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→‎अर्थपुरुषार्थ[1]: लेख सम्पादित किया
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काम पुरुषार्थ मनुष्य की प्रकृति के साथ जुड़ा हुआ है। कामपुरुषार्थ की सिद्धता हेतु अर्थपुरुषार्थ प्रस्तुत होता है। परन्तु कामपुरुषार्थ मन के विश्व की लीला होने के कारण से उसके नियमन और नियंत्रण की आवश्यकता होती है। नियमन और नियंत्रण के लिए धर्मपुरुषार्थ होता है।
 
काम पुरुषार्थ मनुष्य की प्रकृति के साथ जुड़ा हुआ है। कामपुरुषार्थ की सिद्धता हेतु अर्थपुरुषार्थ प्रस्तुत होता है। परन्तु कामपुरुषार्थ मन के विश्व की लीला होने के कारण से उसके नियमन और नियंत्रण की आवश्यकता होती है। नियमन और नियंत्रण के लिए धर्मपुरुषार्थ होता है।
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मनुष्य के प्राकृत जीवन का केन्द्र काम पुरुषार्थ है ।
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मनुष्य के प्राकृत जीवन का केन्द्र काम पुरुषार्थ है। काम पुरुषार्थ का सहयोगी अर्थ पुरुषार्थ है। इच्छाओं की पूर्ति के लिये मनुष्य को असंख्य पदार्थों की आवश्यकता होती है। इनमें से अनेक पदार्थ उसे बिना परिश्रम किये प्राप्त हो जाते हैं। उदाहरण के लिये उसे हवा, सूर्य प्रकाश, फूलों की सुगन्ध, पक्षियों के कलरव का संगीत बिना प्रयास किये प्राप्त होते हैं। परन्तु असंख्य पदार्थ ऐसे हैं जो उसे प्रयास करके प्राप्त करने पड़ते हैं। उदाहरण के लिये वन में अपने आप उगे हुए वृक्षों के फल, फूल अथवा धान्य बिना प्रयास किये प्राप्त होते हैं। परन्तु आवश्यकता के अनुसार फल, सागसब्जी और धान्य प्राप्त करने हेतु उसे कृषि करनी पड़ती है। वस्त्र प्राप्त करने हेतु उसे प्रयास करना पड़ता है। इन प्रयासों को ही अर्थपुरुषार्थ कहते हैं।
काम पुरुषार्थ का सहयोगी अर्थ पुरुषार्थ है । इच्छाओं की
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पूर्ति के लिये मनुष्य को असंख्य पदार्थों की आवश्यकता
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होती है । इनमें से अनेक पदार्थ उसे बिना परिश्रम किये
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प्राप्त हो जाते हैं । उदाहरण के लिये उसे हवा, सूर्य प्रकाश,
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फूलों की सुगन्ध, पक्षियों के कलरव का संगीत बिना प्रयास
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किये प्राप्त होते हैं । परन्तु असंख्य पदार्थ ऐसे हैं जो उसे
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प्रयास करके प्राप्त करने पड़ते हैं । उदाहरण के लिये वन में
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अपने आप ऊगे हुए वृक्षों के फल, फूल अथवा धान्य बिना
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प्रयास किये प्राप्त होते हैं । परन्तु आवश्यकता के अनुसार
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फल, सागसब्जी और धान्य प्राप्त करने हेतु उसे कृषि करनी
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पड़ती है । वख्र प्राप्त करने हेतु उसे प्रयास करना पड़ता है ।
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इन प्रयासों को ही अर्थपुरुषार्थ कहते हैं ।
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अर्थ कामानुसारी है । जिस जिस पदार्थ की मनुष्य
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अर्थ कामानुसारी है। जिस जिस पदार्थ की मनुष्य को इच्छा होती है उस उस पदार्थ को प्राप्त करने हेतु मनुष्य प्रयास करता है। इन प्रयासों के परिणामस्वरूप अनेक प्रकार के उद्योग पैदा हुए हैं। अन्न की आवश्यकता की पूर्ति हेतु कृषि उद्योग का, वस्त्र की आवश्यकता की पूर्ति हेतु वस्र उद्योग का, निवास की व्यवस्था हेतु भवन बनाने के उद्योग का विकास होता है। कृषि के लिये आवश्यक उपकरण निर्माण करने हेतु भी अनेक प्रकार के उद्योग स्थापित किये जाते हैं। इन उद्योगों का बड़ा जाल बनता है क्योंकि सारे उद्योग एकदूसरे के साथ अंग अंगी संबंध से जुड़े होते हैं। विचार करने पर ध्यान में आता है कि कृषि मूल उद्योग है और शेष सारे उद्योग या तो कृषि के सहायक हैं या उसके ऊपर निर्भर करते हैं। उदाहरण के लिये वस्त्र उद्योग अत्यन्त महत्वपूर्ण उद्योग है परन्तु उसकी कच्ची सामग्री कृषि से ही प्राप्त होती है। इसलिये वह कृषि पर निर्भर है। बैलगाड़ी, हल, कुदाल आदि बनाने का उद्योग कृषि का सहायक उद्योग है। उद्योगों का यह जाल बहुत व्यापक और बहुत जटिल है। उसे समझना और उसे व्यवस्थित ढंग से चलाना अर्थपुरुषार्थ का महत्वपूर्ण आयाम है।
को इच्छा होती है उस उस पदार्थ को प्राप्त करने हेतु मनुष्य
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प्रयास करता है । इन प्रयासों के परिणामस्वरूप अनेक
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प्रकार के उद्योग पैदा हुए हैं । अन्न की आवश्यकता की
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पूर्ति हेतु कृषि उद्योग का, वस्त्र की आवश्यकता की पूर्ति
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हेतु वस्र उद्योग का, निवास की व्यवस्था हेतु भवन बनाने
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के उद्योग का विकास होता है । कृषि के लिये आवश्यक
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उपकरण निर्माण करने हेतु भी अनेक प्रकार के उद्योग
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स्थापित किये जाते हैं । इन उद्योगों का बड़ा जाल बनता है
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क्योंकि सारे उद्योग एकदूसरे के साथ अंग अंगी संबंध से
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जुड़े होते हैं । विचार करने पर ध्यान में आता है कि कृषि
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मूल उद्योग है और शेष सारे उद्योग या तो कृषि के सहायक
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हैं या उसके ऊपर निर्भर करते हैं । उदाहरण के लिये वस्त्र
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उद्योग अत्यन्त महत्त्वपूर्ण उद्योग है परन्तु उसकी कच्ची
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सामाग्री कृषि से ही प्राप्त होती है । इसलिये वह कृषि पर
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निर्भर है । बैलगाड़ी, हल, कुदाल आदि बनाने का उद्योग
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कामपुरुषार्थ प्राकृतिक है, अर्थपुरुषार्थ मनुष्य की व्यवस्था है। मनुष्य द्वारा निर्मित व्यवस्था होने के कारण उसकी अनेक व्यवस्थायें हैं, इन व्यवस्थाओं को चलाने हेतु अनेक नियम हैं। इनसे महत्वपूर्ण शास्त्र बनता है, जिसे अर्थशास्त्र कहते हैं।
कृषि का सहायक उद्योग है । उद्योगों का यह जाल बहुत
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व्यापक और बहुत जटिल है। उसे समझना और उसे
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व्यवस्थित ढंग से चलाना अर्थपुरुषार्थ का महत्त्वपूर्ण आयाम
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है।
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कामपुरुषार्थ प्राकृतिक है, अर्थपुरुषार्थ मनुष्य की
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अर्थपुरुषार्थ के आयाम इस प्रकार हैं:
व्यवस्था है । मनुष्य द्वारा निर्मित व्यवस्था होने के कारण
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# समृद्धि प्राप्त करने की तत्परता : मनुष्य को दरिद्र नहीं रहना चाहिये। उसे समृद्धि की इच्छा करनी चाहिये। जीवन के लिये आवश्यक, शरीर, मन आदि को सुख देने वाले, चित्त को प्रसन्न बनाने वाले अनेक पदार्थों का सेवन करने हेतु अर्थ चाहिये। वह प्रभूत मात्रा में प्राप्त हो, इसका विचार करना चाहिये। अपने भण्डार धान्य से भरे हों, उत्तम प्रकार के वस्त्रालंकार प्राप्त हों, कहीं किसी के लिए किसी बात का अभाव न हो, ऐसा आयोजन मनुष्य को करना चाहिये। समृद्धि कैसे प्राप्त होती है इसका ज्ञान प्राप्त करना चाहिये।
उसकी अनेक व्यवस्थायें हैं, इन व्यवस्थाओं को चलाने हेतु
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# समृद्धि प्राप्त करने हेतु उद्यमशील होना : समृद्धि प्राप्त करने की इच्छा मात्र से वह प्राप्त नहीं होती। “उद्यमेन हि सिध्यन्ति कार्याणि न मनोरथै:” मनुष्य को वैसी इच्छा भी नहीं करनी चाहिये। अपने परिश्रम से वह प्राप्त हो इस दृष्टि से उसे काम करना चाहिये। अनेक प्रकार के हुनर सीखने चाहिये, निरन्तर काम करना चाहिये। बिना काम किये समृद्धि प्राप्त होती ही नहीं है, यह जानना चाहिये। बिना काम किये जो समृद्धि प्राप्त होती दिखाई देती है वह आभासी समृद्धि होती है और वह काम नहीं करने वाले और उसके आसपास के लोगों का नाश करती है।
अनेक नियम हैं । इनसे महत्त्वपूर्ण शास्त्र बनता है, जिसे
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# उद्यम की प्रतिष्ठा : काम करने के परिणामस्वरूप समृद्धि प्राप्त करने हेतु काम करने को प्रतिष्ठा का विषय मानना भी आवश्यक है। आज के सन्दर्भ में तो यह बात खास आवश्यक है क्योंकि आज काम करने को हेय और काम करवाने वाले को प्रतिष्ठित माना जाता है। ऐसा करने से समृद्धि का आभास निर्माण होता है और वास्तविक समृद्धि का नाश होता है। काम करने की कुशलता अर्जित करना प्रमुख लक्ष्य बनना चाहिये। जब कुशलता प्राप्त होती है तो काम की गति बढ़ती है, बुद्धि सक्रिय होती है, कल्पनाशक्ति जागृत होती है और नये नये आविष्कार सम्भव होते हैं। इससे काम को कला का दर्जा प्राप्त होता है और काम करने में आनन्द का अनुभव होता है। श्रम और काम में आनन्द का अनुभव सच्चा सुख देने वाला होता है।
अर्थशास्त्र कहते हैं ।
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# सबके लिये समृद्धि : समृद्धि की कामना अकेले के लिये नहीं करनी चाहिये। समृद्धि से प्राप्त होने वाला सुख, सुख को भोगने के लिये अनुकूल स्वास्थ्य, समृद्धि को काम करने के परिणामस्वरूप प्राप्त होने वाले प्रसाद के रूप में ग्रहण करने की वृत्ति से प्राप्त होने वाला कल्याण सबके लिये होना चाहिए ऐसी कामना करनी चाहिये। ऐसी कामना करने से समृद्धि निरन्तर बनी रहती है अन्यथा वह शीघ्र ही नष्ट हो जाती है। इस कामना को भारतीय मानस के शाश्वत स्वरूप के अर्थ में इस श्लोक में प्रस्तुत किया गया: सर्वे भवन्तु सुखिन: सर्वे सन्तु निरामया: । सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चिदुःखभाग्भवेत्‌ ।।
 
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# तनाव और उत्तेजना से मुक्ति : परिश्रमपूर्वक काम करने से शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य प्राप्त होता है। इसके परिणामस्वरूप व्यक्तिगत और सामुदायिक जीवन में लोभ मोहजनित जो तनाव और उत्तेजना व्याप्त होते हैं वे कम होते हैं। संघर्ष और हिंसा कम होते हैं। अर्थ से प्राप्त समृद्धि भोगने का आनन्द मिलता है।
अर्थपुरुषार्थ के आयाम इस प्रकार हैं ....
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# संयमित उपभोग : परिश्रम के साथ उत्पादन को जोड़ने पर उपभोग स्वाभाविक रूप में ही संयमित रहता है क्योंकि उपभोग के लिये समय भी कम रहता है और परिश्रमपूर्वक किये गये काम में आनन्द भी पर्याप्त मिलता है। वह आनन्द सृजनात्मक होने के कारण से उसकी गुणवत्ता भी अधिक अच्छी होती है। शरीर, मन, बुद्धि आदि जिस उद्देश्य के लिये बने हैं, उस उद्देश्य की पूर्ति होने के कारण से आनन्द स्वाभाविक होता है, कृत्रिम नहीं।
 
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# सामाजिकता: अर्थप्राप्ति हेतु परिश्रम करने में और उत्पादन के हेतु से परिश्रम होने में और भी दो बातें अपने आप घटित होती हैं। एक तो उत्पादन उपयोगी वस्तुओं का ही होता है और दूसरा केवल स्वयं के ही लिये न होकर अन्यों के लिये भी होता है। इस कारण से इसके द्वारा सामाजिकता का विकास होने में बहुत सहायता होती है। सामाजिकता का अपना एक सार्थक आनन्द होता है जिसमें सुरक्षा और निश्चिंतता अपने आप समाहित होती है ।
8. समृद्धि प्राप्त करने की तत्परता : मनुष्य को दरिद्र
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नहीं रहना चाहिये । उसे समृद्धि की इच्छा करनी
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चाहिये । जीवन के लिये आवश्यक, शरीर, मन
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आदि को सुख देने वाले, चित्त को प्रसन्न बनाने वाले
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अनेक पदार्थों का सेवन करने हेतु अर्थ चाहिये । वह
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प्रभूत मात्रा में प्राप्त हो, इसका विचार करना
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चाहिये । अपने भण्डार धान्य से भरे हों, उत्तम प्रकार
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के वस्त्रालंकार प्राप्त हों, कहीं किसीके लिए किसी
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बात का अभाव न हो, ऐसा आयोजन मनुष्य को
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करना चाहिये । समृद्धि कैसे प्राप्त होती है इसका ज्ञान
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प्राप्त करना चाहिये ।
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समृद्धि प्राप्त करने हेतु उद्यमशील होना : समृद्धि
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प्राप्त करने की इच्छा मात्र से वह प्राप्त नहीं होती ।
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“उद्यमेन हि सिध्यन्ति कार्याणि न मनोरथै:” मनुष्य
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को वैसी इच्छा भी नहीं करनी चाहिये । अपने
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परिश्रम से वह प्राप्त हो इस दृष्टि से उसे काम करना
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चाहिये । अनेक प्रकार के हुनर सीखने चाहिये,
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निरन्तर काम करना चाहिये । बिना काम किये समृद्धि
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प्राप्त होती ही नहीं है यह जानना चाहिये । बिना काम
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किये जो समृद्धि प्राप्त होती दिखाई देती है वह
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आभासी समृद्धि होती है और वह काम नहीं करने
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वाले और उसके आसपास के लोगों का नाश करती
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है।
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उद्यम की प्रतिष्ठा : काम करने के परिणामस्वरूप
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समृद्धि प्राप्त करने हेतु काम करने को प्रतिष्ठा का
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विषय मानना भी आवश्यक है । आज के सन्दर्भ में
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तो यह बात खास आवश्यक है क्योंकि आज काम
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करने को हेय और काम करवाने वाले को प्रतिष्ठित
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माना जाता है । ऐसा करने से समृद्धि का आभास
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निर्माण होता है और वास्तविक समृद्धि का नाश होता
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है। काम करने की कुशलता अर्जित करना प्रमुख
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लक्ष्य बनना चाहिये । जब कुशलता प्राप्त होती है तो
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काम की गति बढ़ती है, बुद्धि सक्रिय होती है,
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कल्पनाशक्ति जागृत होती है और नये नये आविष्कार
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सम्भव होते हैं । इससे काम को कला का दर्जा प्राप्त
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होता है और काम करने में आनन्द का अनुभव होता
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है। श्रम और काम में आनन्द का अनुभव सच्चा
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सुख देने वाला होता है ।
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सबके लिये समृद्धि : समृद्धि की कामना अकेले के
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लिये नहीं करनी चाहिये । समृद्धि से प्राप्त होने वाला
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सुख, सुख को भोगने के लिये अनुकूल स्वास्थ्य,
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समृद्धि को काम करने के परिणामस्वरूप प्राप्त होने
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वाले प्रसाद के रूप में ग्रहण करने की वृत्ति से प्राप्त
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होने वाला कल्याण सबके लिये होना चाहिए ऐसी
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कामना करनी चाहिये । ऐसी कामना करने से समृद्धि
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निरन्तर बनी रहती है अन्यथा वह शीघ्र ही नष्ट हो
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जाती है । इस कामना को भारतीय मानस के शाश्वत
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स्वरूप के अर्थ में इस श्लोक में प्रस्तुत किया गया
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सर्वे भवन्तु सुखिन: सर्वे सन्तु निरामया: ।
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सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चिदुःखभाग्भवेत्‌ ।।
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तनाव और उत्तेजना से मुक्ति :
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परिश्रमपूर्वक काम करने से शारीरिक और मानसिक
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स्वास्थ्य प्राप्त होता है। इसके परिणामस्वरूप
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व्यक्तिगत और सामुदायिक जीवन में लोभ मोहजनित
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जो तनाव और उत्तेजना व्याप्त होते हैं वे कम होते
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हैं। संघर्ष और हिंसा कम होते हैं । अर्थ से प्राप्त
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समृद्धि भोगने का आनन्द मिलता है ।
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संयमित उपभोग : परिश्रम के साथ उत्पादन को
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जोड़ने पर उपभोग स्वाभाविक रूप में ही संयमित
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रहता है क्योंकि उपभोग के लिये समय भी कम रहता
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है और परिश्रमपूर्वक किये गये काम में आनन्द भी
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पर्याप्त मिलता है । वह आनन्द सृजनात्मक होने के
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कारण से उसकी गुणवत्ता भी अधिक अच्छी होती
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है । शरीर, मन, बुद्धि आदि जिस उद्देश्य के लिये बने
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हैं उस उद्देश्य की पूर्ति होने के कारण से आनन्द
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स्वाभाविक होता है, कृत्रिम नहीं ।
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सामाजिकता : अर्थप्राप्ति हेतु परिश्रम करने में और
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उत्पादन के हेतु से परिश्रम होने में और भी दो बातें
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अपने आप घटित होती हैं। एक तो उत्पादन
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उपयोगी वस्तुओं का ही होता है और दूसरा केवल
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स्वयं के ही लिये न होकर अन्यों के लिये भी होता
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है। इस कारण से इसके ट्वारा सामाजिकता का
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विकास होने में बहुत सहायता होती है । सामाजिकता
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का अपना एक सार्थक आनन्द होता है जिसमें सुरक्षा
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और निर्ध्चितता अपने आप समाहित होती है ।
      
== अर्थपुरुषार्थ हेतु करणीय बातें ==
 
== अर्थपुरुषार्थ हेतु करणीय बातें ==
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निश्चित किया जाता है । मनुष्य का कष्ट कम करने में
 
निश्चित किया जाता है । मनुष्य का कष्ट कम करने में
 
और काम को सुकर बनाने में यंत्रों का योगदान
 
और काम को सुकर बनाने में यंत्रों का योगदान
महत्त्वपूर्ण है। परन्तु वे मनुष्य के सहायक होने
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महत्वपूर्ण है। परन्तु वे मनुष्य के सहायक होने
 
चाहिये, मनुष्य का स्थान लेने वाले और उसके काम
 
चाहिये, मनुष्य का स्थान लेने वाले और उसके काम
 
के अवसर छीन लेने वाले नहीं । उदाहरण के लिये
 
के अवसर छीन लेने वाले नहीं । उदाहरण के लिये
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अर्थव्यवस्था एवम्‌ मनुष्यों की आर्थिक स्वतन्त्रता का
 
अर्थव्यवस्था एवम्‌ मनुष्यों की आर्थिक स्वतन्त्रता का
 
मुद्दा अहम है। स्वतन्त्रता मनुष्य का जन्मसिद्ध
 
मुद्दा अहम है। स्वतन्त्रता मनुष्य का जन्मसिद्ध
अधिकार है । आर्थिक स्वतन्त्रता उसका महत्त्वपूर्ण
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अधिकार है । आर्थिक स्वतन्त्रता उसका महत्वपूर्ण
 
आयाम है । उसकी रक्षा होनी ही चाहिये । जो मनुष्य
 
आयाम है । उसकी रक्षा होनी ही चाहिये । जो मनुष्य
 
आर्थिक दृष्टि से स्वतंत्र नहीं है वह दीन हीन हो जाता
 
आर्थिक दृष्टि से स्वतंत्र नहीं है वह दीन हीन हो जाता
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प्राणीजगत
 
प्राणीजगत
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अर्थव्यवस्था... में. महत्त्वपूर्ण
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अर्थव्यवस्था... में. महत्वपूर्ण
 
भूमिका निभाते हैं । वास्तव में भौतिक समृद्धि का
 
भूमिका निभाते हैं । वास्तव में भौतिक समृद्धि का
 
मूल आधार ये सब ही हैं । परमात्मा की कृपा से
 
मूल आधार ये सब ही हैं । परमात्मा की कृपा से
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परिणामदायी होती है ।
 
परिणामदायी होती है ।
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१२. स्वायत्तता का एक महत्त्वपूर्ण आयाम स्वतन्त्रता है ।
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१२. स्वायत्तता का एक महत्वपूर्ण आयाम स्वतन्त्रता है ।
 
आर्थिक स्वतन्त्रता का अर्थ है अपने व्यवसाय का
 
आर्थिक स्वतन्त्रता का अर्थ है अपने व्यवसाय का
 
मालिक होना । इस व्यवस्था के पीछे एक बड़ा
 
मालिक होना । इस व्यवस्था के पीछे एक बड़ा

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