Line 23: |
Line 23: |
| # वन्य सम्पदा की भयंकर लूट, हमारे ही लाभ के कानून बनाकर उनका होने वाला भयानक शोषण और उन्हें असंस्कृत मानकर उनके लिए की जाने वाली हमारे जैसी शिक्षा व्यवस्था हमने उन पर किया हुआ आक्रमण है। हमारे बुद्धिबल, सत्ताबल और पुलिसबल के कारण हमने उन्हें कहीं का नहीं रखा है । उनके लिये शिक्षा की व्यवस्था करने से पूर्व हमें ही अपनी समझ और व्यवहार ठीक कर लेने की आवश्यकता है । | | # वन्य सम्पदा की भयंकर लूट, हमारे ही लाभ के कानून बनाकर उनका होने वाला भयानक शोषण और उन्हें असंस्कृत मानकर उनके लिए की जाने वाली हमारे जैसी शिक्षा व्यवस्था हमने उन पर किया हुआ आक्रमण है। हमारे बुद्धिबल, सत्ताबल और पुलिसबल के कारण हमने उन्हें कहीं का नहीं रखा है । उनके लिये शिक्षा की व्यवस्था करने से पूर्व हमें ही अपनी समझ और व्यवहार ठीक कर लेने की आवश्यकता है । |
| # जिस प्रकार नागरी संस्कृति का आक्रमण उनके लिये संकट का एक निमित्त है उसी प्रकार धर्मांतरण का संकट बहुत बड़ा है। भारतीयता की मुख्य धारा से तोड़ने का काम एक ओर ईसाई मिशनरी और दूसरी ओर साम्यवादी खेमा करता है । विश्व के व्यापारी संगठन वन्य सम्पदा की लूट चला रहे है । भारत के व्यापारी भी इसमें पीछे नहीं हैं । एक संकट मानसिकता बदलने का है । ब्रिटीशों ने अपने शासन के दौरान उनके लिये आदिवासी शब्द का प्रयोग शुरू किया । स्वतन्त्र भारत में हमने भी बिना कोई विचार किए उसे अपना लिया है। इसका पुनर्विचार होने की आवश्यकता है । एक सादा प्रश्र पुछने की आवश्यकता है कि यदि वनवासी इस देश में मूल निवासी हैं तो हम नगरों और ग्रामों में रहने वाले, जो वनों में नहीं रहते हैं वे लोग, कौन हैं ? ब्रिटीशों ने लिखे अथवा लिखवाये इतिहास की थियरी कहती है कि जिस प्रकार आप ब्रिटीशों को आक्रान्ता कहते हैं उसी प्रकार ये नगरों और ग्रामों में रहने वाले, अपने आपको आर्य बताने वाले लोग भी भारत के नहीं हैं, वे भी बाहर से ही आक्रान्ता बनकर ही आए हैं, इसलिए यदि ब्रिटिश इस देश को छोड़कर जाएँ ऐसा कहना है तो आर्यों को भी इस देश को छोड़कर जाना चाहिए । अब तो विश्व इतिहास ने भी आर्य बाहर से भारत में आए इस थियरी को नकार दिया है । अब विश्व स्वीकार करता है कि आर्य इस देश के ही थे औए भारत से सम्पूर्ण विश्व में गए थे। परन्तु आज भी वनवासी अपने आपको वनवासी न कहकर आदिवासी अथवा मूल निवासी कहलाना अधिक पसन्द करते हैं। और नागरी लोगों को अपने शत्रु मानते हैं । नागरी लोग को भी आत्म निरीक्षण करना चाहिए। इस कारण से उनके लिये शिक्षा की व्यवस्था करना तो दूर हमने अपने आपको रोकने की आवश्यकता है । इन दो बातों का सन्दर्भ ठीक से ध्यान में लेकर उनका परिहार कैसे करना इसका ठीक से विचार कर लेने के बाद उनके लिये और उनके सन्दर्भ में शिक्षा का विचार करना चाहिए । ऐसा विचार करने के आयाम कुछ इस प्रकार हैं: | | # जिस प्रकार नागरी संस्कृति का आक्रमण उनके लिये संकट का एक निमित्त है उसी प्रकार धर्मांतरण का संकट बहुत बड़ा है। भारतीयता की मुख्य धारा से तोड़ने का काम एक ओर ईसाई मिशनरी और दूसरी ओर साम्यवादी खेमा करता है । विश्व के व्यापारी संगठन वन्य सम्पदा की लूट चला रहे है । भारत के व्यापारी भी इसमें पीछे नहीं हैं । एक संकट मानसिकता बदलने का है । ब्रिटीशों ने अपने शासन के दौरान उनके लिये आदिवासी शब्द का प्रयोग शुरू किया । स्वतन्त्र भारत में हमने भी बिना कोई विचार किए उसे अपना लिया है। इसका पुनर्विचार होने की आवश्यकता है । एक सादा प्रश्र पुछने की आवश्यकता है कि यदि वनवासी इस देश में मूल निवासी हैं तो हम नगरों और ग्रामों में रहने वाले, जो वनों में नहीं रहते हैं वे लोग, कौन हैं ? ब्रिटीशों ने लिखे अथवा लिखवाये इतिहास की थियरी कहती है कि जिस प्रकार आप ब्रिटीशों को आक्रान्ता कहते हैं उसी प्रकार ये नगरों और ग्रामों में रहने वाले, अपने आपको आर्य बताने वाले लोग भी भारत के नहीं हैं, वे भी बाहर से ही आक्रान्ता बनकर ही आए हैं, इसलिए यदि ब्रिटिश इस देश को छोड़कर जाएँ ऐसा कहना है तो आर्यों को भी इस देश को छोड़कर जाना चाहिए । अब तो विश्व इतिहास ने भी आर्य बाहर से भारत में आए इस थियरी को नकार दिया है । अब विश्व स्वीकार करता है कि आर्य इस देश के ही थे औए भारत से सम्पूर्ण विश्व में गए थे। परन्तु आज भी वनवासी अपने आपको वनवासी न कहकर आदिवासी अथवा मूल निवासी कहलाना अधिक पसन्द करते हैं। और नागरी लोगों को अपने शत्रु मानते हैं । नागरी लोग को भी आत्म निरीक्षण करना चाहिए। इस कारण से उनके लिये शिक्षा की व्यवस्था करना तो दूर हमने अपने आपको रोकने की आवश्यकता है । इन दो बातों का सन्दर्भ ठीक से ध्यान में लेकर उनका परिहार कैसे करना इसका ठीक से विचार कर लेने के बाद उनके लिये और उनके सन्दर्भ में शिक्षा का विचार करना चाहिए । ऐसा विचार करने के आयाम कुछ इस प्रकार हैं: |
− | * सर्व प्रथम हमारे विश्वविद्यालयों में वनवासी संस्कृति का अध्ययन होना चाहिए । ऐसे अध्ययन हेतु कुछ बातों का विशेष ध्यान रखना चाहिए । ऐसा अध्ययन उनके साथ नागरी जीवन की समरसता स्थापित करने की दृष्टि से होना आवश्यक है । उनकी संस्कृति की विशेषताओं को जानने की दृष्टि से होना चाहिए । हमें उनकी रक्षा के लिये क्या क्या करने की आवश्यकता पड़ेगी यह जानने की दृष्टि से होना चाहिए । | + | #* सर्व प्रथम हमारे विश्वविद्यालयों में वनवासी संस्कृति का अध्ययन होना चाहिए । ऐसे अध्ययन हेतु कुछ बातों का विशेष ध्यान रखना चाहिए । ऐसा अध्ययन उनके साथ नागरी जीवन की समरसता स्थापित करने की दृष्टि से होना आवश्यक है । उनकी संस्कृति की विशेषताओं को जानने की दृष्टि से होना चाहिए । हमें उनकी रक्षा के लिये क्या क्या करने की आवश्यकता पड़ेगी यह जानने की दृष्टि से होना चाहिए । |
− | * ऐसा अध्ययन वनवासी क्षेत्र में रहकर, उनके साथ समरस होकर, उन्हें हमारे साथ सहभागी बनाकर होना चाहिए । आज तो उनके मन में हमारे लिये विश्वास नहीं है। यह विश्वास जागृत करने का काम प्रथम करना चाहिए । वनवासी संस्कृति का अध्ययन हमें भी करना चाहिए और उनके लिये भी योजना बनानी चाहिए । | + | #* ऐसा अध्ययन वनवासी क्षेत्र में रहकर, उनके साथ समरस होकर, उन्हें हमारे साथ सहभागी बनाकर होना चाहिए । आज तो उनके मन में हमारे लिये विश्वास नहीं है। यह विश्वास जागृत करने का काम प्रथम करना चाहिए । वनवासी संस्कृति का अध्ययन हमें भी करना चाहिए और उनके लिये भी योजना बनानी चाहिए । |
− | * इस अध्ययन का केन्द्र अनिवार्य रूप से वनवासी क्षेत्र में ही होना चाहिए । वनवासी परिवेश में ही होना चाहिए । वहाँ अध्ययन करने वाले लोगों ने वहाँ की जीवनशैली अपनानी चाहिए । हम यदि नगरों में आने वाले वनवासियों को नगरों के खानपान और वस्त्र परिधान के लिये बाध्य कर सकते हैं तो हम भी उनकी शैली अपना सकते हैं । | + | #* इस अध्ययन का केन्द्र अनिवार्य रूप से वनवासी क्षेत्र में ही होना चाहिए । वनवासी परिवेश में ही होना चाहिए । वहाँ अध्ययन करने वाले लोगों ने वहाँ की जीवनशैली अपनानी चाहिए । हम यदि नगरों में आने वाले वनवासियों को नगरों के खानपान और वस्त्र परिधान के लिये बाध्य कर सकते हैं तो हम भी उनकी शैली अपना सकते हैं । |
− | * वनवासियों के पास जो ज्ञान है उसका अध्ययन करना चाहिए । अभी उनके पास जो ज्ञान है वह शास्त्रीय नहीं है, पारम्परिक है । परन्तु अनुभव यह आता है कि शास्त्रीय ज्ञान प्राप्त किए हुए अनेक लोगों की तुलना में वह अधिक पक्का और परिणामकारी है । उसका बहुत बड़ा कारण तो यह है कि उनका पारम्परिक ज्ञान भारतीयता की बैठक लिये हुए है और हमारे विश्वविद्यालयों में दिया जाने वाला ज्ञान यूरोअमेरिकी अधिष्ठान लिए हुए है । ऊपर से हमारे विश्वविद्यालयों में निष्ठापूर्वक अध्ययन भी नहीं होता है। इन दो कारणों से वनवासियों के ज्ञान का और हमारे विश्वविद्यालयों के ज्ञान का कोई मेल नहीं है । इस परिप्रेक्ष्य में उनके ज्ञान को हमने ठीक से अध्ययन कर उसे प्रतिष्ठा दिलाने का प्रयास करना चाहिए । | + | #* वनवासियों के पास जो ज्ञान है उसका अध्ययन करना चाहिए । अभी उनके पास जो ज्ञान है वह शास्त्रीय नहीं है, पारम्परिक है । परन्तु अनुभव यह आता है कि शास्त्रीय ज्ञान प्राप्त किए हुए अनेक लोगों की तुलना में वह अधिक पक्का और परिणामकारी है । उसका बहुत बड़ा कारण तो यह है कि उनका पारम्परिक ज्ञान भारतीयता की बैठक लिये हुए है और हमारे विश्वविद्यालयों में दिया जाने वाला ज्ञान यूरोअमेरिकी अधिष्ठान लिए हुए है । ऊपर से हमारे विश्वविद्यालयों में निष्ठापूर्वक अध्ययन भी नहीं होता है। इन दो कारणों से वनवासियों के ज्ञान का और हमारे विश्वविद्यालयों के ज्ञान का कोई मेल नहीं है । इस परिप्रेक्ष्य में उनके ज्ञान को हमने ठीक से अध्ययन कर उसे प्रतिष्ठा दिलाने का प्रयास करना चाहिए । |
| ''हमारी सरकारी नीतियाँ आज तो इसके विपरीत हैं अध्ययन के प्रतिकूल होता है ।'' | | ''हमारी सरकारी नीतियाँ आज तो इसके विपरीत हैं अध्ययन के प्रतिकूल होता है ।'' |
| | | |
Line 103: |
Line 103: |
| * भौतिक आवश्यकताओं के साथ साथ शारीरिक, मानसिक, बौद्धिक स्तर की जितनी भी आवश्यकतायें होती हैं उनकी भी पूर्ति करने की व्यवस्था गाँव में होती है । उदाहरण के लिये शिक्षक, पुरोहित, महाजन, पंचायत, व्यापारी आदि भी गाँव में होते ही हैं। | | * भौतिक आवश्यकताओं के साथ साथ शारीरिक, मानसिक, बौद्धिक स्तर की जितनी भी आवश्यकतायें होती हैं उनकी भी पूर्ति करने की व्यवस्था गाँव में होती है । उदाहरण के लिये शिक्षक, पुरोहित, महाजन, पंचायत, व्यापारी आदि भी गाँव में होते ही हैं। |
| * इस प्रकार गाँव एक स्वयम्पूर्ण आर्थिक,सामाजिक इकाई है । | | * इस प्रकार गाँव एक स्वयम्पूर्ण आर्थिक,सामाजिक इकाई है । |
− | जनसंख्या परिवारों के रूप में गिनी जाती है । उस | + | * जनसंख्या परिवारों के रूप में गिनी जाती है । उस जनसंख्या के अनुसार कृषि, आवास, मन्दिर, तालाब, आदि अनेक बातों के लिये आवश्यक भूमि का अनुमान कर गाँव का कद और आकार निश्चित होता है । भूमिनियोजन का एक शास्त्र ही भारत में विकसित हुआ है । व्यवसाय, जिन्हें करने वाले लोग जाति कहे जाते हैं, के अनुसार आवासों की कल्पना कर आवासनियोजन भी किया जाता है । संक्षेप में आवश्यकताओं के अनुसार नियोजन करना गाँव का एक लाक्षणिक कार्य है । गाँव की इस संकल्पना को लेकर शिक्षा की व्यवस्था करनी चाहिये । गाँव की शिक्षा अर्थकरी शिक्षा का एक मुख्य आयाम है। अर्थकरी शिक्षा की चर्चा इस ग्रन्थ में अन्यत्र की गई है । उत्पादन की वर्तमान व्यवस्था देश की समृद्धि के लिये अत्यन्त घातक है । यंत्रआधारित, बड़े बड़े कारखानों में विपुल मात्रा में उत्पादन करना और उसके वितरण के लिये बहुत बड़े परिवहन की व्यवस्था करना बुद्धिमानी का लक्षण नहीं है । इसे यथावत रखते हुए हम अच्छे समृद्ध गाँव की और देश की समृद्धि की अपेक्षा करेंगे तो वह कभी भी पूर्ण होने वाली नहीं है । इसलिये गाँव की शिक्षा का विचार गाँव की और देश के लिये गाँव की आवश्यकताओं की पूर्ति करने हेतु किया जाना चाहिये । इस दृष्टि से विचारणीय कुछ बिंदु इस प्रकार हैं: |
− | | + | # गाँव को सर्व प्रथम धर्मशिक्षा की आवश्यकता है। धर्मशिक्षा क्या होती है इसकी भी चर्चा पूर्व में हुई है । शिशु से लेकर वृद्धों तक सत्संग और कथा के माध्यम से अपने इतिहास, और इतिहास के माध्यम से राष्ट्रीयता से जुड़ना और उसमें सहभागी बनाना धर्मशिक्षा का मुख्य स्वरूप होना चाहिये । वर्तमान औपचारिक शिक्षा से भी इस प्रकार की शिक्षा की अधिक आवश्यकता है । गाँव का मन्दिर इस शिक्षा का मुख्य केन्द्र होता है । |
− | जनसंख्या के अनुसार कृषि, आवास, मन्दिर, | + | # धर्मशिक्षा सम्पूर्ण ग्रामशिक्षा का आधार है। उसके साथ कर्मशिक्षा चाहिये । कर्मशिक्षा से तात्पर्य है उत्पादन के लिये आवश्यक कारीगरी की शिक्षा । कारीगरी के छोटे से केन्द्र से लेकर बड़े अनुसन्धान केन्द्र तक के सारे शिक्षासंस्थान गाँव में होने चाहिये । स्पष्ट है कि आज के जैसे बड़े कारखाने भारत तो क्या विश्व के किसी भी देश में चलाने योग्य नहीं हैं। यंत्र आवश्यक हैं, मनुष्य के कष्ट कम करने में, कुछ अनिवार्य काम करने के लिये सहायता करने में उनका उपयोग है परन्तु मनुष्य के स्थान पर काम करने में और मनुष्य को निकम्मा, बेरोजगार और आलसी तथा अकुशल बना देने के लिये जब यंत्रों का उपयोग होता है तब संस्कृति और समृद्धि दोनों की हानि होती है। आज की भाषा में जितने भी इंजीनियरिंग और टेकनिकल विश्वविद्यालय हैं वे सारे गाँव में होने चाहिये, लोहार, सुधार आदि कारीगरों के आवास होते हैं और काम करने के स्थान होते हैं वैसे ही परिवेश में होने चाहिये । इन विश्वविद्यालयों में काम करने वाले छोटे से लेकर बड़े छात्रों, कर्मचारियों और प्राध्यापकों के वेश भी वैसे ही व्यवसाय के अनुरूप होने चाहिये । वेश व्यवसाय के अनुरूप होते हैं, गाँव या नगर के अनुरूप या सम्पत्ति के अनुरूप नहीं। |
− | | + | # वर्तमान मानसिकता ने गाँव के प्रति हीनता का और पिछड़ेपन का जो भाव पनपाया है उसका इलाज शिक्षा में होना आवश्यक है । भारत स्वाधीन होने के साथ यह भाव समाप्त होना चाहिये था परन्तु दुर्भाग्य से ऐसा नहीं हुआ। गाँव को पिछड़ा मान लिया गया। इस कारण से गाँव को जो महत्त्व दिया जाना चाहिये था वह नहीं दिया गया और भारत का नागरीकरण शुरू हो गया। आर्थिक क्षेत्र में वह यह “मूले कुठाराघात' था। अब जब गाँव उजड़ने लगे हैं और लोग भी कभी नगरों के आकर्षण से और कभी मजबूरी में गाँव छोड़ छोड़कर जा रहे हैं तब वापस मुड़कर गांवों को समृद्ध बनाना कठिन कार्य है । उस विषय में अब दो मार्ग हैं। या तो नगरीकरण को स्वीकार कर लेना और गांवों को बरबाद होते हुए देखते रहना या तो कठिन मार्ग स्वीकार कर उपाय योजना करना। |
− | तालाब, आदि अनेक बातों के लिये आवश्यक भूमि | + | # वर्तमान सन्दर्भ में गाँव की शिक्षा का विचार किया तो जा सकता है परन्तु वह करना फलदायी नहीं होगा क्योंकि फिर हम कहेंगे कि गाँव में अच्छी प्राथमिक शालाओं की सुविधा होनी चाहिये, गाँव के छात्रों को अपने ही गाँव में माध्यमिक और उच्च शिक्षा की सुविधा भी मिलनी चाहिये। परन्तु ऐसा कर भी दिया तो न शिक्षा का भला होगा न गाँव का और न देश का। फिर उन्हीं बातों को विस्तार से करने से क्या लाभ है? |
− | | + | # समृद्धि के प्रति सही दृष्टिकोण विकसित करना ग्रामशिक्षा का उद्देश्य है। भारतीय वेश और परिवेश में सादगी के साथ सौंदर्य कैसे है यह देखने की दृष्टि विकसित करनी चाहिये । कारीगरी को कला और सृजन तक कैसे विकसित किया जा सकता है उसके भी उदाहरण प्रस्तुत किये जा सकते हैं। हम जानते हैं की अठारहवीं शताब्दी में जब अंग्रेजों ने भारत के उद्योग नष्ट करने शुरू किए तब हम ग्रामकेन्द्री उद्योगप्रधान देश थे। हमारे उद्योगतन्त्र एवं कृषि केन्द्रवर्ती उद्योग होने के कारण हमारा देश कृषिप्रधान देश है ऐसा कहा जाने लगा। बड़ी गलती यह हुई कि कृषि को उद्योग नहीं मानना और शेष कारीगरी के व्यवसायों को उद्योग मानना तथा कृषि और उद्योग ऐसे दो भागों में विभाजन करना शुरू हुआ। साथ ही कृषिप्रधान का अर्थ पिछड़ा और उद्योगप्रधान का अर्थ आधुनिक ऐसा मानस में बैठा दिया गया। इस कारण से बहुत आर्थिक नुकसान हुआ। |
− | का अनुमान कर गाँव का कद और आकार निश्चित | + | # वर्तमान स्थिति यह है कि छोटे किसान खेती को छोड़ते जा रहे हैं और हम कॉर्पोरेट खेती की ओर घसीटे जा रहे हैं। आज शिक्षा का कर्तव्य है कि इससे हमें बचाये । ग्राम को हमारी परम्परा में ग्रामलक्ष्मी कहा गया है । आज ग्राम अलक्ष्मी बन गये हैं । यह दोष गांव का नहीं है, हमारी विपरीत शिक्षा और उससे जनित विपरीत नीतियों का है । परिणामस्वरूप समृद्धि का चक्र उल्टा घूम रहा है। इस चक्र की दिशा बदले बिना कुछ भी सुधार करना असम्भव है । |
− | | + | # इस विचार चक्र को उल्टा घुमाने के लिये ग्रामकेन्द्री उद्योग स्थापन करने चाहिये। उनका आकार छोटा रखना चाहिये । उनमें पेट्रोलियम या विद्युतजनित ऊर्जा से चलित यंत्रों का यदि संभव है तो शून्य या यथासम्भव कम उपयोग करना चाहिये । उन उद्योगों के साथ शिक्षा के केन्द्र जोड़ना चाहिये । इन उद्योगों ने अपने लिये आवश्यक कारीगरों को भी सिखाकर निर्माण करना चाहिये । उन्हें निपुण भी बनाना चाहिये । इन उद्योगों में कारीगरी की शिक्षा के साथ ही भाषा, संस्कृति, राष्ट्रीता आदि आवश्यक गुणों का विकास करने का प्रावधान होना चाहिये । |
− | होता है । भूमिनियोजन का एक शास्त्र ही भारत में | + | # बड़ी कक्षाओं में विश्व की आर्थिक स्थिति, भारत की आर्थिक विकास की संभावनायें, देशभक्ति के व्यावहारिक आयाम, वर्तमान आर्थिक अनिष्टों का स्वरूप तथा उनके निवारण के उपाय आदि विषय होने चाहिये । यह सब करने के लिये दृष्टियुक्त शिक्षक चाहिये, साथ में उद्योजक भी चाहिये । शिक्षक और उद्योजक मिलकर यह कार्य कर सकते हैं । इससे भी अच्छा वह होगा कि उद्योजक स्वयं शिक्षक बनकर उद्योगकेन्द्री शिक्षासंस्थान शुरू करे । वह अपना उद्योग गाँव में गाँव के लिये चलाये । |
− | | + | # भारत के सात लाख गाँव यदि इस प्रकार अपना स्वरूप परिवर्तन शुरू कर दें तो देखते ही देखते भारत विश्व की आर्थिक ताकत बन सकता है । आज यंत्र के सामने मनुष्य यदि कितना भी मजबूर दिखाई देता हो तो भी एक बार यंत्रों का निषेध कर देने से वे परास्त हो सकते हैं। यंत्र मनुष्य के लिये हैं, मनुष्य यंत्र के लिये नहीं, यह टेकनिकल शिक्षा का मूल मन्त्र होना चाहिये। |
− | विकसित हुआ है । व्यवसाय, जिन्हें करने वाले लोग | + | # ग्रामदेवता की हमारी संकल्पना लक्षणीय है । ग्रामदेवता की पूजा गाँव में उत्पादित सामग्री से होती है । भगवान विश्वकर्मा हर कारीगर के इष्टदेवता है । |
− | | + | # ग्राम के लिये शिक्षा केन्द्रों में लोकशिक्षा के जो विभिन्न आयाम हैं उन्हें भी पुनर्जीवित करना चाहिये । लोकशिक्षा के माध्यम से संस्कृति की शिक्षा देने की सुविधा हो जाएगी । मनोरंजन का उद्देश्य भी सिद्ध होगा । |
− | जाति कहे जाते हैं, के अनुसार आवासों की कल्पना | + | # अपने काम को आनंद का साधन बनाने की शिक्षा बहुत आवश्यक है। काम ही पूजा है ऐसी आध्यात्मिक बैठक भी देना चाहिये । शारीरिक परिश्रम का मूल्य बढ़ाना चाहिये । काम करने वाले की प्रतिष्ठा भी बढ़नी चाहिये । ये सब शिक्षा के अंग हैं। अर्थकरी शिक्षा केवल अधथर्जिन की शिक्षा नहीं है, वह धर्म के अविरोधी अर्थाजन की शिक्षा है, संस्कृति के अधिष्ठान पर आर्थिक समृद्धि प्राप्त करने की शिक्षा है । |
− | | |
− | कर आवासनियोजन भी किया जाता है । संक्षेप में | |
− | | |
− | आवश्यकताओं के अनुसार नियोजन करना गाँव का | |
− | | |
− | एक लाक्षणिक कार्य है । | |
− | | |
− | गाँव की इस संकल्पना को लेकर शिक्षा की व्यवस्था | |
− | | |
− | करनी चाहिये । | |
− | | |
− | गाँव की शिक्षा अर्थकरी शिक्षा का एक मुख्य आयाम | |
− | | |
− | है। अर्थकरी शिक्षा की चर्चा इस ग्रन्थ में अन्यत्र की गई | |
− | | |
− | है । उत्पादन की वर्तमान व्यवस्था देश की समृद्धि के लिये | |
− | | |
− | अत्यन्त घातक है । यंत्रआधारित, बड़े बड़े कारखानों में | |
− | | |
− | विपुल मात्रा में उत्पादन करना और उसके वितरण के लिये | |
− | | |
− | बहुत बड़े परिवहन की व्यवस्था करना बुद्धिमानी का लक्षण | |
− | | |
− | नहीं है । इसे यथावत रखते हुए हम अच्छे समृद्ध गाँव की | |
− | | |
− | और देश की समृद्धि की अपेक्षा करेंगे तो वह कभी भी पूर्ण | |
− | | |
− | होने वाली नहीं है । इसलिये गाँव की शिक्षा का विचार गाँव | |
− | | |
− | की और देश के लिये गाँव की आवश्यकताओं की पूर्ति | |
− | | |
− | करने हेतु किया जाना चाहिये । | |
− | | |
− | इस दृष्टि से विचारणीय कुछ बिंदु इस प्रकार हैं | |
− | | |
− | गाँव को सर्व प्रथम धर्मशिक्षा की आवश्यकता है । | |
− | | |
− | धर्मशिक्षा कया होती है इसकी भी चर्चा पूर्व में हुई है ।
| |
− | | |
− | शिशु से लेकर वृद्धों तक सत्संग और कथा के माध्यम | |
− | | |
− | से अपने इतिहास, और इतिहास के माध्यम से | |
− | | |
− | waa a vet और उसमें सहभागी बनाना
| |
− | | |
− | धर्मशिक्षा का मुख्य स्वरूप होना चाहिये । वर्तमान | |
− | | |
− | औपचारिक शिक्षा से भी इस प्रकार की शिक्षा की | |
− | | |
− | अधिक आवश्यकता है । गाँव का मन्दिर इस शिक्षा | |
− | | |
− | का मुख्य केन्द्र होता है । | |
− | | |
− | धर्मशिक्षा सम्पूर्ण ग्रामशिक्षा का आधार है । उसके | |
− | | |
− | साथ कर्मशिक्षा चाहिये । कर्मशिक्षा से तात्पर्य है | |
− | | |
− | उत्पादन के लिये आवश्यक कारीगरी की शिक्षा । | |
− | | |
− | कारीगरी के छोटे से केन्द्र से लेकर बड़े अनुसन्धान | |
− | | |
− | केन्द्र तक के सारे शिक्षासंस्थान गाँव में होने चाहिये । | |
− | | |
− | स्पष्ट है कि आज के जैसे बड़े कारखाने भारत तो क्या | |
− | | |
− | विश्व के किसी भी देश में चलाने योग्य नहीं हैं । यंत्र | |
− | | |
− | आवश्यक हैं, मनुष्य के कष्ट कम करने में, कुछ | |
− | | |
− | अनिवार्य काम करने के लिये सहायता करने में उनका | |
− | | |
− | उपयोग है परन्तु मनुष्य के स्थान पर काम करने में | |
− | | |
− | और मनुष्य को निकम्मा, बेरोजगार और आलसी तथा | |
− | | |
− | अकुशल बना देने के लिये जब यंत्रों का उपयोग होता | |
− | | |
− | है तब संस्कृति और समृद्धि दोनों की हानि होती है । | |
− | | |
− | आज की भाषा में जितने भी इंजीनियरिंग और | |
− | | |
− | टेकनिकल विश्वविद्यालय हैं वे सारे गाँव में होने | |
− | | |
− | चाहिये, लोहार, सुधार आदि कारीगरों के आवास | |
− | | |
− | होते हैं और काम करने के स्थान होते हैं वैसे ही | |
− | | |
− | परिवेश में होने चाहिये । इन विश्वविद्यालयों में काम | |
− | | |
− | करने वाले छोटे से लेकर बड़े छात्रों, कर्मचारियों और | |
− | | |
− | प्राध्यापकों के वेश भी वैसे ही व्यवसाय के अनुरूप | |
− | | |
− | होने चाहिये । वेश व्यवसाय के अनुरूप होते हैं, गाँव | |
− | | |
− | या नगर के अनुरूप या सम्पत्ति के अनुरूप नहीं । | |
− | | |
− | वर्तमान मानसिकता ने गाँव के प्रति हीनता का और | |
− | | |
− | पिछड़ेपन का जो भाव पनपाया है उसका इलाज शिक्षा | |
− | | |
− | में होना आवश्यक है । भारत स्वाधीन होने के साथ
| |
− | | |
− | यह भाव समाप्त होना चाहिये था परन्तु दुर्भाग्य से ऐसा | |
− | | |
− | नहीं हुआ । गाँव को पिछड़ा मान लिया गया । इस | |
− | | |
− | कारण से गाँव को जो महत्त्व दिया जाना चाहिये था | |
− | | |
− | वह नहीं दिया गया और भारत का नागरीकरण शुरू हो | |
− | | |
− | गया । आर्थिक क्षेत्र में वह यह “मूले कुठाराघात'
| |
− | | |
− | था । अब जब गाँव उजड़ने लगे हैं और लोग भी
| |
− | | |
− | कभी नगरों के आकर्षण से और कभी मजबूरी में गाँव | |
− | | |
− | छोड़ छोड़कर जा रहे हैं तब वापस मुड़कर गांवों को
| |
− | | |
− | समृद्ध बनाना कठिन कार्य है । उस विषय में अब दो | |
− | | |
− | मार्ग हैं । या तो नगरीकरण को स्वीकार कर लेना और | |
− | | |
− | गांवों को बरबाद होते हुए देखते रहना या तो कठिन | |
− | | |
− | मार्ग स्वीकार कर उपाययोजना करना । | |
− | | |
− | वर्तमान सन्दर्भ में गाँव की शिक्षा का विचार किया तो | |
− | | |
− | जा सकता है परन्तु वह करना फलदायी नहीं होगा | |
− | | |
− | क्योंकि फिर हम कहेंगे कि गाँव में अच्छी प्राथमिक | |
− | | |
− | शालाओं की सुविधा होनी चाहिये, गाँव के छात्रों को | |
− | | |
− | अपने ही गाँव में माध्यमिक और उच्च शिक्षा की | |
− | | |
− | सुविधा भी मिलनी चाहिये । परन्तु ऐसा कर भी दिया | |
− | | |
− | तो न शिक्षा का भला होगा न गाँव का और न देश | |
− | | |
− | का । फिर उन्हीं बातों को विस्तार से करने से क्या
| |
− | | |
− | लाभ है ? | |
− | | |
− | समृद्धि के प्रति सही दृष्टिकोण विकसित करना | |
− | | |
− | ग्रामशिक्षा का उद्देश्य है । भारतीय वेश और परिवेश में | |
− | | |
− | सादगी के साथ सौंदर्य कैसे है यह | |
− | | |
− | देखने की दृष्टि विकसित करनी चाहिये । कारीगरी को | |
− | | |
− | कला और सृजन तक कैसे विकसित किया जा सकता | |
− | | |
− | है उसके भी उदाहरण प्रस्तुत किये जा सकते हैं । हम
| |
− | | |
− | जानते हैं की अठारहवीं शताब्दी में जब अंग्रेजों ने | |
− | | |
− | भारत के उद्योग नष्ट करने शुरू किए तब हम | |
− | | |
− | ग्रामकेन्द्री उद्योगप्रधान देश थे । हमारे उद्योगतन्त्र एवं | |
− | | |
− | कृषि केन्द्रवर्ती उद्योग होने के कारण हमारा देश | |
− | | |
− | कृषिप्रधान देश है ऐसा कहा जाने लगा । बड़ी गलती | |
− | | |
− | यह हुई कि कृषि को उद्योग नहीं मानना और शेष | |
− | | |
− | कारीगरी के व्यवसायों को उद्योग मानना तथा कृषि | |
− | | |
− | और उद्योग ऐसे दो भागों में विभाजन करना शुरू | |
− | | |
− | हुआ । साथ ही कृषिप्रधान का अर्थ पिछड़ा और
| |
− | | |
− | उद्योगप्रधान का अर्थ आधुनिक ऐसा मानस में बैठा | |
− | | |
− | दिया गया । इस कारण से बहुत आर्थिक नुकसान | |
− | | |
− | हुआ |
| |
− | | |
− | वर्तमान स्थिति यह है कि छोटे किसान खेती को | |
− | | |
− | छोड़ते जा रहे हैं और हम कॉर्पोरेट खेती की ओर | |
− | | |
− | घसीटे जा रहे हैं। आज शिक्षा का कर्तव्य है कि | |
− | | |
− | इससे हमें बचाये । | |
− | | |
− | ग्राम को हमारी परम्परा में ग्रामलक्ष्मी कहा गया है । | |
− | | |
− | आज ग्राम अलक्ष्मी बन गये हैं । यह दोष गांव का | |
− | | |
− | नहीं है, हमारी विपरीत शिक्षा और उससे जनित | |
− | | |
− | विपरीत नीतियों का है । परिणामस्वरूप समृद्धि का | |
− | | |
− | चक्र उल्टा घूम रहा है। इस चक्र की दिशा बदले | |
− | | |
− | बिना कुछ भी सुधार करना असम्भव है । | |
− | | |
− | इस विचार चक्र को उल्टा घुमाने के लिये ग्रामकेन्द्री | |
− | | |
− | उद्योग स्थापन करने चाहिये। उनका आकार छोटा | |
− | | |
− | रखना चाहिये । उनमें पेट्रोलियम या विद्युतजनित ऊर्जा | |
− | | |
− | से चलित यंत्रों का यदि संभव है तो शून्य या | |
− | | |
− | यथासम्भव कम उपयोग करना चाहिये । उन उद्योगों | |
− | | |
− | के साथ शिक्षा के केन्द्र जोड़ना चाहिये । इन उद्योगों | |
− | | |
− | ने अपने लिये आवश्यक कारीगरों को भी सिखाकर | |
− | | |
− | निर्माण करना चाहिये । उन्हें निपुण भी बनाना | |
− | | |
− | चाहिये । इन उद्योगों में कारीगरी की शिक्षा के साथ | |
− | | |
− | ही भाषा, संस्कृति, राष्ट्रीता आदि | |
− | | |
− | आवश्यक गुणों का विकास करने का प्रावधान होना
| |
− | | |
− | चाहिये । | |
− | | |
− | बड़ी कक्षाओं में विश्व की आर्थिक स्थिति, भारत की | |
− | | |
− | आर्थिक विकास की संभावनायें, देशभक्ति के | |
− | | |
− | व्यावहारिक आयाम, वर्तमान आर्थिक अनिष्टों का | |
− | | |
− | स्वरूप तथा उनके निवारण के उपाय आदि विषय होने | |
− | | |
− | चाहिये । यह सब करने के लिये दृष्टियुक्त शिक्षक | |
− | | |
− | चाहिये, साथ में उद्योजक भी चाहिये । शिक्षक और | |
− | | |
− | उद्योजक मिलकर यह कार्य कर सकते हैं । इससे भी | |
− | | |
− | अच्छा वह होगा कि उद्योजक स्वयं शिक्षक बनकर | |
− | | |
− | उद्योगकेन्द्री शिक्षासंस्थान शुरू करे । वह अपना | |
− | | |
− | उद्योग गाँव में गाँव के लिये चलाये । | |
− | | |
− | भारत के सात लाख गाँव यदि इस प्रकार अपना | |
− | | |
− | स्वरूप परिवर्तन शुरू कर दें तो देखते ही देखते भारत | |
− | | |
− | विश्व की आर्थिक ताकत बन सकता है । आज यंत्र के | |
− | | |
− | सामने मनुष्य यदि कितना भी मजबूर दिखाई देता हो | |
− | | |
− | तो भी एक बार यंत्रों का निषेध कर देने से वे परास्त | |
− | | |
− | हो सकते हैं । यंत्र मनुष्य के लिये हैं, मनुष्य यंत्र के | |
− | | |
− | लिये नहीं यह टेकनिकल शिक्षा का मूल मन्त्र होना | |
− | | |
− | चाहिये ।
| |
− | | |
− | ग्रामदेवता की हमारी संकल्पना लक्षणीय है । | |
− | | |
− | ग्रामदेवता की पूजा गाँव में उत्पादित सामग्री से होती | |
− | | |
− | है । भगवान विश्वकर्मा हर कारीगर के इष्टदेवता है । | |
− | | |
− | ग्राम के लिये शिक्षा केन्द्रों में लोकशिक्षा के जो | |
− | | |
− | विभिन्न आयाम हैं उन्हें भी पुनर्जीवित करना चाहिये । | |
− | | |
− | लोकशिक्षा के माध्यम से संस्कृति की शिक्षा देने की | |
− | | |
− | सुविधा हो जाएगी । मनोरंजन का उद्देश्य भी सिद्ध | |
− | | |
− | होगा । | |
− | | |
− | अपने काम को आनंद का साधन बनाने की शिक्षा | |
− | | |
− | बहुत आवश्यक है। काम ही पूजा है ऐसी | |
− | | |
− | आध्यात्मिक बैठक भी देना चाहिये । शारीरिक | |
− | | |
− | परिश्रम का मूल्य बढ़ाना चाहिये । काम करने वाले | |
− | | |
− | की प्रतिष्ठा भी बढ़नी चाहिये । ये सब शिक्षा के अंग | |
− | | |
− | हैं। अर्थकरी शिक्षा केवल अधथर्जिन की शिक्षा नहीं | |
− | | |
− | है, वह धर्म के अविरोधी satis की शिक्षा है, | |
− | | |
− | संस्कृति के अधिष्ठान पर आर्थिक समृद्धि प्राप्त करने | |
− | | |
− | की शिक्षा है । | |
| | | |
| == समाज के लिये शिक्षा == | | == समाज के लिये शिक्षा == |