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इस सब का तात्पर्य यह है कि सभी चराचर सृष्टि यह एक ही आत्मतत्व का विस्तार है। आत्मतत्व के ही अनगिनत भिन्न भिन्न रूप हैं। धार्मिक  विचार में अनंत चैतन्य परमात्मा की इच्छा और शक्ति से सृष्टि निर्माण हुई है ऐसा माना गया है। इसलिये सृष्टि के कण कण में चेतना विद्यमान है। सृष्टि का सब से छोटा अस्तित्व परमाणू का माना जाता है। इस परमाणू की रचना में ॠणाणू होते हैं जो चिर काल से अपने केंद्रक के इर्दगिर्द एक कक्षा में घूम रहे हैं । और जबतक सृष्टि का अस्तित्व बना हुवा है घूमते रहेंगे। इन ॠणाणुओं को घूमने के लिये ऊर्जा का स्रोत क्या है? साइंटिस्ट नहीं जानते।
 
इस सब का तात्पर्य यह है कि सभी चराचर सृष्टि यह एक ही आत्मतत्व का विस्तार है। आत्मतत्व के ही अनगिनत भिन्न भिन्न रूप हैं। धार्मिक  विचार में अनंत चैतन्य परमात्मा की इच्छा और शक्ति से सृष्टि निर्माण हुई है ऐसा माना गया है। इसलिये सृष्टि के कण कण में चेतना विद्यमान है। सृष्टि का सब से छोटा अस्तित्व परमाणू का माना जाता है। इस परमाणू की रचना में ॠणाणू होते हैं जो चिर काल से अपने केंद्रक के इर्दगिर्द एक कक्षा में घूम रहे हैं । और जबतक सृष्टि का अस्तित्व बना हुवा है घूमते रहेंगे। इन ॠणाणुओं को घूमने के लिये ऊर्जा का स्रोत क्या है? साइंटिस्ट नहीं जानते।
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भौतिक शास्त्र की एक प्रगत शाखा है। पार्टिकल फिजिक्स अर्थात् कण भौतिकी। इस शाखा के अंतर्गत ॠणाणू पर कुछ प्रयोग किये गये हैं। एक है  ‘जुडवाँ ॠणाणू’ का और दूसरा है ‘ॠणाणू धारा’ का। इन प्रयोगों के कारण आधुनिक साइंटिस्ट भी ॠणाणू को भी मन और बुध्दि हो सकते हैं ऐसा विचार करने लग गये हैं। धार्मिक  विचार के अनुसार तो सृष्टि में पूर्णत: चेतना विहीन तो कुछ भी नहीं है। सारा विश्व पंचमहाभूत, मन, बुध्दि और अहंकार इन आठ तत्वों से बनीं अष्टधा प्रकृति का ही बना हुआ है। इसी बात को डॉ जगदीशचंद्र बोस ने धातु और वनस्पति पर प्रयोगों के द्वारा प्रमाणित कर दिखाया था। जड़ तो चेतना के निम्न या अक्रिय स्तर को कहा जाता है। जहाँ अल्पस्तर की चेतना होती है उसे वनस्पति कहते हैं। उससे अधिक चेतना के स्तर को प्राणि कहते हैं। प्राणि आहार, निद्रा, भय और मैथुन इन प्राणिक आवेगों से नियंत्रित हो कर प्राण के स्तर पर जीते हैं। उस से भी अधिक चेतना का स्तर अर्थात् मन का स्तर प्राण या ऊर्जा से अत्यंत सूक्ष्म (व्यापक और बलवान) होता है। उस स्तरपर जीनेवाले को मानव कहते हैं। इस से ऊपर के स्तर पर यानी बुध्दि के स्तर पर जीनेवाला श्रेष्ठ मानव होता है। और उससे भी अधिक सूक्ष्म स्तर जो आत्मिक स्तर है उस स्तर पर जीनेवाले मानव को महामानव कहा जा सकता है। आगे का चेतना का स्तर तो अनंत चैतन्य परमात्मा का ही होता है।
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भौतिक शास्त्र की एक प्रगत शाखा है। पार्टिकल फिजिक्स अर्थात् कण भौतिकी। इस शाखा के अंतर्गत ॠणाणू पर कुछ प्रयोग किये गये हैं। एक है  ‘जुडवाँ ॠणाणू’ का और दूसरा है ‘ॠणाणू धारा’ का। इन प्रयोगों के कारण आधुनिक साइंटिस्ट भी ॠणाणू को भी मन और बुद्धि हो सकते हैं ऐसा विचार करने लग गये हैं। धार्मिक  विचार के अनुसार तो सृष्टि में पूर्णत: चेतना विहीन तो कुछ भी नहीं है। सारा विश्व पंचमहाभूत, मन, बुद्धि और अहंकार इन आठ तत्वों से बनीं अष्टधा प्रकृति का ही बना हुआ है। इसी बात को डॉ जगदीशचंद्र बोस ने धातु और वनस्पति पर प्रयोगों के द्वारा प्रमाणित कर दिखाया था। जड़ तो चेतना के निम्न या अक्रिय स्तर को कहा जाता है। जहाँ अल्पस्तर की चेतना होती है उसे वनस्पति कहते हैं। उससे अधिक चेतना के स्तर को प्राणि कहते हैं। प्राणि आहार, निद्रा, भय और मैथुन इन प्राणिक आवेगों से नियंत्रित हो कर प्राण के स्तर पर जीते हैं। उस से भी अधिक चेतना का स्तर अर्थात् मन का स्तर प्राण या ऊर्जा से अत्यंत सूक्ष्म (व्यापक और बलवान) होता है। उस स्तरपर जीनेवाले को मानव कहते हैं। इस से ऊपर के स्तर पर यानी बुद्धि के स्तर पर जीनेवाला श्रेष्ठ मानव होता है। और उससे भी अधिक सूक्ष्म स्तर जो आत्मिक स्तर है उस स्तर पर जीनेवाले मानव को महामानव कहा जा सकता है। आगे का चेतना का स्तर तो अनंत चैतन्य परमात्मा का ही होता है।
    
इसी सृष्टि निर्माण की मान्यता के कारण यह स्थापित होता है कि चराचर में उसी परमात्मा का वास है। एक ही आत्मतत्व की जड़ और चेतन अभिव्यक्तियों से विश्व बना हुआ है। इसी का अर्थ है कि चराचर के सभी अस्तित्व एक दूसरे से आत्मीयता के बंधन से जुडे हए हैं। इस आत्मीयता की समझने में अत्यंत सहज और सरल अभिव्यक्ति परिवार भावना है। परिवार और परिवार भावना के विषय में अधिक जानकारी हम [[Family Structure (कुटुंब व्यवस्था)|कुटुंब]] अध्याय में लेंगे ।  
 
इसी सृष्टि निर्माण की मान्यता के कारण यह स्थापित होता है कि चराचर में उसी परमात्मा का वास है। एक ही आत्मतत्व की जड़ और चेतन अभिव्यक्तियों से विश्व बना हुआ है। इसी का अर्थ है कि चराचर के सभी अस्तित्व एक दूसरे से आत्मीयता के बंधन से जुडे हए हैं। इस आत्मीयता की समझने में अत्यंत सहज और सरल अभिव्यक्ति परिवार भावना है। परिवार और परिवार भावना के विषय में अधिक जानकारी हम [[Family Structure (कुटुंब व्यवस्था)|कुटुंब]] अध्याय में लेंगे ।  
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# सृष्टि में परस्पर संबद्धता है। सृष्टि का हर पदार्थ अन्य सभी पदार्थोंको प्रभावित भी करता है और उन से प्रभावित भी होता है। सृष्टि का प्रत्येक घटक एक दूसरे से अपरोक्ष या परोक्ष रूप में अन्गांगी भाव से जुड़ा है।   
 
# सृष्टि में परस्पर संबद्धता है। सृष्टि का हर पदार्थ अन्य सभी पदार्थोंको प्रभावित भी करता है और उन से प्रभावित भी होता है। सृष्टि का प्रत्येक घटक एक दूसरे से अपरोक्ष या परोक्ष रूप में अन्गांगी भाव से जुड़ा है।   
 
# सृष्टि में जिसे जड़ पदार्थ माना जाता है उस के 3 प्रकार होते हैं। एक प्रकार के पदार्थ ऐसे हैं जिनका पुनर्निर्माण चक्रियता से होता रहता है। जैसे हवा में प्राणवायू का प्रमाण, जल की उपलब्धता आदि। दूसरे पदार्थ ऐसे हैं जिनका कुछ मात्रा में पुनर्भरण किया जा सकता है। लकड़ी, जल, हवा, खेतों की उर्वरता आदि ।  लेकिन तीसरे ‘खनिज’, ऐसे पदार्थ होते हैं जिनका पुनर्निर्माण सहजता से और अल्प अवधि में संभव नहीं है। इनके तीनों के उपभोग के लिये भी अलग अलग निकष अनिवार्य हैं। प्रकृति में विपुल मात्रा में उपलब्ध चक्रीयता से पुनर्निर्माण होनेवाले पदार्थों का उपयोग जितना चाहें करें। इसमें उन पदार्थों की विपुलता होना आवश्यक शर्त है। साथ ही में उस का दुरूपयोग (प्रदूषण) नहीं हो। दूसरे प्रकार के लकडी जैसे पदार्थो का उपयोग भी उन पदार्थों के पुनर्भरण करने की क्षमता जितना या उससे थोडा कम ही करें। और खनिजों का उपयोग तो न्यूनतम करें। अनिवार्यता में ही करें।  
 
# सृष्टि में जिसे जड़ पदार्थ माना जाता है उस के 3 प्रकार होते हैं। एक प्रकार के पदार्थ ऐसे हैं जिनका पुनर्निर्माण चक्रियता से होता रहता है। जैसे हवा में प्राणवायू का प्रमाण, जल की उपलब्धता आदि। दूसरे पदार्थ ऐसे हैं जिनका कुछ मात्रा में पुनर्भरण किया जा सकता है। लकड़ी, जल, हवा, खेतों की उर्वरता आदि ।  लेकिन तीसरे ‘खनिज’, ऐसे पदार्थ होते हैं जिनका पुनर्निर्माण सहजता से और अल्प अवधि में संभव नहीं है। इनके तीनों के उपभोग के लिये भी अलग अलग निकष अनिवार्य हैं। प्रकृति में विपुल मात्रा में उपलब्ध चक्रीयता से पुनर्निर्माण होनेवाले पदार्थों का उपयोग जितना चाहें करें। इसमें उन पदार्थों की विपुलता होना आवश्यक शर्त है। साथ ही में उस का दुरूपयोग (प्रदूषण) नहीं हो। दूसरे प्रकार के लकडी जैसे पदार्थो का उपयोग भी उन पदार्थों के पुनर्भरण करने की क्षमता जितना या उससे थोडा कम ही करें। और खनिजों का उपयोग तो न्यूनतम करें। अनिवार्यता में ही करें।  
# यत् पिंडे तत् ब्रह्मांडे यह तत्व सृष्टि में चराचर को लागू है। धातु जैसी एक जड़ वस्तु के एक कण में वैसे ही गुण लक्षण पाए जाते हैं जैसे उसी धातु के बडे या विशाल धातुखंड में पाए जाते हैं। उसी तरह हर जीवंत इकाई में भी गुण लक्षणों में समानता होती है। मानव जैसा ही मानव समाज भी एक जीवंत इकाई है। इसलिये मानव की तरह ही समाज की भी आवश्यकताएँ, इच्छाएँ, सुख दुख भावनाएँ होतीं हैं। दुनिया के सभी अस्तित्व अष्टधा प्रकृति से बनें हैं। सत्व गुण (बुध्दि), रजो गुण (मन), तमोगुण (अहंकार) और पृथ्वी, आप, तेज, वायू और आकाश ये अष्टधा प्रकृति के आठ तत्व हैं। इन में से मन, बुध्दि और अहंकार का स्तर मानव में बहुत अधिक होता है। पशू, पक्षी, प्राणियों में भी सत्व, रज, तम ये तीनों गुण होते ही हैं। लेकिन उनका स्तर निम्न होता है। धातू, मिट्टी, जल जैसे पंचमहाभौतिक पदार्थों में भी सत्व गुण (बुध्दि), रजो गुण (मन), तमोगुण (अहंकार) ये तीनों गुण होते ही हैं। लेकिन अक्रिय होते हैं। या इन का स्तर अत्यंत निम्न होता है। डॉ. जगदीशचंद्र बोस ने वनस्पति और धातु पर प्रयोग कर उपर्युक्त प्राचीन काल से ज्ञात धार्मिक  ज्ञान की पुष्टि ही की थी। इस की जानकारी हमने [[Concept of Creation of Universe (सृष्टि निर्माण की मान्यता)|इस]] अध्याय में प्राप्त की है ।  
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# यत् पिंडे तत् ब्रह्मांडे यह तत्व सृष्टि में चराचर को लागू है। धातु जैसी एक जड़ वस्तु के एक कण में वैसे ही गुण लक्षण पाए जाते हैं जैसे उसी धातु के बडे या विशाल धातुखंड में पाए जाते हैं। उसी तरह हर जीवंत इकाई में भी गुण लक्षणों में समानता होती है। मानव जैसा ही मानव समाज भी एक जीवंत इकाई है। इसलिये मानव की तरह ही समाज की भी आवश्यकताएँ, इच्छाएँ, सुख दुख भावनाएँ होतीं हैं। दुनिया के सभी अस्तित्व अष्टधा प्रकृति से बनें हैं। सत्व गुण (बुद्धि), रजो गुण (मन), तमोगुण (अहंकार) और पृथ्वी, आप, तेज, वायू और आकाश ये अष्टधा प्रकृति के आठ तत्व हैं। इन में से मन, बुद्धि और अहंकार का स्तर मानव में बहुत अधिक होता है। पशू, पक्षी, प्राणियों में भी सत्व, रज, तम ये तीनों गुण होते ही हैं। लेकिन उनका स्तर निम्न होता है। धातू, मिट्टी, जल जैसे पंचमहाभौतिक पदार्थों में भी सत्व गुण (बुद्धि), रजो गुण (मन), तमोगुण (अहंकार) ये तीनों गुण होते ही हैं। लेकिन अक्रिय होते हैं। या इन का स्तर अत्यंत निम्न होता है। डॉ. जगदीशचंद्र बोस ने वनस्पति और धातु पर प्रयोग कर उपर्युक्त प्राचीन काल से ज्ञात धार्मिक  ज्ञान की पुष्टि ही की थी। इस की जानकारी हमने [[Concept of Creation of Universe (सृष्टि निर्माण की मान्यता)|इस]] अध्याय में प्राप्त की है ।  
 
# जीवन से सम्बंधित विभिन्न विषय एक दूसरे से अन्गांगी भाव से जुड़े होते हैं । अंग को हानि अंगी की और अंगी की हानि अंग की हानि होती है । फिर भी अंग से अंगी का महत्व अधिक होता है । अंग नहीं होने पर भी अंगी नष्ट नहीं होता लेकिन अंगी के नष्ट होने पर अंग नष्ट होता ही है ।  क्यों कि अंग का अस्तित्व ही अन्गी पर निर्भर करता है ।  जीवन और जगत का निर्माण आत्मतत्व से होने के कारण आत्मतत्व का ज्ञान याने अध्यात्म यह परा, अपरा से लेकर सामाजिक शास्त्रों से लेकर विज्ञान तन्त्रज्ञान तक सभी विषयों का अंगी है । अन्य सभी विषय उसके अंग-उपांग हैं ।   
 
# जीवन से सम्बंधित विभिन्न विषय एक दूसरे से अन्गांगी भाव से जुड़े होते हैं । अंग को हानि अंगी की और अंगी की हानि अंग की हानि होती है । फिर भी अंग से अंगी का महत्व अधिक होता है । अंग नहीं होने पर भी अंगी नष्ट नहीं होता लेकिन अंगी के नष्ट होने पर अंग नष्ट होता ही है ।  क्यों कि अंग का अस्तित्व ही अन्गी पर निर्भर करता है ।  जीवन और जगत का निर्माण आत्मतत्व से होने के कारण आत्मतत्व का ज्ञान याने अध्यात्म यह परा, अपरा से लेकर सामाजिक शास्त्रों से लेकर विज्ञान तन्त्रज्ञान तक सभी विषयों का अंगी है । अन्य सभी विषय उसके अंग-उपांग हैं ।   
 
# जब भी पृथ्वी पर पाप बढ़ जाता है आसमानी संकट का सामना मानव जाति के उस समूह को करना पड़ता है ।  शायद बड़ी संख्या में लोगोंं को उनके बुरे कर्मों का फल देने की यह व्यवस्था है ।  
 
# जब भी पृथ्वी पर पाप बढ़ जाता है आसमानी संकट का सामना मानव जाति के उस समूह को करना पड़ता है ।  शायद बड़ी संख्या में लोगोंं को उनके बुरे कर्मों का फल देने की यह व्यवस्था है ।  

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