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| सरकारी तंत्र में पढ़ने की, निरीक्षण करने की, परीक्षा की, प्रशिक्षण की पूरी व्यवस्था होती है, पुस्तके, गणवेश आदि भी दिए जाते है, मध्याहन भोजन योजना भी चलती है परन्तु तंत्र इतना व्यक्तिहीन है कि पढ़ने पढ़ाने का काम ही नहीं चलता है। तर्क यह दिया जाता है की सरकारी विद्यालयों में झुग्गी झोंपड़ियों के बच्चे ही आतें हैं इसलिए वहां पढाई अच्छी नहीं होती। परन्तु यह तर्क सही नहीं है। वे भी पढ़ सकते है, अच्छा पढ़ सकते है परन्तु पढाने की कोई परवाह नहीं करता। सरकारी प्राथमिक विद्यालयों के नहीं पढ़ाने के कारनामे इतने अधिक प्रसिद्ध है कि उनका वर्णन करने की आवश्यकता ही नहीं। | | सरकारी तंत्र में पढ़ने की, निरीक्षण करने की, परीक्षा की, प्रशिक्षण की पूरी व्यवस्था होती है, पुस्तके, गणवेश आदि भी दिए जाते है, मध्याहन भोजन योजना भी चलती है परन्तु तंत्र इतना व्यक्तिहीन है कि पढ़ने पढ़ाने का काम ही नहीं चलता है। तर्क यह दिया जाता है की सरकारी विद्यालयों में झुग्गी झोंपड़ियों के बच्चे ही आतें हैं इसलिए वहां पढाई अच्छी नहीं होती। परन्तु यह तर्क सही नहीं है। वे भी पढ़ सकते है, अच्छा पढ़ सकते है परन्तु पढाने की कोई परवाह नहीं करता। सरकारी प्राथमिक विद्यालयों के नहीं पढ़ाने के कारनामे इतने अधिक प्रसिद्ध है कि उनका वर्णन करने की आवश्यकता ही नहीं। |
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| + | बिना पढ़े पढ़ाये पास कर देना सरकारी मज़बूरी है। निःशुल्क और अनिवार्य शिक्षा का कानून, सर्व शिक्षा अभियान आदि योजनाओं को चलाने की मज़बूरी है, शिक्षा को चलाने की मजबूरी है । ऐसी स्थिति में तन्त्र चलता है, शिक्षा ठप्प है। |
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− | पर्व २ : विद्यार्थी, शिक्षक, विद्यालय, परिवार
| + | जहाँ ऊँचा शुल्क, अनेक सुविधायें, अनेक प्रकार से चिन्ता की जाती है वहाँ भी तो छात्र निर्बुद्ध हैं । इसका मुख्य कारण अध्यापन पद्धति का दोष ही है । |
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− | चलाने की मजबूरी है । ऐसी स्थिति में तन्त्र चलता है, शिक्षा
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− | जहाँ ऊँचा शुल्क, अनेक सुविधायें, अनेक प्रकार से | |
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− | चिन्ता की जाती है वहाँ भी तो छात्र निर्बुद्ध हैं । इसका मुख्य | |
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− | कारण अध्यापन पद्धति का दोष ही है । | |
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| जरा विचार करें... | | जरा विचार करें... |
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− | १... मातापिता और समाज के लोग ज्ञान और भावना को | + | १... मातापिता और समाज के लोग ज्ञान और भावना को महत्त्व नहीं देते, विद्यालय waa, सुविधा, साधनसामग्री आदि को ही महत्त्व देते हैं । इसके आधार पर मूल्यांकन करते हैं । |
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− | महत्त्व नहीं देते, विद्यालय waa, सुविधा, | |
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− | साधनसामग्री आदि को ही महत्त्व देते हैं । इसके | |
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− | २... अभिभावकों और शिक्षकों का एकदूसरे पर विश्वास नहीं
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− | है, इस कारण से परीक्षा, गृहकार्य आदि सब लिखित
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− | रूप में ही होते हैं । इस कारण से पढ़ने पढ़ाने की मौलिक
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− | पद्धतियों का विकास ही नहीं होता है । विद्यार्थियों का
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− | अध्ययन स्वाभाविक ढंग से नहीं चलता ।
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− | 3. अंकों का ही महत्त्व होने के कारण से उनके सन्दर्भ में
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− | ही पढ़ाया जाता है । परीक्षा पद्धति वर्षोवर्ष अत्यन्त
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− | यांत्रिक और अंकों के खेलवाली बन गई है, बनाई गई
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− | है इसलिये सबकी चिन्ता अंक है, ज्ञान नहीं । अतः
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− | अंक मिलते हैं, ज्ञान नहीं ।
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− | शिक्षा को अंकों का खेल बनाने वाले राजकीय और
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− | उद्योगक्षेत्र के लोग हैं । शिक्षा को पैसा, सत्ता और
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− | यंत्रों का गुलाम बना देने का परिणाम यह होता है कि
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− | यंत्र चलता है, ज्ञान, संस्कार, समझ आदि सब
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− | पलायन कर गये हैं ।
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− | शिक्षा कारागार में अपराधी जकडे होते हैं उससे भी
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− | अधिक बुरी तरह से आसुरी
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− | शक्तियों के हाथ में जकडी गई है । अब यह तन्त्र
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− | निर्जीव भी है और आसुरी भी है । इस तन्त्र से ज्ञान
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− | की अपेक्षा नहीं की जा सकती ।
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− | विट्रज्जन ज्ञान की चर्चा करते हैं, शिक्षाशास्त्री अध्ययन
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− | अध्यापन पद्धतियों की चर्चा करते हैं, मातापिता अपनी
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− | सन्तान के सुनहरे भविष्य की चिन्ता करते हैं, सरकारी
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− | अधिकारी नियम, कानून, प्रशासन, कारवाई आदि की बातें
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− | करते हैं, राजकीय पक्ष के लोग शिक्षा की नई नई योजना
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− | बनाते हैं परन्तु इस तन्त्र से किसी भी प्रकार के सार्थक ज्ञान
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− | की अपेक्षा ही नहीं की जा सकती ।
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− | ज्ञान श्रेष्ठ है, पवित्र है, उद्धारक है, सब का कल्याण
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− | करने वाला है, तन्त्र आसुरी और निष्प्राण है, तन्त्र चलाने
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− | वाले लोगों की नीयत ठीक नहीं है । ऐसे में ज्ञान ने तन्त्र और
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− | व्यक्तियों का त्याग कर दिया है । वह अपनी श्रेष्ठता और
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− | पवित्रता को इन कनिष्ठ तत्त्वों के अधीन कैसे करेगा ?
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− | इसलिये उसने स्वयं ही इनका त्याग कर दिया है । भारत में
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− | जो अभी भी पवित्र और ज्ञान का आदर करनेवाले, ज्ञान की
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− | साधना करनेवाले लोग हैं उनका आश्रय ज्ञानने ढूँढ लिया है ।
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− | परन्तु तन्त्र इन्हें पूछने वाला नहीं है क्योंकि उसे ज्ञान
| + | २... अभिभावकों और शिक्षकों का एकदूसरे पर विश्वास नहीं है, इस कारण से परीक्षा, गृहकार्य आदि सब लिखित रूप में ही होते हैं । इस कारण से पढ़ने पढ़ाने की मौलिक पद्धतियों का विकास ही नहीं होता है । विद्यार्थियों का अध्ययन स्वाभाविक ढंग से नहीं चलता । |
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− | की चिन्ता ही नहीं है । ऐसे में क्या होगा ? ज्ञानी लोग स्वयं
| + | 3. अंकों का ही महत्त्व होने के कारण से उनके सन्दर्भ में ही पढ़ाया जाता है । परीक्षा पद्धति वर्षोवर्ष अत्यन्त यांत्रिक और अंकों के खेलवाली बन गई है, बनाई गई है इसलिये सबकी चिन्ता अंक है, ज्ञान नहीं । अतः अंक मिलते हैं, ज्ञान नहीं । |
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− | समाज की चिन्ता करेंगे कि तन्त्र को ज्ञानियों से परामर्श करने
| + | ४. शिक्षा को अंकों का खेल बनाने वाले राजकीय और उद्योगक्षेत्र के लोग हैं । शिक्षा को पैसा, सत्ता और यंत्रों का गुलाम बना देने का परिणाम यह होता है कि यंत्र चलता है, ज्ञान, संस्कार, समझ आदि सब पलायन कर गये हैं । |
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− | की अकल आयेगी ? अभी तो दो में से एक भी बात सम्भव
| + | ५. शिक्षा कारागार में अपराधी जकडे होते हैं उससे भी अधिक बुरी तरह से आसुरी शक्तियों के हाथ में जकडी गई है । अब यह तन्त्र निर्जीव भी है और आसुरी भी है । इस तन्त्र से ज्ञान की अपेक्षा नहीं की जा सकती । |
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− | नहीं लगती है । न तन्त्र को होश है न ज्ञानियों में करुणा । | + | विट्रज्जन ज्ञान की चर्चा करते हैं, शिक्षाशास्त्री अध्ययन अध्यापन पद्धतियों की चर्चा करते हैं, मातापिता अपनी सन्तान के सुनहरे भविष्य की चिन्ता करते हैं, सरकारी अधिकारी नियम, कानून, प्रशासन, कारवाई आदि की बातें करते हैं, राजकीय पक्ष के लोग शिक्षा की नई नई योजना बनाते हैं परन्तु इस तन्त्र से किसी भी प्रकार के सार्थक ज्ञान की अपेक्षा ही नहीं की जा सकती । |
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− | क्या देश को अभी भी कुछ समय तक प्रतीक्षा करनी
| + | ज्ञान श्रेष्ठ है, पवित्र है, उद्धारक है, सब का कल्याण करने वाला है, तन्त्र आसुरी और निष्प्राण है, तन्त्र चलाने वाले लोगों की नीयत ठीक नहीं है । ऐसे में ज्ञान ने तन्त्र और व्यक्तियों का त्याग कर दिया है । वह अपनी श्रेष्ठता और पवित्रता को इन कनिष्ठ तत्त्वों के अधीन कैसे करेगा ? इसलिये उसने स्वयं ही इनका त्याग कर दिया है । भारत में जो अभी भी पवित्र और ज्ञान का आदर करनेवाले, ज्ञान की साधना करनेवाले लोग हैं उनका आश्रय ज्ञानने ढूँढ लिया है । |
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− | पड़ेगी ? वही जाने !
| + | परन्तु तन्त्र इन्हें पूछने वाला नहीं है क्योंकि उसे ज्ञान की चिन्ता ही नहीं है । ऐसे में क्या होगा ? ज्ञानी लोग स्वयं समाज की चिन्ता करेंगे कि तन्त्र को ज्ञानियों से परामर्श करने की अकल आयेगी ? अभी तो दो में से एक भी बात सम्भव नहीं लगती है । न तन्त्र को होश है न ज्ञानियों में करुणा । |
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− | विद्यार्थियों की अर्थदृष्टि और अर्थव्यवहार
| + | क्या देश को अभी भी कुछ समय तक प्रतीक्षा करनी पड़ेगी ? वही जाने ! |
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| + | === विद्यार्थियों की अर्थदृष्टि और अर्थव्यवहार === |
| श्रस्तावना | | श्रस्तावना |
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