Difference between revisions of "Vanaparva Adhyaya 8 (वनपर्वणि अध्यायः ८)"
Jump to navigation
Jump to search
(Added shlokas of vanaparva adhyaya 8) |
(Added tags) |
||
Line 1: | Line 1: | ||
− | + | व्यास उवाच | |
− | वक्ष्यामि त्वां कौरवाणां सर्वेषां हितमुत्तमम्॥ 3-8-1 | + | धृतराष्ट्र महाप्राज्ञ निबोध वचनं मम। |
+ | वक्ष्यामि त्वां कौरवाणां सर्वेषां हितमुत्तमम्॥ 3-8-1 | ||
+ | न मे प्रियं महाबाहो यद्गताः पाण्डवा वनम्। | ||
+ | निकृत्या निकृताश्चैव दुर्योधनपुरोगमैः॥ 3-8-2 | ||
+ | ते स्मरन्तः परिक्लेशान्वर्षे पूर्णे त्रयोदशे। | ||
+ | विमोक्ष्यन्ति विषं क्रुद्धाः कौरवेयेषु भारत॥ 3-8-3 | ||
+ | [[:Category:Maharishi Veda Vyasa advises Dhrtarashatra|''Maharishi Veda Vyasa advises Dhrtarashatra'']] | ||
− | + | तदयं किं नु पापात्मा तव पुत्र सुमन्दधीः। | |
+ | पाण्डवान्नित्यसंक्रुद्धो राज्यहेतोर्जिघांसति॥ 3-8-4 | ||
+ | वार्यतां साध्वयं मूढः शमं गच्छतु ते सुतः। | ||
+ | वनस्थांस्तानयं हन्तुमिच्छन्प्राणान्विमोक्ष्यति॥ 3-8-5 | ||
+ | [[:Category:Duryodhana|''Duryodhana'']] | ||
− | + | यथा हि विदुरः प्राज्ञो यथा भीष्मो यथा वयम्। | |
+ | यथा कृपश्च द्रोणश्च तथा साधुर्भवानपि॥ 3-8-6 | ||
+ | [[:Category:Saintly people|''Saintly people'']] | ||
+ | |||
+ | विग्रहो हि महाप्राज्ञ स्वजनेन विगर्हितः। | ||
+ | अधर्म्यमयशस्यं च मा राजन्प्रतिपद्यताम्॥ 3-8-7 | ||
+ | समीक्षा यादृशी ह्यस्य पाण्डवान्प्रति भारत। | ||
+ | उपेक्ष्यमाणा सा राजन्महान्तमनयं स्पृशेत्॥ 3-8-8 | ||
+ | [[:Category:Conflict|''Conflict'']] | ||
+ | |||
+ | अथवायं सुमन्दात्मा वनं गच्छतु ते सुतः। | ||
+ | पाण्डवैः सहितो राजन्नेह एवासहायवान्॥ 3-8-9 | ||
+ | ततः संसर्गजः स्नेहः पुत्रस्य तव पाण्डवैः। | ||
+ | यदि स्यात्कृतकार्योऽद्य भवेस्त्वं मनुजेश्वर॥ 3-8-10 | ||
+ | [[:Category:Association|''Association'']] | ||
− | + | अथवा जायमानस्य यच्छीलमनुजायते। | |
− | + | श्रूयते तन्महाराज नामृतस्यापसर्पति॥ 3-8-11 | |
− | + | कथं वा मन्यते भीष्मो द्रोणोऽथ विदुरोऽपि वा। | |
− | + | भवान्वात्र क्षमं कार्यं पुरा वोऽर्थोऽभिवर्धते॥ 3-8-12 | |
− | + | [[:Category:Svabhava at birth|''Svabhava at birth'']] | |
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | अथवा जायमानस्य यच्छीलमनुजायते। | ||
− | |||
− | श्रूयते तन्महाराज नामृतस्यापसर्पति॥ 3-8-11 | ||
− | |||
− | कथं वा मन्यते भीष्मो द्रोणोऽथ विदुरोऽपि वा। | ||
− | |||
− | भवान्वात्र क्षमं कार्यं पुरा वोऽर्थोऽभिवर्धते॥ 3-8-12 | ||
इति श्रीमहाभारते वनपर्वणि अरण्यपर्वणि व्यासवाक्ये अष्टमोऽध्यायः॥ 8 ॥ | इति श्रीमहाभारते वनपर्वणि अरण्यपर्वणि व्यासवाक्ये अष्टमोऽध्यायः॥ 8 ॥ |
Latest revision as of 08:02, 13 August 2019
व्यास उवाच
धृतराष्ट्र महाप्राज्ञ निबोध वचनं मम। वक्ष्यामि त्वां कौरवाणां सर्वेषां हितमुत्तमम्॥ 3-8-1 न मे प्रियं महाबाहो यद्गताः पाण्डवा वनम्। निकृत्या निकृताश्चैव दुर्योधनपुरोगमैः॥ 3-8-2 ते स्मरन्तः परिक्लेशान्वर्षे पूर्णे त्रयोदशे। विमोक्ष्यन्ति विषं क्रुद्धाः कौरवेयेषु भारत॥ 3-8-3 Maharishi Veda Vyasa advises Dhrtarashatra
तदयं किं नु पापात्मा तव पुत्र सुमन्दधीः। पाण्डवान्नित्यसंक्रुद्धो राज्यहेतोर्जिघांसति॥ 3-8-4 वार्यतां साध्वयं मूढः शमं गच्छतु ते सुतः। वनस्थांस्तानयं हन्तुमिच्छन्प्राणान्विमोक्ष्यति॥ 3-8-5 Duryodhana
यथा हि विदुरः प्राज्ञो यथा भीष्मो यथा वयम्। यथा कृपश्च द्रोणश्च तथा साधुर्भवानपि॥ 3-8-6 Saintly people विग्रहो हि महाप्राज्ञ स्वजनेन विगर्हितः। अधर्म्यमयशस्यं च मा राजन्प्रतिपद्यताम्॥ 3-8-7 समीक्षा यादृशी ह्यस्य पाण्डवान्प्रति भारत। उपेक्ष्यमाणा सा राजन्महान्तमनयं स्पृशेत्॥ 3-8-8 Conflict अथवायं सुमन्दात्मा वनं गच्छतु ते सुतः। पाण्डवैः सहितो राजन्नेह एवासहायवान्॥ 3-8-9 ततः संसर्गजः स्नेहः पुत्रस्य तव पाण्डवैः। यदि स्यात्कृतकार्योऽद्य भवेस्त्वं मनुजेश्वर॥ 3-8-10 Association
अथवा जायमानस्य यच्छीलमनुजायते। श्रूयते तन्महाराज नामृतस्यापसर्पति॥ 3-8-11 कथं वा मन्यते भीष्मो द्रोणोऽथ विदुरोऽपि वा। भवान्वात्र क्षमं कार्यं पुरा वोऽर्थोऽभिवर्धते॥ 3-8-12 Svabhava at birth
इति श्रीमहाभारते वनपर्वणि अरण्यपर्वणि व्यासवाक्ये अष्टमोऽध्यायः॥ 8 ॥