसमें उसको अपने हाथ से पानी की गिलास भी नहीं भरता हो तो वह योगी कैसे बनेगा, भोगी अवश्य बन जायेगा । अतः आवश्यक है कि व्यवस्थाएँ विद्यार्थी को केन्द्र में रखकर की जाय
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() विद्यालय में पर्याप्त खुला मैदान हो, ताकि अवकाश
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==== () विद्यालय भवन निर्माण वास्तुशास्त्र के अनुसार हो ====
के समय बालक खेलकूद सके
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वास्तुशास्त्र कहता है कि भवन पूर्व तथा उत्तर में नीचा तथा पश्चिम व दक्षिण में ऊँचा होना चाहिए। मत्स्यपुराण के अनुसार दक्षिण दिशा में ऊँचा भवन मनुष्य की सब कामनाओं को पूर्ण करता है ये बातें भी ध्यान में रखने योग्य हैं :
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(3) कक्षा कक्षों में हवादान (वेन्टीलेटर) होने चाहिए ।
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() भवन निर्माण में वास्तु के साथ साथ हवा एवं सूर्य प्रकाश की उपलब्धता का ध्यान रखा जाना चाहिए । जिस भवन में सूर्य किरण एवं वायु प्रवेश नहीं करतीं वह शुभ नहीं होता
खिड़कियाँ अधिक ऊँची नहीं होनी चाहिए
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() भवन रचना का मन पर संस्कार एवं प्रभाव होता
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() हमारे जैसे गरम प्रदेशों में सिमेन्ट और लोहे का अत्यधिक प्रयोग. करके. बनाये. गये. भवन अस्वास्थ्यकर होते हैं ।
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() हमारी सरकार केवल पक्के मकानों को ही मान्यता
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() विद्यालय भवन में तड़कभड़क नहीं, स्वच्छता, सुन्दरता एवं पवित्रता होनी चाहिए
देती है, कच्चे को नहीं । लोहा व सिमेन्ट से बना
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मकान पक्का, इंट-गारे से बना कच्चा माना जाता
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है। पक्के की औसत आयु ३५-४० वर्ष जबकि
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कच्चे की औसत आयु ६५-७० वर्ष फिर भी बैंक
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कच्चे को मोर्टगेज नहीं करेगा यह व्यवस्था का
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(घ) विद्यालय में पर्याप्त खुला मैदान हो, ताकि अवकाश के समय बालक खेलकूद सके ।
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(ड) कक्षा कक्षों में हवादान (वेन्टीलेटर) होने चाहिए । खिड़कियाँ अधिक ऊँची नहीं होनी चाहिए ।
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पर्व ४ : विद्यालय की भौतिक एवं आर्थिक व्यवस्थाएँ
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(च) भवन रचना का मन पर संस्कार एवं प्रभाव होता है।
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(छ) हमारी सरकार केवल पक्के मकानों को ही मान्यता देती है, कच्चे को नहीं । लोहा व सिमेन्ट से बना मकान पक्का, इंट-गारे से बना कच्चा माना जाता है। पक्के की औसत आयु ३५-४० वर्ष जबकि
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कच्चे की औसत आयु ६५-७० वर्ष फिर भी बैंक कच्चे को मोर्टगेज नहीं करेगा । यह व्यवस्था का  दोष है । स्वदेशी तकनीक की उपेक्षा और विदेशी. झुकी हो, प्रकाश बायीं ओर से पीछे तकनीक को प्रात्सहन देने के कारण हमारे कारीगर बेकार होते है और धीरे -धीरे स्वदेशी तकनीक लुप्त होती जाती है।
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दोष है । स्वदेशी तकनीक की उपेक्षा और विदेशी. झुकी हो, प्रकाश बायीं ओर से पीछे
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से आता हो । श्यामपट्ट पूर्व दिशा की दीवार में हो बेकार होते हैं और धीरे-धीरे स्वदेशी तकनीक लुप्त. जिससे विद्यार्थी पूर्वाभिमुख बैठ सके । गुरु का स्थान
तकनीक को प्रात्सहन देने के कारण हमारे कारीगर . से आता हो । श्यामपट्ट पूर्व दिशा की दीवार में हो
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बेकार होते हैं और धीरे-धीरे स्वदेशी तकनीक लुप्त. जिससे विद्यार्थी पूर्वाभिमुख बैठ सके । गुरु का स्थान
      
होती जाती है । ऊपर व शिष्य का स्थान नीचे होना चाहिए ।
 
होती जाती है । ऊपर व शिष्य का स्थान नीचे होना चाहिए ।
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