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| === उत्पादन और वितरण एवं विकेन्द्रीकरण === | | === उत्पादन और वितरण एवं विकेन्द्रीकरण === |
− | उत्पादन के साथ उत्पादक, उपभोक्ता और संसाधन जुडे हुए हैं । इन तीनों का सुलभ होना और उत्पादन एवं वितरण की व्यवस्था कम खर्चीली और कम अटपटी होना आवश्यक है । इस दृष्टि से | + | उत्पादन के साथ उत्पादक, उपभोक्ता और संसाधन जुडे हुए हैं । इन तीनों का सुलभ होना और उत्पादन एवं वितरण की व्यवस्था कम खर्चीली और कम अटपटी होना आवश्यक है । इस दृष्टि से: |
− | # उत्पादक और उपभोक्ता में कम से कम अन्तर होना अति आवश्यक है । यह अन्तर जितनी मात्रा में बढ़ता जाता है उतनी मात्रा में अनुचित खर्चे, अनुचित व्यवस्थाओं का बोझ और चीजों की कीमतें बढ़ जाते हैं । उपभोक्ता को कीमत अधिक चुकानी पड़ती है, उत्पादक को कीमत अधिक प्राप्त नहीं होती, निर्जीव, अनावश्यक व्यवस्थाओं के लिये संसाधनों का, श्रम का, धन का विनियोग करना पड़ता है । उदाहरण के लिये दन्तमंजन, साबुन, वस्त्र, लकड़ी, स्वच्छता का सामान आदि एक स्थान पर बनते हों, उसके प्राकृतिक स्रोत यदि दूसरी जगह हों और उसके उपभोक्ता दूर दूर तक फैले हुए हों तो परिवहन, सड़क, बिचौलिये, निवेश, संत्रह, रखरखाव, विज्ञापन, पैकिंग, स्थानीय वितरण व्यवस्था आदि के खर्च बढ़ते हैं जो अधिकांश अनुत्पादक हैं । ये देश के अर्थतन्त्र में विभिन्न प्रकार के आभास (pseudoness) निर्माण करने वाले होते हैं । भारत में जिस प्रकार समाजव्यवस्था की मूल इकाई परिवार है उस प्रकार अर्थव्यवस्था की मूल इकाई ग्राम है । आर्थिक स्वावलंबन, हर परिवार के व्यवसाय को सुरक्षा प्रत्येक ग्रामवासी के अस्तित्व का स्वीकार (recognition), सामाजिक समरसता और परस्परावलम्बन का स्वयंपूर्ण चक्र - यही ग्राम की परिभाषा है । अतः ग्रामकेन्द्री उत्पादन एवं वितरण व्यवस्था से अर्थतंत्र में आभास निर्माण नहीं होते हैं। इस आभासी और ठोस, अथवा उत्पादक और अनुत्पादक अर्थव्यवस्था की संकल्पना ध्यान देने योग्य है । वस्तु का मूल्य उसमें प्रयुक्त पदार्थ, कौशल और उपलब्धता के आधार पर तय होता है । उदाहरण के लिये १०० ग्राम लोहे से १०० ग्राम चाँदी और १०० ग्राम चाँदी से १०० ग्राम सोना अधिक महँगा होता है । मोटे और खुरदरे कपड़े से महीन और कुशलता पूर्वक बुना हुआ कपड़ा अधिक महँगा होता है ।
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− | # ''भारत में लंका के... हवस नहीं होना चाहिये । इस दृष्टि से व्यवसाय में सहभागी''
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− | ''अथवा बसरा के मोती अधिक महँगे होते हैं । यह महँगा होना... स्वामित्व होना अपेक्षित है । विचार करने पर ध्यान में आता''
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− | ''स्वाभाविक है । परन्तु गुजरात के गाँव में बनने वाला कपडे... है कि परिवारगत व्यवसाय और सहभागी स्वामित्व एक ही''
| + | ==== उत्पादक और उपभोक्ता में कम से कम अन्तर होना अति आवश्यक है ==== |
| + | यह अन्तर जितनी मात्रा में बढ़ता जाता है उतनी मात्रा में अनुचित खर्चे, अनुचित व्यवस्थाओं का बोझ और चीजों की कीमतें बढ़ जाते हैं । उपभोक्ता को कीमत अधिक चुकानी पड़ती है, उत्पादक को कीमत अधिक प्राप्त नहीं होती, निर्जीव, अनावश्यक व्यवस्थाओं के लिये संसाधनों का, श्रम का, धन का विनियोग करना पड़ता है । उदाहरण के लिये दन्तमंजन, साबुन, वस्त्र, लकड़ी, स्वच्छता का सामान आदि एक स्थान पर बनते हों, उसके प्राकृतिक स्रोत यदि दूसरी जगह हों और उसके उपभोक्ता दूर दूर तक फैले हुए हों तो परिवहन, सड़क, बिचौलिये, निवेश, संत्रह, रखरखाव, विज्ञापन, पैकिंग, स्थानीय वितरण व्यवस्था आदि के खर्च बढ़ते हैं जो अधिकांश अनुत्पादक हैं । ये देश के अर्थतन्त्र में विभिन्न प्रकार के आभास (pseudoness) निर्माण करने वाले होते हैं। भारत में जिस प्रकार समाजव्यवस्था की मूल इकाई परिवार है उस प्रकार अर्थव्यवस्था की मूल इकाई ग्राम है । आर्थिक स्वावलंबन, हर परिवार के व्यवसाय को सुरक्षा प्रत्येक ग्रामवासी के अस्तित्व का स्वीकार (recognition), सामाजिक समरसता और परस्परावलम्बन का स्वयंपूर्ण चक्र - यही ग्राम की परिभाषा है । अतः ग्रामकेन्द्री उत्पादन एवं वितरण व्यवस्था से अर्थतंत्र में आभास निर्माण नहीं होते हैं। इस आभासी और ठोस, अथवा उत्पादक और अनुत्पादक अर्थव्यवस्था की संकल्पना ध्यान देने योग्य है । वस्तु का मूल्य उसमें प्रयुक्त पदार्थ, कौशल और उपलब्धता के आधार पर तय होता है । उदाहरण के लिये १०० ग्राम लोहे से १०० ग्राम चाँदी और १०० ग्राम चाँदी से १०० ग्राम सोना अधिक महँगा होता है । मोटे और खुरदरे कपड़े से महीन और कुशलता पूर्वक बुना हुआ कपड़ा अधिक महँगा होता है। |
| + | भारत में लंका के अथवा बसरा के मोती अधिक महँगे होते हैं | यह महँगा होना स्वाभाविक है। परन्तु गुजरात के गाँव में बनने वाला कपडे धोने का चूर्ण जिसका उत्पादक मूल्य बहुत साधारण है, जो पदार्थ, कौशल और उपलब्धता के आधार पर अति साधारण माना जायेगा वह यदि भारत के कोने कोने में बिकने हेतु जायेगा तो उसका मूल्य बीस गुना बढ जायगा । यह मूल्य अनुत्पादक है | आज की अर्थव्यवस्था में परिवहन, विज्ञापन, आडत, पैकिंग आदि अनुत्पादक बातें हैं जो अर्थव्यवस्था पर बोझ बनकर उसे आभासी बनाती है । जिस देश में ठोस की अपेक्षा आभासी अर्थव्यवस्था जितनी अधिक मात्रा में होती है वह देश उतनी ही अधिक मात्रा में दरिट्र होता है । |
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− | ''धोने का चूर्ण जिसका उत्पादक मूल्य बहुत साधारण है, जो... सिक्के के दो पहलू हैं ।''
| + | ==== उत्पादन का विकेन्द्रीकरण ==== |
| + | कुछ अनिवार्यताओं को छोड़कर शेष सभी चीजों के उत्पादन की व्यवस्था स्थानिक और विकेन्द्रित होनी चाहिये । उत्पादन विकेन्द्रित होने से |
| + | * उत्पादन के लिये मानवश्रम सुलभ होगा । |
| + | * लागत कम होगी । |
| + | * स्थानीय आवश्यकतायें और अन्य जटिलतायें कम हो जायेंगी । |
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− | ''पदार्थ, कौशल और उपलब्धता के आधार पर अति साधारण''
| + | ==== उत्पादक का स्वामित्व ==== |
| + | यह एक बहुत बड़ा आध्यात्मिक और सांस्कृतिक मूल्य है। विकेन्द्रित उत्पादन व्यवस्था का यह बहुत बड़ा लाभ है । मनुष्य स्वभाव से स्वतन्त्र है। उसकी स्वतन्त्रता की रक्षा हर हालत में सम्भव होनी चाहिये | अत: मनुष्य को व्यवसाय का स्वामित्व प्राप्त होना चाहिये । लौकिक भाषा में कहे तो विभिन्न प्रकार के व्यवसायों में नौकरियाँ कम से कम और स्वामित्व की मात्रा अधिक से अधिक होनी चाहिये । व्यवसाय से समाज की आवश्यकताओं की पूर्ति तथा परिवार को अपने योगक्षेम हेतु अर्थार्जन दोनों समाविष्ट हैं। इसकी व्यवस्था में मनुष्य की स्वतन्त्रता, सम्मान और गौरव का हास नहीं होना चाहिये | इस दृष्टि से व्यवसाय में सहभागी स्वामित्व होना अपेक्षित है | विचार करने पर ध्यान में आता है कि परिवारगत व्यवसाय और सहभागी स्वामित्व एक ही सिक्के के दो पहलू हैं । |
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− | ''माना जायेगा वह यदि भारत के कोने कोने में बिकने हेतु''
| + | ==== उत्पादन में मनुष्य और यन्त्र ==== |
| + | सम्पूर्ण उत्पादन प्रक्रिया में और वितरण व्यवस्था में मनुष्य मुख्य है इसलिये सम्पूर्ण रचना मनुष्य केन्द्री और मनुष्य आधारित होना अपेक्षित है | यन्त्र मनुष्य द्वारा निर्मित होते हैं और मनुष्य के सहायक होते हैं। उनकी भूमिका सहायक की ही होनी चाहिये | इसलिये सारे के सारे यन्त्र मनुष्य के अधीन रहें और मनुष्य की सर्वोपरिता बनी रहे इस प्रकार की व्यवसाय रचना होनी चाहिये । यंत्रों की अधिकता के कारण मनुष्य बेकार होते हैं । उनको काम नहीं मिलता है । भावात्मकता कम होती है। अधीनता बढती है | कौशलों का हास होने लगता है। इसके और भी परिणाम होते हैं जिन्हें हम side effects कह सकते हैं । |
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− | ''जायेगा तो उसका मूल्य बीस गुना बढ जायगा । यह मूल्य''
| + | जैसे जैसे यंत्र बढते हैं बडे बडे कारखानों की आवश्यकता पड़ती है । काम करने वाले मनुष्यों की संख्या कम होती है परन्तु जो भी मनुष्य काम करने जाते हैं उन्हें घर छोड़कर व्यवसाय केन्द्र पर जाना पड़ता है। परिवहन की समस्या भी बढती है । दिनचर्या अस्तव्यस्त होती है। यंत्र और कारखाने की व्यवस्था से अनुकूलन बनाना पड़ता है। मनुष्य स्वाधीन नहीं रहता, यंत्र के अधीन और व्यवस्था का दास बन जाता है | इसका शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य पर विपरीत प्रभाव पडता है। मनुष्य शुष्क, कठोर, असन्तुष्ट बनने लगता है | गौरव की हानि से त्रस्त होकर अवांछनीय बातों में दिलासा खोजता है । |
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− | ''अनुत्पादक है ।''
| + | इसका एक दूसरा पहलू भी है । यंत्रों के निर्माण में जो ऊर्जा खर्च होती है उससे बहुत बड़ा पर्यावरणीय असन्तुलन भी पैदा होता है | इससे तो संपूर्ण सृष्टि का जीवन संकट में पड़ जाता है । |
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− | ''आज की अर्थव्यवस्था में परिवहन, विज्ञापन, आडत,''
| + | === व्यवसाय, उत्पादन ओर पर्यावरण === |
− | | + | भारतीय जीवनदृष्टि एकात्मता को जीवनसिद्धान्त बताती है। इस दृष्टि से मनुष्य का अन्य मनुष्यों से तो सम्बन्ध है ही, साथ ही प्राणी सृष्टि, वनस्पति सृष्टि और पंचभौतिक सृष्टि के साथ भी सम्बन्ध है । कहा गया है कि परमात्मा की सृष्टि में मनुष्य परमात्मा की सर्वश्रेष्ठ अभिव्यक्ति है। इस कारण से उसे अपने से कनिष्ठ सम्पूर्ण सृष्टि के रक्षण और पोषण का दायित्व दिया गया है। उत्पादन और व्यवसाय में इस दायित्व का स्मरण रहना आवश्यक है । इस दृष्टि से निम्न बिन्दु विचारणीय हैं । |
− | ''पैकिंग आदि अनुत्पादक बातें हैं जो अर्थव्यवस्था पर बोझ''
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− | ''बनकर उसे आभासी बनाती है ।''
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− | ''जिस देश में ठोस की अपेक्षा आभासी''
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− | ''अर्थव्यवस्था जितनी अधिक मात्रा में होती है वह देश''
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− | ''उतनी ही अधिक मात्रा में दरिद्र होता है ।''
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− | ''(४) उत्पादन में मनुष्य और यन्त्र''
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− | ''सम्पूर्ण उत्पादन प्रक्रिया में और वितरण व्यवस्था में''
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− | ''मनुष्य मुख्य है इसलिये सम्पूर्ण रचना मनुष्य et और''
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− | ''मनुष्य आधारित होना अपेक्षित है । यन्त्र मनुष्य द्वारा निर्मित''
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− | ''होते हैं और मनुष्य के सहायक होते हैं । उनकी भूमिका''
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− | ''सहायक की ही होनी चाहिये । इसलिये सारे के सारे यन्त्र''
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− | ''मनुष्य के अधीन रहें और मनुष्य की सर्वोपरिता बनी रहे इस''
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− | ''प्रकार की व्यवसाय रचना होनी चाहिये ।''
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− | ''यंत्रों की अधिकता के कारण मनुष्य बेकार होते हैं ।''
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− | ''उनको काम नहीं मिलता है । भावात्मकता कम होती है ।''
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− | ''(२) उत्पादन का 'विकेन्द्रीकरण अधीनता बढती है । कौशलों का हास होने लगता है ।''
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− | ''कुछ अनिवार्यताओं को छोड़कर शेष सभी चीजों के इसके और भी परिणाम eid & fare SH side effects''
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− | ''और कह सकते हैं ।''
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− | ''sere मी व्यवस्था स्थनिक और विकेन्द्रित होनी चाहिये । जैसे जैसे यंत्र बढ़ते हैं बडे बडे कारखानों की''
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− | ''आवश्यकता पड़ती है । काम करने वाले मनुष्यों की संख्या''
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− | ''०. उत्पादन के लिये मानवश्रम सुलभ होगा । जो जाते हैं उन्हे''
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− | ''० लागत कम होगी । कम होती है परन्तु जो भी मनुष्य काम करने जाते हैं उन्हें घर''
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− | ''आवश्यकतायें और अन्य जटिलतायें छोड़कर व्यवसाय केन्द्र पर जाना पड़ता है । परिवहन की''
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− | ''०. स्थानीय आवश्यकतायें और अन्य जटिलतायें कम हो .''
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− | ''जयेंगी । समस्या भी बढती है । दिनचर्या अस्तव्यस्त होती है । यंत्र''
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− | ''और कारखाने की व्यवस्था से अनुकूलन बनाना पड़ता है ।''
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− | ''(३) उत्पादक का स्वामित्व मनुष्य स्वाधीन नहीं रहता, यंत्र के अधीन और व्यवस्था का''
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− | ''दास बन जाता है । इसका शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य''
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− | ''पर विपरीत प्रभाव पडता है । मनुष्य शुष्क, कठोर, असन्तुष्ट''
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− | ''मनुष्य स्वभाव से स्वतन्त्र है । उसकी स्वतन्त्रता की रक्षा हर बनने लगता है । गौरव की हानि से त्रस्त होकर अवांछनीय''
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− | ''हालत में सम्भव होनी चाहिये । अतः मनुष्य को व्यवसाय बातों में दिलासा खोजता है । isi नं''
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− | ''का स्वामित्व प्राप्त होना चाहिये । लौकिक भाषा में कहें तो इसका एक दूसरा पहलू भी है । यंत्रों के निर्माण में जो''
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− | ''व्यवसाय से समाज की आवश्यकताओं की पूर्ति तथा परिवार... है।''
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− | ''यह एक बहुत बड़ा आध्यात्मिक और सांस्कृतिक मूल्य''
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− | है । इस दृष्टि से मनुष्य का अन्य मनुष्यों से तो सम्बन्ध है ही, साथ ही प्राणी सृष्टि, वनस्पति सृष्टि और पंचभौतिक सृष्टि के साथ भी सम्बन्ध है । कहा गया है कि परमात्मा की सृष्टि में मनुष्य परमात्मा की सर्वश्रेष्ठ अभिव्यक्ति है । इस कारण से उसे अपने से कनिष्ठ सम्पूर्ण सृष्टि के रक्षण और पोषण का दायित्व दिया गया है ।
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− | उत्पादन और व्यवसाय में इस दायित्व का स्मरण रहना आवश्यक है । इस दृष्टि से निम्न बिन्दु विचारणीय हैं । | |
| # किसी भी प्रकार के संसाधन जुटाते समय प्रकृति का दोहन करना, शोषण नहीं । प्रकृति का शोषण करना भावात्मक दृष्टि से हिंसा है, बौद्धिक दृष्टि से अदूरदर्शिता और अन्याय है, व्यावहारिक दृष्टि से घाटे का सौदा है । इसके उदाहरण देखने के लिये कहीं दूर जाने की आवश्यकता नहीं है। भूमि हमारी सर्व प्रकार की आवश्यकताओं की पूर्ति करती है परन्तु रासायनिक खाद का प्रयोग करने के कारण उसकी उर्वरता कम होती है, जो धान्य-फल-सब्जी उगते हैं उसकी पोषकता कम होती है । कालानुक्रम से भूमि बंजर बन जाती है, धान्य का अभाव होता है, मनुष्य का स्वास्थ्य खराब होता है और समाज दरिद्र बनता है । भूमि से पेट्रोलियम निकालने का उपक्रम भी इसी का उदाहरण है । जंगल काटकर कारखाने, बड़े बड़े मॉल, चौड़ी सडकें और आकाशगामी भवन बनाना भी इसी का उदाहरण है । | | # किसी भी प्रकार के संसाधन जुटाते समय प्रकृति का दोहन करना, शोषण नहीं । प्रकृति का शोषण करना भावात्मक दृष्टि से हिंसा है, बौद्धिक दृष्टि से अदूरदर्शिता और अन्याय है, व्यावहारिक दृष्टि से घाटे का सौदा है । इसके उदाहरण देखने के लिये कहीं दूर जाने की आवश्यकता नहीं है। भूमि हमारी सर्व प्रकार की आवश्यकताओं की पूर्ति करती है परन्तु रासायनिक खाद का प्रयोग करने के कारण उसकी उर्वरता कम होती है, जो धान्य-फल-सब्जी उगते हैं उसकी पोषकता कम होती है । कालानुक्रम से भूमि बंजर बन जाती है, धान्य का अभाव होता है, मनुष्य का स्वास्थ्य खराब होता है और समाज दरिद्र बनता है । भूमि से पेट्रोलियम निकालने का उपक्रम भी इसी का उदाहरण है । जंगल काटकर कारखाने, बड़े बड़े मॉल, चौड़ी सडकें और आकाशगामी भवन बनाना भी इसी का उदाहरण है । |
| # प्रकृति का सन्तुलन बिगाड़ने वाले किसी भी प्रकार के उत्पादन तन्त्र को अनुमति नहीं होनी चाहिये । जब प्रकृति का दोहन किया जाता है तब प्रकृति अपने आप संसाधनों का सृजन कर क्षतिपूर्ति कर देती है और सन्तुलन बनाये रखती है । परन्तु जब शोषण होता है तब प्रकृति असहाय हो जाती है । जब संतुलन बिगड़ जाता है तब अभाव, असंतोष और अस्वास्थ्य का चक्र शुरू हो जाता है । | | # प्रकृति का सन्तुलन बिगाड़ने वाले किसी भी प्रकार के उत्पादन तन्त्र को अनुमति नहीं होनी चाहिये । जब प्रकृति का दोहन किया जाता है तब प्रकृति अपने आप संसाधनों का सृजन कर क्षतिपूर्ति कर देती है और सन्तुलन बनाये रखती है । परन्तु जब शोषण होता है तब प्रकृति असहाय हो जाती है । जब संतुलन बिगड़ जाता है तब अभाव, असंतोष और अस्वास्थ्य का चक्र शुरू हो जाता है । |