Papa and Punya (पाप एवं पुण्य)
भारतीय सनातन धर्म में नैतिक चिन्तन्त के अंतर्गत शात्रों में नैतिक सद्गुणों तथा कर्त्तव्यों का वर्णन किया गया है। उन कर्त्तव्यों के अनुरूप आचरण करने को पुण्य कहा गया है। एवं शास्त्रविहित कर्म को न करना तथा शास्त्र विरुद्ध कर्म का आचरण करना पाप है।भारतीय चिन्तन में पुण्य-पाप के विचार के सन्दर्भमें सामाजिक दृष्टि प्रमुख है। शास्त्रों में पुण्यकर्मों से उत्तमगति के रूपमें स्वर्ग की प्राप्ति होती है। एवं अशुभ कर्मों के फल स्वरूप नरक आदि की प्राप्ति का उल्लेख प्राप्त होता है। शास्त्रमें पाप और पुण्य की परिभाषा के लिये कहा है-
श्लोकार्थेन प्रवक्ष्यामि यदुक्तं ग्रन्थकोटिभिः। परोपकारः पुण्याय पापाय परपीडनम् ॥(सुभाषितानि)[1]
अर्थात् परोपकार से बढकर कोई पुण्य नहीं है एवं दूसरों को पीडा देने से बढकर कोई पाप नहीं है।
परिचय॥
वह कर्म जिसका फल इस लोक और परलोक में सुख देने वाला हो उसको पुण्य कहा गया है एवं वह आचरण जो कर्ता को अशुभ अदृष्ट कष्ट उत्पन्न करे कर्ता का अधः पतन होने लगे जिसके करने से उसको पाप कहा गया है। जिस प्रकार न करने योग्य कर्म को करना पाप कहा गया है उसी प्रकार अवश्य करने योग्य कर्म को न करना भी पाप ही कहा जाता है। जो व्यक्ति पाप(अशुभ कर्म) को कर्ता है उसके साथ संबंध रखने वाला व्यक्ति भी पाप का भागीदार कहलाता है। अशुभ कर्म से बचना चाहिये। यदि कदाचित् पाप हो भी जायें तो शास्त्र के अनुसार उनका प्रायश्चित्त करना चाहिये। पाप का प्रायश्चित्त(पश्चात्ताप) एवं पाप का भोग ये दो ही पाप से छुटकारा पाने के कारण कहे गये हैं। मानव आचरण का मूल्यांकन नैतिक गुणों के आधार पर किया जाता है। नैतिक गुणों में उचित-अनुचित, शुभ-अशुभ, धर्म-अधर्म, पाप-पुण्य का विवेचन किया जाता है। मनुष्य के कौन-से कर्म शुभ या अशुभ, पाप कर्म या पुण्य कर्म हैं आदि का विवेचन शास्त्रों में किया गया है।
परिभाषा
पुण्य एवं पाप की परिभाषा अन्यान्य शास्त्रकारों ने इस प्रकार की है-
पुनाति वा पवित्रीकरोति आत्मानमिति पुण्यम्।
अर्थ-जिसके द्वारा आत्मिक बलमें उत्थान हो, आत्मा पवित्र हो उसे पुण्य कहते हैं। आचार्य यास्क निरुक्तमें पाप का निर्वचन इस प्रकार करते हैं-
पापः पाताऽपेयानाम् पापत्यमानोऽवाङेव पततीति वा, पापत्यतेर्वा स्यात्।(निरुक्त)[2]
वह अपेय अर्थात् न पीने योग्य पदार्थों का पान करने वाला होता है, अथवा (पापत्यमान) उसी पाप कर्म से वह पुनः पुनःगिराया जाता हुआ (अवाङेव पततीति वा) वह नीचे ही नीचे नरक में गिरता जाता है। अथवा जिससे बार-बार गिरता है उसे पाप कहते हैं।
पातयति आत्मानं इति पापम्।
जिस प्रवृत्ति के द्वारा आत्मा का पतन हो, अहित हो वह पाप कहलाता है। स्वामी दयानन्द जी पाप की परिभाषा करते हुये लिखते हैं कि-
पान्ति रक्षन्ति आत्मानमस्मादिति पापम् अधर्मो वा।
जिससे दूर रहकर आत्मा की रक्षा की जाती है, आत्मा को जिससे बचाकर रखा जाता है, वह पाप है, अधर्म है। इस प्रकार शास्त्रों में आचार्यों ने पाप एवं पुण्य की अनेकों परिभाषायें दी हैं।
पुण्यके पर्यायवाची शब्द- पवित्र, पावन, शुभकर्म, मंगलदायक कर्म, उत्तम कर्म आदि।
पापके पर्यायवाची शब्द- वैदिक वांगमयमें पाप एवं पुण्य के लिये अनेक शब्दों का प्रयोग प्राप्त होता है। जैसे- पापी, पाप्मा, पापम् , पङ्क, किल्विषम् , कल्मषम् , कलुषम् , वृजिनम् , एनः, अघः, अंह, दुरितम् , दुष्कृतम् , क्रूरम् , अनृतम् , आगः, अपह्नवः, कुटिलम् आदि।
शास्त्रों में पाप और पुण्य की अवधारणा
पाप और पुण्य का स्पष्ट विवरण सर्वप्रथम वैदिक साहित्य में प्राप्त होता है। मनुष्य के जीवन में अनेक प्रकार के दुःख, कष्ट, समस्याएँ, मानसिक तनाव, अशान्ति आदि विद्यमान हैं। उनका कारण है कि हमारे पिछले जन्म अथवा इस जन्म में जन्म में किये गये कर्म। यदि हम गलत कर्म करते हैं तो पाप एवं शुभ कर्म करते हैं तो पुण्य प्राप्त होता है। पाप से अशान्ति, दुःख आदि एवं पुण्य से सुख, शान्ति आदि की प्राप्ति होती है।
प्राचीन काल से ही भारतीय जनमानस में पाप-पुण्य सम्बन्धी अवधारणा प्रायः सभी धर्मों, मतावलम्बियों में किसी न किसी रूपमें विद्यमान रही है। पाप एवं पुण्य क्या है? भारतीय शास्त्रों के अनुसार कौन-कौनसे कर्म पाप एवं पुण्यकी दृष्टिमें आते हैं । जब भी पापकर्म होते थे तो लोग ईश्वर से क्षमायाचना करते थे। जो पापकर्म मैंने जानबूझकर या अनजानेमें किये हैं उन्हैं क्षमा कीजिये मुझे सदाचरणमें लगाइये।
पुण्य की अवधारणा
मानव जीवन में सदाचार, सद्व्यवहार, ईमानदारी, परोपकार और निष्कपट भाव आदि पुण्य है क्योंकि किसी व्यक्ति का ऐसा आचरण उसके स्वच्छ मन का प्रतिबिम्ब है। वेदों में प्राणी जिस कर्म के फल को अनुकूल मानता है वह पुण्य और जिनके फल को प्रतिकूल समझता है वह पाप हैं। इस प्रकार हम निष्कर्ष रूप में कह सकते हैं कि पाप-पुण्य की अवधारणा का वर्तमान नैतिक मूल्यों में महत्त्वपूर्ण योगदान है। मनुष्य यदि पुण्य को अपने जीवनमें अपनाता है तो उसे उसका अच्छा परिणाम होता है एवं पुण्य उसके सामने आकर उसे उसका परिणाम प्राप्त कराता है।
अत्युत्कणैः पुण्यपापैः इह जन्मनि भुज्यते। त्रिभिर्वर्षैर्त्रिभिर्मासैर्त्रिभिर्पक्षैर्त्रिभिर्दिनैः॥
पाप की प्रवृत्ति सकाम होती है क्योंकि पाप के साथ भोगों की कामना बनी रहती है। पुण्य की प्रवृत्ति दो प्रकार की होती है-
- सकाम पुण्य- जिस शुभ प्रवृत्ति से सांसारिक फल की प्राप्ति होती है, वह सकाम पुण्य है।
- निष्काम पुण्य- जिस शुभ प्रवृत्ति में फल प्राप्ति की कामना नहीं होती है, वह निष्काम पुण्य कहलाता है।
पाप की अवधारणा
यदि मनुष्य पापपूर्ण जीवन व्यतीत करता है तो उसे उसका गलत परिणाम प्राप्त होता है एवं गलत कर्म का गलत परिणाम भुगतना पडता है। इसलिये महाभारता के शान्तिपर्वमें कहा गया है-
पापकर्म कृतं किञ्चिद्यदि तस्मिन्न दृश्यते। नृपते तस्य पुत्रेषु पौत्रेष्वपि च नप्तृषु॥
शान्तिपर्व में भीष्म युधिष्ठिर से कहते हैं कि- किसी आदमी को उसके पाप कर्मों का फल उस समय मिलता हुआ नहीं दिखता है तो वह उसे ही नहीं बल्कि उसके पौत्रों एवं प्रपौत्रों तक को भोगना पडता है।
शास्त्रों में वर्णित पापकर्म एवं पुण्यकर्म
आत्महत्या- अभिमान से, क्रोधसे, स्नेहसे, भय आदि से स्त्री या पुरुष फाँसी लगाकर मृत्यु को प्राप्त होते हैं, उनकी शुद्धि नहीं होती है। क्योंकि आत्महत्या करना पाप कहा गया है।
गर्भपात- ब्रह्महत्या का पाप बहुत बडा पाप माना गया है किन्तु गर्भपात करवाना इससे भी बडा पाप है। महर्षि का कहना है जो पाप ब्रह्महत्या से लगता है उससे दोगुना पाप गर्भपात से लगता है। ब्रह्महत्या से लगने वाले पाप का तो निराकरण है किन्तु गर्भपात रूपी महापाप का कोई प्रायश्चित्त प्रायश्चित्त नहीं है।[3]
सुरापान- शास्त्रों में सुरापान को द्यूत के समान पाप माना गया है। यह सुरापान मधु से बनती है। सुरा वह मादक पदार्थ है जिसके पीने से व्यक्ति पौरुषहीन हो जाता है, जिसके कारण व्यक्ति पापकर्म करता है।
स्तेय- एक व्यक्ति दूसरे की संपत्ति के लोभ एवं उसके लेने से चोर होता है, चाहे वह किसी भी स्थिति में क्यों न हो, स्तेय है। जब कोई व्यक्ति गुप्त या प्रकट रूप से दिन या रातमें किसी को सम्पत्ति से वंचित करता है, वह चोरी कहलाती है।
परस्त्री गमन- शास्त्रकारों ने कहा है कि परस्त्री से सम्बन्ध नहीं रखना चाहिये। जब कोई व्यक्ति परस्त्री से सम्बन्ध स्थापित करता है तो वह व्यक्ति पापी(अपराधी) हो जाता है, ऐसे व्यक्ति का साथ हित चाहने वालों को छोन देना चाहिये।
पुण्य
जिन भावों एवं क्रियाओं से आत्मा पवित्र होती है, उन्हैं पुण्य कहते हैं। यह पुण्य मुख्यतः दो प्रकार के होते हैं-भावात्मक एवं क्रियात्मक।
भावात्मक पुण्य- जिन भावों से आत्मा पवित्र होती हो वे भावात्मक पुण्य हैं। अहिंसा, संयम, तप, त्याग, करुणा आदि भावों से आत्मा पवित्र होने से ये भावात्मक पुण्य के रूप कहे गये हैं।
क्रियात्मक पुण्य- क्षमा, सरलता, विनम्रता, उदारता आदि गुणों का क्रियात्मक रूप मैत्री, अनुकंपा, दया, वात्सल्य, परोपकार, सेवा, सुश्रूषा आदि समस्त सद्प्रवृत्तियाँ पुण्य के क्रियात्मक रूप हैं।
पुण्य का स्वरूप
आत्मा जिसके द्वारा पवित्र होती है वह पुण्य है। आत्मा प्रवृत्ति एवं निवृत्ति दोनों से पवित्र होती है। दया, दान, करुणा, वात्सल्य, विनम्रता, मृदुता, उपकार एवं सेवा आदि सद्प्रवृत्तियों से आत्मा पवित्र होती है और संयम, तप, व्रत आदि त्यागरूप निवृत्ति से आत्मा पवित्र होती है। इसलिये पुण्य को प्रवृत्ति एवं निवृत्ति दोनों से प्राप्त किया जा सकता है।
पुण्यकर्म एवं तत्त्व
कर्म दो प्रकार के हैं- शुभ एवं अशुभ। शुभ कर्म वे हैं जो जीव के लिये हितकर, कल्याणकारी आत्मा को पवित्र करने वाले हों। इन्हें ही पुण्यकर्म कहा गया है। पुण्यकर्म पाप की कमी का, आत्मा की पवित्रता का, आत्मशुद्धि का एवं आत्म विकास का सूचक है।
पुण्यतत्व वह है जिससे आत्मा पवित्र हो, शुद्ध हो। आत्मा का पवित्र होना आत्मा का विकास होना है। आत्मा की पूर्ण विकसित अवस्था मोक्ष है। पुण्यतत्व का सम्बन्ध आत्मा कि पवित्रता एवं आत्मगुणों के प्रकट होने से है। पुण्यकर्मों का सम्बन्ध पुण्यतत्व के फल के रूपमें मिलने वाले शरीर, इन्द्रिय, मन, मस्तिष्क आदि सामर्थ्य की उपलब्धि से है।
पुण्य तत्त्व आत्म विकास का सूचक है, एवं पुण्यकर्म भौतिक विकास का सूचक है।
पुण्य से लाभ
- पुण्य से आत्मा पवित्र होती है। पुण्य मुक्ति में सहायक है।
- सबसे बडा पुण्य बुराई से बचना माना गया है। अर्थात् अपने राग, द्वेष आदि ऐसे दोषों का अथवा बुराईयों का त्याग करना, दूसरों का बुरा न चाहना, बुरा न कहना, बुराई न करना सबसे बडा पुण्य है।
- पुण्य की वृद्धि पाप नहीं करने से होती है जैसे किसी का बुरा न चाहना, बुरा न सोचना, बुरा न करना, बुरा न मानना।
पाप
जिस प्रवृत्ति से आत्मा का पतन हो, हानि हो, अहित हो वह पाप है। दुष्कृत्य चाहे मन का, वचन का एवं शरीर के द्वारा ही क्यों न हुआ हो सभी पाप हैं।
पाप का स्वरूप
- मानस पाप- १ छल-कपट से दूसरे के धन को हडप लेने की लालसा रखना, २ दूसरे का अमंगल हो ऐसी इच्छा रखना, ३ असत्य विचारों को मानना- ये तीनों मानस पाप कहे गये हैं।
- वाचिक पाप- १ कठोर या परुष वचन, २ असत्य बोलना, ३ चुगलखोरी करना, ४ असंगत वाचालता- ये चारों वाचिक पाप हैं।
- शारीरिक पाप- १ बिना सहमति के किसी की संपत्ति को हथियाना, २ चेतन प्राणियों की हिंसा,३ परस्त्री गमन ये तीनों शारीरिक पाप कहे गये हैं।
पाप कर्म एवं तत्त्व
कर्म के दो प्रकार होते हैं। शुभ एवं अशुभ ये पूर्व कह दिया गया है। अशुभ कर्म को पाप कर्म कहा गया है। अशुभ कर्म वे हैं जो आत्मा का पतन करने वाले हैं। इन्हें ही पाप कर्म कहा जाता है। जिस कार्य को करने से किसी का अकारण बुरा हो वह पापकर्म कहलाता है।
पापतत्व वह है कि जिसके द्वारा आत्मा का पतन हो, आत्मगुणों का ह्रास हो, हनन हो, आत्मा की अशुद्धि बढे ऐसे परिणामों को पाप तत्व कहा जाता है। पापतत्व में वृद्धि होने से भौतिक उपलब्धियों का ह्रास होता है।
अतः हमें कर्म करने से पहले विचार कर लेना चाहिये कि जो कर्म हम करने जा रहे हैं उससे देश, समाज का अथवा किसी का अहित तो नहीं होगा। इस प्रकार विचार पूर्वक कर्म करने से पाप कर्म में प्रवृत्ति नहीं होती है। पाप में प्रवृत्त होने के कुछ प्रमुख कारण इस प्रकार हैं-
पाप में प्रवृत्त होने के कारण
- अदृश्य भाव-
- घमण्ड के कारण-
- संस्कार-
- भय
- संस्कृति-
- विषय-वासना-
- क्रोध-
- लोभ-
- मोह-
पाप से हानि
पापों के शमन के लिये प्रायश्चित्त
दुष्कर्म करने वाले मनुष्य को प्रकृति के भय के कारण अपने गलत कृत्य के प्रति पश्चाताप का अनुभव हुआ। यही पश्चाताप प्रायश्चित्त के रूपमें विकसित हुआ। प्रायश्चित्त भारतीय संस्कृति का महत्त्वपूर्ण विशेषता है। वैदिककाल से ही प्रायश्चित्त की अवधारणा देखी गयी है। वेद, धर्मशास्त्र, पुराण आदि शास्त्रों में प्रायश्चित्त सम्बन्धी बातें विद्यमान है। समाज तथा मनुष्य को पूर्ण विकसित करने के लिये दण्ड तथा प्रायश्चित्त विधियों का विकास हुआ। प्रायश्चित्त के अनुसार मनुष्य अपने द्वारा किये गये गलत कार्य के प्रति मनमें पश्चाताप का अनुभव करता है। अंगिरा के अनुसार प्रायश्चित्त का शाब्दिक अर्थ-
प्रायो नाम तपः प्रोक्तं चितं निश्चय उच्यते। तपोनिश्चयसंयोगात् प्रायश्चित्तमितिस्मृतम् ॥
अर्थ- प्राय को तप तथा चित् को निश्चय कहा गया है। तप और निश्चय का संयोग ही प्रायश्चित्त कहा जाता है।
- प्रायश्चित मन को निर्मल कर देता है। प्रायश्चित मानसिक स्तर की व्यवस्था है।
नित्य, नैमित्तिक आदि विहित कर्मों को न करने से तथा सुरापान आदु निषिद्ध कर्म करनेसे और इन्द्रियों का निग्रह न करने से मनुष्य पतित हो जाता है। इसलिये मनुष्य को शुद्धि के लिये प्रायश्चित्त करना चाहिये।
पापों की निवृत्ति के लिये प्रायश्चित्त रूप में जप, तप, हवन, दान, उपवास, तीर्थयात्रा, आदि करने का विधान है।
प्राचीन साहित्यमें कर्म के नैतिक सन्दर्भ का स्पष्ट अंकन हमें बृहदारण्यक उपनिषद् में मिलता है-
यथाचारी यथाचारी तथा भवति, साधुकारी साधुर्भवति। पापकारी पापो भवति, पुण्यं पुण्येन भवति पापः पापेन। अथो खल्वाहु काममय एवायं पुरुष इति स यथाकामो भवति तत्कृतर्भवति यत्कुतुर्भवति तत् कर्म कुरुते, यत्कर्म कुरुते तदभि सम्पद्यते॥(बृह०उप०)[4]
इसका तात्पर्य यह है कि जो जैसा करने वाला है, जैसा आचरण करने वाला है, वह वैसा आचरण वाला होता है। वह वैसा ही हो जाता है। शुभ कर्म करने वाला शुभ होता है। पाप कर्म करने वाला पापी होता है। पुरुष पुण्य कर्म से पुण्यात्मा होता है और पाप कर्म से पापी होता है।
निष्कर्ष
उद्धरण
- ↑ सुभाषितानि, संस्कृत, श्लोक- ७७।
- ↑ निरुक्तम् , अध्याय-५, खण्ड-२।
- ↑ माधुरी तोमर, भारतीय धर्मशास्त्रमें प्रतिपादित पाप पुण्य की अवधारणा तथा वर्तमान नैतिक मूल्यों की स्थापना में उसका योगदान, सन् २०१९, राजस्थान विश्वविद्यालय( शोध गंगा), अध्याय-२,(पृ०७९)।
- ↑ बृहदारण्यक उपनिषद् , अध्याय-४, ब्राह्मण-४, कण्डिका-४।