Difference between revisions of "तत्व एवं व्यवहार का सम्बन्ध"

From Dharmawiki
Jump to navigation Jump to search
m
(लेख संपादित किया)
Line 2: Line 2:
  
 
== अमूर्त और मूर्त का अन्तर ==
 
== अमूर्त और मूर्त का अन्तर ==
किसी भी पदार्थ, स्थिति या घटना के दो पक्ष होते हैं । एक होता है तत्त्व का और दूसरा व्यवहार का । तत्त्व अमूर्त है, व्यवहार मूर्त । तत्त्व संज्ञा के दो भाग हैं । एक है तत्‌ू और दूसरा है त्व । तत्‌ू का अर्थ है वह । "वह' कया होता है ? 'वह' किसी भी पदार्थ, स्थिति या घटना का मूल रूप होता है । वह मूल रूप अव्यक्त होता है । केवल व्यवहार ही व्यक्त होता है । मूर्त स्वरूप हमेशा भौतिक होता है । मूर्त स्वरूप इंट्रियगम्य होता है । उदाहरण के लिये रोटी का मूर्त स्वरूप दिखाई देता है, उसका स्वाद चखा जाता है । वह गरम है कि ठंडी यह स्पर्श से जाना जाता है । परन्तु रोटी गेहूँ से बनी है फिर भी जब तक वह रोटी के स्वरूप में है तब तक गेहूँ नहीं दिखाई देता । गेहूँ रोटी का “वह' है, तत्त्व है । गेहूँ मूल रूप में पंचमहाभूत है । उसमें पांचों महाभूत हैं परन्तु दिखाई तो देता है केवल पृथ्वी महाभूत । शेष चारों तत्त्व के स्वरूप में तो गेहूँ में हैं परन्तु मूर्त रूप में नहीं दिखाई देते हैं । उन्हें बुद्धि से तर्क करके ही जानना होता है । उनका वह होना इंट्रियगम्य नहीं अपितु बुद्धिगम्य है । उसी प्रकार से पंचमहाभूतों का मूल स्वरूप प्रकृति है परन्तु वह अपने मूल स्वरूप में बुद्धिगम्य भी नहीं है । हाँ, बुद्धि से उसके स्वरूप का अनुमान लगा सकते हैं । जगत्‌ के किसी भी पदार्थ का मूल रूप केवल प्रकृति ही नहीं, पुरुष भी है जो केवल अनुभूतिगम्य है । उसका मूर्तरूप व्यवहार का ही होता है जो इंद्रिय, मन, बुद्धि से संचालित होता है । तत्त्व किसी भी पदार्थ या घटना का आध्यात्मिक स्वरूप होता है, व्यवहार भौतिक । यह विश्व व्यवहार रूप में परिचालित होता है ।
+
किसी भी पदार्थ, स्थिति या घटना के दो पक्ष होते हैं <ref>भारतीय शिक्षा के व्यावहारिक आयाम (भारतीय शिक्षा ग्रन्थमाला ३), प्रकाशक: पुनरुत्थान प्रकाशन सेवा ट्रस्ट, लेखन एवं संपादन: श्रीमती इंदुमती काटदरे</ref>। एक होता है तत्व का और दूसरा व्यवहार का । तत्व अमूर्त है, व्यवहार मूर्त । तत्व संज्ञा के दो भाग हैं । एक है तत् और दूसरा है त्व । तत्  का अर्थ है वह । "वह' क्या होता है ? 'वह' किसी भी पदार्थ, स्थिति या घटना का मूल रूप होता है । वह मूल रूप अव्यक्त होता है । केवल व्यवहार ही व्यक्त होता है । मूर्त स्वरूप हमेशा भौतिक होता है। मूर्त स्वरूप इंद्रियगम्य  होता है । उदाहरण के लिये रोटी का मूर्त स्वरूप दिखाई देता है, उसका स्वाद चखा जाता है । वह गरम है कि ठंडी, यह स्पर्श से जाना जाता है । परन्तु रोटी गेहूँ से बनी है फिर भी जब तक वह रोटी के स्वरूप में है तब तक गेहूँ नहीं दिखाई देता । गेहूँ रोटी का 'वह' है, तत्व है । गेहूँ मूल रूप में पंचमहाभूत है । उसमें पांचों महाभूत हैं परन्तु दिखाई तो देता है केवल पृथ्वी महाभूत । शेष चारों तत्व के स्वरूप में तो गेहूँ में हैं परन्तु मूर्त रूप में नहीं दिखाई देते हैं । उन्हें बुद्धि से तर्क करके ही जानना होता है। उनका वह होना इंद्रियगम्य  नहीं अपितु बुद्धिगम्य है । उसी प्रकार से पंचमहाभूतों का मूल स्वरूप प्रकृति है परन्तु वह अपने मूल स्वरूप में बुद्धिगम्य भी नहीं है । हाँ, बुद्धि से उसके स्वरूप का अनुमान लगा सकते हैं । जगत‌ के किसी भी पदार्थ का मूल रूप केवल प्रकृति ही नहीं, पुरुष भी है जो केवल अनुभूतिगम्य है । उसका मूर्तरूप व्यवहार का ही होता है जो इंद्रिय, मन, बुद्धि से संचालित होता है । तत्व किसी भी पदार्थ या घटना का आध्यात्मिक स्वरूप होता है, व्यवहार भौतिक । यह विश्व व्यवहार रूप में परिचालित होता है ।
  
== तत्त्व के अनुसार व्यवहार ==
+
== तत्व के अनुसार व्यवहार ==
तत्त्व अमूर्त है और व्यवहार मूर्त है यह बात सही है, तत्त्व इंद्रियगम्य नहीं है जबकि व्यवहार इंटद्रियगम्य है यह बात भी सही है परन्तु तत्त्व के बिना व्यवहार की कोई सार्थकता नहीं है । तत्त्व और व्यवहार एक सिक्के के दो पहलू हैं । तत्त्व के बिना व्यवहार सम्भव नहीं । उसका अस्तित्व ही तत्त्व के बिना होता नहीं है। व्यवहार के बिना तत्त्व की कोई चरितार्थता नहीं । उदाहरण के लिये गेहूँ रोटी का तत्त्व है तो गेहूँ के बिना रोटी का अस्तित्व नहीं और रोटी के बिना गेहूँ की चरितार्थता नहीं, आत्मतत्त्व के बिना सृष्टि का अस्तित्व नहीं और सृष्टि के बिना आत्मतत्त्व की अभिव्यक्ति नहीं । इस प्रकार तत्त्व एवं व्यवहार का अनिवार्य सम्बन्ध होता है ।
+
तत्व अमूर्त है और व्यवहार मूर्त है यह बात सही है, तत्व इंद्रियगम्य नहीं है जबकि व्यवहार इंटद्रियगम्य है यह बात भी सही है परन्तु तत्व के बिना व्यवहार की कोई सार्थकता नहीं है । तत्व और व्यवहार एक सिक्के के दो पहलू हैं । तत्व के बिना व्यवहार सम्भव नहीं। उसका अस्तित्व ही तत्व के बिना होता नहीं है। व्यवहार के बिना तत्व की कोई चरितार्थता नहीं । उदाहरण के लिये गेहूँ रोटी का तत्व है तो गेहूँ के बिना रोटी का अस्तित्व नहीं और रोटी के बिना गेहूँ की चरितार्थता नहीं, आत्मतत्व के बिना सृष्टि का अस्तित्व नहीं और सृष्टि के बिना आत्मतत्व की अभिव्यक्ति नहीं । इस प्रकार तत्व एवं व्यवहार का अनिवार्य सम्बन्ध होता है ।
  
जगत्‌ में जब तत्त्व एवं व्यवहार का सम्बन्ध विच्छेद होता है तब उसका परिणाम अनुचित ही होता है । तब कहीं न कहीं किसी स्तर पर किसी न किसी स्वरूप का संकट ही निर्माण होता है । कहीं प्राकृतिक संकट होता है, कहीं मनुष्यों के स्वास्थ्य का संकट होता है, कहीं एक मनुष्य का दूसरे मनुष्य के साथ समायोजन का संकट निर्माण होता है ।
+
जगत में जब तत्व एवं व्यवहार का सम्बन्ध विच्छेद होता है तब उसका परिणाम अनुचित ही होता है । तब कहीं न कहीं किसी स्तर पर किसी न किसी स्वरूप का संकट ही निर्माण होता है । कहीं प्राकृतिक संकट होता है, कहीं मनुष्यों के स्वास्थ्य का संकट होता है, कहीं एक मनुष्य का दूसरे मनुष्य के साथ समायोजन का संकट निर्माण होता है ।
  
तत्त्व और व्यवहार का सम्बन्ध ठीक से समझना और उसके अनुसार व्यवहार करना शिक्षा का प्रमुख कार्य है । शिक्षित मनुष्य के लिये यह सहज होता है । जब शिक्षित मनुष्य ऐसा समायोजन ठीक से नहीं कर पाता तब या तो उसकी शिक्षा सही नहीं है या तो वह शिक्षा का उपयोग ठीक से नहीं करता है, ऐसा ही कहा जाएगा ।
+
तत्व और व्यवहार का सम्बन्ध ठीक से समझना और उसके अनुसार व्यवहार करना शिक्षा का प्रमुख कार्य है । शिक्षित मनुष्य के लिये यह सहज होता है । जब शिक्षित मनुष्य ऐसा समायोजन ठीक से नहीं कर पाता तब या तो उसकी शिक्षा सही नहीं है या तो वह शिक्षा का उपयोग ठीक से नहीं करता है, ऐसा ही कहा जाएगा ।
  
तत्त्व और व्यवहार का सामंजस्य बुद्धि, मन और शरीर की क्रियाओं का सामंजस्य है, ज्ञान, भावना और क्रिया का सामंजस्य है । ऐसे सामंजस्य से ही जगत का व्यवहार सम्यक्‌ रूप से चलता है । इसलिये तत्त्व और व्यवहार हमेशा साथ ही चलने चाहिये ।
+
तत्व और व्यवहार का सामंजस्य बुद्धि, मन और शरीर की क्रियाओं का सामंजस्य है, ज्ञान, भावना और क्रिया का सामंजस्य है । ऐसे सामंजस्य से ही जगत का व्यवहार सम्यक्‌ रूप से चलता है । इसलिये तत्व और व्यवहार हमेशा साथ ही चलने चाहिये ।
  
== व्यवहार हमेशा तत्त्व का अनुसरण करता है । ==
+
== व्यवहार हमेशा तत्व का अनुसरण करता है । ==
तत्त्व अमूर्त है, संकल्पनात्मक है, अव्यक्त है । व्यवहार मूर्त है, प्रकटस्वरूप है, व्यक्त है इसलिये व्यवहार ही तत्त्व का अनुसरण करेगा यह स्वाभाविक है । तत्त्व प्रथम होता है, व्यवहार तत्त्व को मूर्तस्वरूप देने के लिये ही होता है । अत: तत्त्व और व्यवहार एक दूसरे से भिन्न नहीं हैं । इतना ही नहीं तो व्यवहार तत्त्व के अनुसार ही होता है ।
+
तत्व अमूर्त है, संकल्पनात्मक है, अव्यक्त है । व्यवहार मूर्त है, प्रकटस्वरूप है, व्यक्त है इसलिये व्यवहार ही तत्व का अनुसरण करेगा, यह स्वाभाविक है । तत्व प्रथम होता है, व्यवहार तत्व को मूर्तस्वरूप देने के लिये ही होता है । अत: तत्व और व्यवहार एक दूसरे से भिन्न नहीं हैं । इतना ही नहीं तो व्यवहार तत्व के अनुसार ही होता है ।
  
आजकल तत्त्व को आदर्श माना जाता है और व्यवहार में आदर्श का पालन नहीं किया जा सकता है ऐसा कई बार कहा जाता है । उदाहरण के लिये सत्य बोलना आदर्श है परन्तु व्यवहार में हमेशा सत्य बोला नहीं जाता, अनेक कारणों से असत्य बोलना ही पड़ता है । पर्यावरण की सुरक्षा करनी चाहिये यह तात्त्विक दृष्टि से मान्य है परन्तु आज का जीवन ऐसा हो गया है कि प्लास्टिक का प्रयोग किए बिना चलता ही नहीं है । तात्तविक दृष्टि से व्यवहार करना मनुष्य के लिये सम्भव नहीं है । मनुष्य दुर्बल प्राणी है इसलिये उससे प्रमाद्‌ हो ही जाता है यह बात ठीक है परन्तु उससे भी प्रतिष्ठा तो तत्त्व की ही होती है । तत्त्व आदर्श है और व्यवहार का निकष है । तत्त्व है इसलिये ही व्यवहार ठीक है कि नहीं यह नापा जाता है । किसी भी व्यवहार को तत्त्व के बिना ठीक है कि नहीं यह तय करने पर वह व्यक्तिसापेक्ष या घटना सापेक्ष हो जाता है और हमेशा बदलता रहता है । उसे निरपेक्ष बनाने के लिये भी किसी अमूर्त तत्त्व की ही अपेक्षा रहती है ।
+
आजकल तत्व को आदर्श माना जाता है और व्यवहार में आदर्श का पालन नहीं किया जा सकता है, ऐसा कई बार कहा जाता है । उदाहरण के लिये सत्य बोलना आदर्श है परन्तु व्यवहार में हमेशा सत्य बोला नहीं जाता, अनेक कारणों से असत्य बोलना ही पड़ता है। पर्यावरण की सुरक्षा करनी चाहिये यह तात्विक दृष्टि से मान्य है, परन्तु आज का जीवन ऐसा हो गया है कि प्लास्टिक का प्रयोग किए बिना चलता ही नहीं है । तात्विक दृष्टि से व्यवहार करना मनुष्य के लिये सम्भव नहीं है । मनुष्य दुर्बल प्राणी है इसलिये उससे प्रमाद हो ही जाता है, यह बात ठीक है, परन्तु उससे भी प्रतिष्ठा तो तत्व की ही होती है । तत्व आदर्श है और व्यवहार का निकष है । तत्व है, इसलिये ही व्यवहार ठीक है कि नहीं, यह नापा जाता है । किसी भी व्यवहार को तत्व के बिना, ठीक है कि नहीं, यह तय करने पर वह व्यक्तिसापेक्ष या घटना सापेक्ष हो जाता है और हमेशा बदलता रहता है । उसे निरपेक्ष बनाने के लिये भी किसी अमूर्त तत्व की ही अपेक्षा रहती है ।
  
== तत्त्व सिद्धान्त है, व्यवहार उसका उदाहरण । ==
+
== तत्व सिद्धान्त है, व्यवहार उसका उदाहरण । ==
सिद्धान्त वह होता है जो अनुसरण के लिये बनाया गया नियम है । उदाहरण के लिये किसी भौमितिक आकृति का क्षेत्रफल जानने के लिये सूत्र बनाया जाता है । वह अनेक आकृतियों का क्षेत्रफल जानने के बाद निष्कर्ष निकालकर उसके आधार पर बनाया जाता है । पानी हमेशा ऊपर से नीचे की ओर बहता है यह तथ्य जानकर पानी का प्रयोग करते समय व्यवहार करना होता है । प्राणियों का और पदार्थों का स्वभाव जानकर उनके साथ व्यवहार करना होता है । मनुष्यों का भी स्वभाव जानकर उनके साथ व्यवहार करना होता है । साथ ही स्थिति को देखकर आवश्यकताएँ निश्चित होती हैं । उनके अनुसार व्यवहार निश्चित होता है । इन व्यवहारों के लिये मार्गदर्शक सिद्धान्त बनाये जाते हैं । शास्त्र कहते हैं कि सृष्टि को बनाए रखने के और चलाने के नियम सृष्टि की उत्पत्ति के साथ ही उत्पन्न हुए हैं । इन नियमों से जो व्यवस्था बनी है वही धर्म है । धर्म के ये नियम ही सूत्र हैं, सिद्धान्त हैं । ये ही तत्त्व हैं । जगत्‌ में व्यवहार करते समय इन तत्त्वों को ध्यान में रखना अनिवार्य है । यदि ये नियम ध्यान में नहीं रखे तो सारी व्यवस्था अव्यवस्था में परिवर्तित हो जायेगी । ऐसी अव्यवस्था में कोई सुरक्षित नहीं रहेगा ।
+
सिद्धान्त वह होता है जो अनुसरण के लिये बनाया गया नियम है । उदाहरण के लिये किसी भौमितिक आकृति का क्षेत्रफल जानने के लिये सूत्र बनाया जाता है । वह अनेक आकृतियों का क्षेत्रफल जानने के बाद निष्कर्ष निकालकर उसके आधार पर बनाया जाता है । पानी हमेशा ऊपर से नीचे की ओर बहता है, इस तथ्य को जानकर पानी का प्रयोग करते समय व्यवहार करना होता है । प्राणियों का और पदार्थों का स्वभाव जानकर उनके साथ व्यवहार करना होता है । मनुष्यों का भी स्वभाव जानकर उनके साथ व्यवहार करना होता है । साथ ही स्थिति को देखकर आवश्यकताएँ निश्चित होती हैं । उनके अनुसार व्यवहार निश्चित होता है । इन व्यवहारों के लिये मार्गदर्शक सिद्धान्त बनाये जाते हैं । शास्त्र कहते हैं कि सृष्टि को बनाए रखने के और चलाने के नियम सृष्टि की उत्पत्ति के साथ ही उत्पन्न हुए हैं । इन नियमों से जो व्यवस्था बनी है वही धर्म है । धर्म के ये नियम ही सूत्र हैं, सिद्धान्त हैं । ये ही तत्व हैं । जगत में व्यवहार करते समय इन तत्वों को ध्यान में रखना अनिवार्य है । यदि ये नियम ध्यान में नहीं रखे तो सारी व्यवस्था अव्यवस्था में परिवर्तित हो जायेगी । ऐसी अव्यवस्था में कोई सुरक्षित नहीं रहेगा ।
  
फिर प्रश्न यह होता है कि धर्म के पालन में अर्थात्‌ तत्त्व के अनुसार व्यवहार करने में ही सुरक्षा है और सुरक्षा के परिणामस्वरूप निश्चितता और सुख है तो लोग तत्त्व के अनुसरण को ही व्यावहारिक क्यों नहीं मानते । लोग तत्त्व और व्यवहार को एक दूसरे से अलग क्यों रखना चाहते हैं ? इसका कारण यह है कि तत्त्व के अनुसार व्यवहार करना अनेक लोगों को कठिन लगता है । इसका प्रमुख कारण यह है कि मन की शिक्षा के अभाव में लोगों के मन दुर्बल होते हैं । दुर्बल मन में स्वार्थ, लोभ, मोह आदि विकार प्रबल होते हैं । बुद्धि का विकास ठीक नहीं होने के कारण वह विशाल नहीं होती है और सबके सुख में ही हमारा हित है ऐसा समझ में नहीं आता | अत: दूसरों को न मिले और स्वयं को मिले इसकी ही चिन्ता सबको लगी रहती है । मनोवृत्तियाँ भिन्न भिन्न रहती हैं । ऐसी मनोवृत्तियों का वर्णन कवि भर्तृहरि ने इस प्रकार किया है
+
फिर प्रश्न यह होता है कि धर्म के पालन में अर्थात्‌ तत्व के अनुसार व्यवहार करने में ही सुरक्षा है और सुरक्षा के परिणामस्वरूप निश्चितता और सुख है तो लोग तत्व के अनुसरण को ही व्यावहारिक क्यों नहीं मानते । लोग तत्व और व्यवहार को एक दूसरे से अलग क्यों रखना चाहते हैं ? इसका कारण यह है कि तत्व के अनुसार व्यवहार करना अनेक लोगों को कठिन लगता है । इसका प्रमुख कारण यह है कि मन की शिक्षा के अभाव में लोगों के मन दुर्बल होते हैं । दुर्बल मन में स्वार्थ, लोभ, मोह आदि विकार प्रबल होते हैं । बुद्धि का विकास ठीक नहीं होने के कारण वह विशाल नहीं होती है और सबके सुख में ही हमारा हित है ऐसा समझ में नहीं आता | अत: दूसरों को न मिले और स्वयं को मिले इसकी ही चिन्ता सबको लगी रहती है । मनोवृत्तियाँ भिन्न भिन्न रहती हैं । ऐसी मनोवृत्तियों का वर्णन कवि भर्तृहरि ने इस प्रकार किया है<ref>नीतिशतक-75, भर्तृहरि</ref>:<blockquote>एते सत्पुरुषा परार्थघटका स्वार्थान्परित्यज्य ये ।</blockquote><blockquote>सामान्यास्तु परार्थमुद्यमभूता स्वार्थाविरोधेन ये ।</blockquote><blockquote>ते$मी मानुषराक्षसा परहितम्‌ स्वार्थाय निष्नन्ति ये ।</blockquote><blockquote>ये निध्ननन्ति निरर्थकम्‌ परहितम्‌ ते के न जानीमहे ।।</blockquote><blockquote>अर्थात्‌</blockquote><blockquote>एक तो सज्जन लोग होते हैं जो अपना स्वार्थ छोड़कर औरों का हित करते हैं । दूसरे सामान्य लोग होते हैं जो अपना स्वार्थ न छोड़ते हुए दूसरों का हित करते हैं । मनुष्यों का और एक प्रकार ऐसा है जो अपने स्वार्थ के लिये दूसरों के हित का नाश करते हैं । परन्तु जो किसी भी कारण के बिना दूसरों के हित का नाश करते हैं, ऐसे लोगों को क्या कहा जाय यह हम नहीं जानते ।</blockquote><blockquote>तात्पर्य यह है कि जगत‌ में तरह तरह के लोग होते हैं, उनकी नीयत भिन्न-भिन्न प्रकार की होती है, उनके स्वार्थ भिन्न-भिन्न होते हैं इसलिये उनका व्यवहार भी भिन्न-भिन्न प्रकार का होता है ।</blockquote>अनेक बार ऐसा होता है कि तत्व के अनुसार व्यवहार कैसा होगा, यह ध्यान में ही नहीं आता है । यह नीयत की नहीं अपितु बुद्धि की मर्यादा है । उदाहरण के लिये मन, कर्म, वचन से किसी को दुःख नहीं पहुँचाना अहिंसा है, यह अहिंसा का तत्व है परन्तु दुर्बल को परेशान करने वाले को दण्ड देना हिंसा नहीं है । दुःख तो उसे भी होता है, परन्तु उसका दुःख निर्दोष के दुःख के जैसा नहीं है । यह विवेक मनुष्यों को बहुत दुर्लभ होता है, इसलिये लोग तत्व के अनुसार व्यवहार नहीं करते हैं ।
  
एते सत्पुरुषा परार्थघटका स्वार्थान्परित्यज्य ये ।  
+
आसक्ति के वशीभूत होकर मनुष्य पक्षपातपूर्ण व्यवहार करता है और तत्व को छोड़ देता है । आसक्ति पदार्थ की, व्यक्ति की, प्रतिष्ठा की, मान की होती है । कभी भय और लालच के वश होकर भी वह तत्व को छोड़कर व्यवहार करता है ।  इस प्रकार अनेक कारणों से मनुष्य जगत में तत्व और व्यवहार एक दूसरे से भिन्न हो जाते हैं ।  
  
सामान्यास्तु परार्थमुद्यमभूता स्वार्थाविरोधेन ये
+
== व्यापक सन्दर्भ में जो करना चाहिये वह तत्व होता है, जो किया जाता है वह व्यवहार होता है । ==
 +
तत्व धर्म का अंश है इसलिये वह करणीय अथवा आचरणीय है । यहाँ व्यापक सन्दर्भ में कहा है वह ध्यान में लेने योग्य है। सीमित सन्दर्भ में जो ठीक लगता है, वह व्यापक सन्दर्भ में ठीक न भी हो यह सम्भव है । उदाहरण के लिये व्यक्ति अकेला हो तो एक वस्त्र पहनकर रह सकता है या जोर-जोर से गा सकता है, उसके व्यवहार में कोई अनौचित्य नहीं है । परन्तु सभा में वस्त्रों की न्यूनता ठीक नहीं है, ज़ोर से बोलना भी ठीक नहीं । एक कुटुंब यदि प्लास्टिक का प्रयोग करे तो उसे सुविधा लगती है और कुछ भी अनुचित नहीं लगता परन्तु सार्वजनिक जीवन का विचार करें तो पर्यावरण के नाश के कारण वह अनुचित है । स्वादिष्ट भोजन की ही इच्छा रखने वाले उसे खाकर सुख का अनुभव करते हैं, परन्तु वह आरोग्य बिगाड़ता है तब दुःख होता है । चीनी माल बेचने में तो फायदा लगता है और सस्ता होता है, इसलिये खरीदते समय भी अच्छा लगता है परन्तु स्वयं की और देश की आर्थिक हानि को देखते हुए वह खरीदना ठीक नहीं होता
  
ते$मी मानुषराक्षसा परहितम्‌ स्वार्थाय निष्नन्ति ये
+
अत: अनेक बार व्यक्ति जो करना चाहिये वह नहीं करता । उसका व्यवहार तत्व को छोड़कर ही होता है। जब लोग तत्व की उपेक्षा करते हैं तब संकट निर्माण होते हैं । इसलिये व्यापक सन्दर्भ में स्थिति का आकलन कर ही व्यवहार करना चाहिये
  
ये निध्ननन्ति निरर्थकम्‌ परहितम्‌ ते के न जानीमहे ।।
+
== तत्व को छोडकर व्यवहार करने के उदाहरण ==
 +
हमने सामान्य सन्दर्भ का विचार किया । अब जरा शिक्षा के सन्दर्भ में तत्त और व्यवहार का विचार करें । अनेक बार अनेक अज्ञानजनित कारणों से हम तत्व को छोड़कर व्यवहार
  
अर्थात्‌
+
करते हैं । कुछ उदाहरण देखें:
 
 
एक तो सज्जन लोग होते हैं जो अपना स्वार्थ छोड़कर औरों का हित करते हैं । दूसरे सामान्य लोग होते हैं जो अपना स्वार्थ न छोड़ते हुए दूसरों का हित करते हैं । मनुष्यों का और एक प्रकार ऐसा है जो अपने स्वार्थ के लिये दूसरों के हित का नाश करते हैं । परन्तु जो किसी भी कारण के बिना दूसरों के हित का नाश करते हैं, ऐसे लोगों को क्या कहा जाय यह हम नहीं जानते ।
 
 
 
तात्पर्य यह है कि जगत्‌ में तरह तरह के लोग होते हैं, उनकी नीयत भिन्न-भिन्न प्रकार की होती है, उनके स्वार्थ भिन्न-भिन्न होते हैं इसलिये उनका व्यवहार भी भिन्न-भिन्न प्रकार का होता है ।
 
 
 
अनेक बार ऐसा होता है कि तत्त्व के अनुसार व्यवहार कैसा होगा, यह ध्यान में ही नहीं आता है । यह नीयत की नहीं अपितु बुद्धि की मर्यादा है । उदाहरण के लिये मन, कर्म, वचन से किसीको दुःख नहीं पहुँचाना अहिंसा है, यह अहिंसा का तत्त्व है परन्तु दुर्बल को परेशान करने वाले को दण्ड देना हिंसा नहीं है । दुःख तो उसे भी होता है, परन्तु उसका दुःख निर्दोष के दुःख के जैसा नहीं है । यह विवेक मनुष्यों को बहुत दुर्लभ होता है, इसलिये लोग तत्त्व के अनुसार व्यवहार नहीं करते हैं ।
 
 
 
आसक्ति के वशीभूत होकर मनुष्य पक्षपातपूर्ण व्यवहार करता है और तत्त्व को छोड़ देता है । आसक्ति पदार्थ की, व्यक्ति की, प्रतिष्ठा की, मान की होती है । कभी भय और लालच के वश होकर भी वह तत्त्व को छोड़कर व्यवहार करता है ।  इस प्रकार अनेक कारणों से मनुष्य जगत्‌ में तत्व और व्यवहार एक दूसरे से भिन्न हो जाते हैं ।
 
 
 
== व्यापक सन्दर्भ में जो करना चाहिये वह तत्त्व होता है, जो किया जाता है वह व्यवहार होता है । ==
 
तत्त्व धर्म का अंश है इसलिये वह करणीय अथवा आचरणीय है । यहाँ व्यापक सन्दर्भ में कहा है वह ध्यान में लेने योग्य है। सीमित सन्दर्भ में जो ठीक लगता है, वह व्यापक सन्दर्भ में ठीक न भी हो यह सम्भव है । उदाहरण के लिये व्यक्ति अकेला हो तो एक वस्त्र पहनकर रह सकता है या जोर-जोर से गा सकता है, उसके व्यवहार में कोई अनौचित्य नहीं है । परन्तु सभा में वस्त्रों की न्यूनता ठीक नहीं है, ज़ोर से बोलना भी ठीक नहीं । एक कुट्म्ब यदि प्लास्टिक का प्रयोग करे तो उसे सुविधा लगती है और कुछ भी अनुचित नहीं लगता परन्तु सार्वजनिक जीवन का विचार करें तो पर्यावरण के नाश के कारण वह अनुचित है । स्वादिष्ट भोजन की ही इच्छा रखने वाले उसे खाकर सुख का अनुभव करते हैं, परन्तु वह आरोग्य बिगाड़ता है तब दुःख होता है । चीनी माल बेचने में तो फायदा लगता है और सस्ता होता है, इसलिये खरीदते समय भी अच्छा लगता है परन्तु स्वयं की और देश की आर्थिक हानि को देखते हुए वह खरीदना ठीक नहीं होता ।
 
 
 
अत: अनेक बार व्यक्ति जो करना चाहिये वह नहीं करता । उसका व्यवहार तत्त्व को छोड़कर ही होता है। जब लोग तत्त्व की उपेक्षा करते हैं तब संकट निर्माण होते हैं । इसलिये व्यापक सन्दर्भ में स्थिति का आकलन कर ही व्यवहार करना चाहिये ।
 
 
 
== तत्त्व को छोडकर व्यवहार करने के उदाहरण ==
 
हमने सामान्य सन्दर्भ का विचार किया । अब जरा शिक्षा के सन्दर्भ में तत्त और व्यवहार का विचार करें । अनेक बार अनेक अज्ञानजनित कारणों से हम तत्त्व को छोड़कर व्यवहार
 
 
 
करते हैं । कुछ उदाहरण देखें ...
 
 
* बच्चों को पाँच वर्ष से कम आयु में विद्यालय नहीं भेजना चाहिये, यह विश्वभर के शिक्षाशास्त्रियों का परामर्श है परन्तु हम उसे मानते नहीं हैं और जल्दी से जल्दी विद्यालय भेज देते हैं ।
 
* बच्चों को पाँच वर्ष से कम आयु में विद्यालय नहीं भेजना चाहिये, यह विश्वभर के शिक्षाशास्त्रियों का परामर्श है परन्तु हम उसे मानते नहीं हैं और जल्दी से जल्दी विद्यालय भेज देते हैं ।
* भारत में अँग्रेजी भाषा शिक्षा का माध्यम होना उचित नहीं है यह तत्त्व है, हम उससे विपरीत व्यवहार करते ही हैं।
+
* भारत में अँग्रेजी भाषा शिक्षा का माध्यम होना उचित नहीं है यह तत्व है, हम उससे विपरीत व्यवहार करते ही हैं।
* विद्यालय के साथ-साथ घर में भी शिक्षा होती है, यह तत्त्व है परन्तु हम विद्यालय की शिक्षा को ही शिक्षा मानते हैं ।
+
* विद्यालय के साथ-साथ घर में भी शिक्षा होती है, यह तत्व है परन्तु हम विद्यालय की शिक्षा को ही शिक्षा मानते हैं ।
* बिना चरित्र के व्यक्ति को शिक्षित नहीं मानना चाहिये, यह तत्त्व है परन्तु हम उच्च शिक्षा के साथ भी चरित्र की परवाह करते नहीं हैं ।
+
* बिना चरित्र के व्यक्ति को शिक्षित नहीं मानना चाहिये, यह तत्व है परन्तु हम उच्च शिक्षा के साथ भी चरित्र की परवाह करते नहीं हैं ।
* भारत में ज्ञान की वाहक शिक्षा को पवित्र माना जाता है और वह अन्य भौतिक पदार्थों की तरह बिकाऊ नहीं है, यह तत्त्व है परन्तु हमने शिक्षा को भी उद्योग बना
+
* भारत में ज्ञान की वाहक शिक्षा को पवित्र माना जाता है और वह अन्य भौतिक पदार्थों की तरह बिकाऊ नहीं है, यह तत्व है परन्तु हमने शिक्षा को भी उद्योग बना
 
* दिया है और शिक्षा का बाजारीकरण कर दिया है ।
 
* दिया है और शिक्षा का बाजारीकरण कर दिया है ।
* शिक्षा का उद्देश्य मुक्ति है, यह तत्त्व है परन्तु हमने शिक्षा का लक्ष्य अथर्जिन है, ऐसा मानकर सारी व्यवस्था की है ।
+
* शिक्षा का उद्देश्य मुक्ति है, यह तत्व है परन्तु हमने शिक्षा का लक्ष्य अथर्जिन है, ऐसा मानकर सारी व्यवस्था की है ।
ऐसे तो अनेक उदाहरण दिये जा सकते हैं जो दृशतति हैं कि व्यवहार तत्त्व से कितना दूर चला गया है । शिक्षा को ही यह सब ठीक करना चाहिये, यह स्वाभाविक तथ्य है । इसलिये शिक्षा के सम्बन्ध में तत्त्वचिन्तन जितना आवश्यक है उतना ही व्यवहारचिन्तन भी है । तत्त्वचिन्तन कदाचित सरल है परन्तु व्यवहारचिन्तन नहीं क्योंकि व्यवहार बहुत जटिल होता है, तत्त्व सरल । तत्त्व बुद्धि से समझा जाता भारतीय शिक्षा के व्यावहारिक आयाम है इसलिये सरल है । व्यवहार मन, बुद्धि और शरीर से होता है इसलिये देशकाल परिस्थिति सापेक्ष होता है और हर समय नए से विचार कर निश्चित करना होता है ।
+
ऐसे तो अनेक उदाहरण दिये जा सकते हैं जो दर्शाते हैं कि व्यवहार तत्व से कितना दूर चला गया है । शिक्षा को ही यह सब ठीक करना चाहिये, यह स्वाभाविक तथ्य है । इसलिये शिक्षा के सम्बन्ध में तत्वचिन्तन जितना आवश्यक है उतना ही व्यवहारचिन्तन भी है। तत्वचिन्तन कदाचित सरल है परन्तु व्यवहारचिन्तन नहीं क्योंकि व्यवहार बहुत जटिल होता है, तत्व सरल । तत्व बुद्धि से समझा जाता भारतीय शिक्षा के व्यावहारिक आयाम है इसलिये सरल है । व्यवहार मन, बुद्धि और शरीर से होता है इसलिये देशकाल परिस्थिति सापेक्ष होता है और हर समय नए से विचार कर निश्चित करना होता है ।
  
 
[[Category:ग्रंथमाला 3 पर्व 1: विषय प्रवेश]]
 
[[Category:ग्रंथमाला 3 पर्व 1: विषय प्रवेश]]

Revision as of 13:39, 5 March 2020

अमूर्त और मूर्त का अन्तर

किसी भी पदार्थ, स्थिति या घटना के दो पक्ष होते हैं [1]। एक होता है तत्व का और दूसरा व्यवहार का । तत्व अमूर्त है, व्यवहार मूर्त । तत्व संज्ञा के दो भाग हैं । एक है तत् और दूसरा है त्व । तत् का अर्थ है वह । "वह' क्या होता है ? 'वह' किसी भी पदार्थ, स्थिति या घटना का मूल रूप होता है । वह मूल रूप अव्यक्त होता है । केवल व्यवहार ही व्यक्त होता है । मूर्त स्वरूप हमेशा भौतिक होता है। मूर्त स्वरूप इंद्रियगम्य होता है । उदाहरण के लिये रोटी का मूर्त स्वरूप दिखाई देता है, उसका स्वाद चखा जाता है । वह गरम है कि ठंडी, यह स्पर्श से जाना जाता है । परन्तु रोटी गेहूँ से बनी है फिर भी जब तक वह रोटी के स्वरूप में है तब तक गेहूँ नहीं दिखाई देता । गेहूँ रोटी का 'वह' है, तत्व है । गेहूँ मूल रूप में पंचमहाभूत है । उसमें पांचों महाभूत हैं परन्तु दिखाई तो देता है केवल पृथ्वी महाभूत । शेष चारों तत्व के स्वरूप में तो गेहूँ में हैं परन्तु मूर्त रूप में नहीं दिखाई देते हैं । उन्हें बुद्धि से तर्क करके ही जानना होता है। उनका वह होना इंद्रियगम्य नहीं अपितु बुद्धिगम्य है । उसी प्रकार से पंचमहाभूतों का मूल स्वरूप प्रकृति है परन्तु वह अपने मूल स्वरूप में बुद्धिगम्य भी नहीं है । हाँ, बुद्धि से उसके स्वरूप का अनुमान लगा सकते हैं । जगत‌ के किसी भी पदार्थ का मूल रूप केवल प्रकृति ही नहीं, पुरुष भी है जो केवल अनुभूतिगम्य है । उसका मूर्तरूप व्यवहार का ही होता है जो इंद्रिय, मन, बुद्धि से संचालित होता है । तत्व किसी भी पदार्थ या घटना का आध्यात्मिक स्वरूप होता है, व्यवहार भौतिक । यह विश्व व्यवहार रूप में परिचालित होता है ।

तत्व के अनुसार व्यवहार

तत्व अमूर्त है और व्यवहार मूर्त है यह बात सही है, तत्व इंद्रियगम्य नहीं है जबकि व्यवहार इंटद्रियगम्य है यह बात भी सही है परन्तु तत्व के बिना व्यवहार की कोई सार्थकता नहीं है । तत्व और व्यवहार एक सिक्के के दो पहलू हैं । तत्व के बिना व्यवहार सम्भव नहीं। उसका अस्तित्व ही तत्व के बिना होता नहीं है। व्यवहार के बिना तत्व की कोई चरितार्थता नहीं । उदाहरण के लिये गेहूँ रोटी का तत्व है तो गेहूँ के बिना रोटी का अस्तित्व नहीं और रोटी के बिना गेहूँ की चरितार्थता नहीं, आत्मतत्व के बिना सृष्टि का अस्तित्व नहीं और सृष्टि के बिना आत्मतत्व की अभिव्यक्ति नहीं । इस प्रकार तत्व एवं व्यवहार का अनिवार्य सम्बन्ध होता है ।

जगत में जब तत्व एवं व्यवहार का सम्बन्ध विच्छेद होता है तब उसका परिणाम अनुचित ही होता है । तब कहीं न कहीं किसी स्तर पर किसी न किसी स्वरूप का संकट ही निर्माण होता है । कहीं प्राकृतिक संकट होता है, कहीं मनुष्यों के स्वास्थ्य का संकट होता है, कहीं एक मनुष्य का दूसरे मनुष्य के साथ समायोजन का संकट निर्माण होता है ।

तत्व और व्यवहार का सम्बन्ध ठीक से समझना और उसके अनुसार व्यवहार करना शिक्षा का प्रमुख कार्य है । शिक्षित मनुष्य के लिये यह सहज होता है । जब शिक्षित मनुष्य ऐसा समायोजन ठीक से नहीं कर पाता तब या तो उसकी शिक्षा सही नहीं है या तो वह शिक्षा का उपयोग ठीक से नहीं करता है, ऐसा ही कहा जाएगा ।

तत्व और व्यवहार का सामंजस्य बुद्धि, मन और शरीर की क्रियाओं का सामंजस्य है, ज्ञान, भावना और क्रिया का सामंजस्य है । ऐसे सामंजस्य से ही जगत का व्यवहार सम्यक्‌ रूप से चलता है । इसलिये तत्व और व्यवहार हमेशा साथ ही चलने चाहिये ।

व्यवहार हमेशा तत्व का अनुसरण करता है ।

तत्व अमूर्त है, संकल्पनात्मक है, अव्यक्त है । व्यवहार मूर्त है, प्रकटस्वरूप है, व्यक्त है इसलिये व्यवहार ही तत्व का अनुसरण करेगा, यह स्वाभाविक है । तत्व प्रथम होता है, व्यवहार तत्व को मूर्तस्वरूप देने के लिये ही होता है । अत: तत्व और व्यवहार एक दूसरे से भिन्न नहीं हैं । इतना ही नहीं तो व्यवहार तत्व के अनुसार ही होता है ।

आजकल तत्व को आदर्श माना जाता है और व्यवहार में आदर्श का पालन नहीं किया जा सकता है, ऐसा कई बार कहा जाता है । उदाहरण के लिये सत्य बोलना आदर्श है परन्तु व्यवहार में हमेशा सत्य बोला नहीं जाता, अनेक कारणों से असत्य बोलना ही पड़ता है। पर्यावरण की सुरक्षा करनी चाहिये यह तात्विक दृष्टि से मान्य है, परन्तु आज का जीवन ऐसा हो गया है कि प्लास्टिक का प्रयोग किए बिना चलता ही नहीं है । तात्विक दृष्टि से व्यवहार करना मनुष्य के लिये सम्भव नहीं है । मनुष्य दुर्बल प्राणी है इसलिये उससे प्रमाद हो ही जाता है, यह बात ठीक है, परन्तु उससे भी प्रतिष्ठा तो तत्व की ही होती है । तत्व आदर्श है और व्यवहार का निकष है । तत्व है, इसलिये ही व्यवहार ठीक है कि नहीं, यह नापा जाता है । किसी भी व्यवहार को तत्व के बिना, ठीक है कि नहीं, यह तय करने पर वह व्यक्तिसापेक्ष या घटना सापेक्ष हो जाता है और हमेशा बदलता रहता है । उसे निरपेक्ष बनाने के लिये भी किसी अमूर्त तत्व की ही अपेक्षा रहती है ।

तत्व सिद्धान्त है, व्यवहार उसका उदाहरण ।

सिद्धान्त वह होता है जो अनुसरण के लिये बनाया गया नियम है । उदाहरण के लिये किसी भौमितिक आकृति का क्षेत्रफल जानने के लिये सूत्र बनाया जाता है । वह अनेक आकृतियों का क्षेत्रफल जानने के बाद निष्कर्ष निकालकर उसके आधार पर बनाया जाता है । पानी हमेशा ऊपर से नीचे की ओर बहता है, इस तथ्य को जानकर पानी का प्रयोग करते समय व्यवहार करना होता है । प्राणियों का और पदार्थों का स्वभाव जानकर उनके साथ व्यवहार करना होता है । मनुष्यों का भी स्वभाव जानकर उनके साथ व्यवहार करना होता है । साथ ही स्थिति को देखकर आवश्यकताएँ निश्चित होती हैं । उनके अनुसार व्यवहार निश्चित होता है । इन व्यवहारों के लिये मार्गदर्शक सिद्धान्त बनाये जाते हैं । शास्त्र कहते हैं कि सृष्टि को बनाए रखने के और चलाने के नियम सृष्टि की उत्पत्ति के साथ ही उत्पन्न हुए हैं । इन नियमों से जो व्यवस्था बनी है वही धर्म है । धर्म के ये नियम ही सूत्र हैं, सिद्धान्त हैं । ये ही तत्व हैं । जगत में व्यवहार करते समय इन तत्वों को ध्यान में रखना अनिवार्य है । यदि ये नियम ध्यान में नहीं रखे तो सारी व्यवस्था अव्यवस्था में परिवर्तित हो जायेगी । ऐसी अव्यवस्था में कोई सुरक्षित नहीं रहेगा ।

फिर प्रश्न यह होता है कि धर्म के पालन में अर्थात्‌ तत्व के अनुसार व्यवहार करने में ही सुरक्षा है और सुरक्षा के परिणामस्वरूप निश्चितता और सुख है तो लोग तत्व के अनुसरण को ही व्यावहारिक क्यों नहीं मानते । लोग तत्व और व्यवहार को एक दूसरे से अलग क्यों रखना चाहते हैं ? इसका कारण यह है कि तत्व के अनुसार व्यवहार करना अनेक लोगों को कठिन लगता है । इसका प्रमुख कारण यह है कि मन की शिक्षा के अभाव में लोगों के मन दुर्बल होते हैं । दुर्बल मन में स्वार्थ, लोभ, मोह आदि विकार प्रबल होते हैं । बुद्धि का विकास ठीक नहीं होने के कारण वह विशाल नहीं होती है और सबके सुख में ही हमारा हित है ऐसा समझ में नहीं आता | अत: दूसरों को न मिले और स्वयं को मिले इसकी ही चिन्ता सबको लगी रहती है । मनोवृत्तियाँ भिन्न भिन्न रहती हैं । ऐसी मनोवृत्तियों का वर्णन कवि भर्तृहरि ने इस प्रकार किया है[2]:

एते सत्पुरुषा परार्थघटका स्वार्थान्परित्यज्य ये ।

सामान्यास्तु परार्थमुद्यमभूता स्वार्थाविरोधेन ये ।

ते$मी मानुषराक्षसा परहितम्‌ स्वार्थाय निष्नन्ति ये ।

ये निध्ननन्ति निरर्थकम्‌ परहितम्‌ ते के न जानीमहे ।।

अर्थात्‌

एक तो सज्जन लोग होते हैं जो अपना स्वार्थ छोड़कर औरों का हित करते हैं । दूसरे सामान्य लोग होते हैं जो अपना स्वार्थ न छोड़ते हुए दूसरों का हित करते हैं । मनुष्यों का और एक प्रकार ऐसा है जो अपने स्वार्थ के लिये दूसरों के हित का नाश करते हैं । परन्तु जो किसी भी कारण के बिना दूसरों के हित का नाश करते हैं, ऐसे लोगों को क्या कहा जाय यह हम नहीं जानते ।

तात्पर्य यह है कि जगत‌ में तरह तरह के लोग होते हैं, उनकी नीयत भिन्न-भिन्न प्रकार की होती है, उनके स्वार्थ भिन्न-भिन्न होते हैं इसलिये उनका व्यवहार भी भिन्न-भिन्न प्रकार का होता है ।

अनेक बार ऐसा होता है कि तत्व के अनुसार व्यवहार कैसा होगा, यह ध्यान में ही नहीं आता है । यह नीयत की नहीं अपितु बुद्धि की मर्यादा है । उदाहरण के लिये मन, कर्म, वचन से किसी को दुःख नहीं पहुँचाना अहिंसा है, यह अहिंसा का तत्व है परन्तु दुर्बल को परेशान करने वाले को दण्ड देना हिंसा नहीं है । दुःख तो उसे भी होता है, परन्तु उसका दुःख निर्दोष के दुःख के जैसा नहीं है । यह विवेक मनुष्यों को बहुत दुर्लभ होता है, इसलिये लोग तत्व के अनुसार व्यवहार नहीं करते हैं ।

आसक्ति के वशीभूत होकर मनुष्य पक्षपातपूर्ण व्यवहार करता है और तत्व को छोड़ देता है । आसक्ति पदार्थ की, व्यक्ति की, प्रतिष्ठा की, मान की होती है । कभी भय और लालच के वश होकर भी वह तत्व को छोड़कर व्यवहार करता है । इस प्रकार अनेक कारणों से मनुष्य जगत में तत्व और व्यवहार एक दूसरे से भिन्न हो जाते हैं ।

व्यापक सन्दर्भ में जो करना चाहिये वह तत्व होता है, जो किया जाता है वह व्यवहार होता है ।

तत्व धर्म का अंश है इसलिये वह करणीय अथवा आचरणीय है । यहाँ व्यापक सन्दर्भ में कहा है वह ध्यान में लेने योग्य है। सीमित सन्दर्भ में जो ठीक लगता है, वह व्यापक सन्दर्भ में ठीक न भी हो यह सम्भव है । उदाहरण के लिये व्यक्ति अकेला हो तो एक वस्त्र पहनकर रह सकता है या जोर-जोर से गा सकता है, उसके व्यवहार में कोई अनौचित्य नहीं है । परन्तु सभा में वस्त्रों की न्यूनता ठीक नहीं है, ज़ोर से बोलना भी ठीक नहीं । एक कुटुंब यदि प्लास्टिक का प्रयोग करे तो उसे सुविधा लगती है और कुछ भी अनुचित नहीं लगता परन्तु सार्वजनिक जीवन का विचार करें तो पर्यावरण के नाश के कारण वह अनुचित है । स्वादिष्ट भोजन की ही इच्छा रखने वाले उसे खाकर सुख का अनुभव करते हैं, परन्तु वह आरोग्य बिगाड़ता है तब दुःख होता है । चीनी माल बेचने में तो फायदा लगता है और सस्ता होता है, इसलिये खरीदते समय भी अच्छा लगता है परन्तु स्वयं की और देश की आर्थिक हानि को देखते हुए वह खरीदना ठीक नहीं होता ।

अत: अनेक बार व्यक्ति जो करना चाहिये वह नहीं करता । उसका व्यवहार तत्व को छोड़कर ही होता है। जब लोग तत्व की उपेक्षा करते हैं तब संकट निर्माण होते हैं । इसलिये व्यापक सन्दर्भ में स्थिति का आकलन कर ही व्यवहार करना चाहिये ।

तत्व को छोडकर व्यवहार करने के उदाहरण

हमने सामान्य सन्दर्भ का विचार किया । अब जरा शिक्षा के सन्दर्भ में तत्त और व्यवहार का विचार करें । अनेक बार अनेक अज्ञानजनित कारणों से हम तत्व को छोड़कर व्यवहार

करते हैं । कुछ उदाहरण देखें:

  • बच्चों को पाँच वर्ष से कम आयु में विद्यालय नहीं भेजना चाहिये, यह विश्वभर के शिक्षाशास्त्रियों का परामर्श है परन्तु हम उसे मानते नहीं हैं और जल्दी से जल्दी विद्यालय भेज देते हैं ।
  • भारत में अँग्रेजी भाषा शिक्षा का माध्यम होना उचित नहीं है यह तत्व है, हम उससे विपरीत व्यवहार करते ही हैं।
  • विद्यालय के साथ-साथ घर में भी शिक्षा होती है, यह तत्व है परन्तु हम विद्यालय की शिक्षा को ही शिक्षा मानते हैं ।
  • बिना चरित्र के व्यक्ति को शिक्षित नहीं मानना चाहिये, यह तत्व है परन्तु हम उच्च शिक्षा के साथ भी चरित्र की परवाह करते नहीं हैं ।
  • भारत में ज्ञान की वाहक शिक्षा को पवित्र माना जाता है और वह अन्य भौतिक पदार्थों की तरह बिकाऊ नहीं है, यह तत्व है परन्तु हमने शिक्षा को भी उद्योग बना
  • दिया है और शिक्षा का बाजारीकरण कर दिया है ।
  • शिक्षा का उद्देश्य मुक्ति है, यह तत्व है परन्तु हमने शिक्षा का लक्ष्य अथर्जिन है, ऐसा मानकर सारी व्यवस्था की है ।

ऐसे तो अनेक उदाहरण दिये जा सकते हैं जो दर्शाते हैं कि व्यवहार तत्व से कितना दूर चला गया है । शिक्षा को ही यह सब ठीक करना चाहिये, यह स्वाभाविक तथ्य है । इसलिये शिक्षा के सम्बन्ध में तत्वचिन्तन जितना आवश्यक है उतना ही व्यवहारचिन्तन भी है। तत्वचिन्तन कदाचित सरल है परन्तु व्यवहारचिन्तन नहीं क्योंकि व्यवहार बहुत जटिल होता है, तत्व सरल । तत्व बुद्धि से समझा जाता भारतीय शिक्षा के व्यावहारिक आयाम है इसलिये सरल है । व्यवहार मन, बुद्धि और शरीर से होता है इसलिये देशकाल परिस्थिति सापेक्ष होता है और हर समय नए से विचार कर निश्चित करना होता है ।

  1. भारतीय शिक्षा के व्यावहारिक आयाम (भारतीय शिक्षा ग्रन्थमाला ३), प्रकाशक: पुनरुत्थान प्रकाशन सेवा ट्रस्ट, लेखन एवं संपादन: श्रीमती इंदुमती काटदरे
  2. नीतिशतक-75, भर्तृहरि