Difference between revisions of "Duhkha (दुःख)"

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(सुधार जारी)
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दुख (संस्कृतः दुःख) एक ऐसी अवस्था है जिससे निवृत्ति की इच्छा प्राणीमात्र में विद्यमान होती है। दुःख का शाब्दिक अर्थ कष्ट, क्लेश या सुख का विपरीत भाव है। सांख्यदर्शन में दुःख को आध्यात्मिक, आधिभौतिक और आधिदैविक तीन प्रकार का माना है। न्याय और वैशेषिक दुःख को आत्मा का धर्म मानते हैं। वेदान्त ने सुखदुःख रूपी ज्ञान को अविद्या कहा है इसकी निवृत्ति ब्रह्मज्ञान द्वारा हो जाती है। योगदर्शन में चित्तविक्षेप या चित्त के राजसकार्य को दुःख कहा है। भारतीय ज्ञान परंपरा के अंतर्गत दुःख का विवेचन दर्शन, साहित्य एवं धर्मग्रन्थों में विस्तार से किया गया है।   
 
दुख (संस्कृतः दुःख) एक ऐसी अवस्था है जिससे निवृत्ति की इच्छा प्राणीमात्र में विद्यमान होती है। दुःख का शाब्दिक अर्थ कष्ट, क्लेश या सुख का विपरीत भाव है। सांख्यदर्शन में दुःख को आध्यात्मिक, आधिभौतिक और आधिदैविक तीन प्रकार का माना है। न्याय और वैशेषिक दुःख को आत्मा का धर्म मानते हैं। वेदान्त ने सुखदुःख रूपी ज्ञान को अविद्या कहा है इसकी निवृत्ति ब्रह्मज्ञान द्वारा हो जाती है। योगदर्शन में चित्तविक्षेप या चित्त के राजसकार्य को दुःख कहा है। भारतीय ज्ञान परंपरा के अंतर्गत दुःख का विवेचन दर्शन, साहित्य एवं धर्मग्रन्थों में विस्तार से किया गया है।   
==परिचय==
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==परिचय॥ Introduction==
 
सांख्य दर्शन में दुःखत्रयाभिघातादिति, तीन प्रकार के दुःख हैं - आध्यात्मिक, आधिभौतिक और आधिदैविक। इनमें आध्यात्मिक दुःख दो प्रकार का है - शारीरिक और मानसिक।
 
सांख्य दर्शन में दुःखत्रयाभिघातादिति, तीन प्रकार के दुःख हैं - आध्यात्मिक, आधिभौतिक और आधिदैविक। इनमें आध्यात्मिक दुःख दो प्रकार का है - शारीरिक और मानसिक।
  
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अविद्या, अस्मिता, राग, द्वेष एवं अभिनिवेश इन क्लेशों को योगदर्शन में दुःखों का मुख्य कारण कहा गया है।
 
अविद्या, अस्मिता, राग, द्वेष एवं अभिनिवेश इन क्लेशों को योगदर्शन में दुःखों का मुख्य कारण कहा गया है।
  
==परिभाषा==
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==परिभाषा॥ Definition==
दुःख शब्द का अर्थ व्यथा, पीड़ा, यातना एवं कष्ट आदि है। दुःख अकारांत शब्द एवं  नपुंसकलिंग में इसका प्रयोग होता है। - <blockquote>दुष्टानि खानि यस्मिन इति दुःखम्, दुःखाद् अच्, क्लीब।(शब्दकल्पद्रुम)</blockquote>अमरकोष कार ने दुःख के पर्यायवाची शब्दों का प्रयोग इस प्रकार किया है -   
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दुःख शब्द का अर्थ व्यथा, पीड़ा, यातना एवं कष्ट आदि हैं। दुःख अकारांत शब्द एवं  नपुंसकलिंग में इसका प्रयोग होता है - <blockquote>दुष्टानि खानि यस्मिन इति दुःखम्, दुःखाद् अच्, क्लीब। (शब्दकल्पद्रुम)</blockquote>अमरकोष कार ने दुःख के पर्यायवाची शब्दों का प्रयोग इस प्रकार किया है -  <blockquote>पीडा बाधा व्यथा दुःखमामनस्यं प्रसूतिजं स्यात्कष्टं कृच्छ्रमाभीलम् इति।  (अमरकोष)  </blockquote>भाषार्थ - पीड़ा, बाधा, व्यथा, दुःख, आमनस्य, प्रसूतिज, कष्ट, कृच्छ्र, आभील आदि पर्यायवाची शब्द प्राप्त होते हैं।
  
पीडा बाधा व्यथा दुःखमामनस्यं प्रसूतिजं स्यात्कष्टं कृच्छ्रमाभीलम् इति।  (अमरकोष) 
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==दुःख की अवधारणा॥ Concept of Duhkha==
 
 
भाषार्थ - पीड़ा, बाधा, व्यथा, दुःख, आमनस्य, प्रसूतिज, कष्ट, कृच्छ्र, आभील आदि पर्यायवाची शब्द प्राप्त होते हैं।
 
 
 
==दुःख की अवधारणा==
 
 
संस्कृत वांगमय में दुःख का अर्थ केवल शारीरिक या मानसिक पीड़ा तक सीमित नहीं है, किन्तु यह व्यापक रूप से मानव जीवन के अस्तित्वगत और आध्यात्मिक दृष्टिकोण को समाहित करता है। यह जीवन के अंतर्निहित संघर्ष, अनित्यत्व, और मृत्यु की अनिवार्यता से संबंधित है।
 
संस्कृत वांगमय में दुःख का अर्थ केवल शारीरिक या मानसिक पीड़ा तक सीमित नहीं है, किन्तु यह व्यापक रूप से मानव जीवन के अस्तित्वगत और आध्यात्मिक दृष्टिकोण को समाहित करता है। यह जीवन के अंतर्निहित संघर्ष, अनित्यत्व, और मृत्यु की अनिवार्यता से संबंधित है।
  
'''सांख्य दर्शन - दुःख की अवधारणा'''
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===सांख्य दर्शन-दुःख की अवधारणा॥ Sankhya Darshana - Concept of Duhkha===
 
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प्राणीमात्र की प्रवृत्ति का लक्ष्य एकमात्र सुख की प्राप्ति और दुःख का परिहार है। उनमें भी जो विचारशील हैं वे तो सांसारिक वैषयिक सुख को भी दुःख मिश्रित होने से हेय ही समझते हैं। सांख्य दर्शन में आध्यात्मिक, आधिभौतिक एवं आधिदैविक तीन प्रकार के दुःखों की निवृत्ति का वर्णन प्राप्त होता है - <blockquote>दुःखत्रयाभिघाताजिज्ञासा तदपघातके हेतौ। दृष्टे सापार्थाचेन्नैकान्तात्यन्ततोभावात्॥(सांख्यकारिका)</blockquote>इन तीनों दुःखों को सदैव और अवश्य रोकने के लिए सांख्यशास्त्रीय तत्त्वों का ज्ञान प्राप्त करना चाहिए।
  
'''योगदर्शन में दुःख'''
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===योग दर्शन-दुःख की अवधारणा॥ Yoga Darshana - Concept of Duhkha===
  
योगदर्शन में दुःख को वर्गीकृत करते हुए बताया गया है कि परिणाम दुःख, ताप दुःख, संस्कार दुःख और गुणवृत्ति विरोध से उत्पन्न दुःख के कारण, विवेकी पुरुषों के लिए सभी दुःख का ही रूप होते हैं - <blockquote>परिणामतापसंस्कारदुःखैर्गुणवृत्तिविरोधाच्च दुःखमेव सर्वं विवेकिनः॥ (योग सूत्र)<ref>योगसूत्र, [https://sa.wikisource.org/wiki/%E0%A4%AA%E0%A4%BE%E0%A4%A4%E0%A4%9E%E0%A5%8D%E0%A4%9C%E0%A4%B2%E0%A4%AF%E0%A5%8B%E0%A4%97%E0%A4%B8%E0%A5%82%E0%A4%A4%E0%A5%8D%E0%A4%B0%E0%A4%AD%E0%A4%BE%E0%A4%B7%E0%A5%8D%E0%A4%AF%E0%A4%B5%E0%A4%BF%E0%A4%B5%E0%A4%B0%E0%A4%A3%E0%A4%AE%E0%A5%8D/%E0%A4%B8%E0%A4%BE%E0%A4%A7%E0%A4%A8%E0%A4%AA%E0%A4%BE%E0%A4%A6%E0%A4%83 साधनपाद-सूत्र १५]।</ref></blockquote>इसमें मुख्य रूप से तीन प्रकार के दुःखो का वर्णन किया गया है -   
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योगदर्शन में दुःख को वर्गीकृत करते हुए बताया गया है कि परिणाम दुःख, ताप दुःख, संस्कार दुःख और गुणवृत्ति विरोध से उत्पन्न दुःख के कारण, विवेकी पुरुषों के लिए सब कुछ अर्थात सुख भी दुःख जैसा ही है अर्थात इस प्रकार के दुःखों से सामान्य व्यक्ति ही पीडित होते हैं विवेकी नहीं - <blockquote>परिणामतापसंस्कारदुःखैर्गुणवृत्तिविरोधाच्च दुःखमेव सर्वं विवेकिनः॥ (योग सूत्र)<ref>योगसूत्र, [https://sa.wikisource.org/wiki/%E0%A4%AA%E0%A4%BE%E0%A4%A4%E0%A4%9E%E0%A5%8D%E0%A4%9C%E0%A4%B2%E0%A4%AF%E0%A5%8B%E0%A4%97%E0%A4%B8%E0%A5%82%E0%A4%A4%E0%A5%8D%E0%A4%B0%E0%A4%AD%E0%A4%BE%E0%A4%B7%E0%A5%8D%E0%A4%AF%E0%A4%B5%E0%A4%BF%E0%A4%B5%E0%A4%B0%E0%A4%A3%E0%A4%AE%E0%A5%8D/%E0%A4%B8%E0%A4%BE%E0%A4%A7%E0%A4%A8%E0%A4%AA%E0%A4%BE%E0%A4%A6%E0%A4%83 साधनपाद-सूत्र १५]।</ref></blockquote>इसमें मुख्य रूप से तीन प्रकार के दुःखो का वर्णन किया गया है -   
  
 
'''परिणाम दुःख'''- विषय सुख के भोग के बाद सुख के वियोग की सम्भावना का दुःख अर्थात हम इन्द्रियों से मिलने वाली तृप्ति या सुखद अहसास को ही सुख समझने लगते हैं। लेकिन वास्तव में वह सुख नहीं है। इस प्रकार इन्द्रियों से उत्पन्न तृप्ति कभी भी शान्त नहीं होती बल्कि उनको और भी ज्यादा पाने की इच्छा होती रहती है। जैसे – स्वादिष्ट भोजन, सुन्दर स्त्री या पुरुष का सहयोग, आनन्द प्राप्ति के साधन आदि। इन सभी से हमें केवल एक क्षण के लिए तो आनंद मिलता है। लेकिन यह वास्तव में सुख नहीं है। यह एक पल की तृप्ति हमारी इन्द्रियों को कमजोर कर देती है । इसी को परिणाम दुःख कहते हैं।
 
'''परिणाम दुःख'''- विषय सुख के भोग के बाद सुख के वियोग की सम्भावना का दुःख अर्थात हम इन्द्रियों से मिलने वाली तृप्ति या सुखद अहसास को ही सुख समझने लगते हैं। लेकिन वास्तव में वह सुख नहीं है। इस प्रकार इन्द्रियों से उत्पन्न तृप्ति कभी भी शान्त नहीं होती बल्कि उनको और भी ज्यादा पाने की इच्छा होती रहती है। जैसे – स्वादिष्ट भोजन, सुन्दर स्त्री या पुरुष का सहयोग, आनन्द प्राप्ति के साधन आदि। इन सभी से हमें केवल एक क्षण के लिए तो आनंद मिलता है। लेकिन यह वास्तव में सुख नहीं है। यह एक पल की तृप्ति हमारी इन्द्रियों को कमजोर कर देती है । इसी को परिणाम दुःख कहते हैं।
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'''संस्कार दुःख -''' सुख वियोग के बाद सुख भोग के संस्कारों का दुःख अर्थात मनुष्य में सुख के भोगने से सुख के संस्कार व दुःख को भोगने से दुःख के संस्कार बनते हैं। इन सुख व दुःख के संस्कारों से व्यक्ति इसी जीवन-मरण के चक्र में बंधा रहता है। उसके चित्त में सुख व दुःख के संस्कार घूमते रहते हैं। यही संस्कार दुःख है।
 
'''संस्कार दुःख -''' सुख वियोग के बाद सुख भोग के संस्कारों का दुःख अर्थात मनुष्य में सुख के भोगने से सुख के संस्कार व दुःख को भोगने से दुःख के संस्कार बनते हैं। इन सुख व दुःख के संस्कारों से व्यक्ति इसी जीवन-मरण के चक्र में बंधा रहता है। उसके चित्त में सुख व दुःख के संस्कार घूमते रहते हैं। यही संस्कार दुःख है।
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'''गुण वृत्ति विरोध दुःख''' - गुण का अर्थ है सत्त्वगुण, रजोगुण व तमोगुण। वृत्ति का अर्थ है इनका कार्य। व विरोध का अर्थ होता है आपसी मतभेद। इन सभी गुणों का कार्य अलग-अलग होता है। सत्त्वगुण सुख, ज्ञान व प्रकाश का अनुभव करवाता है। रजोगुण इच्छाओं व चंचलता का अनुभव करवाता है। व तमोगुण अज्ञान व अंधकार का अनुभव करवाता है। लेकिन आपसी जब इन गुणों में आपसी तालमेल टूटता है तब यह एक दूसरे के ऊपर दबाव बनाते हैं। उसमें सत्त्वगुण रजोगुण पर रजोगुण तमोगुण पर व तमोगुण सत्त्वगुण पर प्रभावी होने का प्रयास करते रहते हैं। और एक गुण के प्रभावी होने से बाकी के दो गुण स्वयं ही दब जाते हैं। ऐसी अवस्था में शरीर में रोग उत्पन्न होते हैं। यह स्थिति भी दुःख को उत्पन्न करने वाली होती है।
  
 
==दुःख निवृत्ति उपाय==
 
==दुःख निवृत्ति उपाय==
  
==सारांश==
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==सारांश॥ Summary==
एक सामूहिक अज्ञान की स्थिति है। भारतीय ज्ञान परम्परा में दर्शन ही एकमात्र ऐसा साधन है जिससे दुःख को आत्यन्तिक केवल वहीं अपने को इस स्थिति से बचा पाते हैं जिनमें विवेक ज्ञान उत्पन्न हो जाता है। विवेक से आत्मा का वास्तविक स्वरूप ज्ञात हो जाता है। सचराचर लोक में सुख एवं दुःख की अनुभूति प्रत्येक जीव को होती है। कर्माशय की तीव्रता के कारण किसी को तीव्र दुःखानुभूति होती है तो किसी को मन्द दुःख की अनुभूति होती है। दुःख को प्रतिकूल अनुभूति कहा गया है -<blockquote>प्रतिकूलवेदनीयं दुःखम्।</blockquote>जब इच्छाओं के विपरीत किसी वस्तु का सान्निध्य प्राप्त हो जाता है अथवा किसी अत्यन्त प्रिय वस्तु का विच्छेद हो जाता है तो दुःख होता है।
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एक सामूहिक अज्ञान की स्थिति है। भारतीय ज्ञान परम्परा में दर्शन ही एकमात्र ऐसा साधन है जिससे दुःख को आत्यन्तिक केवल वहीं अपने को इस स्थिति से बचा पाते हैं जिनमें विवेक ज्ञान उत्पन्न हो जाता है। विवेक से आत्मा का वास्तविक स्वरूप ज्ञात हो जाता है। सचराचर लोक में सुख एवं दुःख की अनुभूति प्रत्येक जीव को होती है। कर्माशय की तीव्रता के कारण किसी को तीव्र दुःखानुभूति होती है तो किसी को मन्द दुःख की अनुभूति होती है। दुःख को प्रतिकूल अनुभूति कहा गया है -<ref>शोधगंगा- आनंद मिश्रा, [https://shodhganga.inflibnet.ac.in/handle/10603/285216 भारतीय दर्शन में दुःख की अवधारणा], अध्याय प्रथम-भारतीय दर्शन में दुःख, सन् २००२, शोधकेन्द्र-महात्मा गाँधी काशी विद्यापीठ (पृ० ९८)।</ref><blockquote>प्रतिकूलवेदनीयं दुःखम्।</blockquote>जब इच्छाओं के विपरीत किसी वस्तु का सान्निध्य प्राप्त हो जाता है अथवा किसी अत्यन्त प्रिय वस्तु का विच्छेद हो जाता है तो दुःख होता है। श्री कृष्ण जी गीता में कहते हैं कि -
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ये हि संस्पर्शजा भोगा दुःखयोनय एव ते। आद्यन्तवन्तः कौन्तेय न तेषु रमते बुधः॥ (६।२२)
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अर्थात इन्द्रिय और विषयों के संसर्ग से होने वाले जितने भी भोग हैं वे सब दुःख के ही कारण हैं तथा आदि और अन्त वाले हैं। विवेकी पुरुष उनमें कभी आसक्त नहीं होता। महर्षि वसिष्ठ राम जी से कहते हैं कि - <blockquote>यः स्वादयन् भोगविष रतिमेति देने दिने। सोsसौ स्वमूर्ति ज्वलिते कक्षमक्षयमुञ्झति॥ (यो० वा० ६ उ० ३६।२२)</blockquote>अर्थात जो मनुष्य नित्य भोगरूप विषका आस्वादन करके प्रसन्न होता है वह तो मानों निरन्तर अपने शरीररूपी ईंधन को प्रज्वलित अग्नि में जला रहा है।
  
==उद्धरण==
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==उद्धरण॥ References==
 
[[Category:Hindi Articles]]
 
[[Category:Hindi Articles]]
 
[[Category:Darshanas]]
 
[[Category:Darshanas]]
 
<references />
 
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Revision as of 23:51, 21 January 2025

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दुख (संस्कृतः दुःख) एक ऐसी अवस्था है जिससे निवृत्ति की इच्छा प्राणीमात्र में विद्यमान होती है। दुःख का शाब्दिक अर्थ कष्ट, क्लेश या सुख का विपरीत भाव है। सांख्यदर्शन में दुःख को आध्यात्मिक, आधिभौतिक और आधिदैविक तीन प्रकार का माना है। न्याय और वैशेषिक दुःख को आत्मा का धर्म मानते हैं। वेदान्त ने सुखदुःख रूपी ज्ञान को अविद्या कहा है इसकी निवृत्ति ब्रह्मज्ञान द्वारा हो जाती है। योगदर्शन में चित्तविक्षेप या चित्त के राजसकार्य को दुःख कहा है। भारतीय ज्ञान परंपरा के अंतर्गत दुःख का विवेचन दर्शन, साहित्य एवं धर्मग्रन्थों में विस्तार से किया गया है।

परिचय॥ Introduction

सांख्य दर्शन में दुःखत्रयाभिघातादिति, तीन प्रकार के दुःख हैं - आध्यात्मिक, आधिभौतिक और आधिदैविक। इनमें आध्यात्मिक दुःख दो प्रकार का है - शारीरिक और मानसिक।

  1. शारीरिक दुःख - वात, पित्त और कफ नामक त्रिदोष की विषमता से उत्पन्न दुःख को शारीरिक दुःख कहते हैं।
  2. मानसिक दुःख - काम, क्रोध, लोभ, मोह, भय, विषाद तथा शब्द, स्पर्श आदि श्रेष्ठ विषयों की प्राप्ति न होने से उत्पन्न दुःख मानसिक दुःख होता है।

ये सभी दुःख आन्तरिक उपायों से साध्य होने के कारण आध्यात्मिक कहलाते हैं। बाह्य उपायों से साध्य दुःख दो प्रकार का होता है। आधिभौतिक और आधिदैविक। इनमें से मनुष्य, पशु, पक्षी, स्थावरों से उत्पन्न होने वाला दुःख आधिभौतिक तथा यक्ष, राक्षस, विनायक, ग्रह इत्यादि के दुष्ट प्रभाव से होने वाला दुःख आधिदैविक कहलाता है -

येनाभिहताः प्राणिनस्तदुपघाताय प्रयतन्ते तद्दुःखमिति योगभाष्यम्। एतावता प्रतिकूलवेदनीयं दुःखमिति सामान्यलक्षणं सूचितं भवति। तच्च त्रिविधम् - आध्यात्मिकम्, व्याधिवशात् शारीरम्, कामादिवशाच्च मानसमिति द्विप्रकारम्। आधिभौतिकं व्याघ्रादिजनितम्। आधिदैविकम् ग्रहपीडादिजनितमिति। (द्र०यो०भा०)[1]

इस प्रकार इन्हीं त्रिविध दुःखों का सार्वकालिक निवृत्ति ही प्राणिमात्र का परमपुरुषार्थ है। योगदर्शन में जो दुःख देते हैं, उन दुःखों के कारणों को क्लेश कहते हैं। ये पाँच हैं -[2]

अविद्या, अस्मिता, राग, द्वेष एवं अभिनिवेश इन क्लेशों को योगदर्शन में दुःखों का मुख्य कारण कहा गया है।

परिभाषा॥ Definition

दुःख शब्द का अर्थ व्यथा, पीड़ा, यातना एवं कष्ट आदि हैं। दुःख अकारांत शब्द एवं नपुंसकलिंग में इसका प्रयोग होता है -

दुष्टानि खानि यस्मिन इति दुःखम्, दुःखाद् अच्, क्लीब। (शब्दकल्पद्रुम)

अमरकोष कार ने दुःख के पर्यायवाची शब्दों का प्रयोग इस प्रकार किया है -

पीडा बाधा व्यथा दुःखमामनस्यं प्रसूतिजं स्यात्कष्टं कृच्छ्रमाभीलम् इति। (अमरकोष)

भाषार्थ - पीड़ा, बाधा, व्यथा, दुःख, आमनस्य, प्रसूतिज, कष्ट, कृच्छ्र, आभील आदि पर्यायवाची शब्द प्राप्त होते हैं।

दुःख की अवधारणा॥ Concept of Duhkha

संस्कृत वांगमय में दुःख का अर्थ केवल शारीरिक या मानसिक पीड़ा तक सीमित नहीं है, किन्तु यह व्यापक रूप से मानव जीवन के अस्तित्वगत और आध्यात्मिक दृष्टिकोण को समाहित करता है। यह जीवन के अंतर्निहित संघर्ष, अनित्यत्व, और मृत्यु की अनिवार्यता से संबंधित है।

सांख्य दर्शन-दुःख की अवधारणा॥ Sankhya Darshana - Concept of Duhkha

प्राणीमात्र की प्रवृत्ति का लक्ष्य एकमात्र सुख की प्राप्ति और दुःख का परिहार है। उनमें भी जो विचारशील हैं वे तो सांसारिक वैषयिक सुख को भी दुःख मिश्रित होने से हेय ही समझते हैं। सांख्य दर्शन में आध्यात्मिक, आधिभौतिक एवं आधिदैविक तीन प्रकार के दुःखों की निवृत्ति का वर्णन प्राप्त होता है -

दुःखत्रयाभिघाताजिज्ञासा तदपघातके हेतौ। दृष्टे सापार्थाचेन्नैकान्तात्यन्ततोभावात्॥(सांख्यकारिका)

इन तीनों दुःखों को सदैव और अवश्य रोकने के लिए सांख्यशास्त्रीय तत्त्वों का ज्ञान प्राप्त करना चाहिए।

योग दर्शन-दुःख की अवधारणा॥ Yoga Darshana - Concept of Duhkha

योगदर्शन में दुःख को वर्गीकृत करते हुए बताया गया है कि परिणाम दुःख, ताप दुःख, संस्कार दुःख और गुणवृत्ति विरोध से उत्पन्न दुःख के कारण, विवेकी पुरुषों के लिए सब कुछ अर्थात सुख भी दुःख जैसा ही है अर्थात इस प्रकार के दुःखों से सामान्य व्यक्ति ही पीडित होते हैं विवेकी नहीं -

परिणामतापसंस्कारदुःखैर्गुणवृत्तिविरोधाच्च दुःखमेव सर्वं विवेकिनः॥ (योग सूत्र)[3]

इसमें मुख्य रूप से तीन प्रकार के दुःखो का वर्णन किया गया है -

परिणाम दुःख- विषय सुख के भोग के बाद सुख के वियोग की सम्भावना का दुःख अर्थात हम इन्द्रियों से मिलने वाली तृप्ति या सुखद अहसास को ही सुख समझने लगते हैं। लेकिन वास्तव में वह सुख नहीं है। इस प्रकार इन्द्रियों से उत्पन्न तृप्ति कभी भी शान्त नहीं होती बल्कि उनको और भी ज्यादा पाने की इच्छा होती रहती है। जैसे – स्वादिष्ट भोजन, सुन्दर स्त्री या पुरुष का सहयोग, आनन्द प्राप्ति के साधन आदि। इन सभी से हमें केवल एक क्षण के लिए तो आनंद मिलता है। लेकिन यह वास्तव में सुख नहीं है। यह एक पल की तृप्ति हमारी इन्द्रियों को कमजोर कर देती है । इसी को परिणाम दुःख कहते हैं।

ताप दुःख - सुख की अपूर्णता और सुख प्राप्ति में विघ्नों का दुःख अर्थात सुख पहुँचाने वाले साधनों व व्यक्तियों के प्रति राग अर्थात आसक्ति होना। दुःख पहुँचाने वाले साधनों व व्यक्तियों के प्रति द्वेष या घृणा होना ही ताप दुःख कहलाता है। ये राग व द्वेष दोनों ही दुःख पहुँचाने वाले होते हैं।

संस्कार दुःख - सुख वियोग के बाद सुख भोग के संस्कारों का दुःख अर्थात मनुष्य में सुख के भोगने से सुख के संस्कार व दुःख को भोगने से दुःख के संस्कार बनते हैं। इन सुख व दुःख के संस्कारों से व्यक्ति इसी जीवन-मरण के चक्र में बंधा रहता है। उसके चित्त में सुख व दुःख के संस्कार घूमते रहते हैं। यही संस्कार दुःख है।

गुण वृत्ति विरोध दुःख - गुण का अर्थ है सत्त्वगुण, रजोगुण व तमोगुण। वृत्ति का अर्थ है इनका कार्य। व विरोध का अर्थ होता है आपसी मतभेद। इन सभी गुणों का कार्य अलग-अलग होता है। सत्त्वगुण सुख, ज्ञान व प्रकाश का अनुभव करवाता है। रजोगुण इच्छाओं व चंचलता का अनुभव करवाता है। व तमोगुण अज्ञान व अंधकार का अनुभव करवाता है। लेकिन आपसी जब इन गुणों में आपसी तालमेल टूटता है तब यह एक दूसरे के ऊपर दबाव बनाते हैं। उसमें सत्त्वगुण रजोगुण पर रजोगुण तमोगुण पर व तमोगुण सत्त्वगुण पर प्रभावी होने का प्रयास करते रहते हैं। और एक गुण के प्रभावी होने से बाकी के दो गुण स्वयं ही दब जाते हैं। ऐसी अवस्था में शरीर में रोग उत्पन्न होते हैं। यह स्थिति भी दुःख को उत्पन्न करने वाली होती है।

दुःख निवृत्ति उपाय

सारांश॥ Summary

एक सामूहिक अज्ञान की स्थिति है। भारतीय ज्ञान परम्परा में दर्शन ही एकमात्र ऐसा साधन है जिससे दुःख को आत्यन्तिक केवल वहीं अपने को इस स्थिति से बचा पाते हैं जिनमें विवेक ज्ञान उत्पन्न हो जाता है। विवेक से आत्मा का वास्तविक स्वरूप ज्ञात हो जाता है। सचराचर लोक में सुख एवं दुःख की अनुभूति प्रत्येक जीव को होती है। कर्माशय की तीव्रता के कारण किसी को तीव्र दुःखानुभूति होती है तो किसी को मन्द दुःख की अनुभूति होती है। दुःख को प्रतिकूल अनुभूति कहा गया है -[4]

प्रतिकूलवेदनीयं दुःखम्।

जब इच्छाओं के विपरीत किसी वस्तु का सान्निध्य प्राप्त हो जाता है अथवा किसी अत्यन्त प्रिय वस्तु का विच्छेद हो जाता है तो दुःख होता है। श्री कृष्ण जी गीता में कहते हैं कि -

ये हि संस्पर्शजा भोगा दुःखयोनय एव ते। आद्यन्तवन्तः कौन्तेय न तेषु रमते बुधः॥ (६।२२)

अर्थात इन्द्रिय और विषयों के संसर्ग से होने वाले जितने भी भोग हैं वे सब दुःख के ही कारण हैं तथा आदि और अन्त वाले हैं। विवेकी पुरुष उनमें कभी आसक्त नहीं होता। महर्षि वसिष्ठ राम जी से कहते हैं कि -

यः स्वादयन् भोगविष रतिमेति देने दिने। सोsसौ स्वमूर्ति ज्वलिते कक्षमक्षयमुञ्झति॥ (यो० वा० ६ उ० ३६।२२)

अर्थात जो मनुष्य नित्य भोगरूप विषका आस्वादन करके प्रसन्न होता है वह तो मानों निरन्तर अपने शरीररूपी ईंधन को प्रज्वलित अग्नि में जला रहा है।

उद्धरण॥ References

  1. आचार्य केदारनाथ त्रिपाठी, सांख्ययोग कोश, सन् १९७४, श्रीविजय कुमार त्रिपाठी, वाराणसी (पृ० १९)।
  2. शोध छात्र-सचिन भारद्वाज एवं गणेश शंकर गिरी, योग दर्शन में ईश्वर का स्थानः एक साधन या साध्य, सन् २०२१, डॉ० हरिसिंह गौर विश्वविद्यालय, सागर (पृ० १४१)।
  3. योगसूत्र, साधनपाद-सूत्र १५
  4. शोधगंगा- आनंद मिश्रा, भारतीय दर्शन में दुःख की अवधारणा, अध्याय प्रथम-भारतीय दर्शन में दुःख, सन् २००२, शोधकेन्द्र-महात्मा गाँधी काशी विद्यापीठ (पृ० ९८)।