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=== विद्यार्थियों की अर्थदृष्टि और अर्थव्यवहार ===
=== विद्यार्थियों की अर्थदृष्टि और अर्थव्यवहार ===
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श्रस्तावना
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आये दिन हम कहते रहते हैं कि भारत गरीब देश है ।
+
==== प्रस्तावना ====
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आये दिन हम कहते रहते हैं कि भारत गरीब देश है । किसी भी अर्थविषयक व्याख्यान का प्रारम्भ “भारत जैसे गरीब देश में...' ऐसे स्तुति सुमनों से होता है । अमेरिका कहता है कि भारत विकासशील देश है, उसका जीडीपी कम है । हम भी अमेरिका का कहना मान लेते हैं और अपने आपको गरीब कहते हैं । परन्तु कभी ऐसा विचार नहीं करते कि भारत वास्तव में गरीब है कि नहीं, अमेरिका कहता है उसमें कितना तथ्य है, भारत यदि वास्तव में गरीब है तो गरीबी के कारण क्या हैं, भूतकाल में जो सोने की चिडिया कहा जाता था वह देश आज गरीब कैसे हो गया, गरीब हुआ तो हुआ अब पुनः समृद्ध होने के उपाय हैं कि नहीं ।
−
किसी भी अर्थविषयक व्याख्यान का प्रारम्भ “भारत जैसे
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आर्थिक क्षेत्र में हम व्यक्तिगत से लेकर समग्र देश के स्तर पर जो कुछ कर रहे हैं वह अब अत्यन्त सम्भ्रमित अवस्था के लक्षण हैं । दोसौ वर्षों का ब्रिटिशों के शासन का काल क्या आया कि हमारा राष्ट्रीय जीवन अस्तव्यस्त और तहसनहस हो गया और हमारी दृष्टि इतनी धुँधली हो गई कि सबकुछ विपरीत दिखाई देने लगा । यह विपरीतता बडों से लेकर छोटों तक सबको अपनी पकड़ में लिये हुए है।
−
गरीब देश में...' ऐसे स्तुति सुमनों से होता है । अमेरिका
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इतनी प्रस्तावना के बाद हम विद्यार्थी, अर्थसंकट और शिक्षा विषय पर विश्लेषण पूर्वक विचार करेंगे ।
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कहता है कि भारत विकासशील देश है, उसका जीडीपी
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==== देशव्यापी अर्थदृष्टि का संकट ====
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भारत धर्म को प्रधानता देने वाला देश रहा है। समृद्धि होनी चाहिये, बहुत होनी चाहिये, उपभोग लेना चाहिये, आनन्द-प्रमोद् करना चाहिये, वैभवी जीवन जीना चाहिये परन्तु सबकुछ धर्म के अविरोधी होना चाहिये ऐसी प्राचीन समय से भारत की दृष्टि रही है। उस दृष्टि के अनुसार ही जीवनशैली का विकास हुआ है, सारी व्यवस्थायें बनी हैं । परन्तु ब्रिटिशों के प्रभाव के कारण हमारे राष्ट्रजीवन में धर्म के स्थान पर अर्थ केन्द्रस्थान पर आ गया । इस कारण से हमारे सारे व्यवहारों और व्यवस्थाओं का अन्तस्तत्त्व बदल गया, हमारी प्राथमिकतायें बदल गईं, हमारे विचार बदल गये । इस परिवर्तन के परिणाम हमें कुछ इस रूप में दीखते हैं
−
38
+
१, हम अर्थवान को गुणवान और ज्ञानवान से अधिक आदर देते हैं । अर्थ की प्रतिष्ठा ही सर्वोपरि है । अर्थ की सत्ता ही सर्वोच्च है । राज्यसत्ता भी अर्थ के नियन्त्रण में आ गई है ।
−
कम है । हम भी अमेरिका का कहना मान लेते हैं और
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२... अर्थपरायणता और कामपरायणता साथ साथ चलते हैं । अतः उपभोग ही सुख का पर्याय बन गया है । अधिक उपभोग करने में विकास और अधिक उपभोग हेतु अधिक साधन, अधिक अर्थ प्राप्त करने में सफलता तथा अधिक उपभोग और अधिक अर्थ को विकास का मापदण्ड हमारे लिये जीवनमान का और जीवन की सार्थकता का पर्याय बन गया है ।
−
अपने आपको गरीब कहते हैं । परन्तु कभी ऐसा विचार
+
३.अर्थ और काम दोनों साथ साथ चलते हैं और उपभोग परायणता हमारी सामान्य प्रवृत्ति बन गई है यह सत्य होने पर भी अर्थ और काम में अर्थ ही प्रमुख बन गया है । यह बुद्धिगम्य नहीं है, तार्किक नहीं है तो भी व्यवहार ऐसा ही दिखाई देता है। सारा आराम और सुख दाँव पर लगाकर मनुष्य पैसा कमाने में लगा है । व्यवसाय करने वाले का स्वास्थ्य खराब हो रहा है । अनेक प्रकार की बीमारियाँ लग गई हैं, आराम नहीं मिल रहा है, परिवार के लोगों के साथ मिलकर आनन्दुप्रमोद नहीं प्राप्त हो रहा है, बच्चों की और ध्यान देने का समय नहीं है, विचार करने की फुर्सत नहीं है तो भी लोग धन कमाने में लगे हैं । सुख के लिये धन नहीं, धन के लिये ही धन चाहिये ऐसी स्थिति बन गई है । इस कारण से उपभोग की दृष्टि भी बदल गई है। काम करने में सुख नहीं पैसा है और पैसा खर्च करके उपभोग करना है तब काम नहीं करना ऐसी श्रान््त धारणा बन गई है। पैसा कमाने का सुख अलग प्रकार का है और पैसा खर्च करने का अलग प्रकार का । दोनों ही अस्वाभाविक हैं ।
−
नहीं करते कि भारत वास्तव में गरीब है कि नहीं, अमेरिका
+
४. अर्थनिष्ठता के कारण सभी बातों की कीमत पैसे में ही आँकी जाती है । जो अधिक पैसे देकर खरीदा जाता है वह अच्छा है और कम पैसा देकर प्राप्त होता है वह हल्का है ऐसी समझ बनती है । जिसमें अधिक वेतन मिलता है वह काम अच्छा है और कम मिलता है वह हल्का ऐसा माना जाता है । अधिक कमाई होती है वह धन्धा अच्छा है और कम होती है वह अच्छा नहीं ऐसा प्रस्थापित होता है । जिससे अधिक वेतन वाली नौकरी मिलती है वह पढाई अच्छी है और कम वेतन वाली मिलती है वह अच्छी नहीं ऐसी मानसिकता बनती है । जिसमें अधिक वेतन वाली नौकरी मिलती है उस पढ़ाई का शुल्क ऊँचा होना और कम वेतन प्राप्त करवाने वाली पढ़ाई का शुल्क कम होना स्वाभाविक माना जाता है । पैसा प्राप्त करने हेतु ईमान, स्वमान, स्वतन्त्रता, स्वजन, स्वधर्म, संस्कार का त्याग करने में कोई हिचकिचाहट नहीं लगती । धनप्राप्ति के लिये देश छोड़ना और विदेश की सेवा करना, विदेश में बस जाना बुरा काम है ऐसा नहीं लगता । कितना भी शिक्षित हो तो भी पैसा नहीं कमाया तो उसकी शिक्षा का कोई मूल्य नहीं ऐसा लगता है । पैसा लेने वाला पैसा देनेवाले की ख़ुशामद करेगा यही स्वाभाविक है ।
−
कहता है उसमें कितना तथ्य है, भारत यदि वास्तव में गरीब
+
शिक्षा के क्षेत्र में इसके अनर्थ विविध स्वरूपों में दिखाई देते हैं। जिस विद्यालय की फीस अधिक है, जिसका भवन भव्य है, सुविधायें अधिक हैं वह विद्यालय अच्छा माना जाता है। डॉक्टर, इन्जिनियर प्रबन्धन, संगणक आदि विषयों की पढाई अच्छी मानी जाती है । साहित्य, समाजशास्त्र, नीति शास्त्र आदि की पढाई की उपेक्षा होती है । परीक्षा के लिये ही पढ़ाई की जाती है, पुरस्कार प्राप्त करने के लिये ही कार्यक्रमों का आयोजन होता है । सेवाकार्य भी पुरस्कार की अपेक्षा से होता है। नैतिक शिक्षा भी परीक्षा का विषय है । विद्यालय और विद्यार्थी के सम्बन्ध व्यापारी और ग्राहक के हैं, पैसे के बदले में पदवी के रूप में विद्या बेची जाती है। इस व्यवस्था में शिक्षक सेल्समेन है जिसे उसके काम का वेतन मिलता है । शिक्षा सर्वव्यापी बाजारतन्त्र का एक हिस्सा है । वह एक बडा उद्योग है जिसका आश्रय करके पुस्तकों ; लेखन सामग्री, शैक्षिक साधनसामग्री, गणवेश, जूते, नाश्ते के डिब्बे, बस्ते आदि के व्यवसाय चलते हैं ।
−
है तो गरीबी के कारण क्या हैं, भूतकाल में जो सोने
+
==== अर्थव्यवहार और अर्थदृष्टि के उदाहरण ====
+
ऐसी व्यापक व्यवस्था में विद्यार्थी और उसका परिवार यदि अर्थकेन्द्री मानसवाला बन जाता है तो क्या आश्चर्य है ? अत्यन्त छोटी आयु से विद्यार्थियों का अर्थव्यवहार और अर्थदृष्टि किस प्रकार बनती जाती है और सबकुछ उसके व्यक्तित्व का, उसके चरित्र का अभिन्न अंग किस प्रकार बनता जाता है उसके कुछ उदाहरण देखें...
−
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+
१. घर में छोटा बालक कोई भी मूल्यवान वस्तु लेता है, उससे खेलता है, उसे तोड़ता है और घर में किसी को भी उसमें आपत्ति नहीं होती । नष्ट होने वाली वस्तु लेपटोप, सीडी, पुस्तक, कपड़ा आदि कुछ भी हो सकता है। आर्थिक नुकसान का कोई गम नहीं है ।
−
की चिडिया कहा जाता था वह देश
+
२. घर में ही क्रिकेट खेला जा रहा है, फुटबॉल खेला जा रहा है और आलमारी का काँच, ऊपर छत से लटकता हुआ झुम्मर, दीवार पर का शीशा, टीवी का पर्दा टूटकर बिखर जाता है तो भी न कोई दुःख का अनुभव करता है, न बच्चों को कोई परावृत्त करता है न आर्थिक नुकसान का अहेसास होता है ।
−
आज गरीब कैसे हो गया, गरीब हुआ तो हुआ अब पुनः
+
३. कपड़े, जूते, मोजे, बस्ता, नाश्ते का डिब्बा, पानी की बोतल, पेन्सिल, रबड़, कागज, पेन आदि सामग्री का कोई हिसाब ही नहीं रहता । रखरखाव और मितव्ययिता की संकल्पना सम्पूर्ण रूप से गायब है । वस्तु को आवश्यकता से अधिक मात्रा में नहीं प्रयोग में लाना सिखाया ही नहीं जाता है । अपव्यय नहीं करना चाहिये ऐसा लगता ही नहीं है ।
−
समृद्ध होने के उपाय हैं कि नहीं ।
+
४. पैकिंग का खर्च कितनी बुद्दिहीनता का निदरद्शक है इसकी कोई कल्पना ही नहीं है ।
−
आर्थिक क्षेत्र में हम व्यक्तिगत से लेकर समग्र देश के
+
५. जो मन में आता है वह मिलना ही चाहिये ऐसी मनोवृत्ति का पोषण किया जाता है। ऐसा होना स्वाभाविक ही है ऐसा बच्चों का मानस बन जाता है ।
−
स्तर पर जो कुछ कर रहे हैं वह अब अत्यन्त सम्भ्रमित
+
६. रेल की छः घण्टे की यात्रा का एक दृश्य । आठ वर्ष की बालिका अपने मातापिता के साथ है । कुरकुरे वाला आया, दो पेकेट लिये, साथ में पोपिन्स का पैकेट भी लिया । थोडे ही खाये थे कि पेप्लीकोला वाला आया । पेप्सी लिया । थोडा पीया बाकी रख दिया । बीस मिनट के बाद रेल केण्टिन का नास्ता आया । एक पेकेट लिया । थोडा खाया, अच्छा नहीं लगा । माँने कहा अच्छा नहीं लगता है तो मत खाओ । नहीं खाया, फैंक दिया । आइसक्रीम आई, आइसक्रीम ली, फ्रूटी आई फ्रूटी ली । इस प्रकार छः घण्टे के सफर में चार सौ रूपये की खरीदी की जिसमें से सौ रूपये का भी खाया नहीं, उतरते समय बचा हुआ सब फैंक दिया । मातापिता का ऐसा अनाडीपन बच्चे में सहज उतरता है । पैसा खर्च करने में कोई विचार भी करना होता है, कोई हिसाब भी करना होता है ऐसा विषय ही कभी आता नहीं है । यह भी प्रतिनिधिक उदाहरण है ।
−
अवस्था के लक्षण हैं । दोसौ वर्षों का ब्रिटिशों के शासन
+
७. विद्यालय में पढ़ानेवाले अध्यापक के घर में एक छोटे बेटे के साथ चार सदस्य हैं । पत्नी भी महाविद्यालय में पढाती है । दोनों का मिलकर मासिक दो लाख की आमदनी है । उनका खानेपीने का खर्च मासिक तीस हजार रूपये होता है । उसमें होटेलिंग, पार्टी, गेस, विद्युत आदि का समावेश नहीं है । रीत ऐसी है कि मॉल में गये, तो सामने दिखा वह लिया कुछ दिन के बाद वह खराब हो गया, फैक दिया नया लिया । साठ प्रतिशत उपयोग करने के लिये, चालीस प्रतिशत फैंकने के लिये ही होता है ।
−
का काल क्या आया कि हमारा राष्ट्रीय जीवन अस्तव्यस्त
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८. घर में चौदह वर्ष की और दस वर्ष की बालिकायें हैं । नहाने का साबुन खेल खेल में शौचकूल में गिर जाता है । कोई चिन्ता नहीं । चार जोडी जूतों में से एक कहीं खो जाता है, कोई चिन्ता नहीं । खेल खेल में बस्ता फट जाता है, कोई चिन्ता नहीं । खेल खेल में कपडे पर कीचड गिरता है फैंक दो । खींचातानी में कपड़ा फटता है । अब पहनने के काम का नहीं, फैंक दो । लिखते लिखते गलती हो गई, कागज फाड़कर फैंक दो । सारी महँगी वस्तुओं के साथ यही व्यवहार होता है। अब उससे कुछ अनुचित है ऐसा कहनेवाले न मातापिता है, न बडे बुजुर्ग हैं, न शिक्षक हैं, न साधु सन्त हैं, न पुस्तक हैं, न शाख्र हैं, न विज्ञापन है । फिर छात्रों के लिये ऐसा करना सहज ही तो है । ऐसे में देश का द्रिद्र होना अवश्यंभावी है ।
−
और तहसनहस हो गया और हमारी दृष्टि इतनी धुँधली हो
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९. आय के अनुसार व्यय होना व्यावहारिक समझदारी का लक्षण माना गया है। बचत करना अनिवार्य माना गया है । दान करना नैतिक कर्तव्य माना गया है । भारतीय अर्थव्यवहार के ये आधारभूत सूत्र हैं । आज इनमें से एक का भी विचार नहीं किया गया है । आय से अधिक खर्चा, बैंक का लोन, बचत का नामोनिशान नहीं, हर मास हप्ता भरने का तनाव, कमाई की अनिश्चितता, बिना काम किये पैसा कमाने का लालच, पैसा कमाने में नीतिमत्ता का कोई बन्धन नहीं । इन कारणों से बढते अनाचार, श्रष्टाचार, शोषण और तनाव की कोई सीमा नहीं । इस वातावरण में छात्रों को नीतिसम्मत श्रमप्रतिष्ठ, शुद्ध अर्थव्यवहार की शिक्षा मिलना अत्यन्त कठिन है । स्वमान, स्वतन्त्रता और स्वावलम्बन का मूल्य समझना भी बहुत कठिन है ।
−
गई कि सबकुछ विपरीत दिखाई देने लगा । यह विपरीतता
+
=== अर्थ की शिक्षा अनिवार्य है ===
+
इस भीषण परिस्थिति में विद्यार्थियों को अर्थशुचिता, धर्म के अविरोधी अधथर्जिन, संयमित उपभोग, आर्थिक स्वतन्त्रता आदि की शिक्षा देना कठिन होने पर भी अनिवार्य है क्योंकि इसके बिना देश समृद्ध भी नहीं बन सकता और प्राप्त समृद्धि को चिरस्थायी भी नहीं बना सकता । जो बात देश की है वही व्यक्ति की भी है ।
−
बडों से लेकर छोटों तक सबको अपनी पकड़ में लिये हुए
+
कठिन होने पर भी विद्यालयों को यह सिखाना चाहिये । विद्यालयों को छोड़कर अन्यत्र कहीं इसका प्रारम्भ नहीं हो सकता ।
−
a |
+
छोटे से लेकर बडे उपाय इस प्रकार हो सकते हैं.....
−
इतनी प्रस्तावना के बाद हम विद्यार्थी, अर्थसंकट और
+
१. विद्यार्थियों का बस्ता बहुत कम करना चाहिये कम से कम सामग्री से अच्छी से अच्छी पढाई किस प्रकार हो सकती है इसके प्रयोग करने चाहिये और उचित आयु में विद्यार्थियों को भी प्रयोग करने में सहभागी बनाना चाहिये ।
−
शिक्षा विषय पर विश्लेषण पूर्वक विचार करेंगे ।
+
उदाहरण के लिये रेत में ऊँगली से 'क' लिखा जाता है, भूमि पर खडिया से 'क' लिखा जाता है, पाटी पर पेन से 'क' लिखा जाता है, कागज पर पेंसिल से 'क' लिखा जाता है और टैब पर भी 'क' लिखा जाता है । इसमें आर्थिक और शैक्षिक दोनों दृष्टि से रेत पर ऊँगली से लिखा जानेवाला 'क' सर्वश्रेष्ठ है यह कोई भी बुद्धिमान व्यक्ति कहेगा । कया
−
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देशव्यापी अर्थदृष्टि का संकट
−
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भारत धर्म को प्रधानता देने वाला देश रहा है।
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−
समृद्धि होनी चाहिये, बहुत होनी चाहिये, उपभोग लेना
−
−
चाहिये, आनन्द-प्रमोद् करना चाहिये, वैभवी जीवन जीना
−
−
चाहिये परन्तु सबकुछ धर्म के अविरोधी होना चाहिये ऐसी
−
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प्राचीन समय से भारत की दृष्टि रही है। उस दृष्टि के
−
−
अनुसार ही जीवनशैली का विकास हुआ है, सारी
−
−
व्यवस्थायें बनी हैं । परन्तु ब्रिटिशों के प्रभाव के कारण
−
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हमारे राष्ट्रजीवन में धर्म के स्थान पर अर्थ केन्द्रस्थान पर आ
−
−
गया । इस कारण से हमारे सारे व्यवहारों और व्यवस्थाओं
−
−
का अन्तस्तत्त्व बदल गया, हमारी प्राथमिकतायें बदल गईं,
−
−
हमारे विचार बदल गये । इस परिवर्तन के परिणाम हमें कुछ
−
−
इस रूप में दीखते हैं
−
−
१, हम अर्थवान को गुणवान और ज्ञानवान से अधिक
−
−
आदर देते हैं । अर्थ की प्रतिष्ठा ही सर्वोपरि है । अर्थ
−
−
की सत्ता ही सर्वोच्च है । राज्यसत्ता भी अर्थ के
−
−
नियन्त्रण में आ गई है ।
−
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२... अर्थपरायणता और कामपरायणता साथ साथ चलते
−
−
हैं । अतः उपभोग ही सुख का पर्याय बन गया है ।
−
−
अधिक उपभोग करने में विकास और अधिक उपभोग
−
−
हेतु अधिक साधन, अधिक अर्थ प्राप्त करने में
−
−
3x
−
−
भारतीय शिक्षा के व्यावहारिक आयाम
−
−
सफलता तथा अधिक उपभोग और अधिक अर्थ को
−
−
विकास का मापदण्ड हमारे लिये जीवनमान का और
−
−
जीवन की सार्थकता का पर्याय बन गया है ।
−
−
अर्थ और काम दोनों साथ साथ चलते हैं और
−
−
उपभोग परायणता हमारी सामान्य प्रवृत्ति बन गई है
−
−
यह सत्य होने पर भी अर्थ और काम में अर्थ ही
−
−
प्रमुख बन गया है । यह बुद्धिगम्य नहीं है, तार्किक
−
−
नहीं है तो भी व्यवहार ऐसा ही दिखाई देता है।
−
−
सारा आराम और सुख दाँव पर लगाकर मनुष्य पैसा
−
−
कमाने में लगा है । व्यवसाय करने वाले का स्वास्थ्य
−
−
खराब हो रहा है । अनेक प्रकार की बीमारियाँ लग
−
−
गई हैं, आराम नहीं मिल रहा है, परिवार के लोगों के
−
−
साथ मिलकर आनन्दुप्रमोद नहीं प्राप्त हो रहा है,
−
−
बच्चों की और ध्यान देने का समय नहीं है, विचार
−
−
करने की फुर्सत नहीं है तो भी लोग धन कमाने में
−
−
लगे हैं । सुख के लिये धन नहीं, धन के लिये ही
−
−
धन चाहिये ऐसी स्थिति बन गई है । इस कारण से
−
−
उपभोग की दृष्टि भी बदल गई है। काम करने में
−
−
सुख नहीं पैसा है और पैसा खर्च करके उपभोग
−
−
करना है तब काम नहीं करना ऐसी श्रान््त धारणा बन
−
−
गई है। पैसा कमाने का सुख अलग प्रकार का है
−
−
और पैसा खर्च करने का अलग प्रकार का । दोनों ही
−
−
अस्वाभाविक हैं ।
−
−
अर्थनिष्ठता के कारण सभी बातों की कीमत पैसे में ही
−
−
आँकी जाती है । जो अधिक पैसे देकर खरीदा जाता
−
−
है वह अच्छा है और कम पैसा देकर प्राप्त होता है
−
−
वह हल्का है ऐसी समझ बनती है । जिसमें अधिक
−
−
वेतन मिलता है वह काम अच्छा है और कम मिलता
−
−
है वह हल्का ऐसा माना जाता है । अधिक कमाई
−
−
होती है वह धन्धा अच्छा है और कम होती है वह
−
−
अच्छा नहीं ऐसा प्रस्थापित होता है । जिससे अधिक
−
−
वेतन वाली नौकरी मिलती है वह पढाई अच्छी है
−
−
और कम वेतन वाली मिलती है वह अच्छी नहीं
−
−
ऐसी मानसिकता बनती है । जिसमें अधिक वेतन
−
−
वाली नौकरी मिलती है उस पढ़ाई का शुल्क ऊँचा
−
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−
−
पर्व २ : विद्यार्थी, शिक्षक, विद्यालय, परिवार
−
−
होना और कम वेतन प्राप्त करवाने वाली पढ़ाई का
−
−
शुल्क कम होना स्वाभाविक माना जाता है । पैसा
−
−
प्राप्त करने हेतु ईमान, स्वमान, स्वतन्त्रता, स्वजन,
−
−
स्वधर्म, संस्कार का त्याग करने में कोई हिचकिचाहट
−
−
नहीं लगती । धनप्राप्ति के लिये देश छोड़ना और
−
−
विदेश की सेवा करना, विदेश में बस जाना बुरा काम
−
−
है ऐसा नहीं लगता । कितना भी शिक्षित हो तो भी
−
−
पैसा नहीं कमाया तो उसकी शिक्षा का कोई मूल्य
−
−
नहीं ऐसा लगता है । पैसा लेने वाला पैसा देनेवाले
−
−
की ख़ुशामद करेगा यही स्वाभाविक है ।
−
−
शिक्षा के क्षेत्र में इसके अनर्थ विविध स्वरूपों में
−
−
दिखाई देते हैं। जिस विद्यालय की फीस अधिक है,
−
−
जिसका भवन भव्य है, सुविधायें अधिक हैं वह विद्यालय
−
−
अच्छा माना जाता है। डॉक्टर, इन्जिनियर प्रबन्धन,
−
−
संगणक आदि विषयों की पढाई अच्छी मानी जाती है ।
−
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साहित्य, समाजशास्त्र, नीति शास्त्र आदि की पढाई की
−
−
उपेक्षा होती है । परीक्षा के लिये ही पढ़ाई की जाती है,
−
−
पुरस्कार प्राप्त करने के लिये ही कार्यक्रमों का आयोजन
−
−
होता है । सेवाकार्य भी पुरस्कार की अपेक्षा से होता है।
−
−
नैतिक शिक्षा भी परीक्षा का विषय है । विद्यालय और
−
−
विद्यार्थी के सम्बन्ध व्यापारी और ग्राहक के हैं, पैसे के
−
−
बदले में पदवी के रूप में विद्या बेची जाती है। इस
−
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व्यवस्था में शिक्षक सेल्समेन है जिसे उसके काम का वेतन
−
−
मिलता है । शिक्षा सर्वव्यापी बाजारतन्त्र का एक हिस्सा
−
−
है । वह एक बडा उद्योग है जिसका आश्रय करके पुस्तकों ;
−
−
लेखन सामग्री, शैक्षिक साधनसामग्री, गणवेश, जूते, नाश्ते
−
−
के डिब्बे, बस्ते आदि के व्यवसाय चलते हैं ।
−
−
अर्थव्यवहार और अर्थदृष्टि के उदाहरण
−
−
ऐसी व्यापक व्यवस्था में विद्यार्थी और उसका परिवार
−
−
यदि अर्थकेन्द्री मानसवाला बन जाता है तो क्या आश्चर्य
−
−
है ? अत्यन्त छोटी आयु से विद्यार्थियों का अर्थव्यवहार
−
−
और अर्थदृष्टि किस प्रकार बनती जाती है और सबकुछ
−
−
उसके व्यक्तित्व का, उसके चरित्र का अभिन्न अंग किस
−
−
प्रकार बनता जाता है उसके कुछ उदाहरण देखें...
−
−
a&
−
−
घर में छोटा बालक कोई भी
−
−
मूल्यवान वस्तु लेता है, उससे खेलता है, उसे तोड़ता
−
−
है और घर में किसी को भी उसमें आपत्ति नहीं
−
−
होती । नष्ट होने वाली वस्तु लेपटोप, सीडी, पुस्तक,
−
−
कपड़ा आदि कुछ भी हो सकता है। आर्थिक
−
−
नुकसान का कोई गम नहीं है ।
−
−
घर में ही क्रिकेट खेला जा रहा है, फुटबॉल खेला
−
−
जा रहा है और आलमारी का काँच, ऊपर छत से
−
−
लटकता हुआ झुम्मर, दीवार पर का शीशा, टीवी का
−
−
पर्दा टूटकर बिखर जाता है तो भी न कोई दुःख का
−
−
अनुभव करता है, न बच्चों को कोई परावृत्त करता है
−
−
न आर्थिक नुकसान का अहेसास होता है ।
−
−
कपड़े, जूते, मोजे, बस्ता, नाश्ते का डिब्बा, पानी की
−
−
बोतल, पेन्सिल, रबड़, कागज, पेन आदि सामग्री का
−
−
कोई हिसाब ही नहीं रहता । रखरखाव और
−
−
मितव्ययिता की संकल्पना सम्पूर्ण रूप से गायब है ।
−
−
वस्तु को आवश्यकता से अधिक मात्रा में नहीं प्रयोग
−
−
में लाना सिखाया ही नहीं जाता है । अपव्यय नहीं
−
−
करना चाहिये ऐसा लगता ही नहीं है ।
−
−
पैकिंग का खर्च कितनी बुद्दिहीनता का निदरद्शक है
−
−
इसकी कोई कल्पना ही नहीं है ।
−
−
जो मन में आता है वह मिलना ही चाहिये ऐसी
−
−
मनोवृत्ति का पोषण किया जाता है। ऐसा होना
−
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स्वाभाविक ही है ऐसा बच्चों का मानस बन जाता है ।
−
−
रेल की छः घण्टे की यात्रा का एक दृश्य । आठ वर्ष
−
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की बालिका अपने मातापिता के साथ है । कुरकुरे
−
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वाला आया, दो पेकेट लिये, साथ में पोपिन्स का
−
−
पैकेट भी लिया । थोडे ही खाये थे कि पेप्लीकोला
−
−
वाला आया । पेप्सी लिया । थोडा पीया बाकी रख
−
−
दिया । बीस मिनट के बाद रेल केण्टिन का aren
−
−
आया । एक पेकेट लिया । थोडा खाया, अच्छा नहीं
−
−
लगा । माँने कहा अच्छा नहीं लगता है तो मत
−
−
खाओ । नहीं खाया, फैंक दिया । आइसक्रीम आई,
−
−
आइसक्रीम ली, फ्रूटी आई फ्रूटी ली । इस प्रकार छः
−
−
घण्टे के सफर में चार सौ रूपये की खरीदी की जिसमें
−
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−
−
9.
−
−
८.
−
−
8.
−
−
से सौ रूपये का भी खाया नहीं, उतरते
−
−
समय बचा हुआ सब फैंक दिया । मातापिता का ऐसा
−
−
अनाडीपन बच्चे में सहज उतरता है । पैसा खर्च करने
−
−
में कोई विचार भी करना होता है, कोई हिसाब भी
−
−
करना होता है ऐसा विषय ही कभी आता नहीं है ।
−
−
यह भी प्रतिनिधिक उदाहरण है ।
−
−
विद्यालय में पढ़ानेवाले अध्यापक के घर में एक छोटे
−
−
बेटे के साथ चार सदस्य हैं । पत्नी भी महाविद्यालय
−
−
में पढाती है । दोनों का मिलकर मासिक दो लाख की
−
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आमदनी है । उनका खानेपीने का खर्च मासिक तीस
−
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हजार रूपये होता है । उसमें होटेलिंग, पार्टी, गेस,
−
−
विद्युत आदि का समावेश नहीं है । रीत ऐसी है कि
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मॉल में गये, तो सामने दिखा वह लिया कुछ दिन के
−
−
बाद वह खराब हो गया, फैक दिया नया लिया ।
−
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साठ प्रतिशत उपयोग करने के लिये, चालीस प्रतिशत
−
−
फैंकने के लिये ही होता है ।
−
−
घर में चौदह वर्ष की और दस वर्ष की बालिकायें
−
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हैं । नहाने का साबुन खेल खेल में शौचकूल में गिर
−
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जाता है । कोई चिन्ता नहीं । चार जोडी जूतों में से
−
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एक कहीं खो जाता है, कोई चिन्ता नहीं । खेल
−
−
खेल में बस्ता फट जाता है, कोई चिन्ता नहीं । खेल
−
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खेल में कपडे पर कीचड गिरता है फैंक दो ।
−
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खींचातानी में कपड़ा फटता है । अब पहनने के काम
−
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का नहीं, फैंक दो । लिखते लिखते गलती हो गई,
−
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कागज फाड़कर फैंक दो । सारी महँगी वस्तुओं के
−
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साथ यही व्यवहार होता है। अब उससे कुछ
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अनुचित है ऐसा कहनेवाले न मातापिता है, न बडे
−
−
बुजुर्ग हैं, न शिक्षक हैं, न साधु सन्त हैं, न पुस्तक
−
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हैं, न शाख्र हैं, न विज्ञापन है । फिर छात्रों के लिये
−
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ऐसा करना सहज ही तो है ।
−
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ऐसे में देश का द्रिद्र होना अवश्यंभावी है ।
−
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आय के अनुसार व्यय होना व्यावहारिक समझदारी
−
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का लक्षण माना गया है। बचत करना अनिवार्य
−
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माना गया है । दान करना नैतिक कर्तव्य माना गया
−
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है । भारतीय अर्थव्यवहार के ये आधारभूत सूत्र हैं ।
−
−
3&
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भारतीय शिक्षा के व्यावहारिक आयाम
−
−
आज इनमें से एक का भी विचार नहीं किया गया
−
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है । आय से अधिक खर्चा, बैंक का लोन, बचत का
−
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नामोनिशान नहीं, हर मास हप्ता भरने का तनाव,
−
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कमाई की अनिश्चितता, बिना काम किये पैसा कमाने
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का लालच, पैसा कमाने में नीतिमत्ता का कोई बन्धन
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नहीं । इन कारणों से बढते अनाचार, श्रष्टाचार,
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शोषण और तनाव की कोई सीमा नहीं । इस
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वातावरण में छात्रों को नीतिसम्मत श्रमप्रतिष्ठ, शुद्ध
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अर्थव्यवहार की शिक्षा मिलना अत्यन्त कठिन है ।
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स्वमान, स्वतन्त्रता और स्वावलम्बन का मूल्य
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समझना भी बहुत कठिन है ।
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अर्थ की शिक्षा अनिवार्य है
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इस भीषण परिस्थिति में विद्यार्थियों को अर्थशुचिता,
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धर्म के अविरोधी अधथर्जिन, संयमित उपभोग, आर्थिक
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स्वतन्त्रता आदि की शिक्षा देना कठिन होने पर भी
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अनिवार्य है क्योंकि इसके बिना देश समृद्ध भी नहीं बन
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सकता और प्राप्त समृद्धि को चिरस्थायी भी नहीं बना
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सकता । जो बात देश की है वही व्यक्ति की भी है ।
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कठिन होने पर भी विद्यालयों को यह सिखाना
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चाहिये । विद्यालयों को छोड़कर अन्यत्र कहीं इसका प्रारम्भ
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नहीं हो सकता ।
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श्,
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छोटे से लेकर बडे उपाय इस प्रकार हो सकते हैं
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विद्यार्थियों का बस्ता बहुत कम करना चाहिये कम से
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कम सामग्री से अच्छी से अच्छी पढाई किस प्रकार
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हो सकती है इसके प्रयोग करने चाहिये और उचित
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आयु में विद्यार्थियों को भी प्रयोग करने में सहभागी
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बनाना चाहिये ।
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उदाहरण के लिये रेत में ऊँगली से *क' लिखा
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जाता है, भूमि पर खडिया से *क' लिखा जाता है,
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पाटी पर पेन से “क' लिखा जाता है, कागज पर
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पेंसिल से “*क' लिखा जाता है और टैब पर भी “क'
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लिखा जाता है । इसमें आर्थिक और शैक्षिक दोनों
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दृष्टि से रेत पर ऊँगली से लिखा जानेवाला ‘a’
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सर्वश्रेष्ठ है यह कोई भी बुद्धिमान व्यक्ति कहेगा । कया
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