Difference between revisions of "Vanaparva Adhyaya 9 (वनपर्वणि अध्यायः ९)"
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धृतराष्ट्र उवाच | धृतराष्ट्र उवाच | ||
− | भगवन्नाहमप्येतद्रोचये द्यूतसम्भवम्। | + | भगवन्नाहमप्येतद्रोचये द्यूतसम्भवम्। |
+ | मन्ये तद्विधिनाऽऽकृष्य कारितोऽस्मीति वै मुने॥ 3-9-1 | ||
+ | नैतद्रोचयते भीष्मो न द्रोणो विदुरो न च। | ||
+ | गान्धारी नेच्छति द्यूतं तत्र मोहात्प्रवर्तितम्॥ 3-9-2 | ||
+ | [[:Category:Gambling|''Gambling'']] [[:Category:द्युत् क्रिडा|''द्युत् क्रिडा'']] | ||
− | + | परित्यक्तुं न शक्नोमि दुर्योधनमचेतनम्। | |
− | + | पुत्रस्नेहेन भगवञ्जानन्नपि प्रियव्रत॥ 3-9-3 | |
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− | परित्यक्तुं न शक्नोमि दुर्योधनमचेतनम्। | ||
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− | पुत्रस्नेहेन भगवञ्जानन्नपि प्रियव्रत॥ 3-9-3 | ||
व्यास उवाच | व्यास उवाच | ||
− | वैचित्रवीर्य नृपते सत्यमाह यथा भवान्। | + | वैचित्रवीर्य नृपते सत्यमाह यथा भवान्। |
− | + | दृढं विद्मः परं पुत्रं परं पुत्रान्न विद्यते॥ 3-9-4 | |
− | दृढं विद्मः परं पुत्रं परं पुत्रान्न विद्यते॥ 3-9-4 | + | इन्द्रोऽप्यश्रुनिपातेन सुरभ्या प्रतिबोधितः। |
− | + | अन्यैः समृद्धैरप्यर्थैर्न सुतान्मन्यते परम्॥ 3-9-5 | |
− | इन्द्रोऽप्यश्रुनिपातेन सुरभ्या प्रतिबोधितः। | + | [[:Category:पुत्र स्नेह|''पुत्र स्नेह'']] |
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− | विनिपातो न वः कश्चिद्दृश्यते त्रिदशाधिप। | + | अत्र ते कीर्तयिष्यामि महदाख्यानमुत्तमम्। |
+ | सुरभ्याश्चैव संवादमिन्द्रस्य च विशाम्पते॥ 3-9-6 | ||
+ | त्रिविष्टपगता राजन्सुरभी प्रारुदत्किल। | ||
+ | गवां माता पुरा तात तामिन्द्रोऽन्वकृपायत॥ 3-9-7 | ||
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+ | इन्द्र उवाच | ||
+ | किमिदं रोदिषि शुभे कच्चित्क्षेमं दिवौकसाम्। | ||
+ | मानुषेष्वथ नगे[वा गो]षु नैतदल्पं भविष्यति॥ 3-9-8 | ||
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+ | सुरभिरुवाच | ||
+ | विनिपातो न वः कश्चिद्दृश्यते त्रिदशाधिप। | ||
+ | अहं तु पुत्रं शोचामि तेन रोदिमि कौशिक॥ 3-9-9 | ||
+ | पश्यैनं कर्षकं क्षुद्रं दुर्बलं मम पुत्रकम्। | ||
+ | प्रतोदेनाभिनिघ्नन्तं लाङ्गलेन च पीडितम्॥ 3-9-10 | ||
+ | निषीदमानं सोत्कण्ठं वध्यमानं सुराधिप। | ||
+ | कृपाविष्टास्मि देवेन्द्र मनश्चोद्विजते मम। | ||
+ | एकस्तत्र बलोपेतो धुरमुद्वहतेऽधिकाम्॥ 3-9-11 | ||
+ | अपरोऽप्यबलप्राणः कृशो धमनिसंततः। | ||
+ | कृच्छ्रादुद्वहते भारं तं वै शोचामि वासव॥ 3-9-12 | ||
+ | वध्यमानः प्रतोदेन तुद्यमानः पुनः पुनः। | ||
+ | नैव शक्नोति तं भारमुद्वोढुं पश्य वासव॥ 3-9-13 | ||
+ | ततोऽहं तस्य शोकार्ता विरौमि भृशदुःखिता। | ||
+ | अश्रूण्यावर्तयन्ती च नेत्राभ्यां करुणायती॥ 3-9-14 | ||
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+ | शक्र उवाच | ||
+ | तव पुत्रसहस्रेषु पीड्यमानेषु शोभने। | ||
+ | किं कृपायितवत्यत्र पुत्र एकत्र हन्यति॥ 3-9-15 | ||
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+ | सुरभिरुवाच | ||
+ | यदि पुत्रसहस्राणि सर्वत्र समतैव मे। | ||
+ | दीनस्य तु सतः शक्र पुत्रस्याभ्यधिका कृपा॥ 3-9-16 | ||
+ | [[:Category:इंद्र सुरभि संवाद|''इंद्र सुरभि संवाद'']] [[:Category:पुत्र प्रेम |''पुत्र प्रेम '']] | ||
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व्यास उवाच | व्यास उवाच | ||
− | तदिन्द्रः सुरभीवाक्यं निशम्य भृशविस्मितः। | + | तदिन्द्रः सुरभीवाक्यं निशम्य भृशविस्मितः। |
− | + | जीवितेनापि कौरव्य मेनेऽभ्यधिकमात्मजम्॥ 3-9-17 | |
− | जीवितेनापि कौरव्य मेनेऽभ्यधिकमात्मजम्॥ 3-9-17 | + | प्रववर्ष च तत्रैव सहसा तोयमुल्बणम्। |
− | + | कर्षकस्याचरन्विघ्नं भगवान्पाकशासनः॥ 3-9-18 | |
− | प्रववर्ष च तत्रैव सहसा तोयमुल्बणम्। | + | तद्यथा सुरभिः प्राह समवेतास्तु ते तथा। |
− | + | सुतेषु राजन्सर्वेषु हीनेष्वभ्यधिका कृपा॥ 3-9-19 | |
− | कर्षकस्याचरन्विघ्नं भगवान्पाकशासनः॥ 3-9-18 | + | यादृशो मे सुतः पाण्डुस्तादृशो मेऽसि पुत्रक। |
− | + | विदुरश्च महाप्राज्ञः स्नेहादेतद्ब्रवीम्यहम्॥ 3-9-20 | |
− | तद्यथा सुरभिः प्राह समवेतास्तु ते तथा। | + | [[:Category:पुत्र प्रेम |''पुत्र प्रेम '']] |
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− | सुतेषु राजन्सर्वेषु हीनेष्वभ्यधिका कृपा॥ 3-9-19 | ||
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− | यादृशो मे सुतः पाण्डुस्तादृशो मेऽसि पुत्रक। | ||
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+ | चिराय तव पुत्राणां शतमेकश्च भारत। | ||
+ | पाण्डोः पञ्चैव लक्ष्यन्ते तेऽपि मन्दाः सुदुःखिताः॥ 3-9-21 | ||
+ | कथं जीवेयुरत्यन्तं कथं वर्धेयुरित्यपि। | ||
+ | इति दीनेषु पार्थेषु मनो मे परितप्यते॥ 3-9-22 | ||
+ | [[:Category:Pandavas |''Pandavas '']] | ||
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यदि पार्थिव कौरव्याञ्जीवमानानिहेच्छसि। | यदि पार्थिव कौरव्याञ्जीवमानानिहेच्छसि। | ||
Latest revision as of 20:25, 22 August 2019
धृतराष्ट्र उवाच
भगवन्नाहमप्येतद्रोचये द्यूतसम्भवम्। मन्ये तद्विधिनाऽऽकृष्य कारितोऽस्मीति वै मुने॥ 3-9-1 नैतद्रोचयते भीष्मो न द्रोणो विदुरो न च। गान्धारी नेच्छति द्यूतं तत्र मोहात्प्रवर्तितम्॥ 3-9-2 Gambling द्युत् क्रिडा
परित्यक्तुं न शक्नोमि दुर्योधनमचेतनम्। पुत्रस्नेहेन भगवञ्जानन्नपि प्रियव्रत॥ 3-9-3 Duryodhana पुत्र स्नेह
व्यास उवाच
वैचित्रवीर्य नृपते सत्यमाह यथा भवान्। दृढं विद्मः परं पुत्रं परं पुत्रान्न विद्यते॥ 3-9-4 इन्द्रोऽप्यश्रुनिपातेन सुरभ्या प्रतिबोधितः। अन्यैः समृद्धैरप्यर्थैर्न सुतान्मन्यते परम्॥ 3-9-5 पुत्र स्नेह
अत्र ते कीर्तयिष्यामि महदाख्यानमुत्तमम्। सुरभ्याश्चैव संवादमिन्द्रस्य च विशाम्पते॥ 3-9-6 त्रिविष्टपगता राजन्सुरभी प्रारुदत्किल। गवां माता पुरा तात तामिन्द्रोऽन्वकृपायत॥ 3-9-7 इन्द्र उवाच किमिदं रोदिषि शुभे कच्चित्क्षेमं दिवौकसाम्। मानुषेष्वथ नगे[वा गो]षु नैतदल्पं भविष्यति॥ 3-9-8 सुरभिरुवाच विनिपातो न वः कश्चिद्दृश्यते त्रिदशाधिप। अहं तु पुत्रं शोचामि तेन रोदिमि कौशिक॥ 3-9-9 पश्यैनं कर्षकं क्षुद्रं दुर्बलं मम पुत्रकम्। प्रतोदेनाभिनिघ्नन्तं लाङ्गलेन च पीडितम्॥ 3-9-10 निषीदमानं सोत्कण्ठं वध्यमानं सुराधिप। कृपाविष्टास्मि देवेन्द्र मनश्चोद्विजते मम। एकस्तत्र बलोपेतो धुरमुद्वहतेऽधिकाम्॥ 3-9-11 अपरोऽप्यबलप्राणः कृशो धमनिसंततः। कृच्छ्रादुद्वहते भारं तं वै शोचामि वासव॥ 3-9-12 वध्यमानः प्रतोदेन तुद्यमानः पुनः पुनः। नैव शक्नोति तं भारमुद्वोढुं पश्य वासव॥ 3-9-13 ततोऽहं तस्य शोकार्ता विरौमि भृशदुःखिता। अश्रूण्यावर्तयन्ती च नेत्राभ्यां करुणायती॥ 3-9-14 शक्र उवाच तव पुत्रसहस्रेषु पीड्यमानेषु शोभने। किं कृपायितवत्यत्र पुत्र एकत्र हन्यति॥ 3-9-15 सुरभिरुवाच यदि पुत्रसहस्राणि सर्वत्र समतैव मे। दीनस्य तु सतः शक्र पुत्रस्याभ्यधिका कृपा॥ 3-9-16 इंद्र सुरभि संवाद पुत्र प्रेम
व्यास उवाच
तदिन्द्रः सुरभीवाक्यं निशम्य भृशविस्मितः। जीवितेनापि कौरव्य मेनेऽभ्यधिकमात्मजम्॥ 3-9-17 प्रववर्ष च तत्रैव सहसा तोयमुल्बणम्। कर्षकस्याचरन्विघ्नं भगवान्पाकशासनः॥ 3-9-18 तद्यथा सुरभिः प्राह समवेतास्तु ते तथा। सुतेषु राजन्सर्वेषु हीनेष्वभ्यधिका कृपा॥ 3-9-19 यादृशो मे सुतः पाण्डुस्तादृशो मेऽसि पुत्रक। विदुरश्च महाप्राज्ञः स्नेहादेतद्ब्रवीम्यहम्॥ 3-9-20 पुत्र प्रेम
चिराय तव पुत्राणां शतमेकश्च भारत। पाण्डोः पञ्चैव लक्ष्यन्ते तेऽपि मन्दाः सुदुःखिताः॥ 3-9-21 कथं जीवेयुरत्यन्तं कथं वर्धेयुरित्यपि। इति दीनेषु पार्थेषु मनो मे परितप्यते॥ 3-9-22 Pandavas
यदि पार्थिव कौरव्याञ्जीवमानानिहेच्छसि।
दुर्योधनस्तव सुतः शमं गच्छतु पाण्डवैः॥ 3-9-23
इति श्रीमहाभारते वनपर्वणि अरण्यपर्वणि सुरभ्युपाख्याने नवमोऽध्यायः॥ 9 ॥