११. सत्संग, कथावार्ता, यज्ञयाग, तीर्थयात्रा, दर्शन, पूजा, धर्मग्रंथों का अध्ययन ये सब धर्म के अंग तभी सार्थक होते हैं जब व्यवहार और विचार भी उनके अनुकूल हों । सत्य तो यह है कि ये सारी बातें धार्मिक आचरण के परिणामस्वरूप होती हैं, कारण नहीं । निर्द्शक तो जरा भी नहीं । बिना आचरण के ये केवल निरोर्थक ही नहीं तो अनर्थक हो जाती हैं । क्योंकि वे आभासी विश्व निर्माण करती हैं । सत्य इसके पीछे ढक जाता हैं | | ११. सत्संग, कथावार्ता, यज्ञयाग, तीर्थयात्रा, दर्शन, पूजा, धर्मग्रंथों का अध्ययन ये सब धर्म के अंग तभी सार्थक होते हैं जब व्यवहार और विचार भी उनके अनुकूल हों । सत्य तो यह है कि ये सारी बातें धार्मिक आचरण के परिणामस्वरूप होती हैं, कारण नहीं । निर्द्शक तो जरा भी नहीं । बिना आचरण के ये केवल निरोर्थक ही नहीं तो अनर्थक हो जाती हैं । क्योंकि वे आभासी विश्व निर्माण करती हैं । सत्य इसके पीछे ढक जाता हैं | |