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{{One source|date=August 2019}}
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{{One source|date=August 2019}}भारतीय समाजव्यवस्था के दो मूल आधार हैं। एक है आश्रमव्यवस्था और दूसरा है वर्णव्यवस्था। आश्रमव्यवस्था के विषय में हमने पूर्व में चर्चा की है । इस अध्याय में वर्णव्यवस्था की चर्चा करेंगे।
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वर्णचतुष्टय और शिक्षा
== चार वर्ण ==
== चार वर्ण ==
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भारतीय समाजव्यवस्था के दो मूल आधार हैं । एक
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वर्ण क्या है ? लिखित अक्षर को वर्ण कहते हैं। उदाहरण के लिए क, ख़ आदि वर्ण हैं । रंग को भी वर्ण कहते हैं । उदाहरण के लिए श्रेतवर्ण, श्यामवर्ण आदि । परंतु सामाजिक व्यवस्था में वर्ण मनुष्य के स्वभाव के अनुसार होते हैं ।
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है. आश्रमव्यवस्था. और दूसरा है. वर्णव्यवस्था ।
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आश्रमव्यवस्था के विषय में हमने पूर्व में चर्चा की है । इस
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अध्याय में वर्णव्यवस्था की चर्चा करेंगे ।
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वर्ण क्या है ? लिखित अक्षर को वर्ण कहते हैं ।
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उदाहरण के लिए “क' ,;ख़; आदि वर्ण हैं । रंग को भी वर्ण
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कहते हैं । उदाहरण के लिए श्रेतवर्ण, श्यामवर्ण आदि ।
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परंतु सामाजिक व्यवस्था में वर्ण मनुष्य के स्वभाव के
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अनुसार होते हैं ।
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स्वभाव क्या है ? मनुष्य का गुणधर्म ही मनुष्य का
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स्वभाव है । मनुष्य की पहचान मनुष्य के स्वभाव से ही
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होती है । कोई स्वभाव से ही दयावान होता है, कोई क्रोधी
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होता है, कोई शूर होता है, कोई भीरु होता है, कोई स्वार्थी
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होता है, कोई उदार होता है, ऐसे अनेक प्रकार के मनुष्य
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होते हैं। ये गुण उनको स्वभाव से ही मिले हैं । इस
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स्वभाव के अनुसार ही मनुष्य के वर्ण भी निश्चित होते हैं ।
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मनुष्य का स्वभाव भी जन्मजन्मांतर के कर्मों के प्रति
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उसके मन के सम्बन्ध के अनुसार बनता है । मनुष्य को
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जीवनयापन के लिए अनेक प्रकार के काम करने ही होते
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हैं। एक क्षण भी मनुष्य कर्म किए बिना रह नहीं सकता
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है। ये कर्म शारीरिक भी होते हैं और बौद्धिक भी ।
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उदाहरण के लिए खाना, चलना, वस्त्र... का अर्थ है ब्राह्मण वर्ण का पुरुष क्षत्रिय, वैश्य या शूट्र स्त्री
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पहनना ये शारीरिक कर्म हैं परंतु अध्ययन करना, समस्या... से विवाह कर सकता है, क्षत्रिय वर्ण का पुरुष वैश्य या YG
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सुलझाना आदि बौद्धिक कर्म हैं । इन सब कर्मों के परिणाम... स्त्री के साथ विवाह कर सकता है, वैश्य वर्ण का पुरुष शुद्र
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होते हैं जिन्हें कर्मफल कहते हैं । कर्म किए तो कर्मफल स्त्री के साथ विवाह कर सकता है। इस सीमित रूप में
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होते ही हैं । अच्छे कर्मों के अच्छे फल होते हैं, बुरे कर्मों... वर्णव्यवस्था लचीली है । दो भिन्न भिन्न वर्णों के स्त्री और
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के बुरे फल । मनुष्य का मन ऐसा होता है कि उसे अच्छे... पुरुष की संतानों को वर्णसंकर कहते हैं । महाभारत में ऐसे
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फल तो चाहिए परंतु बुरे फल नहीं चाहिए । परन्तु ऐसा नहीं... वर्णसंकरों के अनेक प्रकार बताए गए हैं । ध्यान देने योग्य
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होता । कर्मों के फल तो भुगतने ही होते हैं । इस जन्म में... बात यह है कि इन वर्णसंकरों के भी व्यवसाय आपग्रहपूर्वक
−
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यदि भोग नहीं हो सका तो दूसरे जन्म में वे संचित कर्मों के... निश्चित किए गए हैं । यदि मनुष्य व्यवसाय बदल देता है तो
−
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रूप में साथ आते हैं । इन कर्मों के आधार पर वर्ण बनते... उसका वर्ण भी बदल जाता है । आचार छोड़ने की तनिक
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हैं। कर्मों के साथ ही साथ मनुष्य को गुण भी स्वाभाविक... भी अनुमति नहीं है ।
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रूप में ही मिलते हैं। गुण तीन हैं । हि सत्त्त, रज और जो विचारधारा समाज को जीवमान इकाई मानती है
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तम । इन गुणों के अनुसार वर्ण बनते हैं। गुण और कर्मों. और समाज तथा व्यक्ति के बीच अंग और अंगी का
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के अनुसार मनुष्य को वर्ण प्राप्त होते हैं । सम्बन्ध बताती है वहाँ समाज अंगी होता है और व्यक्ति
−
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इसका अर्थ यह हुआ कि हर मनुष्य का अपना- अंग होता है | व्यक्ति समाज की शाश्वतता, सुस्थिति और
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अपना वर्ण होता है । जितने मनुष्य उतने ही वर्ण होंगे । सुदृढ़ता के लिए अपने आपको सामाजिक व्यवस्थाओं के
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परन्तु हमारी पारम्परिक व्यवस्था में वर्ण कदाचित पहली . साथ समायोजित करेगा । व्यक्ति अपना जीवन समाज की
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बार गुणकर्म के आधार पर निश्चित हुए होंगे, बाद में कुल. सेवा के लिए समर्पित करेगा और अपने आपको धन्य
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के आधार पर ही निश्चित होते रहे हैं। जिस वर्ण के. मानेगा । ऐसे समाज में ही वर्णव्यवस्था का प्रयोजन रहता
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मातापिता के घर जन्म हुआ है उन्हीं का वर्ण संतानों को. है। जिस समाज में व्यक्ति को ही स्वतंत्र और सर्वोपरि
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भी प्राप्त होता है । अर्थात् स्वभाव के लिए वर्ण गुण और मानता है और समाज को केवल करार की व्यवस्था ही
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कर्म के आधार पर तय होते हैं, व्यवस्था के लिए वर्ण जन्म... माना जाता है वहाँ वर्णव्यवस्था का कोई प्रयोजन नहीं रह
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के आधार पर निश्चित होते रहे हैं । जाता । आज भारत में वर्णव्यवस्था की जो उपेक्षा,
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पारम्परिक रूप में देखा जाय तो वर्णव्यवस्था विवाह, तिरस्कार और दुरवस्था दिखाई देती है वह व्यक्तिकेन्द्री
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आचार और व्यवसाय के सन्दर्भ में स्थापित हुई है । वर्ण. समाजरचना के कारण ही है । भारतीय समाज को एक बार
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के अनुसार ही व्यवसाय करना है । वर्ण के अनुसार ही. निश्चित हो जाने की आवश्यकता है कि उसे करार वाली
−
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विवाह भी करना है और वर्ण के अनुसार ही आचार का... जीवनव्यवस्था चाहिए कि कुटुंबभावना वाली। यदि हम
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पालन करना है । समाज को समृद्ध और सुरक्षित रखने के . कुटुंबभावना वाली समाजव्यवस्था को चाहते हैं तो हमें
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लिए इन तीन संदर्भों में वर्णव्यवस्था का पालन कड़ाई से. वर्णव्यवस्था को स्वीकार करना होगा ।
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करने का आग्रह किया जाता रहा है । फिर भी यह व्यवस्था
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विवाह के सम्बन्ध में कुछ लचीली भी दिखाई देती है परन्तु
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आचार और व्यवसाय के सन्दर्भ में जरा भी शिथिलता
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सहन नहीं करती है । उदाहरण के लिए अनुलोम विवाह के
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रूप में वर्णान््तर विवाह प्रचलित रहे हैं । अनुलोम विवाह
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यहाँ ऐसी समाजव्यवस्था चाहिए, अनेक प्रकार से
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वह लाभदायी है, ऐसा मानकर ही सारे विषयों का ऊहापोह
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किया गया है यह स्पष्ट है ।
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वर्ण चार हैं, ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूटर ।
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== ब्राह्मणवर्ण ==
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ब्राह्मण श्रेष्ठ वर्ण माना गया है । ज्ञान और संस्कार
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उसके क्षेत्र हैं । किसी भी समाज में ज्ञान और संस्कारों की
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स्थापना ब्राह्मण वर्ण से होती है । यज्ञ और ज्ञानसाधना से
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वह समाज की सेवा करता है । ब्राह्मण को अपनी पवित्रता
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और शुद्धि सुरक्षित रखनी चाहिये । यह उसका आचारधर्म
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होता है। ब्राह्मण की दिनचर्या शास्त्र के अनुसार होनी
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चाहिये । उसे यज्ञ करना और करवाना चाहिये । अध्यापन
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करना चाहिये । भौतिक उत्पादन नहीं करना चाहिये । परन्तु
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आज ब्राह्मण अपने वर्ण के आचार का पालन नहीं करता
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है । शुद्धि और पवित्रता की सुरक्षा नहीं करता है । समाज
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को ज्ञाननिष्ठ बनाना ब्राह्मण का काम है। जब वह
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ज्ञानसाधना छोड़ देता है तब ज्ञान के क्षेत्र में समाज की
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हानि होती है ।
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सबसे बड़ी अनवस्था हुई है व्यवसाय के क्षेत्र में ।
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ब्राह्मण का काम पढ़ाने का है । पैसे लेकर पढ़ाने वाले
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ब्राह्मण को ज्ञान का व्यापार करने वाला वणिज कहा गया
−
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है । आज ब्राह्मण पैसे लेकर पढ़ाता है । उसने वैश्यवृत्ति को
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स्वीकार कर लिया है। उससे भी आगे वह पढ़ाने का
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स्वतन्त्र व्यवसाय नहीं करता है । वह नौकरी करता है।
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नौकरी करना शुद्र का काम है । ब्राह्मण ने आज शुूद्र होना
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भी स्वीकार कर लिया है । उसने अपनी तो हानि की ही है
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परन्तु ज्ञान की पवित्रता भी नष्ट कर दी है । उसके नौकर होने
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के कारण से विद्या का गौरव नष्ट हुआ है । जिस समाज में
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विद्या, स्वाध्याय, पवित्रता, शुद्धता नहीं रहती है उस समाज
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की अधोगति होना स्वाभाविक है । ब्राह्मण के वणिज होने
−
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के कारण से समाज ज्ञाननिष्ठ के स्थान पर अर्थनिष्ठ हो गया
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है । पवित्रता नहीं रहने से समाज भोगप्रधान और कामप्रधान
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हो गया है । भोगप्रधानता केवल ब्राह्मण वर्ग में ही है ऐसा
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नहीं है । चारों वर्णों का पूरा समाज ही भोगप्रधान बन गया
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है, परन्तु इसमें ब्राह्मण का दायित्व सबसे बड़ा है क्योंकि
−
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संसार का नियम है कि जैसा बड़े और श्रेष्ठ करते हैं वैसा ही
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कनिष्ठ करते हैं । सामान्य लोगों को बड़ों का आचरण ही
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प्रेरक और मार्गदर्शक होता है । ब्राह्मणों ने यदि ज्ञान की
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प्र
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श्रेष्ठता नहीं रखी तो और लोग क्या
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करेंगे ? वे तो उनका अनुसरण ही करेंगे । अतः श्रेष्ठों के
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पतन से सारे समाज का पतन होता है ।
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ब्राह्मणों ने विद्या को तो पण्य अर्थात् व्यापार की
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वस्तु बना दी है । परन्तु उनका आर्थिक क्षेत्र का अपराध
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इतना ही नहीं है । उन्होंने अपना व्यवसाय छोड़कर दूसरे
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वर्णों के व्यवसाय ले लिये । आज ब्राह्मण नौकरी भी करता
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है, दुकान भी चलाता है, कारख़ाना भी चलाता है, मजदूरी
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स्वभाव क्या है ? मनुष्य का गुणधर्म ही मनुष्य का स्वभाव है । मनुष्य की पहचान मनुष्य के स्वभाव से ही होती है । कोई स्वभाव से ही दयावान होता है, कोई क्रोधी होता है, कोई शूर होता है, कोई भीरु होता है, कोई स्वार्थी होता है, कोई उदार होता है, ऐसे अनेक प्रकार के मनुष्य होते हैं। ये गुण उनको स्वभाव से ही मिले हैं । इस स्वभाव के अनुसार ही मनुष्य के वर्ण भी निश्चित होते हैं।
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भी करता है । इससे उसे तो अथर्जिन के अच्छे अवसर
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मनुष्य का स्वभाव भी जन्मजन्मांतर के कर्मों के प्रति उसके मन के सम्बन्ध के अनुसार बनता है । मनुष्य को जीवनयापन के लिए अनेक प्रकार के काम करने ही होते हैं।एक क्षण भी मनुष्य कर्म किए बिना रह नहीं सकता है। ये कर्म शारीरिक भी होते हैं और बौद्धिक भी।
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मिल जाते हैं । जो तपश्चर्या छोड़ देता है उसकी सांस्कारिक
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''उदाहरण के लिए खाना, चलना, वस्त्र... का अर्थ है ब्राह्मण वर्ण का पुरुष क्षत्रिय, वैश्य या शूट्र स्त्री''
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या आध्यात्मिक हानि होती है परन्तु जिनके व्यवसाय छिन
+
''पहनना ये शारीरिक कर्म हैं परंतु अध्ययन करना, समस्या... से विवाह कर सकता है, क्षत्रिय वर्ण का पुरुष वैश्य या YG''
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जाते हैं उनकी तो सभी प्रकार की हानि होती है । ज्ञान और
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''सुलझाना आदि बौद्धिक कर्म हैं । इन सब कर्मों के परिणाम... स्त्री के साथ विवाह कर सकता है, वैश्य वर्ण का पुरुष शूद्र''
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संस्कार के क्षेत्र में मार्गदर्शक नहीं रहने से सांस्कारिक हानि
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''होते हैं जिन्हें कर्मफल कहते हैं । कर्म किए तो कर्मफल स्त्री के साथ विवाह कर सकता है। इस सीमित रूप में''
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भी होती है और व्यवसाय छिन जाने से आर्थिक या
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''होते ही हैं । अच्छे कर्मों के अच्छे फल होते हैं, बुरे कर्मों... वर्णव्यवस्था लचीली है । दो भिन्न भिन्न वर्णों के स्त्री और''
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भौतिक हानि होती है ।
+
''के बुरे फल । मनुष्य का मन ऐसा होता है कि उसे अच्छे... पुरुष की संतानों को वर्णसंकर कहते हैं । महाभारत में ऐसे''
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परम्परा से ब्राह्मण की श्रेष्ठता रही है । उसका क्षेत्र
+
''फल तो चाहिए परंतु बुरे फल नहीं चाहिए । परन्तु ऐसा नहीं... वर्णसंकरों के अनेक प्रकार बताए गए हैं । ध्यान देने योग्य''
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ज्ञान का रहा है । वह सबका मार्गदर्शक और प्रेरक रहा है ।
+
''होता । कर्मों के फल तो भुगतने ही होते हैं । इस जन्म में... बात यह है कि इन वर्णसंकरों के भी व्यवसाय आपग्रहपूर्वक''
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वह ज्ञान का उपासक रहा है । इसलिये वह जब अपने
+
''यदि भोग नहीं हो सका तो दूसरे जन्म में वे संचित कर्मों के... निश्चित किए गए हैं । यदि मनुष्य व्यवसाय बदल देता है तो''
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स्थान से च्युत होता है तब उसे मार्गदर्शन करने वाला या
+
''रूप में साथ आते हैं । इन कर्मों के आधार पर वर्ण बनते... उसका वर्ण भी बदल जाता है । आचार छोड़ने की तनिक''
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उसे रोकने वाला कोई नहीं रहता है । उसे अपने से नीचे के
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''हैं। कर्मों के साथ ही साथ मनुष्य को गुण भी स्वाभाविक... भी अनुमति नहीं है ।''
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स्तर के सभी लाभ मिल जाते हैं । स्थिति ऐसी होती है कि
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''रूप में ही मिलते हैं। गुण तीन हैं । हि सत्त्त, रज और जो विचारधारा समाज को जीवमान इकाई मानती है''
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उसका मूल काम तो कोई नहीं कर सकता पर वह दूसरों
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''तम । इन गुणों के अनुसार वर्ण बनते हैं। गुण और कर्मों. और समाज तथा व्यक्ति के बीच अंग और अंगी का''
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का काम कर सकता है ।
+
''के अनुसार मनुष्य को वर्ण प्राप्त होते हैं । सम्बन्ध बताती है वहाँ समाज अंगी होता है और व्यक्ति''
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इसका परिणाम यह हुआ है कि जन्म से ब्राह्मण है
+
''इसका अर्थ यह हुआ कि हर मनुष्य का अपना- अंग होता है | व्यक्ति समाज की शाश्वतता, सुस्थिति और''
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परन्तु वृत्ति और व्यवसाय से वह ब्राह्मण नहीं है । जन्म से
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''अपना वर्ण होता है । जितने मनुष्य उतने ही वर्ण होंगे । सुदृढ़ता के लिए अपने आपको सामाजिक व्यवस्थाओं के''
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ब्राह्मण होने में कोई गौरव नहीं है, वृत्ति और व्यवसाय से
+
''परन्तु हमारी पारम्परिक व्यवस्था में वर्ण कदाचित पहली . साथ समायोजित करेगा । व्यक्ति अपना जीवन समाज की''
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ब्राह्मण होने में ही गौरव है । अब जन्म अर्थात् कुल और
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''बार गुणकर्म के आधार पर निश्चित हुए होंगे, बाद में कुल. सेवा के लिए समर्पित करेगा और अपने आपको धन्य''
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वृत्ति दोनों में विच्छेद हो गया । ब्राह्मण का ऐसा हुआ तो
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''के आधार पर ही निश्चित होते रहे हैं। जिस वर्ण के. मानेगा । ऐसे समाज में ही वर्णव्यवस्था का प्रयोजन रहता''
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अन्य वर्णों का भी हुआ है । अध्ययन अध्यापन करने वाले
+
''मातापिता के घर जन्म हुआ है उन्हीं का वर्ण संतानों को. है। जिस समाज में व्यक्ति को ही स्वतंत्र और सर्वोपरि''
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दूसरे वर्णों के लोग भी हो गये । परन्तु चूँकि मूल वृत्ति
+
''भी प्राप्त होता है । अर्थात् स्वभाव के लिए वर्ण गुण और मानता है और समाज को केवल करार की व्यवस्था ही''
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वणिक की है और अब ब्राह्मणों ने अध्यापन को शद्वों का
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''कर्म के आधार पर तय होते हैं, व्यवस्था के लिए वर्ण जन्म... माना जाता है वहाँ वर्णव्यवस्था का कोई प्रयोजन नहीं रह''
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काम बना दिया है तो वैश्य भी ज्ञान का व्यापार करने लगे
+
''के आधार पर निश्चित होते रहे हैं । जाता । आज भारत में वर्णव्यवस्था की जो उपेक्षा,''
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हैं। अब किस वर्ण का व्यक्ति कौन सा काम करेगा इसकी
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''पारम्परिक रूप में देखा जाय तो वर्णव्यवस्था विवाह, तिरस्कार और दुरवस्था दिखाई देती है वह व्यक्तिकेन्द्री''
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निश्चिति नहीं रही है ।
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''आचार और व्यवसाय के सन्दर्भ में स्थापित हुई है । वर्ण. समाजरचना के कारण ही है । भारतीय समाज को एक बार''
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ब्राह्मणों का एक काम यजन और
+
''के अनुसार ही व्यवसाय करना है । वर्ण के अनुसार ही. निश्चित हो जाने की आवश्यकता है कि उसे करार वाली''
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याजन का है । अभी भी वह काम जन्म से ब्राह्मण हैं वे कर
+
''विवाह भी करना है और वर्ण के अनुसार ही आचार का... जीवनव्यवस्था चाहिए कि कुटुंबभावना वाली। यदि हम''
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रहे हैं । परन्तु स्वयं यजन करना नहीवत् हो गया है । यज्ञ
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''पालन करना है । समाज को समृद्ध और सुरक्षित रखने के . कुटुंबभावना वाली समाजव्यवस्था को चाहते हैं तो हमें''
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करवाते हैं परन्तु कुल मिलाकर यज्ञ का प्रचलन ही समाज में
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''लिए इन तीन संदर्भों में वर्णव्यवस्था का पालन कड़ाई से. वर्णव्यवस्था को स्वीकार करना होगा ।''
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कम हो गया है । जो भी बचा है वह ब्राह्मणों के जिम्मे है ।
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''करने का आग्रह किया जाता रहा है । फिर भी यह व्यवस्था''
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परन्तु अधिकांश वे अब पौरोहित्य करते हैं। मन्दिरों में
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''विवाह के सम्बन्ध में कुछ लचीली भी दिखाई देती है परन्तु''
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पूजारी का काम भी उनका ही है । समारोहों में भोजन बनाने
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''आचार और व्यवसाय के सन्दर्भ में जरा भी शिथिलता''
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का काम भी ब्राह्मणों का ही होता था । ये दोनों काम अब
+
''सहन नहीं करती है । उदाहरण के लिए अनुलोम विवाह के''
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अन्य वर्णीं के लोग करने लगे हैं फिर भी ब्राह्मणों का वर्चस्व
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''रूप में वर्णान््तर विवाह प्रचलित रहे हैं । अनुलोम विवाह''
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अभी समाप्त नहीं हुआ है । परन्तु अब पौरोहित्य हो या
+
''यहाँ ऐसी समाजव्यवस्था चाहिए, अनेक प्रकार से''
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पूजारी का काम, वेद्पठन हो या भोजन बनाने का काम,
+
''वह लाभदायी है, ऐसा मानकर ही सारे विषयों का ऊहापोह''
−
ब्राह्मणों के लिये यह अथार्जिन हेतु व्यवसाय बन गया है ।
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''किया गया है यह स्पष्ट है ।''
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भारत को सनातन राष्ट्र कहा गया है और भारत के
+
''वर्ण चार हैं, ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूटर ।''
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हिन्दू धर्म को सनातन धर्म । सनातन का अर्थ है जो स्थान
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== ब्राह्मण वर्ण ==
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ब्राह्मण श्रेष्ठ वर्ण माना गया है। ज्ञान और संस्कार उसके क्षेत्र हैं। किसी भी समाज में ज्ञान और संस्कारों की स्थापना ब्राह्मण वर्ण से होती है । यज्ञ और ज्ञानसाधना से वह समाज की सेवा करता है । ब्राह्मण को अपनी पवित्रता और शुद्धि सुरक्षित रखनी चाहिये । यह उसका आचार धर्म होता है। ब्राह्मण की दिनचर्या शास्त्र के अनुसार होनी चाहिये। उसे यज्ञ करना और करवाना चाहिये। अध्यापन करना चाहिये। भौतिक उत्पादन नहीं करना चाहिये। परन्तु आज ब्राह्मण अपने वर्ण के आचार का पालन नहीं करता है। शुद्धि और पवित्रता की सुरक्षा नहीं करता है। समाज को ज्ञाननिष्ठ बनाना ब्राह्मण का काम है। जब वह ज्ञानसाधना छोड़ देता है तब ज्ञान के क्षेत्र में समाज की हानि होती है।
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और काल में निरन्तर बना रहता है । इस सनातनता का ही
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सबसे बड़ी अनवस्था हुई है व्यवसाय के क्षेत्र में। ब्राह्मण का काम पढ़ाने का है। पैसे लेकर पढ़ाने वाले ब्राह्मण को ज्ञान का व्यापार करने वाला वणिज कहा गया है। आज ब्राह्मण पैसे लेकर पढ़ाता है। उसने वैश्यवृत्ति को स्वीकार कर लिया है। उससे भी आगे वह पढ़ाने का स्वतन्त्र व्यवसाय नहीं करता है। वह नौकरी करता है । नौकरी करना शूद्र का काम है। ब्राह्मण ने आज शुूद्र होना भी स्वीकार कर लिया है । उसने अपनी तो हानि की ही है, परन्तु ज्ञान की पवित्रता भी नष्ट कर दी है । उसके नौकर होने के कारण से विद्या का गौरव नष्ट हुआ है । जिस समाज में विद्या, स्वाध्याय, पवित्रता, शुद्धता नहीं रहती है उस समाज की अधोगति होना स्वाभाविक है । ब्राह्मण के वणिज होने के कारण से समाज ज्ञाननिष्ठ के स्थान पर अर्थनिष्ठ हो गया है। पवित्रता नहीं रहने से समाज भोगप्रधान और कामप्रधान हो गया है। भोगप्रधानता केवल ब्राह्मण वर्ग में ही है ऐसा नहीं है। चारों वर्णों का पूरा समाज ही भोगप्रधान बन गया है, परन्तु इसमें ब्राह्मण का दायित्व सबसे बड़ा है क्योंकि संसार का नियम है कि जैसा बड़े और श्रेष्ठ करते हैं वैसा ही कनिष्ठ करते हैं। सामान्य लोगों को बड़ों का आचरण ही प्रेरक और मार्गदर्शक होता है । ब्राह्मणों ने यदि ज्ञान की श्रेष्ठता नहीं रखी तो और लोग क्या करेंगे? वे तो उनका अनुसरण ही करेंगे । अतः श्रेष्ठों के पतन से सारे समाज का पतन होता है ।
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प्रताप है कि अभी भी ऐसे ब्राह्मण बचे हैं जो शुद्धि और
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ब्राह्मणों ने विद्या को तो पण्य अर्थात् व्यापार की वस्तु बना दी है । परन्तु उनका आर्थिक क्षेत्र का अपराध इतना ही नहीं है । उन्होंने अपना व्यवसाय छोड़कर दूसरे वर्णों के व्यवसाय ले लिये । आज ब्राह्मण नौकरी भी करता है, दुकान भी चलाता है, कारख़ाना भी चलाता है, मजदूरी भी करता है । इससे उसे तो अथर्जिन के अच्छे अवसर मिल जाते हैं । जो तपश्चर्या छोड़ देता है उसकी सांस्कारिक या आध्यात्मिक हानि होती है परन्तु जिनके व्यवसाय छिन जाते हैं उनकी तो सभी प्रकार की हानि होती है । ज्ञान और संस्कार के क्षेत्र में मार्गदर्शक नहीं रहने से सांस्कारिक हानि भी होती है और व्यवसाय छिन जाने से आर्थिक या भौतिक हानि होती है ।
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पवित्रता की रक्षा करते हैं, बिना शुल्क लिये अध्यापन
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परम्परा से ब्राह्मण की श्रेष्ठता रही है । उसका क्षेत्र ज्ञान का रहा है । वह सबका मार्गदर्शक और प्रेरक रहा है । वह ज्ञान का उपासक रहा है । इसलिये वह जब अपने स्थान से च्युत होता है तब उसे मार्गदर्शन करने वाला या उसे रोकने वाला कोई नहीं रहता है । उसे अपने से नीचे के स्तर के सभी लाभ मिल जाते हैं । स्थिति ऐसी होती है कि उसका मूल काम तो कोई नहीं कर सकता पर वह दूसरों का काम कर सकता है ।
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करते हैं, वेदाध्ययन का दायित्व सम्हालते हैं । अभी भी वे
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इसका परिणाम यह हुआ है कि जन्म से ब्राह्मण है परन्तु वृत्ति और व्यवसाय से वह ब्राह्मण नहीं है । जन्म से ब्राह्मण होने में कोई गौरव नहीं है, वृत्ति और व्यवसाय से ब्राह्मण होने में ही गौरव है । अब जन्म अर्थात् कुल और वृत्ति दोनों में विच्छेद हो गया । ब्राह्मण का ऐसा हुआ तो अन्य वर्णों का भी हुआ है । अध्ययन अध्यापन करने वाले दूसरे वर्णों के लोग भी हो गये । परन्तु चूँकि मूल वृत्ति वणिक की है और अब ब्राह्मणों ने अध्यापन को शद्वों का काम बना दिया है तो वैश्य भी ज्ञान का व्यापार करने लगे हैं। अब किस वर्ण का व्यक्ति कौन सा काम करेगा इसकी निश्चिति नहीं रही है ।
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ज्ञान की गरिमा को कम नहीं होने देते हैं । भारतीय समाज
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ब्राह्मणों का एक काम यजन और याजन का है । अभी भी वह काम जन्म से ब्राह्मण हैं वे कर रहे हैं । परन्तु स्वयं यजन करना नहीवत् हो गया है । यज्ञ करवाते हैं परन्तु कुल मिलाकर यज्ञ का प्रचलन ही समाज में कम हो गया है । जो भी बचा है वह ब्राह्मणों के जिम्मे है । परन्तु अधिकांश वे अब पौरोहित्य करते हैं। मन्दिरों में पूजारी का काम भी उनका ही है । समारोहों में भोजन बनाने का काम भी ब्राह्मणों का ही होता था । ये दोनों काम अब अन्य वर्णों के लोग करने लगे हैं फिर भी ब्राह्मणों का वर्चस्व अभी समाप्त नहीं हुआ है । परन्तु अब पौरोहित्य हो या पूजारी का काम, वेद्पठन हो या भोजन बनाने का काम, ब्राह्मणों के लिये यह अथार्जिन हेतु व्यवसाय बन गया है ।
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की आशा अभी उनके कारण ही समाप्त नहीं हुई है।
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भारत को सनातन राष्ट्र कहा गया है और भारत के हिन्दू धर्म को सनातन धर्म । सनातन का अर्थ है जो स्थान और काल में निरन्तर बना रहता है । इस सनातनता का ही प्रताप है कि अभी भी ऐसे ब्राह्मण बचे हैं जो शुद्धि और पवित्रता की रक्षा करते हैं, बिना शुल्क लिये अध्यापन करते हैं, वेदाध्ययन का दायित्व सम्हालते हैं । अभी भी वे ज्ञान की गरिमा को कम नहीं होने देते हैं । भारतीय समाज की आशा अभी उनके कारण ही समाप्त नहीं हुई है।
== क्षत्रियवर्ण ==
== क्षत्रियवर्ण ==
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त्रस्त हो गई है । परन्तु लोग उसे स्वीकार करके चलते हैं
त्रस्त हो गई है । परन्तु लोग उसे स्वीकार करके चलते हैं
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आर्थिक सुरक्षा यह शुद्रों का अधिकार है । आज ब्राह्मण भी
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आर्थिक सुरक्षा यह शूद्रों का अधिकार है । आज ब्राह्मण भी
आर्थिक सुरक्षा ही खोजते हैं । इसलिये भी उनका व्यवहार
आर्थिक सुरक्षा ही खोजते हैं । इसलिये भी उनका व्यवहार
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शुद्र जैसा है ।
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शूद्र जैसा है ।
और भ्रष्टाचार को ही शिशटचार कहते हैं | आरक्षण के मामले ने भी समाज का सन्तुलन बिगाड़
और भ्रष्टाचार को ही शिशटचार कहते हैं | आरक्षण के मामले ने भी समाज का सन्तुलन बिगाड़
Line 616:
Line 416:
का, वस्तु का निर्माण हो या औजारों का, भारत के कारीगरों की शुद्धता और पवित्रता पहली बात है । आहार
का, वस्तु का निर्माण हो या औजारों का, भारत के कारीगरों की शुद्धता और पवित्रता पहली बात है । आहार
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ने विश्व में अद्वितीय स्थान प्राप्त किया था । यह प्रतिष्ठा शुद्रों विहार की शुद्धता और पवित्रता अपेक्षित है । शुद्धता
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ने विश्व में अद्वितीय स्थान प्राप्त किया था । यह प्रतिष्ठा शूद्रों विहार की शुद्धता और पवित्रता अपेक्षित है । शुद्धता
के कारण ही थी । परन्तु अस्पृश्यता के प्रश्न के चलते sk wert Ft व्याख्या करने की. बहुत
के कारण ही थी । परन्तु अस्पृश्यता के प्रश्न के चलते sk wert Ft व्याख्या करने की. बहुत
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कारीगरों ने अपने आपको शुद्र कहलाना बन्द कर दिया । आवश्यकता नहीं है क्योंकि साधारण रूप से वह
+
कारीगरों ने अपने आपको शूद्र कहलाना बन्द कर दिया । आवश्यकता नहीं है क्योंकि साधारण रूप से वह
आज अब आरक्षण की नीति में इन्हें अन्य पिछड़ा वर्ग कहा सबकी जानकारी में होती है ।
आज अब आरक्षण की नीति में इन्हें अन्य पिछड़ा वर्ग कहा सबकी जानकारी में होती है ।