− | यह अन्तर जितनी मात्रा में बढ़ता जाता है उतनी मात्रा में अनुचित खर्चे, अनुचित व्यवस्थाओं का बोझ और चीजों की कीमतें बढ़ जाते हैं । उपभोक्ता को कीमत अधिक चुकानी पड़ती है, उत्पादक को कीमत अधिक प्राप्त नहीं होती, निर्जीव, अनावश्यक व्यवस्थाओं के लिये संसाधनों का, श्रम का, धन का विनियोग करना पड़ता है । उदाहरण के लिये दन्तमंजन, साबुन, वस्त्र, लकड़ी, स्वच्छता का सामान आदि एक स्थान पर बनते हों, उसके प्राकृतिक स्रोत यदि दूसरी जगह हों और उसके उपभोक्ता दूर दूर तक फैले हुए हों तो परिवहन, सड़क, बिचौलिये, निवेश, संत्रह, रखरखाव, विज्ञापन, पैकिंग, स्थानीय वितरण व्यवस्था आदि के खर्च बढ़ते हैं जो अधिकांश अनुत्पादक हैं । ये देश के अर्थतन्त्र में विभिन्न प्रकार के आभास (pseudoness) निर्माण करने वाले होते हैं। भारत में जिस प्रकार समाजव्यवस्था की मूल इकाई परिवार है उस प्रकार अर्थव्यवस्था की मूल इकाई ग्राम है । आर्थिक स्वावलंबन, हर परिवार के व्यवसाय को सुरक्षा प्रत्येक ग्रामवासी के अस्तित्व का स्वीकार (recognition), सामाजिक समरसता और परस्परावलम्बन का स्वयंपूर्ण चक्र - यही ग्राम की परिभाषा है । अतः ग्रामकेन्द्री उत्पादन एवं वितरण व्यवस्था से अर्थतंत्र में आभास निर्माण नहीं होते हैं। इस आभासी और ठोस, अथवा उत्पादक और अनुत्पादक अर्थव्यवस्था की संकल्पना ध्यान देने योग्य है । वस्तु का मूल्य उसमें प्रयुक्त पदार्थ, कौशल और उपलब्धता के आधार पर तय होता है । उदाहरण के लिये १०० ग्राम लोहे से १०० ग्राम चाँदी और १०० ग्राम चाँदी से १०० ग्राम सोना अधिक महँगा होता है । मोटे और खुरदरे कपड़े से महीन और कुशलता पूर्वक बुना हुआ कपड़ा अधिक महँगा होता है। | + | यह अन्तर जितनी मात्रा में बढ़ता जाता है उतनी मात्रा में अनुचित खर्चे, अनुचित व्यवस्थाओं का बोझ और चीजों की कीमतें बढ़ जाते हैं । उपभोक्ता को कीमत अधिक चुकानी पड़ती है, उत्पादक को कीमत अधिक प्राप्त नहीं होती, निर्जीव, अनावश्यक व्यवस्थाओं के लिये संसाधनों का, श्रम का, धन का विनियोग करना पड़ता है । उदाहरण के लिये दन्तमंजन, साबुन, वस्त्र, लकड़ी, स्वच्छता का सामान आदि एक स्थान पर बनते हों, उसके प्राकृतिक स्रोत यदि दूसरी जगह हों और उसके उपभोक्ता दूर दूर तक फैले हुए हों तो परिवहन, सड़क, बिचौलिये, निवेश, संत्रह, रखरखाव, विज्ञापन, पैकिंग, स्थानीय वितरण व्यवस्था आदि के खर्च बढ़ते हैं जो अधिकांश अनुत्पादक हैं । ये देश के अर्थतन्त्र में विभिन्न प्रकार के आभास (pseudoness) निर्माण करने वाले होते हैं। भारत में जिस प्रकार समाजव्यवस्था की मूल इकाई परिवार है उस प्रकार अर्थव्यवस्था की मूल इकाई ग्राम है । आर्थिक स्वावलंबन, हर परिवार के व्यवसाय को सुरक्षा प्रत्येक ग्रामवासी के अस्तित्व का स्वीकार (recognition), सामाजिक समरसता और परस्परावलम्बन का स्वयंपूर्ण चक्र - यही ग्राम की परिभाषा है । अतः ग्रामकेन्द्री उत्पादन एवं वितरण व्यवस्था से अर्थतंत्र में आभास निर्माण नहीं होते हैं। इस आभासी और ठोस, अथवा उत्पादक और अनुत्पादक अर्थव्यवस्था की संकल्पना ध्यान देने योग्य है । वस्तु का मूल्य उसमें प्रयुक्त पदार्थ, कौशल और उपलब्धता के आधार पर तय होता है । उदाहरण के लिये १०० ग्राम लोहे से १०० ग्राम चाँदी और १०० ग्राम चाँदी से १०० ग्राम सोना अधिक महँगा होता है । मोटे और खुरदरे कपड़े से महीन और कुशलता पूर्वक बुना हुआ कपड़ा अधिक महँगा होता है। |