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९. आचरण यदि पवित्र नहीं है, लोगोंं की सेवा करने हेतु जो कष्ट सहते नहीं हैं, कर्तव्य का पालन करने के लिए त्याग करने की आवश्यकता हो तब त्याग करते नहीं हैं, स्वार्थ के लिए लोगोंं का उपयोग करते हैं, संयम का पालन करते नहीं हैं वे केवल रामायण या महाभारत की कथा सुनकर या भजन गाकर धार्मिक नहीं हो जाते ।
 
९. आचरण यदि पवित्र नहीं है, लोगोंं की सेवा करने हेतु जो कष्ट सहते नहीं हैं, कर्तव्य का पालन करने के लिए त्याग करने की आवश्यकता हो तब त्याग करते नहीं हैं, स्वार्थ के लिए लोगोंं का उपयोग करते हैं, संयम का पालन करते नहीं हैं वे केवल रामायण या महाभारत की कथा सुनकर या भजन गाकर धार्मिक नहीं हो जाते ।
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१०. सर्व प्राणीमात्र में एक ही आत्मतत्त्व है इस सिद्धान्त के अनुसार व्यवहार नहीं करने वाले केवल उपनिषद पढ़कर या वेदांत दर्शन का अध्ययन कर धार्मिक नहीं हो जाते । वे पण्डित हो सकते हैं परन्तु धार्मिक नहीं । व्यक्ति को पहले धार्मिक होना चाहिए, बाद में पण्डित । परन्तु इन्हें यह बात कहाँ समझती हैं ।
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१०. सर्व प्राणीमात्र में एक ही आत्मतत्त्व है इस सिद्धान्त के अनुसार व्यवहार नहीं करने वाले केवल उपनिषद पढ़कर या [[Vedanta_(वेदान्तः)|वेदांत]] दर्शन का अध्ययन कर धार्मिक नहीं हो जाते । वे पण्डित हो सकते हैं परन्तु धार्मिक नहीं । व्यक्ति को पहले धार्मिक होना चाहिए, बाद में पण्डित । परन्तु इन्हें यह बात कहाँ समझती हैं ।
    
११. सत्संग, कथावार्ता, यज्ञयाग, तीर्थयात्रा, दर्शन, पूजा, धर्मग्रंथों का अध्ययन ये सब धर्म के अंग तभी सार्थक होते हैं जब व्यवहार और विचार भी उनके अनुकूल हों । सत्य तो यह है कि ये सारी बातें धार्मिक आचरण के परिणामस्वरूप होती हैं, कारण नहीं । निर्द्शक तो जरा भी नहीं । बिना आचरण के ये केवल निरोर्थक ही नहीं तो अनर्थक हो जाती हैं । क्योंकि वे आभासी विश्व निर्माण करती हैं । सत्य इसके पीछे ढक जाता हैं |
 
११. सत्संग, कथावार्ता, यज्ञयाग, तीर्थयात्रा, दर्शन, पूजा, धर्मग्रंथों का अध्ययन ये सब धर्म के अंग तभी सार्थक होते हैं जब व्यवहार और विचार भी उनके अनुकूल हों । सत्य तो यह है कि ये सारी बातें धार्मिक आचरण के परिणामस्वरूप होती हैं, कारण नहीं । निर्द्शक तो जरा भी नहीं । बिना आचरण के ये केवल निरोर्थक ही नहीं तो अनर्थक हो जाती हैं । क्योंकि वे आभासी विश्व निर्माण करती हैं । सत्य इसके पीछे ढक जाता हैं |

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