Difference between revisions of "Ayana (अयन)"

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काल गणना में वर्ष से छोटी एवं मास से बड़ी एक इकाई है अयन। भारतीय संस्कृति में एक वर्ष को दो भागों में विभक्त किया गया है, जिन्हैं हम दक्षिणायन एवं उत्तरायण के रूप में जानते हैं। इनकी अवधि 6 - 6 मास होती है। इससे हमें ऋतुओं का पता लगाने में सहायता मिलती है। साथ में ही सूर्य की सापेक्ष गति के बारे में भी हम इससे जान सकते हैं एवं अयन का दिन मान से भी सीधा संबंध होता है। वर्तमान में अयन संबंधी सायन एवं निरयन ये दो गणनायें प्रचलित हैं। जो कि प्रसिद्ध खगोलज्ञ वराहमिहिर जी के समय में अयानांश संस्कार की आवश्यकता नहीं थी। क्योंकि उस समय सायन एवं निरयन गणना समान थी। हम प्रस्तुत लेख में अधोलिखित विषयों को देखेंगे -   
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अयन (संस्कृतः अयन) का अर्थ होता है गमन तथा परिवर्तन। सूर्य की उत्तर से दक्षिण की एवं दक्षिण से उत्तर की गति या प्रवृत्ति जिसको उत्तरायण एवं दक्षिणायन कहते हैं। भारतीय काल गणना में एक वर्ष को दो भागों में विभक्त किया गया है, जिन्हैं हम दक्षिणायन एवं उत्तरायण के रूप में जानते हैं। इनकी अवधि छः-छः मास होती है। अयन वर्ष से छोटी एवं मास से बड़ी एक इकाई है। इससे हमें ऋतुओं को ज्ञात करने में सहायता मिलती है। साथ में ही सूर्य की सापेक्ष गति के बारे में भी हम इससे जान सकते हैं एवं अयन का दिन मान से भी सीधा संबंध होता है। वर्तमान में अयन संबंधी सायन एवं निरयन ये दो गणनायें प्रचलित हैं। जो कि प्रसिद्ध खगोलज्ञ वराहमिहिर जी के समय में अयानांश संस्कार की आवश्यकता नहीं थी। क्योंकि उस समय सायन एवं निरयन गणना समान थी। हम प्रस्तुत लेख में अधोलिखित विषयों को देखेंगे -   
  
 
'''अयन क्या है ?'''  
 
'''अयन क्या है ?'''  
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'''सायन और निरयण गणनाओं में क्या अंतर है ?'''
 
'''सायन और निरयण गणनाओं में क्या अंतर है ?'''
  
==परिचय==
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==परिचय॥ Introduction ==
 
कालगणना में अयन का विशेष महत्व है। अयन वर्ष और मास के बीच की काल की एक ईकाई है। यह एक गति भी है। काल की गणना गति होने पर ही की जा सकती है। इस प्रकार सूर्य तथा पृथ्वी की अयन गतियों के अनुसार ही अयन की काल गणना की गई है। वर्ष और मास के बीच की अयन काल की एक इकाई है। यह एक गति भी है। काल की गणना गति होने पर ही की जा सकती है। इस प्रकार सूर्य तथा पृथ्वी की अयन गतियों के अनुसार ही अयन की कालगणना की गई है।
 
कालगणना में अयन का विशेष महत्व है। अयन वर्ष और मास के बीच की काल की एक ईकाई है। यह एक गति भी है। काल की गणना गति होने पर ही की जा सकती है। इस प्रकार सूर्य तथा पृथ्वी की अयन गतियों के अनुसार ही अयन की काल गणना की गई है। वर्ष और मास के बीच की अयन काल की एक इकाई है। यह एक गति भी है। काल की गणना गति होने पर ही की जा सकती है। इस प्रकार सूर्य तथा पृथ्वी की अयन गतियों के अनुसार ही अयन की कालगणना की गई है।
  
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ज्योतिष सम्बन्धी सायन एवं निरयण ऐसा विषय है कि इसको जानाने में अनभिज्ञो की भी अभिरुचि है। सायन या निरयण गणना से कार्य किया जाय ? इस पर मतैक्यता नहीं है।
 
ज्योतिष सम्बन्धी सायन एवं निरयण ऐसा विषय है कि इसको जानाने में अनभिज्ञो की भी अभिरुचि है। सायन या निरयण गणना से कार्य किया जाय ? इस पर मतैक्यता नहीं है।
  
*कुछ विद्वज्जन ग्रह जनित प्राकृतिक उपद्रव, ग्रहों का परिवर्तन का निर्णय एवं ग्रह और पृथ्वी के पारस्परिक सम्बन्धों की गणना सायन से करते है।
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* कुछ विद्वज्जन ग्रह जनित प्राकृतिक उपद्रव, ग्रहों का परिवर्तन का निर्णय एवं ग्रह और पृथ्वी के पारस्परिक सम्बन्धों की गणना सायन से करते है।
 
*कुछ विद्वान - मनुष्य (जातक) के भाग्याभाग्य, परिणाम का निर्णय, निरयण नक्षत्रों में ग्रहों का प्रवेश और भौगोलिक स्थान इनका निर्णय दोनों के तारतम्य अर्थात - निरयण गणना से करते है, और इसे जातक पद्धति कहते है।
 
*कुछ विद्वान - मनुष्य (जातक) के भाग्याभाग्य, परिणाम का निर्णय, निरयण नक्षत्रों में ग्रहों का प्रवेश और भौगोलिक स्थान इनका निर्णय दोनों के तारतम्य अर्थात - निरयण गणना से करते है, और इसे जातक पद्धति कहते है।
  
==परिभाषा==
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==परिभाषा॥ Definition==
 
सूर्य की आभासी गति की गणना की दो पद्धतियां हैं -  
 
सूर्य की आभासी गति की गणना की दो पद्धतियां हैं -  
  
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मैत्रायणी उपनिषद् में उदग् अयन, उत्तरायण ये शब्द कई स्थानों पर आये हैं। उदक् अयन के पर्यायवाची शब्द देवयान, देवलोक और दक्षिणायन के पर्यायवाची पितृयाण, पितृलोक बताये गये हैं।
 
मैत्रायणी उपनिषद् में उदग् अयन, उत्तरायण ये शब्द कई स्थानों पर आये हैं। उदक् अयन के पर्यायवाची शब्द देवयान, देवलोक और दक्षिणायन के पर्यायवाची पितृयाण, पितृलोक बताये गये हैं।
  
==प्राच्य एवं पाश्चात्य अयन प्रणाली==
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==प्राच्य एवं पाश्चात्य अयन प्रणाली॥ Prachya evan Pashchatya Ayan Pranali==
 
भारतीय ज्योतिर्विदों का नक्षत्र ज्ञान उत्कृष्ट कोटि का था। यजुर्वेद में २७ नक्षत्रों को गन्धर्वों की संज्ञा दी गई है। अथर्ववेद में २८ नक्षत्र बताए गए हैं। उस समय प्रथम नक्षत्र कृत्तिका था क्योंकि बसन्त सम्पात (Vernal Equniox) कृत्तिका नक्षत्र में होता था। सम्पूर्ण आकाश को सूर्यपथ या क्रान्तिपथ (Ecliptic) के सहारे पश्चिम से पूर्व २८ या २७ विभागों में बांटा गया था।
 
भारतीय ज्योतिर्विदों का नक्षत्र ज्ञान उत्कृष्ट कोटि का था। यजुर्वेद में २७ नक्षत्रों को गन्धर्वों की संज्ञा दी गई है। अथर्ववेद में २८ नक्षत्र बताए गए हैं। उस समय प्रथम नक्षत्र कृत्तिका था क्योंकि बसन्त सम्पात (Vernal Equniox) कृत्तिका नक्षत्र में होता था। सम्पूर्ण आकाश को सूर्यपथ या क्रान्तिपथ (Ecliptic) के सहारे पश्चिम से पूर्व २८ या २७ विभागों में बांटा गया था।
  
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पाश्चात्य ज्योतिष अर्थात जो उष्णकटिबंधीय प्रणाली (सायन पद्धति) पर आधारित है , उसमें दो विषुव बिंदुओं में से एक, जो आकाशीय भूमध्य रेखा और क्रांतिवृत्त के प्रतिच्छेदन बिंदु हैं, उनको प्रारंभिक संदर्भ बिंदु या 0º के रूप में लिया जाता है। मेष राशि का आकाश में तारों के संदर्भ में विषुव बिंदुओं की कोई निश्चित स्थिति नहीं होती है। वे हमेशा लगभग 00º 00' 50.3” प्रति वर्ष की वार्षिक गति के साथ लगभग 26000 वर्षों में चक्र पूरा करते हुए पश्चिमी दिशा में पीछे की ओर बढ़ते हैं। इस घटना को विषुव की पूर्वता अर्थात अयनांश के रूप में जाना जाता है। परिणाम यह होता है कि इस गतिमान बिंदु के संदर्भ में मापे जाने पर अंतरिक्ष में राशियों के स्थान भी बदल जाते हैं और हमेशा स्थिर तारों के एक ही समूह से जुड़े नहीं रहते हैं। 26000 ÷ 12 = 2166 वर्ष और 8 महीनों की अवधि में प्रत्येक राशि चिन्ह एक पूरी तरह से अलग क्षेत्र में स्थानांतरित हो जाता है और अंतरिक्ष में तारों के एक पूरी तरह से अलग समूह से जुड़ जाता है, जिससे उससे आने वाली ऊर्जा के गुण और एक का अर्थ बदल जाता है। और उस राशि चक्र चिह्न से संबंधित वही ग्रह विन्यास।
 
पाश्चात्य ज्योतिष अर्थात जो उष्णकटिबंधीय प्रणाली (सायन पद्धति) पर आधारित है , उसमें दो विषुव बिंदुओं में से एक, जो आकाशीय भूमध्य रेखा और क्रांतिवृत्त के प्रतिच्छेदन बिंदु हैं, उनको प्रारंभिक संदर्भ बिंदु या 0º के रूप में लिया जाता है। मेष राशि का आकाश में तारों के संदर्भ में विषुव बिंदुओं की कोई निश्चित स्थिति नहीं होती है। वे हमेशा लगभग 00º 00' 50.3” प्रति वर्ष की वार्षिक गति के साथ लगभग 26000 वर्षों में चक्र पूरा करते हुए पश्चिमी दिशा में पीछे की ओर बढ़ते हैं। इस घटना को विषुव की पूर्वता अर्थात अयनांश के रूप में जाना जाता है। परिणाम यह होता है कि इस गतिमान बिंदु के संदर्भ में मापे जाने पर अंतरिक्ष में राशियों के स्थान भी बदल जाते हैं और हमेशा स्थिर तारों के एक ही समूह से जुड़े नहीं रहते हैं। 26000 ÷ 12 = 2166 वर्ष और 8 महीनों की अवधि में प्रत्येक राशि चिन्ह एक पूरी तरह से अलग क्षेत्र में स्थानांतरित हो जाता है और अंतरिक्ष में तारों के एक पूरी तरह से अलग समूह से जुड़ जाता है, जिससे उससे आने वाली ऊर्जा के गुण और एक का अर्थ बदल जाता है। और उस राशि चक्र चिह्न से संबंधित वही ग्रह विन्यास।
  
==अयनांश ॥ PRECESSION OF EQUINOX==
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==अयनांश ॥ PRECESSION OF EQUINOX ==
 
अयनांश संस्कृत (अयन = हिलना-डुलना, चलना , अंश = घटक) शब्द है। भारतीय खगोल शास्त्र में इसका अर्थ अग्रगमन की राशि है। अग्रगमन (PRECESSION) एक घूर्णन पिंड के घूर्णन अक्ष का उन्मुखीकरण (बदलाव) है। स्थायी मेष के प्रथम बिन्दु और चलायमान मेष के प्रथम बिन्दु की कोणीय दूरी अयनांश है, अथवा दूसरे शब्दों में कहें तो जिस समय सायन और निरयण भचक्र सम्पाती (समान) थे, वहां से वसंत सम्पात की पीछे की ओर कोणीय दूरी अयनांश कहलाती है।
 
अयनांश संस्कृत (अयन = हिलना-डुलना, चलना , अंश = घटक) शब्द है। भारतीय खगोल शास्त्र में इसका अर्थ अग्रगमन की राशि है। अग्रगमन (PRECESSION) एक घूर्णन पिंड के घूर्णन अक्ष का उन्मुखीकरण (बदलाव) है। स्थायी मेष के प्रथम बिन्दु और चलायमान मेष के प्रथम बिन्दु की कोणीय दूरी अयनांश है, अथवा दूसरे शब्दों में कहें तो जिस समय सायन और निरयण भचक्र सम्पाती (समान) थे, वहां से वसंत सम्पात की पीछे की ओर कोणीय दूरी अयनांश कहलाती है।
  
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वैदिक ज्योतिष परंपरा और पुरानी संस्कृत पुस्तकों से जुड़ा हुआ लाहिड़ी का तारा चित्रा बिल्कुल उपयुक्त है क्योंकि यह "मेष राशि के प्रारंभ" से 180 डिग्री विपरीत है। चित्रा तारा ग्रह-कक्षा से थोड़ा हटकर हो सकता है, लेकिन अण्डाकार कक्षा के स्पर्शरेखीय माप पर ठीक है। वर्तमान में प्रचलित अयनांशों की सूची इस प्रकार है -  
 
वैदिक ज्योतिष परंपरा और पुरानी संस्कृत पुस्तकों से जुड़ा हुआ लाहिड़ी का तारा चित्रा बिल्कुल उपयुक्त है क्योंकि यह "मेष राशि के प्रारंभ" से 180 डिग्री विपरीत है। चित्रा तारा ग्रह-कक्षा से थोड़ा हटकर हो सकता है, लेकिन अण्डाकार कक्षा के स्पर्शरेखीय माप पर ठीक है। वर्तमान में प्रचलित अयनांशों की सूची इस प्रकार है -  
  
चित्रपक्ष अयनांश , रमण अयानांश , श्री युकतेश्वर अयनांश, सत्य पुष्य अयनांश, कृष्ण मूर्ति अयनांश,  आदि'''प्रथम नक्षत्र'''  
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चित्रपक्ष अयनांश , रमण अयानांश , श्री युकतेश्वर अयनांश, सत्य पुष्य अयनांश, कृष्ण मूर्ति अयनांश,  आदि
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'''प्रथम नक्षत्र'''  
  
 
नक्षत्रों के ऐतिहासिक पृष्ठभूमि से ज्ञात होता है कि भिन्न-भिन्न कालों में प्रथम नक्षत्र बनने का सौभाग्य अलग-अलग नक्षत्रों को प्राप्त हुआ। जैसे -  
 
नक्षत्रों के ऐतिहासिक पृष्ठभूमि से ज्ञात होता है कि भिन्न-भिन्न कालों में प्रथम नक्षत्र बनने का सौभाग्य अलग-अलग नक्षत्रों को प्राप्त हुआ। जैसे -  
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सामान्यतया जिस नक्षत्र में बसन्त सम्पात होता है उसी नक्षत्र को प्रथम नक्षत्र मानकर नक्षत्रों की गणना की जाती है। कभी-कभी शरद सम्पात  (Autumnal Equinox) से अथवा मकर संक्रांति (उत्तरायन प्रारंभ) से भी नक्षत्रों की गणना की जाती रही है। प्राचीन काल से अब तक संपात बिंदुओं (Equinoctical Points) की नक्षत्रीय स्थिति बदलती रही है। इसीलिए भिन्न-भिन्न कालों में प्रथम नक्षत्र बनने का सौभाग्य भी भिन्न-भिन्न नक्षत्रों को प्राप्त हुआ।
 
सामान्यतया जिस नक्षत्र में बसन्त सम्पात होता है उसी नक्षत्र को प्रथम नक्षत्र मानकर नक्षत्रों की गणना की जाती है। कभी-कभी शरद सम्पात  (Autumnal Equinox) से अथवा मकर संक्रांति (उत्तरायन प्रारंभ) से भी नक्षत्रों की गणना की जाती रही है। प्राचीन काल से अब तक संपात बिंदुओं (Equinoctical Points) की नक्षत्रीय स्थिति बदलती रही है। इसीलिए भिन्न-भिन्न कालों में प्रथम नक्षत्र बनने का सौभाग्य भी भिन्न-भिन्न नक्षत्रों को प्राप्त हुआ।
  
== अयन चलन ==
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==अयन चलन==
 
अयन चलन के क्रम का ज्ञान वैदिक ग्रन्थों में भी प्राप्त होता है। जैसे - पुनर्वसु से मृगशिरा (ऋग्वेद), मृगशिरा से रोहिणी (ऐतरेय ब्राह्मण), रोहिणी से कृत्तिका (तैत्तिरीय संहिता), कृत्तिका से भरणी (वेदांग ज्योतिष)। तैत्तरीय संहिता से ज्ञात होता है कि प्राचीन काल में वासंत विषुवद्दिन कृत्तिका नक्षत्र में पडता था। इसी विषुवद्दिन से वैदिक वर्ष का आरंभ माना जाता था, पर अयन की गणना माघ मास से होती थी।<ref>डॉ० चन्द्रमौली रैणा, [https://ijsrset.com/paper/6901.pdf प्राचीन भारतीय कालविभाजन सिद्धान्त], सन् २०१६, इन्टरनेशनल जर्नल ऑफ साइंटिफिक रिसर्च इन साइंस, इंजीनियरिंग एण्ड टैक्नोलॉजी (पृ० ७९३)।</ref>
 
अयन चलन के क्रम का ज्ञान वैदिक ग्रन्थों में भी प्राप्त होता है। जैसे - पुनर्वसु से मृगशिरा (ऋग्वेद), मृगशिरा से रोहिणी (ऐतरेय ब्राह्मण), रोहिणी से कृत्तिका (तैत्तिरीय संहिता), कृत्तिका से भरणी (वेदांग ज्योतिष)। तैत्तरीय संहिता से ज्ञात होता है कि प्राचीन काल में वासंत विषुवद्दिन कृत्तिका नक्षत्र में पडता था। इसी विषुवद्दिन से वैदिक वर्ष का आरंभ माना जाता था, पर अयन की गणना माघ मास से होती थी।<ref>डॉ० चन्द्रमौली रैणा, [https://ijsrset.com/paper/6901.pdf प्राचीन भारतीय कालविभाजन सिद्धान्त], सन् २०१६, इन्टरनेशनल जर्नल ऑफ साइंटिफिक रिसर्च इन साइंस, इंजीनियरिंग एण्ड टैक्नोलॉजी (पृ० ७९३)।</ref>
  
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इसी प्रकार चित्रा के मध्य बिन्दु (१८० अंश) से ९० अंश आगे या अश्विनी के प्रथम बिन्दु से २७० अंश आगे सूर्य के उत्तराषाढा नक्षत्र के द्वितीय चरण (वर्तमान में मूल नक्षत्र के द्वितीय चरण के अन्त में) उत्तरायन प्रारंभ कर देता है।
 
इसी प्रकार चित्रा के मध्य बिन्दु (१८० अंश) से ९० अंश आगे या अश्विनी के प्रथम बिन्दु से २७० अंश आगे सूर्य के उत्तराषाढा नक्षत्र के द्वितीय चरण (वर्तमान में मूल नक्षत्र के द्वितीय चरण के अन्त में) उत्तरायन प्रारंभ कर देता है।
  
==सम्पात एवं अयन ==
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==सम्पात एवं अयन==
 
सूर्य का क्रान्तिवृत्त की कर्कादि छः राशियों में दक्षिण की ओर गमन दक्षिणायन है और सूर्य का मकरादि छः राशियों में उत्तर की ओर गमन उत्तरायण कहलात है।
 
सूर्य का क्रान्तिवृत्त की कर्कादि छः राशियों में दक्षिण की ओर गमन दक्षिणायन है और सूर्य का मकरादि छः राशियों में उत्तर की ओर गमन उत्तरायण कहलात है।
  
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क्रांतिवृत्त के प्रथमांश का विभाजन उत्तर व दक्षिण गोल के मध्यवर्ती ध्रुवों के द्वारा माना गया है। यही विभाजन उत्तरायण और दक्षिणायन कहलाता है। इन अयनों का ज्योतिष संसार में प्रमुख स्थान है।
 
क्रांतिवृत्त के प्रथमांश का विभाजन उत्तर व दक्षिण गोल के मध्यवर्ती ध्रुवों के द्वारा माना गया है। यही विभाजन उत्तरायण और दक्षिणायन कहलाता है। इन अयनों का ज्योतिष संसार में प्रमुख स्थान है।
  
== सम्पातों का नक्षत्र परिवर्तन==
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==सम्पातों का नक्षत्र परिवर्तन==
 
पृथ्वी की धुरी का झुकाव धीरे-धीरे कम होता जा रहा है। इस झुकाव में प्रतिवर्ष .468 विकला की कमी होती जा रही है। सन् 1918 में धुरी का झुकाव 23 अंश 27 कला तथा 1947 में 23 अंश 26 कला 46 विकला था। वर्तमान में यह झुकाव 23 अंश 26 कला 13 विकला (1 जनवरी 1997) है।
 
पृथ्वी की धुरी का झुकाव धीरे-धीरे कम होता जा रहा है। इस झुकाव में प्रतिवर्ष .468 विकला की कमी होती जा रही है। सन् 1918 में धुरी का झुकाव 23 अंश 27 कला तथा 1947 में 23 अंश 26 कला 46 विकला था। वर्तमान में यह झुकाव 23 अंश 26 कला 13 विकला (1 जनवरी 1997) है।
  
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इसमें मेष का प्रथम बिन्दु हमेशा नक्षत्र यानि चित्रा से 180 अंश के कोण पर स्थायी रहता है। क्रांति वृत्त पर इस स्थयी बिंदु से नापे गये देशांश को निरयण देशांश कहते है। यह स्थायी भचक्र 12 राशि व 27 नक्षत्र मे समान रूप से विभाजित है, इनमें वही तारा समूह हमेशा रहता है।
 
इसमें मेष का प्रथम बिन्दु हमेशा नक्षत्र यानि चित्रा से 180 अंश के कोण पर स्थायी रहता है। क्रांति वृत्त पर इस स्थयी बिंदु से नापे गये देशांश को निरयण देशांश कहते है। यह स्थायी भचक्र 12 राशि व 27 नक्षत्र मे समान रूप से विभाजित है, इनमें वही तारा समूह हमेशा रहता है।
  
==अयन सिद्धान्त==
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==अयन सिद्धान्त॥ Ayana Siddhanta==
 
वेदांग ज्योतिष के अयन पद्धति में आचार्य लगध ने अयनारम्भ स्थान धनिष्ठा नक्षत्र को माना है - <blockquote>प्रपद्येते श्रविष्ठादौ सूर्याचन्द्रमसावुदक्॥<ref name=":0">टी०एस० कुप्पन्ना शास्त्री, वेदांग ज्योतिष (अनुवाद सहित), सन् 1985, इण्डियन नेशनल साइंस अकादमी (पृ० २४)।</ref></blockquote>
 
वेदांग ज्योतिष के अयन पद्धति में आचार्य लगध ने अयनारम्भ स्थान धनिष्ठा नक्षत्र को माना है - <blockquote>प्रपद्येते श्रविष्ठादौ सूर्याचन्द्रमसावुदक्॥<ref name=":0">टी०एस० कुप्पन्ना शास्त्री, वेदांग ज्योतिष (अनुवाद सहित), सन् 1985, इण्डियन नेशनल साइंस अकादमी (पृ० २४)।</ref></blockquote>
  
 
इस प्रकार का लगध का कथन वेदांगज्योतिष में प्राप्त होता है। इस सम्बन्ध में आचार्य लगध <nowiki>''</nowiki>इदानीमयने आह<nowiki>''</nowiki> प्रकार से कह रहे हैं - <blockquote>प्रपद्येते श्रविष्ठादौ सूर्याचन्द्रमसावुदक्। सार्पार्धे दक्षिणाऽर्कस्य माघश्रावणयोः सदा॥ (वे०ज्यो०श्लो०सं०७)<ref name=":0" /></blockquote>अर्थ - श्रविष्ठा अर्थात् धनिष्ठा नक्षत्र के आरम्भ में सूर्य, चन्द्र उत्तर की ओर संचालित होने लगते हैं, और आश्लेषा नक्षत्र के आधे भाग पर दक्षिण की ओर संचालित होने लगते हैं। सूर्य सर्वदा माघ मास और श्रावण मास में क्रमशः उत्तर और दक्षिण की ओर गमन में प्रवृत्त होता है। इस प्रकार अयनों के आरम्भ  स्थान का कथन देने के उपरान्त आचार्य लगध <nowiki>''</nowiki>इदानीमयनयोर्दिनरात्रिमाने आह<nowiki>''</nowiki> इत्यादि प्रकार से उत्तर एवं दक्षिण अयन के आरम्भ का दिनरात्रिमान कह रहे हैं -  <blockquote>घर्मवृद्धिरपां प्रस्थः क्षपाह्रास उदग्गतौ। दक्षिणेतौ विपर्यासः षण्मुहूर्त्त्ययनेन तु॥ (वे० ज्यो० श्लो० सं० ८)<ref name=":0" />  </blockquote>'''अर्थ -''' सूर्य के उदगयन में एक पानीयप्रस्थ (12.5 पल) के तुल्य दिनमान में वृद्धि होती है, और रात्रिमान में ह्रास होता है। दक्षिणायन में इसके विपरीत होता है। अयनों के द्वारा एक अयन वर्ष में दिनरात्रिमान में क्रमशः ६ मुहूर्त वृद्धि होती है।
 
इस प्रकार का लगध का कथन वेदांगज्योतिष में प्राप्त होता है। इस सम्बन्ध में आचार्य लगध <nowiki>''</nowiki>इदानीमयने आह<nowiki>''</nowiki> प्रकार से कह रहे हैं - <blockquote>प्रपद्येते श्रविष्ठादौ सूर्याचन्द्रमसावुदक्। सार्पार्धे दक्षिणाऽर्कस्य माघश्रावणयोः सदा॥ (वे०ज्यो०श्लो०सं०७)<ref name=":0" /></blockquote>अर्थ - श्रविष्ठा अर्थात् धनिष्ठा नक्षत्र के आरम्भ में सूर्य, चन्द्र उत्तर की ओर संचालित होने लगते हैं, और आश्लेषा नक्षत्र के आधे भाग पर दक्षिण की ओर संचालित होने लगते हैं। सूर्य सर्वदा माघ मास और श्रावण मास में क्रमशः उत्तर और दक्षिण की ओर गमन में प्रवृत्त होता है। इस प्रकार अयनों के आरम्भ  स्थान का कथन देने के उपरान्त आचार्य लगध <nowiki>''</nowiki>इदानीमयनयोर्दिनरात्रिमाने आह<nowiki>''</nowiki> इत्यादि प्रकार से उत्तर एवं दक्षिण अयन के आरम्भ का दिनरात्रिमान कह रहे हैं -  <blockquote>घर्मवृद्धिरपां प्रस्थः क्षपाह्रास उदग्गतौ। दक्षिणेतौ विपर्यासः षण्मुहूर्त्त्ययनेन तु॥ (वे० ज्यो० श्लो० सं० ८)<ref name=":0" />  </blockquote>'''अर्थ -''' सूर्य के उदगयन में एक पानीयप्रस्थ (12.5 पल) के तुल्य दिनमान में वृद्धि होती है, और रात्रिमान में ह्रास होता है। दक्षिणायन में इसके विपरीत होता है। अयनों के द्वारा एक अयन वर्ष में दिनरात्रिमान में क्रमशः ६ मुहूर्त वृद्धि होती है।
  
==उत्तरायण एवं दक्षिणायन==
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==उत्तरायण एवं दक्षिणायन॥ Uttarayan and Dakshinayan==
 
वेदों में उत्तरायण को देवयान एवं दक्षिणायन को पितृयान कहा गया है। इन्हैं याम्यायन एवं सौम्यायन के नाम से भी जाना जाता है। अर्थात दक्षिणायन को याम्यायन एवं उत्तरायण को सौम्यायन कहते हैं  
 
वेदों में उत्तरायण को देवयान एवं दक्षिणायन को पितृयान कहा गया है। इन्हैं याम्यायन एवं सौम्यायन के नाम से भी जाना जाता है। अर्थात दक्षिणायन को याम्यायन एवं उत्तरायण को सौम्यायन कहते हैं  
  
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गृहप्रवेशस्त्रिदशप्रतिष्ठा विवाहचौलव्रतबंधदीक्षा। सौम्यायने कर्म शुभं विधेयं यद्गर्हितं तत्खलु दक्षिणायने॥</blockquote>
 
गृहप्रवेशस्त्रिदशप्रतिष्ठा विवाहचौलव्रतबंधदीक्षा। सौम्यायने कर्म शुभं विधेयं यद्गर्हितं तत्खलु दक्षिणायने॥</blockquote>
  
==अयन का महत्व==
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==अयन का महत्व॥ importance of Ayana==
 
उत्तरायण को दक्षिणायन से श्रेष्ठ माना गया है। सूर्य का उत्तरायण में प्रवेश प्रत्येक जन को ठंड की समाप्ति एवं प्रत्यासन्न वसंत ऋतु के आगमन का शुभ संदेश देता है। इसमें दिन बडे होने लगते हैं और प्रकाश एवं प्राणदायिनी ऊष्मा की वृद्धि होने लगती है। जैसा कि श्रीमद्भगवद्गीता में उत्तरायण एवं दक्षिणायन के सन्दर्भ में वर्णित है - <blockquote>अग्निज्योतिरहः शुक्लः षण्मासा उत्तरायणम् । तत्र प्रयाता गच्छन्ति ब्रह्म ब्रह्मविदो जनाः॥ (भ०गी० ८, २४)</blockquote>'''भावार्थ -''' इस श्लोक में उत्तरायण को शुक्ल मार्ग से संबोधित किया गया है। अग्नि, ज्योति, दिन, शुक्ल पक्ष और उत्तरायण में जिन्होंने देह त्याग किया वे लोग ब्रह्म को प्राप्त कर मुक्त हो जाते हैं। पर दक्षिणायन में जिन्होंने शरीर त्याग किया उन्हैं चन्द्रलोक की प्राप्ति होती है, वे मुक्त नहीं होते। विष्णु पुराण में भी अयन के संदर्भ में प्रमाण प्राप्त होता है - <blockquote>अयनस्योत्तरस्यादौ मकरं याति भास्करः। ततः कुम्भं च मीनं च राशो! राश्यंतरं द्विज॥
 
उत्तरायण को दक्षिणायन से श्रेष्ठ माना गया है। सूर्य का उत्तरायण में प्रवेश प्रत्येक जन को ठंड की समाप्ति एवं प्रत्यासन्न वसंत ऋतु के आगमन का शुभ संदेश देता है। इसमें दिन बडे होने लगते हैं और प्रकाश एवं प्राणदायिनी ऊष्मा की वृद्धि होने लगती है। जैसा कि श्रीमद्भगवद्गीता में उत्तरायण एवं दक्षिणायन के सन्दर्भ में वर्णित है - <blockquote>अग्निज्योतिरहः शुक्लः षण्मासा उत्तरायणम् । तत्र प्रयाता गच्छन्ति ब्रह्म ब्रह्मविदो जनाः॥ (भ०गी० ८, २४)</blockquote>'''भावार्थ -''' इस श्लोक में उत्तरायण को शुक्ल मार्ग से संबोधित किया गया है। अग्नि, ज्योति, दिन, शुक्ल पक्ष और उत्तरायण में जिन्होंने देह त्याग किया वे लोग ब्रह्म को प्राप्त कर मुक्त हो जाते हैं। पर दक्षिणायन में जिन्होंने शरीर त्याग किया उन्हैं चन्द्रलोक की प्राप्ति होती है, वे मुक्त नहीं होते। विष्णु पुराण में भी अयन के संदर्भ में प्रमाण प्राप्त होता है - <blockquote>अयनस्योत्तरस्यादौ मकरं याति भास्करः। ततः कुम्भं च मीनं च राशो! राश्यंतरं द्विज॥
  
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राशिं कर्कटकं प्राप्य कुरुते दक्षिणायनम् ॥ (विष्णु पुराण)<ref>[https://sa.wikisource.org/wiki/%E0%A4%B5%E0%A4%BF%E0%A4%B7%E0%A5%8D%E0%A4%A3%E0%A5%81%E0%A4%AA%E0%A5%81%E0%A4%B0%E0%A4%BE%E0%A4%A3%E0%A4%AE%E0%A5%8D/%E0%A4%A6%E0%A5%8D%E0%A4%B5%E0%A4%BF%E0%A4%A4%E0%A5%80%E0%A4%AF%E0%A4%BE%E0%A4%82%E0%A4%B6%E0%A4%83/%E0%A4%85%E0%A4%A7%E0%A5%8D%E0%A4%AF%E0%A4%BE%E0%A4%AF%E0%A4%83_%E0%A5%AE विष्णु पुराण], द्वितीयांशः, अध्याय - 8, श्लोक - 28 - 31। </ref></blockquote>पृथ्वी की इस अयन गति के कारण ध्रुव तारे में परिवर्तन होता है। पृथ्वी के उत्तरी ध्रुव के ऊपर जो भी तारा होता है उसे ध्रुव तारा कहते हैं। अयन गति के कारण पृथ्वी का उत्तरी ध्रुव अलग - अलग समय पर भिन्न तारों की ओर अपना मुख करता है। लगभग 14 हजार वर्ष पहले अभिजित तारा हमारा ध्रुव तारा था और आगामी 14000 वर्ष बाद पुनः वह पुनः ध्रुव तारा बनेगा।
 
राशिं कर्कटकं प्राप्य कुरुते दक्षिणायनम् ॥ (विष्णु पुराण)<ref>[https://sa.wikisource.org/wiki/%E0%A4%B5%E0%A4%BF%E0%A4%B7%E0%A5%8D%E0%A4%A3%E0%A5%81%E0%A4%AA%E0%A5%81%E0%A4%B0%E0%A4%BE%E0%A4%A3%E0%A4%AE%E0%A5%8D/%E0%A4%A6%E0%A5%8D%E0%A4%B5%E0%A4%BF%E0%A4%A4%E0%A5%80%E0%A4%AF%E0%A4%BE%E0%A4%82%E0%A4%B6%E0%A4%83/%E0%A4%85%E0%A4%A7%E0%A5%8D%E0%A4%AF%E0%A4%BE%E0%A4%AF%E0%A4%83_%E0%A5%AE विष्णु पुराण], द्वितीयांशः, अध्याय - 8, श्लोक - 28 - 31। </ref></blockquote>पृथ्वी की इस अयन गति के कारण ध्रुव तारे में परिवर्तन होता है। पृथ्वी के उत्तरी ध्रुव के ऊपर जो भी तारा होता है उसे ध्रुव तारा कहते हैं। अयन गति के कारण पृथ्वी का उत्तरी ध्रुव अलग - अलग समय पर भिन्न तारों की ओर अपना मुख करता है। लगभग 14 हजार वर्ष पहले अभिजित तारा हमारा ध्रुव तारा था और आगामी 14000 वर्ष बाद पुनः वह पुनः ध्रुव तारा बनेगा।
  
==सारांश==
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==सारांश॥ Summary==
 
याजुष् ज्योतिष के श्लोकों के आधार पर श्रविष्ठा के आरम्भ में दक्षिणायन तथा आश्लेषा के अर्ध या मध्य बिन्दु से उत्तरायण स्वीकार करते हैं। इसी प्रकार का उल्लेख वराहमिहिर की बृहत्संहिता में भी मिलता है। आचार्य वराह ने अपने समय में उत्तरायण पुनर्वसु के ३/४ तथा दक्षिणायन १/४ में माना है। इस तरह अयन चलन की सम्पातिक गति ७÷४ या २३°–२० होती है।
 
याजुष् ज्योतिष के श्लोकों के आधार पर श्रविष्ठा के आरम्भ में दक्षिणायन तथा आश्लेषा के अर्ध या मध्य बिन्दु से उत्तरायण स्वीकार करते हैं। इसी प्रकार का उल्लेख वराहमिहिर की बृहत्संहिता में भी मिलता है। आचार्य वराह ने अपने समय में उत्तरायण पुनर्वसु के ३/४ तथा दक्षिणायन १/४ में माना है। इस तरह अयन चलन की सम्पातिक गति ७÷४ या २३°–२० होती है।
  
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*वसंत-विषुव = वसन्त विषुव या महाविषुव को मार्च विषुव भी कहते हैं। इस तिथि को पृथ्वी से देखने पर सूर्य दक्षिणी गोलार्द्ध को छोडकर उत्तरी गोलार्द्ध की तरफ बढता हुआ प्रतीत होता है इसी को दक्षिणी गोलार्द्ध में शरद विषुव कहते हैं एवं इसी तिथि को उत्तरी गोलार्द्ध में वसन्त विषुव कहा जाता है। यह विषुव, ग्रीनविच रेखा पर १९ मार्च से लेकर २१ मार्च के बीच आती है।
 
*वसंत-विषुव = वसन्त विषुव या महाविषुव को मार्च विषुव भी कहते हैं। इस तिथि को पृथ्वी से देखने पर सूर्य दक्षिणी गोलार्द्ध को छोडकर उत्तरी गोलार्द्ध की तरफ बढता हुआ प्रतीत होता है इसी को दक्षिणी गोलार्द्ध में शरद विषुव कहते हैं एवं इसी तिथि को उत्तरी गोलार्द्ध में वसन्त विषुव कहा जाता है। यह विषुव, ग्रीनविच रेखा पर १९ मार्च से लेकर २१ मार्च के बीच आती है।
  
==उद्धरण==
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==उद्धरण॥ References==
 
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अयन (संस्कृतः अयन) का अर्थ होता है गमन तथा परिवर्तन। सूर्य की उत्तर से दक्षिण की एवं दक्षिण से उत्तर की गति या प्रवृत्ति जिसको उत्तरायण एवं दक्षिणायन कहते हैं। भारतीय काल गणना में एक वर्ष को दो भागों में विभक्त किया गया है, जिन्हैं हम दक्षिणायन एवं उत्तरायण के रूप में जानते हैं। इनकी अवधि छः-छः मास होती है। अयन वर्ष से छोटी एवं मास से बड़ी एक इकाई है। इससे हमें ऋतुओं को ज्ञात करने में सहायता मिलती है। साथ में ही सूर्य की सापेक्ष गति के बारे में भी हम इससे जान सकते हैं एवं अयन का दिन मान से भी सीधा संबंध होता है। वर्तमान में अयन संबंधी सायन एवं निरयन ये दो गणनायें प्रचलित हैं। जो कि प्रसिद्ध खगोलज्ञ वराहमिहिर जी के समय में अयानांश संस्कार की आवश्यकता नहीं थी। क्योंकि उस समय सायन एवं निरयन गणना समान थी। हम प्रस्तुत लेख में अधोलिखित विषयों को देखेंगे -

अयन क्या है ?

अयानांश क्या कहलाता है ?

कालगणना में अयन का महत्व क्या है ?

सायन और निरयण गणनाओं में क्या अंतर है ?

परिचय॥ Introduction

कालगणना में अयन का विशेष महत्व है। अयन वर्ष और मास के बीच की काल की एक ईकाई है। यह एक गति भी है। काल की गणना गति होने पर ही की जा सकती है। इस प्रकार सूर्य तथा पृथ्वी की अयन गतियों के अनुसार ही अयन की काल गणना की गई है। वर्ष और मास के बीच की अयन काल की एक इकाई है। यह एक गति भी है। काल की गणना गति होने पर ही की जा सकती है। इस प्रकार सूर्य तथा पृथ्वी की अयन गतियों के अनुसार ही अयन की कालगणना की गई है।

सूर्य तथा पृथ्वी की गतियों के बारे में भू -भ्रमण सिद्धांत इस लेख को देखें -

विश्व के प्राचीनतम ग्रंथ ऋग्वेद में कई स्थानों पर अयन शब्द आया है। शतपथ ब्राह्मण में अयन के संबंध में विवरण मिलता है –

वसंतो ग्रीष्मो वर्षाः। ते देवा ऋतवः शरद्धेमंतः शिशिरस्ते पितरो.....स (सूर्यः) यत्रोदगावर्तते। देवेषु तर्हि भवति यत्र दक्षिणा वर्तते पितृषु तर्हि भवति॥ (श० ब्रा० २,१,३)[1]

अर्थात – शिशिर ऋतु से ग्रीष्म ऋतु पर्यंत उत्तरायण और वर्षा ऋतु से हेमंत ऋतु पर्यंत दक्षिणायन होता था।  

  • विज्ञान अनुसार कोई भी अयनांश प्रामाणिक नही है क्योकि नक्षत्र समूह निरंतर बदलता रहता है।
  • सायन मे कोई परिवर्तन नही होता क्योकि सम्पात का प्रारम्भ हमेशा 21 मार्च से होता है।
  • प्राचीन भारतीय खगोल वेत्ता दो प्रकार के योगो का उपयोग किया करते थे। वे सायन सूर्य और सायन चन्द्रमा के योग (जोड़) को बहुत महत्व देते थे। सा. सू. + सा. च. के अंश 180 को व्यतिपात तथा 360 को वैघृति मानते थे। इनकी गणना विशेष योगों में किया करते थे। इससे सिद्ध होता है कि सायन सिद्धांत को मान्यता थी।

ज्योतिष सम्बन्धी सायन एवं निरयण ऐसा विषय है कि इसको जानाने में अनभिज्ञो की भी अभिरुचि है। सायन या निरयण गणना से कार्य किया जाय ? इस पर मतैक्यता नहीं है।

  • कुछ विद्वज्जन ग्रह जनित प्राकृतिक उपद्रव, ग्रहों का परिवर्तन का निर्णय एवं ग्रह और पृथ्वी के पारस्परिक सम्बन्धों की गणना सायन से करते है।
  • कुछ विद्वान - मनुष्य (जातक) के भाग्याभाग्य, परिणाम का निर्णय, निरयण नक्षत्रों में ग्रहों का प्रवेश और भौगोलिक स्थान इनका निर्णय दोनों के तारतम्य अर्थात - निरयण गणना से करते है, और इसे जातक पद्धति कहते है।

परिभाषा॥ Definition

सूर्य की आभासी गति की गणना की दो पद्धतियां हैं -

सायन = स + अयन यानि अयन सहित या चलायमान भचक्र (Tropical/ Movable Zodiac) एक सायन वर्ष 365.2422 दिन का होता है। (365 दिन, 5 घण्टा, 48 मिनट एवं 45 सेकेण्ड)।[2]

निरयण =  नि + अयन यानि अयन रहित या स्थिर भचक्र (Sidereal / Fixed Zodiac) एक निरयण वर्ष 365. 2563 दिन का होता है। (365 दिन, 6 घण्टा, 9 मिनट, 9.76 सेकेण्ड)।

  • आकाश मध्य में एक कल्पित रेखा जिसे आकाशीय विषुव वृत्त या नाड़ी वृत्त CELESTIAL EQUATOR कहते है।
  • सूर्य इस नाड़ी वृत्त पर नही घूमता है। वह हमेशा क्रांति वृत्त ECLIPTIC पर घूमता है।
  • दोनो वृत्त 23.30 अंश का कोण बनाते हुए दो स्थानो पर एक दूसरे को काटते है, इन्हे ही सम्पात बिन्दु या अयन बिन्दु कहते है।
  • क्रांति वृत्त के उत्तर दक्षिण एक  9-9 अंश का कल्पित पट्टा है जिसे ही भचक्र कहते है।

मैत्रायणी उपनिषद् में उदग् अयन, उत्तरायण ये शब्द कई स्थानों पर आये हैं। उदक् अयन के पर्यायवाची शब्द देवयान, देवलोक और दक्षिणायन के पर्यायवाची पितृयाण, पितृलोक बताये गये हैं।

प्राच्य एवं पाश्चात्य अयन प्रणाली॥ Prachya evan Pashchatya Ayan Pranali

भारतीय ज्योतिर्विदों का नक्षत्र ज्ञान उत्कृष्ट कोटि का था। यजुर्वेद में २७ नक्षत्रों को गन्धर्वों की संज्ञा दी गई है। अथर्ववेद में २८ नक्षत्र बताए गए हैं। उस समय प्रथम नक्षत्र कृत्तिका था क्योंकि बसन्त सम्पात (Vernal Equniox) कृत्तिका नक्षत्र में होता था। सम्पूर्ण आकाश को सूर्यपथ या क्रान्तिपथ (Ecliptic) के सहारे पश्चिम से पूर्व २८ या २७ विभागों में बांटा गया था।

वेदांग ज्योतिष काल में नक्षत्रों का आरम्भ धनिष्ठा नक्षत्र से माना जाता था। क्योंकि उस समय मकर संक्रान्ति (उत्तरायन) प्रारम्भ धनिष्ठा नक्षत्र से होता था। महाभारत काल में भीष्म पितामह इसी उत्तरायन की प्रतीक्षा में शर-शैया पर पडे रहे थे। उत्तरायन आरम्भ होने पर ही उन्होंने अपने प्राण त्यागे थे।[2]

पाश्चात्य ज्योतिष अर्थात जो उष्णकटिबंधीय प्रणाली (सायन पद्धति) पर आधारित है , उसमें दो विषुव बिंदुओं में से एक, जो आकाशीय भूमध्य रेखा और क्रांतिवृत्त के प्रतिच्छेदन बिंदु हैं, उनको प्रारंभिक संदर्भ बिंदु या 0º के रूप में लिया जाता है। मेष राशि का आकाश में तारों के संदर्भ में विषुव बिंदुओं की कोई निश्चित स्थिति नहीं होती है। वे हमेशा लगभग 00º 00' 50.3” प्रति वर्ष की वार्षिक गति के साथ लगभग 26000 वर्षों में चक्र पूरा करते हुए पश्चिमी दिशा में पीछे की ओर बढ़ते हैं। इस घटना को विषुव की पूर्वता अर्थात अयनांश के रूप में जाना जाता है। परिणाम यह होता है कि इस गतिमान बिंदु के संदर्भ में मापे जाने पर अंतरिक्ष में राशियों के स्थान भी बदल जाते हैं और हमेशा स्थिर तारों के एक ही समूह से जुड़े नहीं रहते हैं। 26000 ÷ 12 = 2166 वर्ष और 8 महीनों की अवधि में प्रत्येक राशि चिन्ह एक पूरी तरह से अलग क्षेत्र में स्थानांतरित हो जाता है और अंतरिक्ष में तारों के एक पूरी तरह से अलग समूह से जुड़ जाता है, जिससे उससे आने वाली ऊर्जा के गुण और एक का अर्थ बदल जाता है। और उस राशि चक्र चिह्न से संबंधित वही ग्रह विन्यास।

अयनांश ॥ PRECESSION OF EQUINOX

अयनांश संस्कृत (अयन = हिलना-डुलना, चलना , अंश = घटक) शब्द है। भारतीय खगोल शास्त्र में इसका अर्थ अग्रगमन की राशि है। अग्रगमन (PRECESSION) एक घूर्णन पिंड के घूर्णन अक्ष का उन्मुखीकरण (बदलाव) है। स्थायी मेष के प्रथम बिन्दु और चलायमान मेष के प्रथम बिन्दु की कोणीय दूरी अयनांश है, अथवा दूसरे शब्दों में कहें तो जिस समय सायन और निरयण भचक्र सम्पाती (समान) थे, वहां से वसंत सम्पात की पीछे की ओर कोणीय दूरी अयनांश कहलाती है।

आधुनिक खगोलविज्ञान के अनुसार यह सायन भचक्र और निरयण भचक्र का अंतर है। इसी प्रकार आधुनिक खगोल के अनुसार सायन सौर वर्ष निरयण या नाक्षत्र वर्ष से लगभग 20 मिनिट (365 d 6 h 9 min 9.76 s -  365 d 5 h, 48 min 45 s = 20 मिनिट 23. 24 सेकण्ड) अधिक है।

सम्पात बिन्दु 01 (चित्र मे हरा बिंदु) व 02 (चित्र मे लाल बिंदु) को वसंत और शरद सम्पात कहते है। ये सम्पात बिंदु प्रत्येक वर्ष पश्चिम की ओर पीछे हटते जाते है।  इनकी गति वक्र है यही गति अयन चलन या विषुव क्रांति या वलयपात कहलाती है। इनका पीछे हटना ही अयन के अंश अर्थात अयनांश PRECESSION OF EQUINOX कहलाता है। सम्पात का एक चक्र लगभग 26000 वर्ष में पूर्ण होता है, अतः औसत अयन बिन्दुओ को एक अंश चलने में 72 वर्ष लगते है। इसकी मध्यम गति 50"15'" प्रति वर्ष है।

वर्तमान में प्रचलित अयनांश

वैदिक ज्योतिष परंपरा और पुरानी संस्कृत पुस्तकों से जुड़ा हुआ लाहिड़ी का तारा चित्रा बिल्कुल उपयुक्त है क्योंकि यह "मेष राशि के प्रारंभ" से 180 डिग्री विपरीत है। चित्रा तारा ग्रह-कक्षा से थोड़ा हटकर हो सकता है, लेकिन अण्डाकार कक्षा के स्पर्शरेखीय माप पर ठीक है। वर्तमान में प्रचलित अयनांशों की सूची इस प्रकार है -

चित्रपक्ष अयनांश , रमण अयानांश , श्री युकतेश्वर अयनांश, सत्य पुष्य अयनांश, कृष्ण मूर्ति अयनांश, आदि

प्रथम नक्षत्र

नक्षत्रों के ऐतिहासिक पृष्ठभूमि से ज्ञात होता है कि भिन्न-भिन्न कालों में प्रथम नक्षत्र बनने का सौभाग्य अलग-अलग नक्षत्रों को प्राप्त हुआ। जैसे -

सामान्यतया जिस नक्षत्र में बसन्त सम्पात होता है उसी नक्षत्र को प्रथम नक्षत्र मानकर नक्षत्रों की गणना की जाती है। कभी-कभी शरद सम्पात (Autumnal Equinox) से अथवा मकर संक्रांति (उत्तरायन प्रारंभ) से भी नक्षत्रों की गणना की जाती रही है। प्राचीन काल से अब तक संपात बिंदुओं (Equinoctical Points) की नक्षत्रीय स्थिति बदलती रही है। इसीलिए भिन्न-भिन्न कालों में प्रथम नक्षत्र बनने का सौभाग्य भी भिन्न-भिन्न नक्षत्रों को प्राप्त हुआ।

अयन चलन

अयन चलन के क्रम का ज्ञान वैदिक ग्रन्थों में भी प्राप्त होता है। जैसे - पुनर्वसु से मृगशिरा (ऋग्वेद), मृगशिरा से रोहिणी (ऐतरेय ब्राह्मण), रोहिणी से कृत्तिका (तैत्तिरीय संहिता), कृत्तिका से भरणी (वेदांग ज्योतिष)। तैत्तरीय संहिता से ज्ञात होता है कि प्राचीन काल में वासंत विषुवद्दिन कृत्तिका नक्षत्र में पडता था। इसी विषुवद्दिन से वैदिक वर्ष का आरंभ माना जाता था, पर अयन की गणना माघ मास से होती थी।[3]

अयन चलन और नक्षत्र

अयन चलन किसी घूर्णन (रोटेशन) करती खगोलीय वस्तु में गुरुत्वाकर्षक प्रभावों से अक्ष (ऐक्सिस) की ढलान में धीरे-धीरे होने वाले बदलाव को कहा जाता है।

पृथ्वी की काल्पनिक धुरी लगभग २३ १/२ अंश झुकी हुई है। इस झुकाव के कारण सूर्यपथ या क्रान्तिपथ (Ecliptic) पृथ्वी के साथ २३ १/२ अंश का झुकाव बनाए रखता है। अर्थात् क्रान्तिपथ तिर्यक् (Oblique) है। क्रांतिवृत्त विषुवत् रेखा (Equator) को दो बिंदुओं पर काटता है। इनमें से एक बिंदु अश्विनी का प्रथम बिंदु तथा दूसरा इससे ठीक 180 अंश दूर चित्रा नक्षत्र का मध्य बिंदु है। अश्विनी के प्रथम बिंदु से ही भचक्र में कोणात्मक गणना की जाती है।

आदर्श स्थिति के अनुसार अश्विनी के प्रथम बिन्दु से सूर्य उत्तरी गोलार्द्ध में प्रवेश करता है। इस बिन्दु से ठीक १८० अंश दूर चित्रा के मध्य बिन्दु से सूर्य दक्षिणी गोलार्द्ध में प्रवेश करता है। इन दोनों बिन्दुओं के मध्य 90-90 अंशों की दूरी पर ऐसे दो बिन्दु हैं, जहां से सूर्य क्रमशः दक्षिणायन व उत्तरायन होता है।

अश्विनी के प्रथम बिन्दु (० अंश) से 90 अंश आगे पुनर्वसु नक्षत्र के चतुर्थ चरण (वर्तमान में आर्द्रा के प्रथम चरण) में सूर्य के प्रवेश होते ही सूर्य दक्षिणायन होना प्रारम्भ कर देता है।

इसी प्रकार चित्रा के मध्य बिन्दु (१८० अंश) से ९० अंश आगे या अश्विनी के प्रथम बिन्दु से २७० अंश आगे सूर्य के उत्तराषाढा नक्षत्र के द्वितीय चरण (वर्तमान में मूल नक्षत्र के द्वितीय चरण के अन्त में) उत्तरायन प्रारंभ कर देता है।

सम्पात एवं अयन

सूर्य का क्रान्तिवृत्त की कर्कादि छः राशियों में दक्षिण की ओर गमन दक्षिणायन है और सूर्य का मकरादि छः राशियों में उत्तर की ओर गमन उत्तरायण कहलात है।

वसन्त सम्पात से 90॰ आगे चलकर जब सूर्य दक्षिणायन बिन्दु पर पहुँचता है तो दक्षिणायन प्रारम्भ होता है। यह प्रायः 21 जून को घटित होता है। इसी प्रकार दक्षिणायन बिन्दु से 90॰ आगे जाकर सूर्य शरत्सम्पात पर 23 सितंबर के लगभग पहुंचता है तो सर्दी की ऋतु आरंभ हो जाती है। उसके बाद में 90॰ आगे जाकर उत्तरायण बिन्दु पर पहुंचता है तो सूर्य उत्तराभिमुख होकर चलने लगता है, अतः वही समय 22 दिसंबर उत्तरायण का होता है।

उसके बाद पुनः 90॰ आगे चलकर पुनः वसंत ऋतु के प्रारंभ बिंदु वसंत संपात पर पहुंचता है। यह सम्पूर्ण क्रांतिवृत्त की परिक्रमा 90॰ x 4 = 360॰ अंशों या 12 राशियों की होती है। अतः ये चारों घटनायें प्रतिवर्ष होती हैं, अर्थात - वसंत संपात, उत्तरायण का अंत, शरद संपात और दक्षिणायन का अंत।

मकरादिस्थेषड्भस्थे सूर्ये सौम्यायनं स्मृतम्। कर्कादिराशिषट्के च याम्यायनमुदाहृतम्॥

मकरादि 6 राशियों में सूर्य के रहने पर सौम्यायन और कर्कादि 6 राशियों में याम्यायन कहलाता है।

वसन्त सम्पात व शरत्सम्पात वे बिन्दु हैं जो राशिवृत्त व विषुवद्वृत्त की काट पर स्थित हैं। ये दो हैं। अतः सूर्य वर्ष में दो बार २१ मार्च व २३ सितम्बर को विषुवद्वृत्त पर पहुँचता है। ये दो दिन विषुव दिन या गोल दिन व इस दिन होने वाली सायन मेष व तुला संक्रान्ति गोल या विषुवसंक्रान्ति कहलाती है।

विषुव (equinox) का क्या तात्पर्य है?

वर्ष में दो बार ऐसी स्थिति भी आती है, जब पृथ्वी का झुकाव न सूर्य की ओर ही होता है और न ही सूर्य से दूसरी ओर, बल्कि बीच में होता है। इस स्थिति को विषुव या इक्विनॉक्स कहा जाता है।

स्पष्ट है कि सायन मेष से सायन तुला प्रवेश तक उत्तर गोल व सायन तुला से सायन मेषारम्भ पूर्व तक दक्षिण गोल होता है। इनकी तिथियां इस प्रकार हैं -

  • वसन्त सम्पात (Spring Equinox) या सायन मेष - 21 मार्च या उत्तर गोलारम्भ।
  • सायन मेष + 90॰ = दक्षिणायन (सायन कर्क अर्थात् 21 जून)
  • सायन कर्क + 90॰ = शरत्सम्पात (Autumnal Equinox) या सायन तुला या दक्षिण गोलारम्भ या 23 सितम्बर।
  • सायन तुला + 90॰ = उत्तरायणारम्भ या सायन मकर या 22 दिसम्बर।

क्रांतिवृत्त के प्रथमांश का विभाजन उत्तर व दक्षिण गोल के मध्यवर्ती ध्रुवों के द्वारा माना गया है। यही विभाजन उत्तरायण और दक्षिणायन कहलाता है। इन अयनों का ज्योतिष संसार में प्रमुख स्थान है।

सम्पातों का नक्षत्र परिवर्तन

पृथ्वी की धुरी का झुकाव धीरे-धीरे कम होता जा रहा है। इस झुकाव में प्रतिवर्ष .468 विकला की कमी होती जा रही है। सन् 1918 में धुरी का झुकाव 23 अंश 27 कला तथा 1947 में 23 अंश 26 कला 46 विकला था। वर्तमान में यह झुकाव 23 अंश 26 कला 13 विकला (1 जनवरी 1997) है।

धुरी के झुकाव में लगातार कमी होने के कारण सूर्यपथ की विषुवत रेखा से तिर्यकता (Obliquity) कम होती जा रही है। फलस्वरूप सूर्यपथ द्वारा विषुवत् रेखा को काटे जाने वाले सांपातिक बिंदु विपरीत दिशा में खिसक रहे हैं या पीछे हट रहे हैं। सांपातिक बिन्दुओं के विपरीत दिशा में खिसकाव को 'संपात का पिछडना' (Precession of Equinox) कहते हैं। यह पिछड़ाव 26000 वर्षों में सूर्यपथ का एक चक्कर लगाता है। किसी भी समय मूल सांपातिक बिंदु से पिछड़े हुए सांपातिक बिंदु तक का कोण अयनांश (Angle of Precession) कहलाता है।

सायन भचक्र (tropical / movable zodiac)

इसमे मेष का प्रथम बिन्दु वसंत सम्पात होता है। इसकी गति वक्र 50.3" प्रति वर्ष है। यह गति पृथ्वी के भूमध्य रेखा उन्नत भाग पर सूर्य और चन्द्रमा के आकर्षण के कारण है।  सूर्य की वार्षिक गति के साथ प्रतिवर्ष यह सम्पात बिंदु विपरीत दिशा मे मंद गति से घूमता है। इसमे किसी भी आकाशीय पिंड की वसंत सम्पात बिंदु से गणना का देशांश सायन देशांश कहलाता है। इसमे 12 राशियो (प्रत्येक 30 अंश) का प्रारम्भ वसंत सम्पात से होता है, परन्तु क्रांति वृत्त पर विस्तार हमेशा निरयण प्रणाली (प्रत्येक 30 अंश) जैसा नही रहता है। इस प्रणाली मे समयानुसार तारा समूह का एक राशि मे बदलाव होता रहता है।

निरयण भचक्र (SIDEREAL / FIXED ZODIAC)

इसमें मेष का प्रथम बिन्दु हमेशा नक्षत्र यानि चित्रा से 180 अंश के कोण पर स्थायी रहता है। क्रांति वृत्त पर इस स्थयी बिंदु से नापे गये देशांश को निरयण देशांश कहते है। यह स्थायी भचक्र 12 राशि व 27 नक्षत्र मे समान रूप से विभाजित है, इनमें वही तारा समूह हमेशा रहता है।

अयन सिद्धान्त॥ Ayana Siddhanta

वेदांग ज्योतिष के अयन पद्धति में आचार्य लगध ने अयनारम्भ स्थान धनिष्ठा नक्षत्र को माना है -

प्रपद्येते श्रविष्ठादौ सूर्याचन्द्रमसावुदक्॥[4]

इस प्रकार का लगध का कथन वेदांगज्योतिष में प्राप्त होता है। इस सम्बन्ध में आचार्य लगध ''इदानीमयने आह'' प्रकार से कह रहे हैं -

प्रपद्येते श्रविष्ठादौ सूर्याचन्द्रमसावुदक्। सार्पार्धे दक्षिणाऽर्कस्य माघश्रावणयोः सदा॥ (वे०ज्यो०श्लो०सं०७)[4]

अर्थ - श्रविष्ठा अर्थात् धनिष्ठा नक्षत्र के आरम्भ में सूर्य, चन्द्र उत्तर की ओर संचालित होने लगते हैं, और आश्लेषा नक्षत्र के आधे भाग पर दक्षिण की ओर संचालित होने लगते हैं। सूर्य सर्वदा माघ मास और श्रावण मास में क्रमशः उत्तर और दक्षिण की ओर गमन में प्रवृत्त होता है। इस प्रकार अयनों के आरम्भ स्थान का कथन देने के उपरान्त आचार्य लगध ''इदानीमयनयोर्दिनरात्रिमाने आह'' इत्यादि प्रकार से उत्तर एवं दक्षिण अयन के आरम्भ का दिनरात्रिमान कह रहे हैं -

घर्मवृद्धिरपां प्रस्थः क्षपाह्रास उदग्गतौ। दक्षिणेतौ विपर्यासः षण्मुहूर्त्त्ययनेन तु॥ (वे० ज्यो० श्लो० सं० ८)[4]

अर्थ - सूर्य के उदगयन में एक पानीयप्रस्थ (12.5 पल) के तुल्य दिनमान में वृद्धि होती है, और रात्रिमान में ह्रास होता है। दक्षिणायन में इसके विपरीत होता है। अयनों के द्वारा एक अयन वर्ष में दिनरात्रिमान में क्रमशः ६ मुहूर्त वृद्धि होती है।

उत्तरायण एवं दक्षिणायन॥ Uttarayan and Dakshinayan

वेदों में उत्तरायण को देवयान एवं दक्षिणायन को पितृयान कहा गया है। इन्हैं याम्यायन एवं सौम्यायन के नाम से भी जाना जाता है। अर्थात दक्षिणायन को याम्यायन एवं उत्तरायण को सौम्यायन कहते हैं

प्रति वर्ष विपुव-वृत्त से उत्तर २४ अंश और दक्षिण भी उतने ही अंश तक सूर्य का आवागमन होता है। वैदिक काल में जब सूर्य विषव-वृत्त से उत्तर को जाता था तब उसे उत्तरायण संज्ञा प्राप्त होती थी; और जब वह इस वृत्त से दक्षिण को गमन करता था तब वह दक्षिणायन कहलाता था। उसी उत्तरायण का नाम वेदों में देवयान और दक्षिणायन का पितृयान है। इस देवयान और पितृयान का ऋग्वेद-संहिता में अनेक बार उल्लेख आया है। एक उदाहरण लीजिए-

प्र-मे पन्था देवयाना अदृश्यन्तमर्धन्तो वसुमिरिष्कृतासः। अमूदु केतुरुषसः पुरस्तात्प्रतीव्यागादधि हर्मेभ्यः॥ (मं॰ ७, सूक्त- १६, मंत्र- २)

वेदांग ज्योतिषीय अयन प्रणाली

अयन संबंधी विचारधारा का दिग्दर्शन वेदांग ज्योतिष के ऋग् ज्योतिष तथा याजुष् ज्योतिष में विशेष रूप से होता है। ऋक् ज्योतिष के अनुसार जब चन्द्रमा और सूर्य एक साथ स्थित होकर धनिष्ठा नक्षत्र में होते हैं तब नए युग के उत्तरायण का प्रारंभ होता है। जैसा कि उत्तरायण के प्रारंभ के विषय में बता दिया गया था कि धनिष्ठा नक्षत्र के आरम्भ में सूर्य और चन्द्रमा उत्तर की ओर मुडते हैं जबकि आश्लेषा नक्षत्र के आरम्भ में सूर्य और चन्द्रमा दक्षिण कीओर मुडते हैं।जहाँ तक उत्तरायण एवं दक्षिणायन का प्रारंभ किस मास में होता है तो ऋक् ज्योतिष में आचार्य लगध ने स्पष्ट रूप से कहा है कि सूर्य का उत्तरायण माघ मास में तथा तथा दक्षिणायन श्रावण मास में होता है।[5]

अयनांशा प्रदातव्या लग्ने क्रांतौ चरागमे। वित्रिभे सत्रिभे पाते तथा दिक्कर्म पातयोः॥ (ब्राह्मस्फुट सि०)[6]

रात्रिभागः समाख्यातः खरांशोर्दक्षिणायनम्। व्रतबंधादिकं तत्र चूडाकर्म च वर्जयेत् ॥

जलाशयसुरारामप्रतिष्ठा व्रतबंधनम् । अग्न्याधानं विवाहं च चौलं राज्याभिषेचनम् ॥ नवगेहप्रवेशादीन् न कुर्याद्दक्षिणायने॥

गृहप्रवेशस्त्रिदशप्रतिष्ठा विवाहचौलव्रतबंधदीक्षा। सौम्यायने कर्म शुभं विधेयं यद्गर्हितं तत्खलु दक्षिणायने॥

अयन का महत्व॥ importance of Ayana

उत्तरायण को दक्षिणायन से श्रेष्ठ माना गया है। सूर्य का उत्तरायण में प्रवेश प्रत्येक जन को ठंड की समाप्ति एवं प्रत्यासन्न वसंत ऋतु के आगमन का शुभ संदेश देता है। इसमें दिन बडे होने लगते हैं और प्रकाश एवं प्राणदायिनी ऊष्मा की वृद्धि होने लगती है। जैसा कि श्रीमद्भगवद्गीता में उत्तरायण एवं दक्षिणायन के सन्दर्भ में वर्णित है -

अग्निज्योतिरहः शुक्लः षण्मासा उत्तरायणम् । तत्र प्रयाता गच्छन्ति ब्रह्म ब्रह्मविदो जनाः॥ (भ०गी० ८, २४)

भावार्थ - इस श्लोक में उत्तरायण को शुक्ल मार्ग से संबोधित किया गया है। अग्नि, ज्योति, दिन, शुक्ल पक्ष और उत्तरायण में जिन्होंने देह त्याग किया वे लोग ब्रह्म को प्राप्त कर मुक्त हो जाते हैं। पर दक्षिणायन में जिन्होंने शरीर त्याग किया उन्हैं चन्द्रलोक की प्राप्ति होती है, वे मुक्त नहीं होते। विष्णु पुराण में भी अयन के संदर्भ में प्रमाण प्राप्त होता है -

अयनस्योत्तरस्यादौ मकरं याति भास्करः। ततः कुम्भं च मीनं च राशो! राश्यंतरं द्विज॥

त्रिष्वेतेष्वथ भुक्तेषु ततो वैषुवतीं गतिम् । प्रयाति सविता कुर्वन्नहोरात्रं ततः समम् ॥

ततो रात्रिः क्षयं याति वर्द्धतेऽनुदिनं दिनम् ॥ ततश्च मिथुनस्यान्ते परां काष्ठामुपागतः ॥

राशिं कर्कटकं प्राप्य कुरुते दक्षिणायनम् ॥ (विष्णु पुराण)[7]

पृथ्वी की इस अयन गति के कारण ध्रुव तारे में परिवर्तन होता है। पृथ्वी के उत्तरी ध्रुव के ऊपर जो भी तारा होता है उसे ध्रुव तारा कहते हैं। अयन गति के कारण पृथ्वी का उत्तरी ध्रुव अलग - अलग समय पर भिन्न तारों की ओर अपना मुख करता है। लगभग 14 हजार वर्ष पहले अभिजित तारा हमारा ध्रुव तारा था और आगामी 14000 वर्ष बाद पुनः वह पुनः ध्रुव तारा बनेगा।

सारांश॥ Summary

याजुष् ज्योतिष के श्लोकों के आधार पर श्रविष्ठा के आरम्भ में दक्षिणायन तथा आश्लेषा के अर्ध या मध्य बिन्दु से उत्तरायण स्वीकार करते हैं। इसी प्रकार का उल्लेख वराहमिहिर की बृहत्संहिता में भी मिलता है। आचार्य वराह ने अपने समय में उत्तरायण पुनर्वसु के ३/४ तथा दक्षिणायन १/४ में माना है। इस तरह अयन चलन की सम्पातिक गति ७÷४ या २३°–२० होती है।

  • उत्तरायण के उपरान्त सूर्य दक्षिण की ओर यात्रा करता है, यह सूर्य की यात्रा का एक पडाव है जिसे अयनांत कहते हैं। यहीं से दक्षिणायन का प्रारंभ होता है।
  • जब सूर्य दो बिन्दुओं पर आता है तब पृथ्वी पर दिनमान व रात्रिमान समान होते हैं परन्तु जब सूर्य पहले बिन्दु पर आता है तो दिनमान बढना प्रारंभ होता है और ग्रीष्म ऋतु प्रारंभ होती है।
  • उत्तर क्रान्ति वृत्त पर सूर्य प्रतिदिन एक अंश चलता है एवं लगभग ३६५ दिनों में आकाश की एक प्रदक्षिणा पूरी करता है। इसे ही सूर्य की आयनिक गति कहते हैं।
  • वसंत-विषुव = वसन्त विषुव या महाविषुव को मार्च विषुव भी कहते हैं। इस तिथि को पृथ्वी से देखने पर सूर्य दक्षिणी गोलार्द्ध को छोडकर उत्तरी गोलार्द्ध की तरफ बढता हुआ प्रतीत होता है इसी को दक्षिणी गोलार्द्ध में शरद विषुव कहते हैं एवं इसी तिथि को उत्तरी गोलार्द्ध में वसन्त विषुव कहा जाता है। यह विषुव, ग्रीनविच रेखा पर १९ मार्च से लेकर २१ मार्च के बीच आती है।

उद्धरण॥ References

  1. शतपथब्राह्मणम्/काण्डम् २/अध्यायः १/ब्राह्मण ३।
  2. 2.0 2.1 रघुनन्दन प्रसाद गौड, नाक्षत्र ज्योतिष, मनोज पॉकेट बुक्स (पृ० ११)।
  3. डॉ० चन्द्रमौली रैणा, प्राचीन भारतीय कालविभाजन सिद्धान्त, सन् २०१६, इन्टरनेशनल जर्नल ऑफ साइंटिफिक रिसर्च इन साइंस, इंजीनियरिंग एण्ड टैक्नोलॉजी (पृ० ७९३)।
  4. 4.0 4.1 4.2 टी०एस० कुप्पन्ना शास्त्री, वेदांग ज्योतिष (अनुवाद सहित), सन् 1985, इण्डियन नेशनल साइंस अकादमी (पृ० २४)।
  5. Sunayna Bhati, Vedang jyotish ka samikshatamak adhyayan, year 2012, University of Delhi ( page -108).
  6. रामदीन ज्योतिर्वित् , बृहद्दैवज्ञरंजन, सन् १९९९, खेमराज श्रीकृष्णदास प्रकाशन, बम्बई (पृ० २९)
  7. विष्णु पुराण, द्वितीयांशः, अध्याय - 8, श्लोक - 28 - 31।