Difference between revisions of "Adiparva Adhyaya 130 (आदिपर्वणि अध्यायः १३०)"
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− | अब्रवीत्पार्थिवं राजन्सखायं विद्धि मामिह॥ 1-130-1 | + | वैशम्पायन उवाच |
− | + | ततो द्रुपदमासाद्य भारद्वाजः प्रतापवान्। | |
− | इत्येवमुक्तः सख्या स प्रीतिपूर्वं जनेश्वरः। | + | अब्रवीत्पार्थिवं राजन्सखायं विद्धि मामिह॥ 1-130-1 |
− | + | इत्येवमुक्तः सख्या स प्रीतिपूर्वं जनेश्वरः। | |
− | भारद्वाजेन पाञ्चालो नामृष्यत वचोऽस्य तत्॥ 1-130-2 | + | भारद्वाजेन पाञ्चालो नामृष्यत वचोऽस्य तत्॥ 1-130-2 |
− | + | सक्रोधामर्षजिह्यभ्रूः कषायीकृतलोचनः। | |
− | सक्रोधामर्षजिह्यभ्रूः कषायीकृतलोचनः। | + | नामृष्यत वचस्सख्युः प्रीतिपूर्वमुदाहृतम्। |
− | + | ऐश्वर्यमदसम्पन्नो द्रोणं राजाब्रवीदिदम्॥ 1-130-3 | |
− | नामृष्यत वचस्सख्युः प्रीतिपूर्वमुदाहृतम्। | + | द्रुपद उवाच |
− | + | अकृतेयं तव प्रज्ञा ब्रह्मन्नातिसमञ्जसी। | |
− | ऐश्वर्यमदसम्पन्नो द्रोणं राजाब्रवीदिदम्॥ 1-130-3 | + | अकृतेयं तव प्रज्ञा ब्रह्मन्नातिसमञ्जसी[सा]। |
− | + | यन्मां ब्रवीषि प्रसभं सखा तेऽहमिति द्विज॥ 1-130-4 | |
− | द्रुपद उवाच | + | न हि राज्ञामुदीर्णानामेवम्भूतैर्नरैः क्वचित्। |
− | + | सख्यं भवति मन्दात्मन्श्रिया हीनैर्धनच्युतैः॥ 1-130-5 | |
− | अकृतेयं तव प्रज्ञा ब्रह्मन्नातिसमञ्जसी। | + | सौहृदान्यपि जीर्यन्ते कालेन परिजीर्यतः। |
− | + | सौहृदं मे त्वया ह्यासीत्पूर्वं सामर्थ्यबन्धनम्॥ 1-130-6 | |
− | अकृतेयं तव प्रज्ञा ब्रह्मन्नातिसमञ्जसी[सा]। | + | न सख्यमजरं लोके हृदि तिष्ठति कस्यचित्। |
− | + | कालो ह्येनं विहरति क्रोधो वैनं हरत्युत॥ 1-130-7 | |
− | यन्मां ब्रवीषि प्रसभं सखा तेऽहमिति द्विज॥ 1-130-4 | + | मैवं जीर्णमुपास्स्व त्वं सख्यं भवत्वपाकृधि। |
− | + | आसीत्सख्यं द्विजश्रेष्ठ त्वया मेऽर्थनिबन्धनम्॥ 1-130-8 | |
− | न हि राज्ञामुदीर्णानामेवम्भूतैर्नरैः क्वचित्। | + | न दरिद्रो वसुमतो नाविद्वान्विदुषः सखा। |
− | + | न शूरस्य सखा क्लीबः सखिपूर्वं किमिष्यते॥ 1-130-9 | |
− | सख्यं भवति मन्दात्मन्श्रिया हीनैर्धनच्युतैः॥ 1-130-5 | + | ययोरेव समं वित्तं ययोरेव समं श्रुतम्। |
− | + | तयोर्विवाहः सख्यं च न तु पुष्टविपुष्टयोः॥ 1-130-10 | |
− | सौहृदान्यपि जीर्यन्ते कालेन परिजीर्यतः। | + | नाश्रोत्रियः श्रोत्रियस्य नारथी रथिनः सखा। |
− | + | नाराजा पार्थिवस्यापि सखिपूर्वं किमिष्यते॥ 1-130-11 | |
− | सौहृदं मे त्वया ह्यासीत्पूर्वं सामर्थ्यबन्धनम्॥ 1-130-6 | + | त्वद्विधैर्मद्विधानां हि प्रहीणार्थैर्न जातु चित्। |
− | + | सख्यं भवति मन्दात्मन्सखिपूर्वं किमिष्यते॥ | |
− | न सख्यमजरं लोके हृदि तिष्ठति कस्यचित्। | + | वैशम्पायन उवाच |
− | + | द्रुपदेनैवमुक्तस्तु भारद्वाजः प्रतापवान्। | |
− | कालो ह्येनं विहरति क्रोधो वैनं हरत्युत॥ 1-130-7 | + | मुहूर्तं चिन्तयित्वा तु मन्युनाभिपरिप्लुतम्[तः]॥ 1-130-12 |
− | + | स विनिश्चित्य मनसा पाञ्चाल्यं[लं] प्रति बुद्धिमान्। | |
− | मैवं जीर्णमुपास्स्व त्वं सख्यं भवत्वपाकृधि। | + | शिष्यैः परिवृतश्श्रीमान्पुत्रेणानुगतस्तदा। |
− | + | जगाम कुरुमुख्यानां नगरं नागसाह्वयम्॥ 1-130-13 | |
− | आसीत्सख्यं द्विजश्रेष्ठ त्वया मेऽर्थनिबन्धनम्॥ 1-130-8 | + | स नागपुरमागम्य गौतमस्य निवेशने। |
− | + | भारद्वाजोऽवसत्तत्र प्रच्छन्नं द्विजसत्तमः॥ 1-130-14 | |
− | न दरिद्रो वसुमतो नाविद्वान्विदुषः सखा। | + | स्यालस्यैव गृहं द्रोणसः सदारः पर्युपस्थितः॥ |
− | + | अश्वत्थाम्ना च पुत्रेण महाबलवता सह। | |
− | न शूरस्य सखा क्लीबः सखिपूर्वं किमिष्यते॥ 1-130-9 | + | अवसत्तत्र राजेन्द्र गौतमस्य निवेशने॥ |
− | + | ततोऽस्य तनुजः पार्थान्कृपस्यानन्तरं प्रभुः। | |
− | ययोरेव समं वित्तं ययोरेव समं श्रुतम्। | + | अस्त्राणि शिक्षयामास नाबुध्यन्त च तं जनाः॥ 1-130-15 |
− | + | एवं स तत्र गूढात्मा कञ्चित्कालमुवास ह। | |
− | तयोर्विवाहः सख्यं च न तु पुष्टविपुष्टयोः॥ 1-130-10 | + | कुमारास्त्वथ निष्क्रम्य समेता गजसाह्वयात्॥ 1-130-16 |
− | + | क्रीडन्तो वीटया तत्र वीराः पर्यचरन्मुदा। | |
− | नाश्रोत्रियः श्रोत्रियस्य नारथी रथिनः सखा। | + | पपात कूपे सा वीटा तेषां वै क्रीडतां तदा॥ 1-130-17 |
− | + | ततस्ते यत्नमातिष्ठन्वीटामुद्धर्तुमादृताः। | |
− | नाराजा पार्थिवस्यापि सखिपूर्वं किमिष्यते॥ 1-130-11 | + | न च ते प्रत्यपद्यन्त कर्म वीटोपलब्धये॥ 1-130-18 |
− | + | ततोऽन्योन्यमवैक्षन्त वीट[व्रीड]यावनताननाः। | |
− | त्वद्विधैर्मद्विधानां हि प्रहीणार्थैर्न जातु चित्। | + | तस्या योगमविन्दन्तो भृशं चोत्कण्ठिताभवन्॥ 1-130-19 |
− | + | तेऽपश्यन्ब्राह्मणं श्याममापन्नं पलितं कृशम्। | |
− | सख्यं भवति मन्दात्मन्सखिपूर्वं किमिष्यते॥ | + | कृत्यवन्तमदूरस्थमग्निहोत्रपुरस्कृतम्॥ 1-130-20 |
− | + | ते तं दृष्ट्वा महात्मानमुपगम्य कुमारकाः। | |
− | वैशम्पायन उवाच | + | भग्नोत्साहक्रियात्मानो ब्राह्मणं पर्यवारयन्॥ 1-130-21 |
− | + | अथ द्रोणः कुमारांस्तान्दृष्ट्वा कृत्यवतस्तदा। | |
− | द्रुपदेनैवमुक्तस्तु भारद्वाजः प्रतापवान्। | + | प्रहस्य मन्दं पैशल्यादभ्यभाषत वीर्यवान्॥ 1-130-22 |
− | + | अहो वो धिग्बलं क्षात्रं धिगेतां वः कृतास्त्रताम्। | |
− | मुहूर्तं चिन्तयित्वा तु मन्युनाभिपरिप्लुतम्[तः]॥ 1-130-12 | + | वैशंपायनः-- |
− | + | द्रोणस्समुदितान्दृष्ट्वा कुरून्वृत्तिपरीप्सया। | |
− | स विनिश्चित्य मनसा पाञ्चाल्यं[लं] प्रति बुद्धिमान्। | + | आजगाम महातेजा विप्रो नागपुरं प्रति॥ |
− | + | स तथोक्तस्तथा तेन सदारः प्राद्रवत्कुरून्। | |
− | शिष्यैः परिवृतश्श्रीमान्पुत्रेणानुगतस्तदा। | + | तां प्रतिज्ञां प्रतिज्ञाय यां कर्ता न चिरादिव॥ |
− | + | ततः कुमारा निष्क्रम्य सहिता नागसाह्वयात्। | |
− | जगाम कुरुमुख्यानां नगरं नागसाह्वयम्॥ 1-130-13 | + | क्रीडया विनयाद्वीरास्तत्र्पर्यचरन्मुदा॥ |
− | + | तेषां सङ्क्रीडमानानामुदपानेऽङ्गुलीयकम्। | |
− | स नागपुरमागम्य गौतमस्य निवेशने। | + | पपात धर्मराजस्य वीटा तत्रैव चापतत्॥ |
− | + | तत्त्वम्बुना प्रतिच्छन्नं तारारूपमिवाम्बरे। | |
− | भारद्वाजोऽवसत्तत्र प्रच्छन्नं द्विजसत्तमः॥ 1-130-14 | + | दृष्ट्वा ते वै कुमाराश्च तं यत्रात्पर्यवारयन्॥ |
− | + | ते परस्परमैक्षन्त कुमारास्सहितास्तदा॥ | |
− | स्यालस्यैव गृहं द्रोणसः सदारः पर्युपस्थितः॥ | + | तस्य योगमविन्दन्तो भृशमुत्कण्ठिता भवन्॥ |
− | + | न किञ्चित्प्रत्यपद्यन्त कर्म वीटोपलब्धये॥ | |
− | अश्वत्थाम्ना च पुत्रेण महाबलवता सह। | + | तेऽपश्यन्ब्राह्मणं श्याममासत्रपलितं कृशम्। |
− | + | कृत्यवन्तस्समीपस्थमग्निहोत्रपुरस्कृतम्॥ | |
− | अवसत्तत्र राजेन्द्र गौतमस्य निवेशने॥ | + | स तान्कृत्यवतो दृष्ट्वा कुमारांस्तु विचेतसः। |
− | + | ब्राह्मणः प्रहसन्मन्दं कौशलेनाभ्यभाषत॥ | |
− | ततोऽस्य तनुजः पार्थान्कृपस्यानन्तरं प्रभुः। | + | अब्रवीद्धिग्बलं क्षात्रं धिक्चैषां वः कृतास्त्रताम्। |
− | + | भरतस्यान्वये जाता ये वीटां नाधिगच्छत॥ 1-130-23 | |
− | अस्त्राणि शिक्षयामास नाबुध्यन्त च तं जनाः॥ 1-130-15 | + | वीटां च मुद्रिकां चैव ह्यहमेतदपि द्वयम्। |
− | + | उद्धरेयमिषीकाभिर्भोजनं मे प्रदीयताम्॥ 1-130-24 | |
− | एवं स तत्र गूढात्मा कञ्चित्कालमुवास ह। | + | एवमुक्त्वा कुमारांस्तान्द्रोणः स्वाङ्गुलिवेष्टनम्। |
− | + | कूपे निरुदके तस्मिन्नपातयदरिन्दमः। | |
− | कुमारास्त्वथ निष्क्रम्य समेता गजसाह्वयात्॥ 1-130-16 | + | ततोऽब्रवीत्तदा द्रोणं कुन्तीपुत्रो युधिष्ठिरः॥ 1-130-25 |
− | + | युधिष्ठिर उवाच | |
− | क्रीडन्तो वीटया तत्र वीराः पर्यचरन्मुदा। | + | कृपस्यानुमते ब्रह्मन्भिक्षामाप्नुहि शाश्वतीम्। |
− | + | एवमुक्तः प्रत्युवाच प्रहस्य भरतानिदम्॥ 1-130-26 | |
− | पपात कूपे सा वीटा तेषां वै क्रीडतां तदा॥ 1-130-17 | + | द्रोण उवाच |
− | + | एषा मुष्टिरिषीकाणां मयास्त्रेणाभिमन्त्रिता। | |
− | ततस्ते यत्नमातिष्ठन्वीटामुद्धर्तुमादृताः। | + | अस्या वीर्यं निरीक्षध्वं यदन्यस्य न विद्यते॥ 1-130-27 |
− | + | भेत्स्यामीषीकया वीटां तामिषीकां तथान्यया। | |
− | न च ते प्रत्यपद्यन्त कर्म वीटोपलब्धये॥ 1-130-18 | + | तामन्यया समायोगे वीटाया ग्रहणं मम॥ 1-130-28 |
− | + | वैशम्पायन उवाच | |
− | ततोऽन्योन्यमवैक्षन्त वीट[व्रीड]यावनताननाः। | + | ततो यथोक्तं द्रोणेन तत्सर्वं कृतमञ्जसा। |
− | + | तदवेक्ष्य कुमारास्ते विस्मयोत्फुल्ललोचनाः। | |
− | तस्या योगमविन्दन्तो भृशं चोत्कण्ठिताभवन्॥ 1-130-19 | + | आश्चर्यमिदमत्यन्तमिति मत्वा वचोऽब्रुवन्॥ 1-130-29 |
− | + | कुमारा ऊचुः | |
− | तेऽपश्यन्ब्राह्मणं श्याममापन्नं पलितं कृशम्। | + | मुद्रिकामपि विप्रर्षे शीघ्रमेतां समुद्धर॥ 1-130-30 |
− | + | वैशम्पायन उवाच | |
− | कृत्यवन्तमदूरस्थमग्निहोत्रपुरस्कृतम्॥ 1-130-20 | + | ततः शरं समादाय धनुर्द्रोणो महायशाः। |
− | + | शरेण विद्ध्वा मुद्रां तामूर्ध्वमावाहयत्प्रभुः। | |
− | ते तं दृष्ट्वा महात्मानमुपगम्य कुमारकाः। | + | सशरं समुपादाय कूपादङ्गुलिवेष्टनम्॥ 1-130-31 |
− | + | ददो ततः कुमाराणां विस्मितानामविस्मितः। | |
− | भग्नोत्साहक्रियात्मानो ब्राह्मणं पर्यवारयन्॥ 1-130-21 | + | मुद्रिकामुद्धृतां दृष्ट्वा तमाहुस्ते कुमारकाः॥ 1-130-32 |
− | + | कुमारा ऊचुः | |
− | अथ द्रोणः कुमारांस्तान्दृष्ट्वा कृत्यवतस्तदा। | + | अभिवादयामहे ब्रह्मन्नैतदन्येषु विद्यते। |
− | + | कोऽसि कस्यासि जानीमो वयं किं करवामहे॥ 1-130-33 | |
− | प्रहस्य मन्दं पैशल्यादभ्यभाषत वीर्यवान्॥ 1-130-22 | + | वैशम्पायन उवाच |
− | + | एवमुक्तस्ततो द्रोणः प्रत्युवाच कुमारकान्। | |
− | अहो वो धिग्बलं क्षात्रं धिगेतां वः कृतास्त्रताम्। | + | द्रोण उवाच |
− | + | आचक्षध्वं च भीष्माय रूपेण च गुणैश्च माम्। | |
− | वैशंपायनः-- | + | स एव सुमहातेजाः साम्प्रतं प्रतिपत्स्यते॥ 1-130-35 |
− | + | वैशम्पायन उवाच | |
− | द्रोणस्समुदितान्दृष्ट्वा कुरून्वृत्तिपरीप्सया। | + | तथेत्युक्त्वा च गत्वा च भीष्ममूचुः कुमारकाः। |
− | + | ब्राह्मणस्य वचस्तथ्यं तच्च कर्म तथाविधम्। | |
− | आजगाम महातेजा विप्रो नागपुरं प्रति॥ | + | भीष्मः श्रुत्वा कुमाराणां द्रोणं तं प्रत्यजानत॥ 1-130-36 |
− | + | युक्तरूपः स हि गुरुरित्येवमनुचिन्त्य च। | |
− | स तथोक्तस्तथा तेन सदारः प्राद्रवत्कुरून्। | + | अथैनमानीय तदा स्वयमेव सुसत्कृतम्॥ 1-130-37 |
− | + | परिपप्रच्छ निपुणं भीष्मः शस्त्रभृतां वरः। | |
− | तां प्रतिज्ञां प्रतिज्ञाय यां कर्ता न चिरादिव॥ | + | हेतुमागमने तच्च द्रोणः सर्वं न्यवेदयत्॥ 1-130-38 |
− | + | द्रोण उवाच | |
− | ततः कुमारा निष्क्रम्य सहिता नागसाह्वयात्। | + | महर्षेरग्निवेशस्य सकाशमहमच्युत। |
− | + | अस्त्रार्थमगमं पूर्वं धनुर्वेदजिघृक्षया॥ 1-130-39 | |
− | क्रीडया विनयाद्वीरास्तत्र्पर्यचरन्मुदा॥ | + | ब्रह्मचारी विनीतात्मा जटिलो बहुलाः समाः। |
− | + | अवसं सुचिरं तत्र गुरुशुश्रूषणे रतः॥ 1-130-40 | |
− | तेषां सङ्क्रीडमानानामुदपानेऽङ्गुलीयकम्। | + | पाञ्चालो राजपुत्रश्च यज्ञसेनो महाबलः। |
− | + | इष्वस्त्रहेतोर्न्यवसत्तस्मिन्नेव गुरौ प्रभुः॥ 1-130-41 | |
− | पपात धर्मराजस्य वीटा तत्रैव चापतत्॥ | + | स मे तत्र सखा चासीदुपकारी प्रियश्च मे। |
− | + | तेनाहं सह सङ्गम्य वर्तयन्सुचिरं प्रभो॥ 1-130-42 | |
− | तत्त्वम्बुना प्रतिच्छन्नं तारारूपमिवाम्बरे। | + | बाल्यात्प्रभृति कौरव्य सहाध्ययनमेव च। |
− | + | स मे सखा सदा तत्र प्रियवादी प्रियङ्करः॥ 1-130-43 | |
− | दृष्ट्वा ते वै कुमाराश्च तं यत्रात्पर्यवारयन्॥ | + | अब्रवीदिति मां भीष्मं वचनं प्रीतिवर्धनम्। |
− | + | अहं प्रियतमः पुत्रः पितुर्द्रोण महात्मनः॥ 1-130-44 | |
− | ते परस्परमैक्षन्त कुमारास्सहितास्तदा॥ | + | अभिषेक्ष्यति मां राज्ये स पाञ्चालो यदा तदा। |
− | + | त्वद्भोग्यं भविता तात सखे सत्येन ते शपे॥ 1-130-45 | |
− | तस्य योगमविन्दन्तो भृशमुत्कण्ठिता भवन्॥ | + | मम भोगाश्च वित्तं च त्वदधीनं सुखानि च। |
− | + | एवमुक्त्वाथ वव्राज कृतास्त्रः पूजितो मया॥ 1-130-46 | |
− | न किञ्चित्प्रत्यपद्यन्त कर्म वीटोपलब्धये॥ | + | तच्च वाक्यमहं नित्यं मनसा धारयंस्तदा। |
− | + | सोऽहं पितृनियोगेन पुत्रलोभाद्यशस्विनीम्॥ 1-130-47 | |
− | तेऽपश्यन्ब्राह्मणं श्याममासत्रपलितं कृशम्। | + | नातिकेशीं महाप्रज्ञामुपयेमे महाव्रताम्। |
− | + | अग्निहोत्रे च सत्रे च दमे च सततं रताम्॥ 1-130-48 | |
− | कृत्यवन्तस्समीपस्थमग्निहोत्रपुरस्कृतम्॥ | + | अलभद्गौतमी पुत्रमश्वत्थामानमौरसम्। |
− | + | भीमविक्रमकर्माणमादित्यसमतेजसम्॥ 1-130-49 | |
− | स तान्कृत्यवतो दृष्ट्वा कुमारांस्तु विचेतसः। | + | पुत्रेण तेन प्रीतोऽहं भरद्वाजो मया यथा। |
− | + | गोक्षीरं पिबतो दृष्ट्वा धनिनस्तत्र पुत्रकान्॥ 1-130-50 | |
− | ब्राह्मणः प्रहसन्मन्दं कौशलेनाभ्यभाषत॥ | + | अश्वत्थामारुदद्बालस्तन्मे सन्देहयद्दिशः। |
− | + | न स्नातकोऽवसीदेत वर्तमानः स्वकर्मसु॥ 1-130-51 | |
− | अब्रवीद्धिग्बलं क्षात्रं धिक्चैषां वः कृतास्त्रताम्। | + | इति सञ्चिन्त्य मनसा तं देशं बहुशो भ्रमन्। |
− | + | विशुद्धमिच्छन्गाङ्गेय धर्मोपेतं प्रतिग्रहम्॥ 1-130-52 | |
− | भरतस्यान्वये जाता ये वीटां नाधिगच्छत॥ 1-130-23 | + | अन्तादन्तं परिक्रम्य नाध्यगच्छं पयस्विनीम्। |
− | + | अथ पिष्टोदकेनैनं लोभयन्ति कुमारकाः॥ 1-130-53 | |
− | वीटां च मुद्रिकां चैव ह्यहमेतदपि द्वयम्। | + | पीत्वा पिष्टरसं बालः क्षीरं पीतं मयापि च। |
− | + | ननर्तोत्थाय कौरव्य हृष्टो बाल्याद्विमोहितः॥ 1-130-54 | |
− | उद्धरेयमिषीकाभिर्भोजनं मे प्रदीयताम्॥ 1-130-24 | + | तं दृष्ट्वा नृत्यमानं तु बालैः परिवृतं सुतम्। |
− | + | हास्यतामुपसम्प्राप्तं कश्मलं तत्र मेऽभवत्॥ 1-130-55 | |
− | एवमुक्त्वा कुमारांस्तान्द्रोणः स्वाङ्गुलिवेष्टनम्। | + | द्रोणं धिगस्त्वधनिनं यो धनं नाधिगच्छति। |
− | + | पिष्टोदकं सुतो यस्य पीत्वा क्षीरस्य तृष्णया॥ 1-130-56 | |
− | कूपे निरुदके तस्मिन्नपातयदरिन्दमः। | + | नृत्यति स्म मुदाविष्टः क्षीरं पीतं मयाप्युत। |
− | + | इति सम्भाषतां वाचं श्रुत्वा मे बुद्धिरच्यवत्॥ 1-130-57 | |
− | ततोऽब्रवीत्तदा द्रोणं कुन्तीपुत्रो युधिष्ठिरः॥ 1-130-25 | + | आत्मानं चात्मना गर्हन्मनसेदं व्यचिन्तयम्। |
− | + | अपि चाहं पुरा विप्रैर्वर्जितो गर्हितो वसे॥ 1-130-58 | |
− | युधिष्ठिर उवाच | + | परोपसेवां पापिष्ठां न च कुर्यां धनेप्सया। |
− | + | इति मत्वा प्रियं पुत्रं भीष्मादाय ततो ह्यहम्॥ 1-130-59 | |
− | कृपस्यानुमते ब्रह्मन्भिक्षामाप्नुहि शाश्वतीम्। | + | पूर्वस्नेहानुरागित्वात्सदारः सौमकिं गतः। |
− | + | अभिषिक्तं तु श्रुत्वैव कृतार्थोऽस्मीति चिन्तयन्॥ 1-130-60 | |
− | एवमुक्तः प्रत्युवाच प्रहस्य भरतानिदम्॥ 1-130-26 | + | प्रियं सखायं सुप्रीतो राज्यस्थं समुपागमम्। |
− | + | संस्मरन्सङ्गमं चैव वचनं चैव तस्य तत्॥ 1-130-61 | |
− | द्रोण उवाच | + | ततो द्रुपदमागम्य सखिपूर्वमहं प्रभो। |
− | + | अब्रुवं पुरुषव्याघ्र सखायं विद्धि मामिति॥ 1-130-62 | |
− | एषा मुष्टिरिषीकाणां मयास्त्रेणाभिमन्त्रिता। | + | उपस्थितस्तु द्रुपदं सखिवच्चास्मि सङ्गतः। |
− | + | स मां निराकारमिव प्रहसन्निदमब्रवीत्॥ 1-130-63 | |
− | अस्या वीर्यं निरीक्षध्वं यदन्यस्य न विद्यते॥ 1-130-27 | + | अकृतेयं तव प्रज्ञा ब्रह्मन्नातिसमञ्जसा। |
− | + | यदात्थ मां त्वं प्रसभं सखा तेऽहमिति द्विज॥ 1-130-64 | |
− | भेत्स्यामीषीकया वीटां तामिषीकां तथान्यया। | + | सङ्गतानीह जीर्यन्ति कालेन परिजीर्यतः। |
− | + | सौहृदं मे त्वया ह्यासीत्पूर्वं सामर्थ्यबन्धनम्॥ 1-130-65 | |
− | तामन्यया समायोगे वीटाया ग्रहणं मम॥ 1-130-28 | + | नाश्रोत्रियः श्रोत्रियस्य नारथी रथिनः सखा। |
− | + | साम्याद्धि सख्यं भवति वैषम्यान्नोपपद्यते॥ 1-130-66 | |
− | वैशम्पायन उवाच | + | न सख्यमजरं लोके विद्यते जातु कस्यचित्। |
− | + | कालो वैनं विहरति क्रोधो वैनं हरत्युत॥ 1-130-67 | |
− | ततो यथोक्तं द्रोणेन तत्सर्वं कृतमञ्जसा। | + | मैवं जीर्णमुपास्स्व त्वं सख्यं[सत्यं] भवत्वपाकृधि। |
− | + | आसीत्सख्यं द्विजश्रेष्ठ त्वया मेऽर्थनिबन्धनम्॥ 1-130-68 | |
− | तदवेक्ष्य कुमारास्ते विस्मयोत्फुल्ललोचनाः। | + | न ह्यनाढ्यः सखाढ्यस्य नाविद्वान्विदुषःसखा। |
− | + | न शूरस्य सखा क्लीबः सखिपूर्वं किमिष्यते॥ 1-130-69 | |
− | आश्चर्यमिदमत्यन्तमिति मत्वा वचोऽब्रुवन्॥ 1-130-29 | + | न हि राज्ञामुदीर्णानामेवम्भूतैर्नरैः क्वचित्। |
− | + | सख्यं भवति मन्दात्मन्श्रियाहीनैर्धनच्युतैः॥ 1-130-70 | |
− | कुमारा ऊचुः | + | नाश्रोत्रियः श्रोत्रियस्य नारथी रथिनः सखा। |
− | + | नाराजा पार्थिवस्यापि सखिपूर्वं किमिष्यते॥ 1-130-71 | |
− | मुद्रिकामपि विप्रर्षे शीघ्रमेतां समुद्धर॥ 1-130-30 | + | अहं त्वया न जानामि राज्यार्थे संविदं कृताम्। |
− | + | एकरात्रं तु ते ब्रह्मन्कामं दास्यामि भोजनम्॥ 1-130-72 | |
− | वैशम्पायन उवाच | + | एवमुक्तस्त्वहं तेन सदारः प्रस्थितस्तदा। |
− | + | तां प्रतिज्ञां प्रतिज्ञाय यां कर्तास्म्यचिरादिव॥ 1-130-73 | |
− | ततः शरं समादाय धनुर्द्रोणो महायशाः। | + | द्रुपदेनैवमुक्तोऽहं मन्युनाभिपरिप्लुतः। |
− | + | अभ्यागच्छं कुरून्भीष्म शिष्यैरर्थी गुणान्वितैः॥ 1-130-74 | |
− | शरेण विद्ध्वा मुद्रां तामूर्ध्वमावाहयत्प्रभुः। | + | ततोऽहं भवतः कामं संवर्धयितुमागतः। |
− | + | इदं नागपुरं रम्यं ब्रूहि किं करवाणि ते॥ 1-130-75 | |
− | सशरं समुपादाय कूपादङ्गुलिवेष्टनम्॥ 1-130-31 | + | वैशम्पायन उवाच |
− | + | एवमुक्तस्तदा भीष्मो भारद्वाजमभाषत॥ 1-130-76 | |
− | ददो ततः कुमाराणां विस्मितानामविस्मितः। | + | भीष्म उवाच |
− | + | अपज्यं क्रियतां चापं साध्वस्त्रं प्रतिपादय। | |
− | मुद्रिकामुद्धृतां दृष्ट्वा तमाहुस्ते कुमारकाः॥ 1-130-32 | + | भुङ्क्ष्व भोगान्भृशं प्रीतः पूज्यमानः कुरुक्षये। |
− | + | कुरूणामस्ति यद्वित्तं राज्यं चेदं सराष्ट्रकम्॥ 1-130-77 | |
− | कुमारा ऊचुः | + | त्वमेव परमो राजा सर्वे च कुरवस्तव। |
− | + | यच्च ते प्रार्थितं ब्रह्मन्कृतं तदिति चिन्त्यताम्। | |
− | अभिवादयामहे ब्रह्मन्नैतदन्येषु विद्यते। | + | दिष्ट्या प्राप्तोऽसि विप्रर्षे महान्मेऽनुग्रहः कृतः॥ 1-130-78 |
− | + | इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि सम्भवपर्वणि भीष्मद्रोणसमागमे त्रिंशदधिकशततमोऽध्यायः॥ 130॥ | |
− | कोऽसि कस्यासि जानीमो वयं किं करवामहे॥ 1-130-33 | + | [[:Category:Drona|''Drona'']] [[:Category:Drupada|''Drupada'']] [[:Category:insulted|''insulted'']] |
− | + | [[:Category:Hastinapur|''Hastinapur'']] [[:Category:Drona meets princes|''Drona meets princes'']] | |
− | वैशम्पायन उवाच | + | [[:Category:ring|''ring'']] [[:Category:well|''well'']] [[:Category:retrieve|''retrieve'']] |
− | + | [[:Category:Bhishma|''Bhishma'']] [[:Category:respectfully|''respectfully'']] | |
− | एवमुक्तस्ततो द्रोणः प्रत्युवाच कुमारकान्। | + | [[:Category:द्रोण|''द्रोण'']] [[:Category:द्रुपद|''द्रुपद'']] [[:Category:तिरस्कृत|''तिरस्कृत']] [[:Category:हस्तिनापुर|''हस्तिनापुर']] |
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− | द्रोण उवाच | + | [[:Category:निकालना|''निकालना']] [[:Category:सम्मानपूर्वक|''सम्मानपूर्वक']] |
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− | आचक्षध्वं च भीष्माय रूपेण च गुणैश्च माम्। | ||
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− | स एव सुमहातेजाः साम्प्रतं प्रतिपत्स्यते॥ 1-130-35 | ||
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− | वैशम्पायन उवाच | ||
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− | तथेत्युक्त्वा च गत्वा च भीष्ममूचुः कुमारकाः। | ||
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− | ब्राह्मणस्य वचस्तथ्यं तच्च कर्म तथाविधम्। | ||
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− | भीष्मः श्रुत्वा कुमाराणां द्रोणं तं प्रत्यजानत॥ 1-130-36 | ||
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− | युक्तरूपः स हि गुरुरित्येवमनुचिन्त्य च। | ||
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− | अथैनमानीय तदा स्वयमेव सुसत्कृतम्॥ 1-130-37 | ||
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− | परिपप्रच्छ निपुणं भीष्मः शस्त्रभृतां वरः। | ||
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− | हेतुमागमने तच्च द्रोणः सर्वं न्यवेदयत्॥ 1-130-38 | ||
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− | द्रोण उवाच | ||
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− | महर्षेरग्निवेशस्य सकाशमहमच्युत। | ||
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− | अस्त्रार्थमगमं पूर्वं धनुर्वेदजिघृक्षया॥ 1-130-39 | ||
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− | ब्रह्मचारी विनीतात्मा जटिलो बहुलाः समाः। | ||
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− | अवसं सुचिरं तत्र गुरुशुश्रूषणे रतः॥ 1-130-40 | ||
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− | पाञ्चालो राजपुत्रश्च यज्ञसेनो महाबलः। | ||
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− | इष्वस्त्रहेतोर्न्यवसत्तस्मिन्नेव गुरौ प्रभुः॥ 1-130-41 | ||
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− | स मे तत्र सखा चासीदुपकारी प्रियश्च मे। | ||
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− | तेनाहं सह सङ्गम्य वर्तयन्सुचिरं प्रभो॥ 1-130-42 | ||
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− | बाल्यात्प्रभृति कौरव्य सहाध्ययनमेव च। | ||
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− | स मे सखा सदा तत्र प्रियवादी प्रियङ्करः॥ 1-130-43 | ||
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− | अब्रवीदिति मां भीष्मं वचनं प्रीतिवर्धनम्। | ||
− | |||
− | अहं प्रियतमः पुत्रः पितुर्द्रोण महात्मनः॥ 1-130-44 | ||
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− | अभिषेक्ष्यति मां राज्ये स पाञ्चालो यदा तदा। | ||
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− | त्वद्भोग्यं भविता तात सखे सत्येन ते शपे॥ 1-130-45 | ||
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− | मम भोगाश्च वित्तं च त्वदधीनं सुखानि च। | ||
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− | एवमुक्त्वाथ वव्राज कृतास्त्रः पूजितो मया॥ 1-130-46 | ||
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− | तच्च वाक्यमहं नित्यं मनसा धारयंस्तदा। | ||
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− | सोऽहं पितृनियोगेन पुत्रलोभाद्यशस्विनीम्॥ 1-130-47 | ||
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− | नातिकेशीं महाप्रज्ञामुपयेमे महाव्रताम्। | ||
− | |||
− | अग्निहोत्रे च सत्रे च दमे च सततं रताम्॥ 1-130-48 | ||
− | |||
− | अलभद्गौतमी पुत्रमश्वत्थामानमौरसम्। | ||
− | |||
− | भीमविक्रमकर्माणमादित्यसमतेजसम्॥ 1-130-49 | ||
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− | पुत्रेण तेन प्रीतोऽहं भरद्वाजो मया यथा। | ||
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− | गोक्षीरं पिबतो दृष्ट्वा धनिनस्तत्र पुत्रकान्॥ 1-130-50 | ||
− | |||
− | अश्वत्थामारुदद्बालस्तन्मे सन्देहयद्दिशः। | ||
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− | न स्नातकोऽवसीदेत वर्तमानः स्वकर्मसु॥ 1-130-51 | ||
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− | इति सञ्चिन्त्य मनसा तं देशं बहुशो भ्रमन्। | ||
− | |||
− | विशुद्धमिच्छन्गाङ्गेय धर्मोपेतं प्रतिग्रहम्॥ 1-130-52 | ||
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− | अन्तादन्तं परिक्रम्य नाध्यगच्छं पयस्विनीम्। | ||
− | |||
− | अथ पिष्टोदकेनैनं लोभयन्ति कुमारकाः॥ 1-130-53 | ||
− | |||
− | पीत्वा पिष्टरसं बालः क्षीरं पीतं मयापि च। | ||
− | |||
− | ननर्तोत्थाय कौरव्य हृष्टो बाल्याद्विमोहितः॥ 1-130-54 | ||
− | |||
− | तं दृष्ट्वा नृत्यमानं तु बालैः परिवृतं सुतम्। | ||
− | |||
− | हास्यतामुपसम्प्राप्तं कश्मलं तत्र मेऽभवत्॥ 1-130-55 | ||
− | |||
− | द्रोणं धिगस्त्वधनिनं यो धनं नाधिगच्छति। | ||
− | |||
− | पिष्टोदकं सुतो यस्य पीत्वा क्षीरस्य तृष्णया॥ 1-130-56 | ||
− | |||
− | नृत्यति स्म मुदाविष्टः क्षीरं पीतं मयाप्युत। | ||
− | |||
− | इति सम्भाषतां वाचं श्रुत्वा मे बुद्धिरच्यवत्॥ 1-130-57 | ||
− | |||
− | आत्मानं चात्मना गर्हन्मनसेदं व्यचिन्तयम्। | ||
− | |||
− | अपि चाहं पुरा विप्रैर्वर्जितो गर्हितो वसे॥ 1-130-58 | ||
− | |||
− | परोपसेवां पापिष्ठां न च कुर्यां धनेप्सया। | ||
− | |||
− | इति मत्वा प्रियं पुत्रं भीष्मादाय ततो ह्यहम्॥ 1-130-59 | ||
− | |||
− | पूर्वस्नेहानुरागित्वात्सदारः सौमकिं गतः। | ||
− | |||
− | अभिषिक्तं तु श्रुत्वैव कृतार्थोऽस्मीति चिन्तयन्॥ 1-130-60 | ||
− | |||
− | प्रियं सखायं सुप्रीतो राज्यस्थं समुपागमम्। | ||
− | |||
− | संस्मरन्सङ्गमं चैव वचनं चैव तस्य तत्॥ 1-130-61 | ||
− | |||
− | ततो द्रुपदमागम्य सखिपूर्वमहं प्रभो। | ||
− | |||
− | अब्रुवं पुरुषव्याघ्र सखायं विद्धि मामिति॥ 1-130-62 | ||
− | |||
− | उपस्थितस्तु द्रुपदं सखिवच्चास्मि सङ्गतः। | ||
− | |||
− | स मां निराकारमिव प्रहसन्निदमब्रवीत्॥ 1-130-63 | ||
− | |||
− | अकृतेयं तव प्रज्ञा ब्रह्मन्नातिसमञ्जसा। | ||
− | |||
− | यदात्थ मां त्वं प्रसभं सखा तेऽहमिति द्विज॥ 1-130-64 | ||
− | |||
− | सङ्गतानीह जीर्यन्ति कालेन परिजीर्यतः। | ||
− | |||
− | सौहृदं मे त्वया ह्यासीत्पूर्वं सामर्थ्यबन्धनम्॥ 1-130-65 | ||
− | |||
− | नाश्रोत्रियः श्रोत्रियस्य नारथी रथिनः सखा। | ||
− | |||
− | साम्याद्धि सख्यं भवति वैषम्यान्नोपपद्यते॥ 1-130-66 | ||
− | |||
− | न सख्यमजरं लोके विद्यते जातु कस्यचित्। | ||
− | |||
− | कालो वैनं विहरति क्रोधो वैनं हरत्युत॥ 1-130-67 | ||
− | |||
− | मैवं जीर्णमुपास्स्व त्वं सख्यं[सत्यं] भवत्वपाकृधि। | ||
− | |||
− | आसीत्सख्यं द्विजश्रेष्ठ त्वया मेऽर्थनिबन्धनम्॥ 1-130-68 | ||
− | |||
− | न ह्यनाढ्यः सखाढ्यस्य नाविद्वान्विदुषःसखा। | ||
− | |||
− | न शूरस्य सखा क्लीबः सखिपूर्वं किमिष्यते॥ 1-130-69 | ||
− | |||
− | न हि राज्ञामुदीर्णानामेवम्भूतैर्नरैः क्वचित्। | ||
− | |||
− | सख्यं भवति मन्दात्मन्श्रियाहीनैर्धनच्युतैः॥ 1-130-70 | ||
− | |||
− | नाश्रोत्रियः श्रोत्रियस्य नारथी रथिनः सखा। | ||
− | |||
− | नाराजा पार्थिवस्यापि सखिपूर्वं किमिष्यते॥ 1-130-71 | ||
− | |||
− | अहं त्वया न जानामि राज्यार्थे संविदं कृताम्। | ||
− | |||
− | एकरात्रं तु ते ब्रह्मन्कामं दास्यामि भोजनम्॥ 1-130-72 | ||
− | |||
− | एवमुक्तस्त्वहं तेन सदारः प्रस्थितस्तदा। | ||
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− | तां प्रतिज्ञां प्रतिज्ञाय यां कर्तास्म्यचिरादिव॥ 1-130-73 | ||
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− | द्रुपदेनैवमुक्तोऽहं मन्युनाभिपरिप्लुतः। | ||
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− | अभ्यागच्छं कुरून्भीष्म शिष्यैरर्थी गुणान्वितैः॥ 1-130-74 | ||
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− | ततोऽहं भवतः कामं संवर्धयितुमागतः। | ||
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− | इदं नागपुरं रम्यं ब्रूहि किं करवाणि ते॥ 1-130-75 | ||
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− | वैशम्पायन उवाच | ||
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− | एवमुक्तस्तदा भीष्मो भारद्वाजमभाषत॥ 1-130-76 | ||
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− | भीष्म उवाच | ||
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− | अपज्यं क्रियतां चापं साध्वस्त्रं प्रतिपादय। | ||
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− | भुङ्क्ष्व भोगान्भृशं प्रीतः पूज्यमानः कुरुक्षये। | ||
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− | कुरूणामस्ति यद्वित्तं राज्यं चेदं सराष्ट्रकम्॥ 1-130-77 | ||
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− | त्वमेव परमो राजा सर्वे च कुरवस्तव। | ||
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− | यच्च ते प्रार्थितं ब्रह्मन्कृतं तदिति चिन्त्यताम्। | ||
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− | दिष्ट्या प्राप्तोऽसि विप्रर्षे महान्मेऽनुग्रहः कृतः॥ 1-130-78 | ||
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− | इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि सम्भवपर्वणि भीष्मद्रोणसमागमे त्रिंशदधिकशततमोऽध्यायः॥ 130॥ |
Latest revision as of 21:13, 31 July 2019
वैशम्पायन उवाच ततो द्रुपदमासाद्य भारद्वाजः प्रतापवान्। अब्रवीत्पार्थिवं राजन्सखायं विद्धि मामिह॥ 1-130-1 इत्येवमुक्तः सख्या स प्रीतिपूर्वं जनेश्वरः। भारद्वाजेन पाञ्चालो नामृष्यत वचोऽस्य तत्॥ 1-130-2 सक्रोधामर्षजिह्यभ्रूः कषायीकृतलोचनः। नामृष्यत वचस्सख्युः प्रीतिपूर्वमुदाहृतम्। ऐश्वर्यमदसम्पन्नो द्रोणं राजाब्रवीदिदम्॥ 1-130-3 द्रुपद उवाच अकृतेयं तव प्रज्ञा ब्रह्मन्नातिसमञ्जसी। अकृतेयं तव प्रज्ञा ब्रह्मन्नातिसमञ्जसी[सा]। यन्मां ब्रवीषि प्रसभं सखा तेऽहमिति द्विज॥ 1-130-4 न हि राज्ञामुदीर्णानामेवम्भूतैर्नरैः क्वचित्। सख्यं भवति मन्दात्मन्श्रिया हीनैर्धनच्युतैः॥ 1-130-5 सौहृदान्यपि जीर्यन्ते कालेन परिजीर्यतः। सौहृदं मे त्वया ह्यासीत्पूर्वं सामर्थ्यबन्धनम्॥ 1-130-6 न सख्यमजरं लोके हृदि तिष्ठति कस्यचित्। कालो ह्येनं विहरति क्रोधो वैनं हरत्युत॥ 1-130-7 मैवं जीर्णमुपास्स्व त्वं सख्यं भवत्वपाकृधि। आसीत्सख्यं द्विजश्रेष्ठ त्वया मेऽर्थनिबन्धनम्॥ 1-130-8 न दरिद्रो वसुमतो नाविद्वान्विदुषः सखा। न शूरस्य सखा क्लीबः सखिपूर्वं किमिष्यते॥ 1-130-9 ययोरेव समं वित्तं ययोरेव समं श्रुतम्। तयोर्विवाहः सख्यं च न तु पुष्टविपुष्टयोः॥ 1-130-10 नाश्रोत्रियः श्रोत्रियस्य नारथी रथिनः सखा। नाराजा पार्थिवस्यापि सखिपूर्वं किमिष्यते॥ 1-130-11 त्वद्विधैर्मद्विधानां हि प्रहीणार्थैर्न जातु चित्। सख्यं भवति मन्दात्मन्सखिपूर्वं किमिष्यते॥ वैशम्पायन उवाच द्रुपदेनैवमुक्तस्तु भारद्वाजः प्रतापवान्। मुहूर्तं चिन्तयित्वा तु मन्युनाभिपरिप्लुतम्[तः]॥ 1-130-12 स विनिश्चित्य मनसा पाञ्चाल्यं[लं] प्रति बुद्धिमान्। शिष्यैः परिवृतश्श्रीमान्पुत्रेणानुगतस्तदा। जगाम कुरुमुख्यानां नगरं नागसाह्वयम्॥ 1-130-13 स नागपुरमागम्य गौतमस्य निवेशने। भारद्वाजोऽवसत्तत्र प्रच्छन्नं द्विजसत्तमः॥ 1-130-14 स्यालस्यैव गृहं द्रोणसः सदारः पर्युपस्थितः॥ अश्वत्थाम्ना च पुत्रेण महाबलवता सह। अवसत्तत्र राजेन्द्र गौतमस्य निवेशने॥ ततोऽस्य तनुजः पार्थान्कृपस्यानन्तरं प्रभुः। अस्त्राणि शिक्षयामास नाबुध्यन्त च तं जनाः॥ 1-130-15 एवं स तत्र गूढात्मा कञ्चित्कालमुवास ह। कुमारास्त्वथ निष्क्रम्य समेता गजसाह्वयात्॥ 1-130-16 क्रीडन्तो वीटया तत्र वीराः पर्यचरन्मुदा। पपात कूपे सा वीटा तेषां वै क्रीडतां तदा॥ 1-130-17 ततस्ते यत्नमातिष्ठन्वीटामुद्धर्तुमादृताः। न च ते प्रत्यपद्यन्त कर्म वीटोपलब्धये॥ 1-130-18 ततोऽन्योन्यमवैक्षन्त वीट[व्रीड]यावनताननाः। तस्या योगमविन्दन्तो भृशं चोत्कण्ठिताभवन्॥ 1-130-19 तेऽपश्यन्ब्राह्मणं श्याममापन्नं पलितं कृशम्। कृत्यवन्तमदूरस्थमग्निहोत्रपुरस्कृतम्॥ 1-130-20 ते तं दृष्ट्वा महात्मानमुपगम्य कुमारकाः। भग्नोत्साहक्रियात्मानो ब्राह्मणं पर्यवारयन्॥ 1-130-21 अथ द्रोणः कुमारांस्तान्दृष्ट्वा कृत्यवतस्तदा। प्रहस्य मन्दं पैशल्यादभ्यभाषत वीर्यवान्॥ 1-130-22 अहो वो धिग्बलं क्षात्रं धिगेतां वः कृतास्त्रताम्। वैशंपायनः-- द्रोणस्समुदितान्दृष्ट्वा कुरून्वृत्तिपरीप्सया। आजगाम महातेजा विप्रो नागपुरं प्रति॥ स तथोक्तस्तथा तेन सदारः प्राद्रवत्कुरून्। तां प्रतिज्ञां प्रतिज्ञाय यां कर्ता न चिरादिव॥ ततः कुमारा निष्क्रम्य सहिता नागसाह्वयात्। क्रीडया विनयाद्वीरास्तत्र्पर्यचरन्मुदा॥ तेषां सङ्क्रीडमानानामुदपानेऽङ्गुलीयकम्। पपात धर्मराजस्य वीटा तत्रैव चापतत्॥ तत्त्वम्बुना प्रतिच्छन्नं तारारूपमिवाम्बरे। दृष्ट्वा ते वै कुमाराश्च तं यत्रात्पर्यवारयन्॥ ते परस्परमैक्षन्त कुमारास्सहितास्तदा॥ तस्य योगमविन्दन्तो भृशमुत्कण्ठिता भवन्॥ न किञ्चित्प्रत्यपद्यन्त कर्म वीटोपलब्धये॥ तेऽपश्यन्ब्राह्मणं श्याममासत्रपलितं कृशम्। कृत्यवन्तस्समीपस्थमग्निहोत्रपुरस्कृतम्॥ स तान्कृत्यवतो दृष्ट्वा कुमारांस्तु विचेतसः। ब्राह्मणः प्रहसन्मन्दं कौशलेनाभ्यभाषत॥ अब्रवीद्धिग्बलं क्षात्रं धिक्चैषां वः कृतास्त्रताम्। भरतस्यान्वये जाता ये वीटां नाधिगच्छत॥ 1-130-23 वीटां च मुद्रिकां चैव ह्यहमेतदपि द्वयम्। उद्धरेयमिषीकाभिर्भोजनं मे प्रदीयताम्॥ 1-130-24 एवमुक्त्वा कुमारांस्तान्द्रोणः स्वाङ्गुलिवेष्टनम्। कूपे निरुदके तस्मिन्नपातयदरिन्दमः। ततोऽब्रवीत्तदा द्रोणं कुन्तीपुत्रो युधिष्ठिरः॥ 1-130-25 युधिष्ठिर उवाच कृपस्यानुमते ब्रह्मन्भिक्षामाप्नुहि शाश्वतीम्। एवमुक्तः प्रत्युवाच प्रहस्य भरतानिदम्॥ 1-130-26 द्रोण उवाच एषा मुष्टिरिषीकाणां मयास्त्रेणाभिमन्त्रिता। अस्या वीर्यं निरीक्षध्वं यदन्यस्य न विद्यते॥ 1-130-27 भेत्स्यामीषीकया वीटां तामिषीकां तथान्यया। तामन्यया समायोगे वीटाया ग्रहणं मम॥ 1-130-28 वैशम्पायन उवाच ततो यथोक्तं द्रोणेन तत्सर्वं कृतमञ्जसा। तदवेक्ष्य कुमारास्ते विस्मयोत्फुल्ललोचनाः। आश्चर्यमिदमत्यन्तमिति मत्वा वचोऽब्रुवन्॥ 1-130-29 कुमारा ऊचुः मुद्रिकामपि विप्रर्षे शीघ्रमेतां समुद्धर॥ 1-130-30 वैशम्पायन उवाच ततः शरं समादाय धनुर्द्रोणो महायशाः। शरेण विद्ध्वा मुद्रां तामूर्ध्वमावाहयत्प्रभुः। सशरं समुपादाय कूपादङ्गुलिवेष्टनम्॥ 1-130-31 ददो ततः कुमाराणां विस्मितानामविस्मितः। मुद्रिकामुद्धृतां दृष्ट्वा तमाहुस्ते कुमारकाः॥ 1-130-32 कुमारा ऊचुः अभिवादयामहे ब्रह्मन्नैतदन्येषु विद्यते। कोऽसि कस्यासि जानीमो वयं किं करवामहे॥ 1-130-33 वैशम्पायन उवाच एवमुक्तस्ततो द्रोणः प्रत्युवाच कुमारकान्। द्रोण उवाच आचक्षध्वं च भीष्माय रूपेण च गुणैश्च माम्। स एव सुमहातेजाः साम्प्रतं प्रतिपत्स्यते॥ 1-130-35 वैशम्पायन उवाच तथेत्युक्त्वा च गत्वा च भीष्ममूचुः कुमारकाः। ब्राह्मणस्य वचस्तथ्यं तच्च कर्म तथाविधम्। भीष्मः श्रुत्वा कुमाराणां द्रोणं तं प्रत्यजानत॥ 1-130-36 युक्तरूपः स हि गुरुरित्येवमनुचिन्त्य च। अथैनमानीय तदा स्वयमेव सुसत्कृतम्॥ 1-130-37 परिपप्रच्छ निपुणं भीष्मः शस्त्रभृतां वरः। हेतुमागमने तच्च द्रोणः सर्वं न्यवेदयत्॥ 1-130-38 द्रोण उवाच महर्षेरग्निवेशस्य सकाशमहमच्युत। अस्त्रार्थमगमं पूर्वं धनुर्वेदजिघृक्षया॥ 1-130-39 ब्रह्मचारी विनीतात्मा जटिलो बहुलाः समाः। अवसं सुचिरं तत्र गुरुशुश्रूषणे रतः॥ 1-130-40 पाञ्चालो राजपुत्रश्च यज्ञसेनो महाबलः। इष्वस्त्रहेतोर्न्यवसत्तस्मिन्नेव गुरौ प्रभुः॥ 1-130-41 स मे तत्र सखा चासीदुपकारी प्रियश्च मे। तेनाहं सह सङ्गम्य वर्तयन्सुचिरं प्रभो॥ 1-130-42 बाल्यात्प्रभृति कौरव्य सहाध्ययनमेव च। स मे सखा सदा तत्र प्रियवादी प्रियङ्करः॥ 1-130-43 अब्रवीदिति मां भीष्मं वचनं प्रीतिवर्धनम्। अहं प्रियतमः पुत्रः पितुर्द्रोण महात्मनः॥ 1-130-44 अभिषेक्ष्यति मां राज्ये स पाञ्चालो यदा तदा। त्वद्भोग्यं भविता तात सखे सत्येन ते शपे॥ 1-130-45 मम भोगाश्च वित्तं च त्वदधीनं सुखानि च। एवमुक्त्वाथ वव्राज कृतास्त्रः पूजितो मया॥ 1-130-46 तच्च वाक्यमहं नित्यं मनसा धारयंस्तदा। सोऽहं पितृनियोगेन पुत्रलोभाद्यशस्विनीम्॥ 1-130-47 नातिकेशीं महाप्रज्ञामुपयेमे महाव्रताम्। अग्निहोत्रे च सत्रे च दमे च सततं रताम्॥ 1-130-48 अलभद्गौतमी पुत्रमश्वत्थामानमौरसम्। भीमविक्रमकर्माणमादित्यसमतेजसम्॥ 1-130-49 पुत्रेण तेन प्रीतोऽहं भरद्वाजो मया यथा। गोक्षीरं पिबतो दृष्ट्वा धनिनस्तत्र पुत्रकान्॥ 1-130-50 अश्वत्थामारुदद्बालस्तन्मे सन्देहयद्दिशः। न स्नातकोऽवसीदेत वर्तमानः स्वकर्मसु॥ 1-130-51 इति सञ्चिन्त्य मनसा तं देशं बहुशो भ्रमन्। विशुद्धमिच्छन्गाङ्गेय धर्मोपेतं प्रतिग्रहम्॥ 1-130-52 अन्तादन्तं परिक्रम्य नाध्यगच्छं पयस्विनीम्। अथ पिष्टोदकेनैनं लोभयन्ति कुमारकाः॥ 1-130-53 पीत्वा पिष्टरसं बालः क्षीरं पीतं मयापि च। ननर्तोत्थाय कौरव्य हृष्टो बाल्याद्विमोहितः॥ 1-130-54 तं दृष्ट्वा नृत्यमानं तु बालैः परिवृतं सुतम्। हास्यतामुपसम्प्राप्तं कश्मलं तत्र मेऽभवत्॥ 1-130-55 द्रोणं धिगस्त्वधनिनं यो धनं नाधिगच्छति। पिष्टोदकं सुतो यस्य पीत्वा क्षीरस्य तृष्णया॥ 1-130-56 नृत्यति स्म मुदाविष्टः क्षीरं पीतं मयाप्युत। इति सम्भाषतां वाचं श्रुत्वा मे बुद्धिरच्यवत्॥ 1-130-57 आत्मानं चात्मना गर्हन्मनसेदं व्यचिन्तयम्। अपि चाहं पुरा विप्रैर्वर्जितो गर्हितो वसे॥ 1-130-58 परोपसेवां पापिष्ठां न च कुर्यां धनेप्सया। इति मत्वा प्रियं पुत्रं भीष्मादाय ततो ह्यहम्॥ 1-130-59 पूर्वस्नेहानुरागित्वात्सदारः सौमकिं गतः। अभिषिक्तं तु श्रुत्वैव कृतार्थोऽस्मीति चिन्तयन्॥ 1-130-60 प्रियं सखायं सुप्रीतो राज्यस्थं समुपागमम्। संस्मरन्सङ्गमं चैव वचनं चैव तस्य तत्॥ 1-130-61 ततो द्रुपदमागम्य सखिपूर्वमहं प्रभो। अब्रुवं पुरुषव्याघ्र सखायं विद्धि मामिति॥ 1-130-62 उपस्थितस्तु द्रुपदं सखिवच्चास्मि सङ्गतः। स मां निराकारमिव प्रहसन्निदमब्रवीत्॥ 1-130-63 अकृतेयं तव प्रज्ञा ब्रह्मन्नातिसमञ्जसा। यदात्थ मां त्वं प्रसभं सखा तेऽहमिति द्विज॥ 1-130-64 सङ्गतानीह जीर्यन्ति कालेन परिजीर्यतः। सौहृदं मे त्वया ह्यासीत्पूर्वं सामर्थ्यबन्धनम्॥ 1-130-65 नाश्रोत्रियः श्रोत्रियस्य नारथी रथिनः सखा। साम्याद्धि सख्यं भवति वैषम्यान्नोपपद्यते॥ 1-130-66 न सख्यमजरं लोके विद्यते जातु कस्यचित्। कालो वैनं विहरति क्रोधो वैनं हरत्युत॥ 1-130-67 मैवं जीर्णमुपास्स्व त्वं सख्यं[सत्यं] भवत्वपाकृधि। आसीत्सख्यं द्विजश्रेष्ठ त्वया मेऽर्थनिबन्धनम्॥ 1-130-68 न ह्यनाढ्यः सखाढ्यस्य नाविद्वान्विदुषःसखा। न शूरस्य सखा क्लीबः सखिपूर्वं किमिष्यते॥ 1-130-69 न हि राज्ञामुदीर्णानामेवम्भूतैर्नरैः क्वचित्। सख्यं भवति मन्दात्मन्श्रियाहीनैर्धनच्युतैः॥ 1-130-70 नाश्रोत्रियः श्रोत्रियस्य नारथी रथिनः सखा। नाराजा पार्थिवस्यापि सखिपूर्वं किमिष्यते॥ 1-130-71 अहं त्वया न जानामि राज्यार्थे संविदं कृताम्। एकरात्रं तु ते ब्रह्मन्कामं दास्यामि भोजनम्॥ 1-130-72 एवमुक्तस्त्वहं तेन सदारः प्रस्थितस्तदा। तां प्रतिज्ञां प्रतिज्ञाय यां कर्तास्म्यचिरादिव॥ 1-130-73 द्रुपदेनैवमुक्तोऽहं मन्युनाभिपरिप्लुतः। अभ्यागच्छं कुरून्भीष्म शिष्यैरर्थी गुणान्वितैः॥ 1-130-74 ततोऽहं भवतः कामं संवर्धयितुमागतः। इदं नागपुरं रम्यं ब्रूहि किं करवाणि ते॥ 1-130-75 वैशम्पायन उवाच एवमुक्तस्तदा भीष्मो भारद्वाजमभाषत॥ 1-130-76 भीष्म उवाच अपज्यं क्रियतां चापं साध्वस्त्रं प्रतिपादय। भुङ्क्ष्व भोगान्भृशं प्रीतः पूज्यमानः कुरुक्षये। कुरूणामस्ति यद्वित्तं राज्यं चेदं सराष्ट्रकम्॥ 1-130-77 त्वमेव परमो राजा सर्वे च कुरवस्तव। यच्च ते प्रार्थितं ब्रह्मन्कृतं तदिति चिन्त्यताम्। दिष्ट्या प्राप्तोऽसि विप्रर्षे महान्मेऽनुग्रहः कृतः॥ 1-130-78 इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि सम्भवपर्वणि भीष्मद्रोणसमागमे त्रिंशदधिकशततमोऽध्यायः॥ 130॥ Drona Drupada insulted Hastinapur Drona meets princes ring well retrieve Bhishma respectfully द्रोण द्रुपद तिरस्कृत' हस्तिनापुर' राजकुमारों' भेंट' अंगूठी' कुए' निकालना' सम्मानपूर्वक'