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3. माध्यमिक विद्यालय में भी क्रम तो यही चलता है । प्राथमिक और माध्यमिक विद्यालयों में क्या अन्तर है इसकी कोई स्पष्टता शिक्षकों के, मातापिताओं के या शिक्षाशाख्रियों के मन में होती है कि नहीं यह भी विचारणीय विषय है । अन्तर केवल इतना होता है कि प्राथमिक स्तर की शिक्षा अनिवार्य है और सरकारी बाध्यता है । प्राथमिक विद्यालयों में पढने वाले सभी विद्यार्थी माध्यमिक में पढ़ते ही हैं ऐसा नहीं है । माध्यमिक विद्यालय में कुछ अधिक विषय होते हैं । वे भी अनिवार्य ही होते हैं । इसके अलावा प्राथमिक और माध्यमिक में खास कोई अन्तर नहीं होता है । पाँचवीं कक्षा तक तो शिक्षक कक्षाओं के भी होते हैं, पाँचवीं के बाद और अब माध्यमिक में शिक्षक कक्षाओं के भी नहीं होते, विषयों के हो जाते हैं । इनका कार्य दिया हुआ पाठ्यक्रम पूर्ण करना है, विद्यार्थी का क्या होता है इसकी चिन्ता करना नहीं । यह चिन्ता अब अभिभावकों की है । इसलिये तो वे अपनी सन्तानों को ट्यूशन और कोचिंग क्लास में भेजते हैं । माध्यमिक विद्यालय में भी विद्यार्थी आगे जाकर क्या बनेंगे यह विषय नहीं है । वास्तव में उनसे यह अपेक्षा भी नहीं की जाती है ।
3. माध्यमिक विद्यालय में भी क्रम तो यही चलता है । प्राथमिक और माध्यमिक विद्यालयों में क्या अन्तर है इसकी कोई स्पष्टता शिक्षकों के, मातापिताओं के या शिक्षाशाख्रियों के मन में होती है कि नहीं यह भी विचारणीय विषय है । अन्तर केवल इतना होता है कि प्राथमिक स्तर की शिक्षा अनिवार्य है और सरकारी बाध्यता है । प्राथमिक विद्यालयों में पढने वाले सभी विद्यार्थी माध्यमिक में पढ़ते ही हैं ऐसा नहीं है । माध्यमिक विद्यालय में कुछ अधिक विषय होते हैं । वे भी अनिवार्य ही होते हैं । इसके अलावा प्राथमिक और माध्यमिक में खास कोई अन्तर नहीं होता है । पाँचवीं कक्षा तक तो शिक्षक कक्षाओं के भी होते हैं, पाँचवीं के बाद और अब माध्यमिक में शिक्षक कक्षाओं के भी नहीं होते, विषयों के हो जाते हैं । इनका कार्य दिया हुआ पाठ्यक्रम पूर्ण करना है, विद्यार्थी का क्या होता है इसकी चिन्ता करना नहीं । यह चिन्ता अब अभिभावकों की है । इसलिये तो वे अपनी सन्तानों को ट्यूशन और कोचिंग क्लास में भेजते हैं । माध्यमिक विद्यालय में भी विद्यार्थी आगे जाकर क्या बनेंगे यह विषय नहीं है । वास्तव में उनसे यह अपेक्षा भी नहीं की जाती है ।
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उच्च शिक्षा में स्थिति अत्यन्त अल्पमात्रा में इससे कुछ भिन्न है। कोई पाँच प्रतिशत विद्यार्थी अपना
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4. उच्च शिक्षा में स्थिति अत्यन्त अल्पमात्रा में इससे कुछ भिन्न है। कोई पाँच प्रतिशत विद्यार्थी अपना करियर निश्चित करके आते हैं और उसके अनुसार सम्बन्धित विद्याशाखाओं में प्रवेश लेते हैं। यह निश्चित करने का काम महाविद्यालय नहीं करते, विद्यार्थी स्वयं करते हैं । अध्यापकों का काम उन्हें केवल पढ़ाना है। ये विद्यार्थी आगे जाकर क्या करेंगे, जो पढ रहे हैं उस विषय का आगे समाज में कोई उपयोग है कि नहीं, विद्यार्थियों को अपना कर्तृत्व दिखाने के कोई अवसर है कि नहीं इसकी चिन्ता अध्यापक नहीं करते ।
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इस प्रकार यदि प्राथमिक-माध्यमिक-उच्चशिक्षा में से कोई भी विद्यार्थी की चिन्ता नहीं करता है तो फिर विद्यार्थी का भविष्य गढने का दायित्व किसका है ? यदि अपने पास वर्षों तक पढ़नेवाले विद्यार्थी की ही चिन्ता नहीं है तो यह विद्यार्थी जिस देश का जिम्मेदार नागरिक बनने वाला है उस देश की चिन्ता विद्यालय कैसे करेगा ? तात्पर्य यह है कि शिशु से लेकर उच्च स्तर तक की सम्पूर्ण शिक्षा पूर्ण रूप से व्यावहारिक सन्दर्भ से रहित ही है । वह कभी संदर्भ सहित थी ऐसा भी शिक्षा के विगत एक सौ वर्षों के इतिहास में दिखाई नहीं देता है ।
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पर्व २ : विद्यार्थी, शिक्षक, विद्यालय, परिवार
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5. तो फिर विद्यार्थियों के भविष्य की चिन्ता क्या मातापिता करते हैं ? नहीं, वे भी नहीं करते हैं। मातापिता चिन्ता करते दिखाई तो देते हैं परन्तु उनकी चिन्ता में कोई योजना नहीं होती, कोई व्यवस्था नहीं होती ।
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हर मातापिता चाहते हैं कि उनकी सन्तान पढलिखकर डॉक्टर बने, इन्जिनीयर बने, कम्प्यूटर निष्णात बने, चार्टर्ड एकाउन्टन्ट बने । परन्तु यह उनकी केवल चाहत ही होती है । इसका कोई ठोस आधार नहीं होता । क्यों ऐसा सब बनना है इसके उत्तर में केवल एक ही बात होती है । इन व्यवसायों में पैसा है और प्रतिष्ठा है ।
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करियर निश्चित करके आते हैं और उसके अनुसार
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अपनी संतान इसकी शिक्षाग्रहण करने के लायक है कि नहीं, पढ लेने के बाद उसे नौकरी मिलेगी कि नहीं, पैसा मिलेगा कि नहीं ऐसा प्रश्न भी उनके मन में नहीं उठता । वर्तमान बेरोजगारी की स्थिति का अनुभव करने के बाद भी नहीं उठता । उन्हें लगता है कि बेटा इन्जिनियर बनेगा ऐसी इच्छा है तो बस बन ही जायेगा ।
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सम्बन्धित विद्याशाखाओं में प्रवेश लेते हैं। यह
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निश्चित करने का काम महाविद्यालय नहीं करते,
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विद्यार्थी स्वयं करते हैं । अध्यापकों का काम उन्हें
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saa wer है। ये विद्यार्थी आगे जाकर क्या
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करेंगे, जो पढ रहे हैं उस विषय का आगे समाज में
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कोई उपयोग है कि नहीं, विद्यार्थियों को अपना
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कर्तृत्व दिखाने के कोई अवसर है कि नहीं इसकी
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चिन्ता अध्यापक नहीं करते ।
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इस प्रकार यदि प्राथमिक-माध्यमिक-उच्चशिक्षा में
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से कोई भी विद्यार्थी की चिन्ता नहीं करता है तो फिर
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विद्यार्थी का भविष्य गढने का दायित्व किसका है ?
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यदि अपने पास वर्षों तक पढ़नेवाले विद्यार्थी की ही
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चिन्ता नहीं है तो यह विद्यार्थी जिस देश का
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जिम्मेदार नागरिक बनने वाला है उस देश की चिन्ता
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विद्यालय कैसे करेगा ? तात्पर्य यह है कि शिशु से
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लेकर उच्च स्तर तक की सम्पूर्ण शिक्षा पूर्ण रूप से
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व्यावहारिक सन्दर्भ से रहित ही है । वह कभी संदर्भ
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सहित थी ऐसा भी शिक्षा के विगत एक सौ वर्षों के
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इतिहास में दिखाई नहीं देता है ।
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तो फिर विद्यार्थियों के भविष्य की चिन्ता क्या
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मातापिता करते हैं ? नहीं, वे भी नहीं करते हैं।
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मातापिता चिन्ता करते दिखाई तो देते हैं परन्तु उनकी
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होती ।
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हर mata चाहते हैं कि उनकी सन्तान
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पढलिखकर डॉक्टर बने, इन्जिनीयर बने, कम्प्यूटर निष्णात
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बने, चार्टर्ड एकाउन्टन्ट बने । परन्तु यह उनकी केवल
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चाहत ही होती है । इसका कोई ठोस आधार नहीं होता ।
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क्यों ऐसा सब बनना है इसके उत्तर में केवल एक ही बात
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होती है । इन व्यवसायों में पैसा है और प्रतिष्ठा है ।
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अपनी संतान इसकी शिक्षाग्रहण करने के लायक है
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कि नहीं, पढ लेने के बाद उसे नौकरी मिलेगी कि नहीं,
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पैसा मिलेगा कि नहीं ऐसा प्रश्न भी उनके मन में नहीं
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बाद भी नहीं उठता । उन्हें लगता है
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कि बेटा इन्जिनियर बनेगा ऐसी इच्छा है तो बस बन ही
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जायेगा ।
अच्छा पैसा कमाने के लिये उपाय क्या है ? बस एक
अच्छा पैसा कमाने के लिये उपाय क्या है ? बस एक