Changes

Jump to navigation Jump to search
सुधार जारी
Line 54: Line 54:  
सीमाविवादधर्मश्च पारुष्ये दण्डवाचिके। स्तेयं च साहसं चैव स्त्रीसंग्रहणं एव च॥
 
सीमाविवादधर्मश्च पारुष्ये दण्डवाचिके। स्तेयं च साहसं चैव स्त्रीसंग्रहणं एव च॥
   −
स्त्रीपुंधर्मो विभागश्च द्यूतं आह्वय एव च। पदान्यष्टादशैतानि व्यवहारस्थिताविह॥ (मनु स्मृति)<ref>[https://sa.wikisource.org/wiki/%E0%A4%AE%E0%A4%A8%E0%A5%81%E0%A4%B8%E0%A5%8D%E0%A4%AE%E0%A5%83%E0%A4%A4%E0%A4%BF%E0%A4%83/%E0%A4%85%E0%A4%B7%E0%A5%8D%E0%A4%9F%E0%A4%AE%E0%A5%8B%E0%A4%A7%E0%A5%8D%E0%A4%AF%E0%A4%BE%E0%A4%AF%E0%A4%83 मनु स्मृति], अध्याय- ८, श्लोक - ३-७।</ref> </blockquote>भाषार्थ - न्याय-व्यवस्था की शरण में जाने या मुकदमों के लिए मनु ने १८ कारण गिनाये हैं। जिनके नाम हैं - ऋण और धरोहर का भुगतान न करना, बिना स्वामित्व का विक्रय करना, साझीदारों के संबंध में गडबडी हो जाना, दान दी हुई वस्तु को पुनः वापिस लेना, पारिश्रमिक का भुगतान न करना, समझौतों को भंग करना, क्रय-विक्रय की व्यवस्था का उल्लंघन करना, स्वामी तथा भृत्य के बीच विवाद पैदा होना, सीमा संबंधी अडचन का उपस्थित होना, किसी को मारना, किसी का अपमान करना, किसी की चोरी करना, हिंसा तथा व्यभिचार करना, वैयक्तिक कर्त्तव्यों को न निभाना, पैतृक सम्पत्ति के बँटवारे में मतभेद हो जाना और जुआ तथा पांसा आदि खेलना।<ref name=":1">वाचस्पति गैरोला, [https://archive.org/details/koutheliy-arthshastra-hindi/Arthasastra%20Of%20Kautilya%20%26%20Chanakya%20Sutra%20Vachaspati%20Gairola%20Chowkambha/mode/1up कौटिलीय-अर्थशास्त्र-हिन्दीव्याख्यासमेत], सन १९८४, चौखम्बा विद्याभवन, वाराणसी (पृ० ५३)।</ref>
+
स्त्रीपुंधर्मो विभागश्च द्यूतं आह्वय एव च। पदान्यष्टादशैतानि व्यवहारस्थिताविह॥ (मनु स्मृति)<ref>[https://sa.wikisource.org/wiki/%E0%A4%AE%E0%A4%A8%E0%A5%81%E0%A4%B8%E0%A5%8D%E0%A4%AE%E0%A5%83%E0%A4%A4%E0%A4%BF%E0%A4%83/%E0%A4%85%E0%A4%B7%E0%A5%8D%E0%A4%9F%E0%A4%AE%E0%A5%8B%E0%A4%A7%E0%A5%8D%E0%A4%AF%E0%A4%BE%E0%A4%AF%E0%A4%83 मनु स्मृति], अध्याय- ८, श्लोक - ३-७।</ref> </blockquote>भाषार्थ - न्याय-व्यवस्था की शरण में जाने या मुकदमों के लिए मनु ने १८ कारण गिनाये हैं। जिनके नाम हैं - ऋण और धरोहर का भुगतान न करना, बिना स्वामित्व का विक्रय करना, साझीदारों के संबंध में गडबडी हो जाना, दान दी हुई वस्तु को पुनः वापिस लेना, पारिश्रमिक का भुगतान न करना, समझौतों को भंग करना, क्रय-विक्रय की व्यवस्था का उल्लंघन करना, स्वामी तथा भृत्य के बीच विवाद पैदा होना, सीमा संबंधी अडचन का उपस्थित होना, किसी को मारना, किसी का अपमान करना, किसी की चोरी करना, हिंसा तथा व्यभिचार करना, वैयक्तिक कर्त्तव्यों को न निभाना, पैतृक सम्पत्ति के बँटवारे में मतभेद हो जाना और जुआ तथा पांसा आदि खेलना।<ref name=":1">वाचस्पति गैरोला, [https://archive.org/details/koutheliy-arthshastra-hindi/Arthasastra%20Of%20Kautilya%20%26%20Chanakya%20Sutra%20Vachaspati%20Gairola%20Chowkambha/mode/1up कौटिलीय-अर्थशास्त्र-हिन्दीव्याख्यासमेत], सन १९८४, चौखम्बा विद्याभवन, वाराणसी (पृ० ५३)।</ref>
   −
प्रतिदिन देश की परंपरा और शास्त्रों में बताए गए वाक्यों के द्वारा, अष्टादश (18) व्यवहारपदों का उल्लेख है- अर्थात् वे अठारह प्रकार के न्यायिक विषय (cases or legal proceedings) जिन पर राज्य में न्याय किया जाता है। ये सब पृथक-पृथक रूप से निर्धारित हैं -   
+
मनु एवं अन्य स्मृतिकारों में व्यवहारपदों की संख्या एवं संज्ञा को लेकर पर्याप्त भिन्नता है। निम्नलिखित तालिका इस कथन को स्पष्ट करती है -<ref>डॉ० पांडुरंग वामन काणे, [https://archive.org/details/in.ernet.dli.2015.306909/page/n143/mode/1up धर्मशास्त्र का इतिहास भाग-२], सन १९६५,  उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान, लखनऊ (पृ० ७०७)।</ref>
 +
{| class="wikitable"
 +
|+व्यवहारपदों की तुलना
 +
!क्र०सं०
 +
!मनु
 +
!कौटिल्य
 +
!याज्ञवल्क्य
 +
(मिताक्षरा)
 +
!नारद
 +
!बृहस्पति
 +
|-
 +
|०१
 +
|ऋणादान
 +
|ऋणादान
 +
|ऋणादान
 +
|ऋणादान
 +
|कुसीद
 +
|-
 +
|०२
 +
|निक्षेप
 +
|उपनिधि
 +
|
 +
|
 +
|
 +
|-
 +
|०३
 +
|अस्वामिविक्रय
 +
|अस्वामिविक्रय
 +
|
 +
|
 +
|
 +
|-
 +
|०४
 +
| सम्भूय-समुत्थान
 +
|सम्भूय-समुत्थान
 +
|
 +
|
 +
|
 +
|-
 +
|०५
 +
|दत्तस्यानपाकर्म
 +
|दत्ताप्रदानिक
 +
|
 +
|
 +
|
 +
|-
 +
| ०६
 +
|वेतनादान
 +
|वेतनादान
 +
|
 +
|
 +
|
 +
|-
 +
|०७
 +
|संविद्-व्यतिक्रम
 +
|संविद्-व्यतिक्रम
 +
|
 +
|
 +
|
 +
|-
 +
|०८
 +
|क्रयविक्रयानशय
 +
|क्रीतानुशय
 +
|
 +
|
 +
|
 +
|-
 +
|०९
 +
|स्वामिपालविवाद
 +
|स्वामिपालविवाद
 +
|
 +
|
 +
|
 +
|-
 +
|१०
 +
|सीमाविवाद
 +
|सीमाविवाद
 +
|
 +
|
 +
|
 +
|-
 +
|११
 +
|वाक्पारुष्य
 +
|वाक्पारुष्य
 +
|
 +
|
 +
|
 +
|-
 +
|१२
 +
|दण्डपारुष्य
 +
|दण्डपारुष्य
 +
|
 +
|
 +
|
 +
|-
 +
|१३
 +
| स्तेय
 +
|स्तेय
 +
|
 +
|
 +
|
 +
|-
 +
|१४
 +
|साहस
 +
|साहस
 +
|
 +
|
 +
|
 +
|-
 +
|१५
 +
|स्त्रीसंग्रहण
 +
|स्त्री-संग्रहण
 +
|
 +
|
 +
|
 +
|-
 +
|१६
 +
|स्त्रीपुंधर्म
 +
|
 +
|
 +
|
 +
|
 +
|-
 +
|१७
 +
|विभाग
 +
|
 +
|
 +
|
 +
|
 +
|-
 +
|१८
 +
|द्यूतसमाह्वय
 +
|
 +
|
 +
|
 +
|
 +
|-
 +
|१९
 +
|
 +
|
 +
|
 +
|
 +
|
 +
|-
 +
|२०
 +
|
 +
|
 +
|
 +
|
 +
|
 +
|}
 +
परंपरा और शास्त्रों द्वारा, अष्टादश (18) व्यवहारपदों का उल्लेख है। अर्थात ये अठारह प्रकार के न्यायिक विषय (cases or legal proceedings) जिन पर राज्य में न्याय किया जाता है। ये सब पृथक-पृथक रूप से निर्धारित हैं -   
    
#'''ऋणदान -''' इसमें ऋण के लेने देने से उत्पन्न होने वाले विवाद आते हैं।
 
#'''ऋणदान -''' इसमें ऋण के लेने देने से उत्पन्न होने वाले विवाद आते हैं।
Line 106: Line 257:  
राजा कृत-युग-स्रष्टा त्रेताया द्वापरस्य च। युगस्य च चतुर्थस्य राजा भवति कारणम्॥ (महाभारत)<ref>[https://sa.wikisource.org/wiki/%E0%A4%AE%E0%A4%B9%E0%A4%BE%E0%A4%AD%E0%A4%BE%E0%A4%B0%E0%A4%A4%E0%A4%AE%E0%A5%8D-12-%E0%A4%B6%E0%A4%BE%E0%A4%82%E0%A4%A4%E0%A4%BF%E0%A4%AA%E0%A4%B0%E0%A5%8D%E0%A4%B5-069 महाभारत], शांतिपर्व, अध्याय- ६९, श्लोक- १५-१८।</ref></blockquote>'''भाषार्थ -''' सत्ययुग, त्रेता, द्वापर तथा कलि-युग का अर्थ है - दण्ड के प्रयोग में राजा के अवधान का आधिक्य और अल्पत्व। इससे यही सार निकलता है कि राजा की कुशलता तथा अकुशलता के ऊपर ही कृत-युग तथा कलियुग निर्भर हैं, इनकी कोई निश्चित अवधि नहीं है।
 
राजा कृत-युग-स्रष्टा त्रेताया द्वापरस्य च। युगस्य च चतुर्थस्य राजा भवति कारणम्॥ (महाभारत)<ref>[https://sa.wikisource.org/wiki/%E0%A4%AE%E0%A4%B9%E0%A4%BE%E0%A4%AD%E0%A4%BE%E0%A4%B0%E0%A4%A4%E0%A4%AE%E0%A5%8D-12-%E0%A4%B6%E0%A4%BE%E0%A4%82%E0%A4%A4%E0%A4%BF%E0%A4%AA%E0%A4%B0%E0%A5%8D%E0%A4%B5-069 महाभारत], शांतिपर्व, अध्याय- ६९, श्लोक- १५-१८।</ref></blockquote>'''भाषार्थ -''' सत्ययुग, त्रेता, द्वापर तथा कलि-युग का अर्थ है - दण्ड के प्रयोग में राजा के अवधान का आधिक्य और अल्पत्व। इससे यही सार निकलता है कि राजा की कुशलता तथा अकुशलता के ऊपर ही कृत-युग तथा कलियुग निर्भर हैं, इनकी कोई निश्चित अवधि नहीं है।
   −
== निष्कर्ष ==
+
==निष्कर्ष==
 +
न्याय-कार्य मुख्यतः राजा के अधीन थे। राजा प्रारम्भिक एवं अन्तिम न्यायालय था। स्मृतियों एवं निबन्धों का कहना है कि अकेला राजा न्याय-कार्य नहीं कर सकता, उसे अन्य लोगों की सहायता से न्याय करना चाहिए। राजा अन्तिम न्यायकर्ता थे और उनके नीचे का न्यायालय उसके द्वारा नियुक्त न्यायाधीशों का न्यायालय था। बृहस्पति का कथन है कि साहस नामक मामलों के अतिरिक्त सभी प्रकार के मुकदमों का फैसला कुल, श्रेणी एवं गण कर सकते थे, किन्तु निर्णयों को कार्यान्वित करने का अधिकार राजा को ही प्राप्त था। पितामह ने तीन प्रकार के न्यायालयों की ओर संकेत किया है, किन्तु याज्ञवल्क्य एवं नारद ने दो न्यायलयों की चर्चा की है -
 +
 
 +
# मुख्य न्यायाधीश का न्यायालय
 +
# राजा का न्यायालय
 +
 
 +
पितामह ने लिखा है कि ग्राम में किया गया निर्णय नगर में पहुँचता है और नगर वाला निर्णय राजा के पास और राजा का निर्णय गलत है या सही, वही अन्तिम होता है।
    
==उद्धरण॥ References==
 
==उद्धरण॥ References==
1,239

edits

Navigation menu