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| # सजीव उन्हें कहते हैं जिन्हें जीने के लिये अन्न की आवश्यकता होती है और जो अपने जैसे जीव निर्माण कर सकते हैं। सभी सजीव जैव शृंखला की कडियाँ होते हैं। इन में से एक कडी के नष्ट होने के परिणाम और प्रभाव पूरी सजीव सृष्टिपर होते हैं। सजीवों में बढ़ना और घटना तो प्राकृतिक होता है । लेकिन सजीवों में विकास की संभावनाएं भी होतीं हैं । निर्जीवों में तो केवल भौतिक रूप परिवर्तन ही संभव होते हैं। ये परिवर्तन भी अन्य किसी चेतन या सजीव की सहायता के बिना नहीं होते हैं । सजीवों को अपने विकास के लिये आप ही प्रयास करने होते हैं। सजीव जीवात्मा के कारण होते हैं । जीवात्मा चेतन पदार्थ है । चेतन के लक्षण हैं - इच्छाद्वेषप्रयत्नासुखदुःख ज्ञानानि आत्मनो लिंगम् इति । (न्याय दर्शन १-१-१०) अर्थ है –इच्छा करना, विपरीत परिस्थिति का विरोध करना अनुकूल को प्राप्त करने का प्रयत्न करना सुख तथा दु:ख को अनुभव करना अपने में चेतना रखना । ब्रह्मसूत्रों में चेतना का एक लक्षण ईक्षण (डीस्क्रीशन) भी बताया है । इन लक्षणों का जिसमें अभाव है वह जड़़ है । | | # सजीव उन्हें कहते हैं जिन्हें जीने के लिये अन्न की आवश्यकता होती है और जो अपने जैसे जीव निर्माण कर सकते हैं। सभी सजीव जैव शृंखला की कडियाँ होते हैं। इन में से एक कडी के नष्ट होने के परिणाम और प्रभाव पूरी सजीव सृष्टिपर होते हैं। सजीवों में बढ़ना और घटना तो प्राकृतिक होता है । लेकिन सजीवों में विकास की संभावनाएं भी होतीं हैं । निर्जीवों में तो केवल भौतिक रूप परिवर्तन ही संभव होते हैं। ये परिवर्तन भी अन्य किसी चेतन या सजीव की सहायता के बिना नहीं होते हैं । सजीवों को अपने विकास के लिये आप ही प्रयास करने होते हैं। सजीव जीवात्मा के कारण होते हैं । जीवात्मा चेतन पदार्थ है । चेतन के लक्षण हैं - इच्छाद्वेषप्रयत्नासुखदुःख ज्ञानानि आत्मनो लिंगम् इति । (न्याय दर्शन १-१-१०) अर्थ है –इच्छा करना, विपरीत परिस्थिति का विरोध करना अनुकूल को प्राप्त करने का प्रयत्न करना सुख तथा दु:ख को अनुभव करना अपने में चेतना रखना । ब्रह्मसूत्रों में चेतना का एक लक्षण ईक्षण (डीस्क्रीशन) भी बताया है । इन लक्षणों का जिसमें अभाव है वह जड़़ है । |
| # सृष्टि परिवर्तनशील है। निरंतर बदलती रहती है। बदलने की प्रक्रिया धीमी होती है। इसलिये इसे उत्क्रांति कहते हैं। सृष्टि गतिमान है। इसीलिये इसे जगत (जो गति करता है) भी कहते हैं। लेकिन इस परिवर्तन की प्रक्रिया में कुछ बातें परिवर्तनीय और कुछ बातें अपरिवर्तनीय होतीं हैं। सृष्टि विश्व नियमों से चलाती है । इन्हें ही पहले ऋत के नाम से जाना जाता था और वर्तमान में धर्म के नाम से जाना जाता है। धर्म के तत्व चिरंतन होते हैं । लेकिन कुछ स्थल, काल और परिस्थिति के अनुसार व्यावहारिक दृष्टि से परिवर्तनीय होते हैं। इन परिवर्तनीय बातों को आपद्धर्म कहा जाता है । धर्म का सैध्दांतिक पक्ष अपरिवर्तनीय होता है। जब कि व्यावहारिक पक्ष स्थल, काल और परिस्थिती के अनुसार आपद्धर्म (परिवर्तनीय) हो सकता है। आपद्धर्म केवल आपात स्थिति या काल के लिए ही आचरणीय होता है । अन्यथा नहीं । | | # सृष्टि परिवर्तनशील है। निरंतर बदलती रहती है। बदलने की प्रक्रिया धीमी होती है। इसलिये इसे उत्क्रांति कहते हैं। सृष्टि गतिमान है। इसीलिये इसे जगत (जो गति करता है) भी कहते हैं। लेकिन इस परिवर्तन की प्रक्रिया में कुछ बातें परिवर्तनीय और कुछ बातें अपरिवर्तनीय होतीं हैं। सृष्टि विश्व नियमों से चलाती है । इन्हें ही पहले ऋत के नाम से जाना जाता था और वर्तमान में धर्म के नाम से जाना जाता है। धर्म के तत्व चिरंतन होते हैं । लेकिन कुछ स्थल, काल और परिस्थिति के अनुसार व्यावहारिक दृष्टि से परिवर्तनीय होते हैं। इन परिवर्तनीय बातों को आपद्धर्म कहा जाता है । धर्म का सैध्दांतिक पक्ष अपरिवर्तनीय होता है। जब कि व्यावहारिक पक्ष स्थल, काल और परिस्थिती के अनुसार आपद्धर्म (परिवर्तनीय) हो सकता है। आपद्धर्म केवल आपात स्थिति या काल के लिए ही आचरणीय होता है । अन्यथा नहीं । |
− | # जीवन स्थल के संदर्भ में अखण्ड और काल के संदर्भ में एक है। स्थल के संदर्भ में अखण्डता का अर्थ है हमारे सामने के एक सामान्य धूलिकण के हिलने से सारी सृष्टि प्रभावित होती है, हिलती है। वर्तमान आधुनिक विज्ञान में बेल की परिकल्पना (थ्योरम), ने भी अब यह मान्य किया है कि ‘द होल युनिव्हर्स् इज व्हेरी क्लोजली इंटरकनेक्टेड’ यानी सृष्टि के सभी घटक एक दूसरे से बहुत निकटता से और सघनता से जुडे हुए हैं। काल के संदर्भ में अखण्डता का अर्थ है प्रकृति के सभी पदार्थों का सृष्टि के प्रारंभ से लेकर अंततक अस्तित्व होना। और जीवों के सन्दर्भ में भी जीवात्मा का सृष्टि निर्माण के क्रम में जब से जीवन प्रारंभ हुआ तब से सृष्टि विलय के क्रम में जब तक जीवन है तब तक एक होना है। प्रकृति के पदार्थों में रूप परिवर्तन हो सकता है लेकिन तत्व ही नष्ट हो गया ऐसा नहीं होता। जीवों के सन्दर्भ में केवल शरीर परिवर्तन होता है । इस शरीर परिवर्तन को पुनर्जन्म कहते हैं। श्रीमद्भगवद्गीता में भगवान अर्जुन को कहते हैं बहुनि मे व्यतितानि जन्मानि तवचार्जुन। अर्थ : सृष्टि के प्रारंभ से तुम्हारे और मेरे अनेकों जन्म हुए हैं। | + | # जीवन स्थल के संदर्भ में अखण्ड और काल के संदर्भ में एक है। स्थल के संदर्भ में अखण्डता का अर्थ है हमारे सामने के एक सामान्य धूलिकण के हिलने से सारी सृष्टि प्रभावित होती है, हिलती है। वर्तमान आधुनिक [[Dharmik_Science_and_Technology_(धार्मिक_विज्ञान_एवं_तन्त्रज्ञान_दृष्टि)|विज्ञान] में बेल की परिकल्पना (थ्योरम), ने भी अब यह मान्य किया है कि ‘द होल युनिव्हर्स् इज व्हेरी क्लोजली इंटरकनेक्टेड’ यानी सृष्टि के सभी घटक एक दूसरे से बहुत निकटता से और सघनता से जुडे हुए हैं। काल के संदर्भ में अखण्डता का अर्थ है प्रकृति के सभी पदार्थों का सृष्टि के प्रारंभ से लेकर अंततक अस्तित्व होना। और जीवों के सन्दर्भ में भी जीवात्मा का सृष्टि निर्माण के क्रम में जब से जीवन प्रारंभ हुआ तब से सृष्टि विलय के क्रम में जब तक जीवन है तब तक एक होना है। प्रकृति के पदार्थों में रूप परिवर्तन हो सकता है लेकिन तत्व ही नष्ट हो गया ऐसा नहीं होता। जीवों के सन्दर्भ में केवल शरीर परिवर्तन होता है । इस शरीर परिवर्तन को पुनर्जन्म कहते हैं। श्रीमद्भगवद्गीता में भगवान अर्जुन को कहते हैं बहुनि मे व्यतितानि जन्मानि तवचार्जुन। अर्थ : सृष्टि के प्रारंभ से तुम्हारे और मेरे अनेकों जन्म हुए हैं। |
| # सृष्टि में परस्पर संबद्धता है। सृष्टि का हर पदार्थ अन्य सभी पदार्थोंको प्रभावित भी करता है और उन से प्रभावित भी होता है। सृष्टि का प्रत्येक घटक एक दूसरे से अपरोक्ष या परोक्ष रूप में अन्गांगी भाव से जुड़ा है। | | # सृष्टि में परस्पर संबद्धता है। सृष्टि का हर पदार्थ अन्य सभी पदार्थोंको प्रभावित भी करता है और उन से प्रभावित भी होता है। सृष्टि का प्रत्येक घटक एक दूसरे से अपरोक्ष या परोक्ष रूप में अन्गांगी भाव से जुड़ा है। |
| # सृष्टि में जिसे जड़ पदार्थ माना जाता है उस के 3 प्रकार होते हैं। एक प्रकार के पदार्थ ऐसे हैं जिनका पुनर्निर्माण चक्रियता से होता रहता है। जैसे हवा में प्राणवायू का प्रमाण, जल की उपलब्धता आदि। दूसरे पदार्थ ऐसे हैं जिनका कुछ मात्रा में पुनर्भरण किया जा सकता है। लकड़ी, जल, हवा, खेतों की उर्वरता आदि । लेकिन तीसरे ‘खनिज’, ऐसे पदार्थ होते हैं जिनका पुनर्निर्माण सहजता से और अल्प अवधि में संभव नहीं है। इनके तीनों के उपभोग के लिये भी अलग अलग निकष अनिवार्य हैं। प्रकृति में विपुल मात्रा में उपलब्ध चक्रीयता से पुनर्निर्माण होनेवाले पदार्थों का उपयोग जितना चाहें करें। इसमें उन पदार्थों की विपुलता होना आवश्यक शर्त है। साथ ही में उस का दुरूपयोग (प्रदूषण) नहीं हो। दूसरे प्रकार के लकडी जैसे पदार्थो का उपयोग भी उन पदार्थों के पुनर्भरण करने की क्षमता जितना या उससे थोडा कम ही करें। और खनिजों का उपयोग तो न्यूनतम करें। अनिवार्यता में ही करें। | | # सृष्टि में जिसे जड़ पदार्थ माना जाता है उस के 3 प्रकार होते हैं। एक प्रकार के पदार्थ ऐसे हैं जिनका पुनर्निर्माण चक्रियता से होता रहता है। जैसे हवा में प्राणवायू का प्रमाण, जल की उपलब्धता आदि। दूसरे पदार्थ ऐसे हैं जिनका कुछ मात्रा में पुनर्भरण किया जा सकता है। लकड़ी, जल, हवा, खेतों की उर्वरता आदि । लेकिन तीसरे ‘खनिज’, ऐसे पदार्थ होते हैं जिनका पुनर्निर्माण सहजता से और अल्प अवधि में संभव नहीं है। इनके तीनों के उपभोग के लिये भी अलग अलग निकष अनिवार्य हैं। प्रकृति में विपुल मात्रा में उपलब्ध चक्रीयता से पुनर्निर्माण होनेवाले पदार्थों का उपयोग जितना चाहें करें। इसमें उन पदार्थों की विपुलता होना आवश्यक शर्त है। साथ ही में उस का दुरूपयोग (प्रदूषण) नहीं हो। दूसरे प्रकार के लकडी जैसे पदार्थो का उपयोग भी उन पदार्थों के पुनर्भरण करने की क्षमता जितना या उससे थोडा कम ही करें। और खनिजों का उपयोग तो न्यूनतम करें। अनिवार्यता में ही करें। |
| # यत् पिंडे तत् ब्रह्मांडे यह तत्व सृष्टि में चराचर को लागू है। धातु जैसी एक जड़ वस्तु के एक कण में वैसे ही गुण लक्षण पाए जाते हैं जैसे उसी धातु के बडे या विशाल धातुखंड में पाए जाते हैं। उसी तरह हर जीवंत इकाई में भी गुण लक्षणों में समानता होती है। मानव जैसा ही मानव समाज भी एक जीवंत इकाई है। इसलिये मानव की तरह ही समाज की भी आवश्यकताएँ, इच्छाएँ, सुख दुख भावनाएँ होतीं हैं। दुनिया के सभी अस्तित्व अष्टधा प्रकृति से बनें हैं। सत्व गुण (बुद्धि), रजो गुण (मन), तमोगुण (अहंकार) और पृथ्वी, आप, तेज, वायू और आकाश ये अष्टधा प्रकृति के आठ तत्व हैं। इन में से मन, बुद्धि और अहंकार का स्तर मानव में बहुत अधिक होता है। पशू, पक्षी, प्राणियों में भी सत्व, रज, तम ये तीनों गुण होते ही हैं। लेकिन उनका स्तर निम्न होता है। धातू, मिट्टी, जल जैसे पंचमहाभौतिक पदार्थों में भी सत्व गुण (बुद्धि), रजो गुण (मन), तमोगुण (अहंकार) ये तीनों गुण होते ही हैं। लेकिन अक्रिय होते हैं। या इन का स्तर अत्यंत निम्न होता है। डॉ. जगदीशचंद्र बोस ने वनस्पति और धातु पर प्रयोग कर उपर्युक्त प्राचीन काल से ज्ञात धार्मिक ज्ञान की पुष्टि ही की थी। इस की जानकारी हमने [[Concept of Creation of Universe (सृष्टि निर्माण की मान्यता)|इस]] अध्याय में प्राप्त की है । | | # यत् पिंडे तत् ब्रह्मांडे यह तत्व सृष्टि में चराचर को लागू है। धातु जैसी एक जड़ वस्तु के एक कण में वैसे ही गुण लक्षण पाए जाते हैं जैसे उसी धातु के बडे या विशाल धातुखंड में पाए जाते हैं। उसी तरह हर जीवंत इकाई में भी गुण लक्षणों में समानता होती है। मानव जैसा ही मानव समाज भी एक जीवंत इकाई है। इसलिये मानव की तरह ही समाज की भी आवश्यकताएँ, इच्छाएँ, सुख दुख भावनाएँ होतीं हैं। दुनिया के सभी अस्तित्व अष्टधा प्रकृति से बनें हैं। सत्व गुण (बुद्धि), रजो गुण (मन), तमोगुण (अहंकार) और पृथ्वी, आप, तेज, वायू और आकाश ये अष्टधा प्रकृति के आठ तत्व हैं। इन में से मन, बुद्धि और अहंकार का स्तर मानव में बहुत अधिक होता है। पशू, पक्षी, प्राणियों में भी सत्व, रज, तम ये तीनों गुण होते ही हैं। लेकिन उनका स्तर निम्न होता है। धातू, मिट्टी, जल जैसे पंचमहाभौतिक पदार्थों में भी सत्व गुण (बुद्धि), रजो गुण (मन), तमोगुण (अहंकार) ये तीनों गुण होते ही हैं। लेकिन अक्रिय होते हैं। या इन का स्तर अत्यंत निम्न होता है। डॉ. जगदीशचंद्र बोस ने वनस्पति और धातु पर प्रयोग कर उपर्युक्त प्राचीन काल से ज्ञात धार्मिक ज्ञान की पुष्टि ही की थी। इस की जानकारी हमने [[Concept of Creation of Universe (सृष्टि निर्माण की मान्यता)|इस]] अध्याय में प्राप्त की है । |
− | # जीवन से सम्बंधित विभिन्न विषय एक दूसरे से अन्गांगी भाव से जुड़े होते हैं । अंग को हानि अंगी की और अंगी की हानि अंग की हानि होती है । फिर भी अंग से अंगी का महत्व अधिक होता है । अंग नहीं होने पर भी अंगी नष्ट नहीं होता लेकिन अंगी के नष्ट होने पर अंग नष्ट होता ही है । क्यों कि अंग का अस्तित्व ही अन्गी पर निर्भर करता है । जीवन और जगत का निर्माण आत्मतत्व से होने के कारण आत्मतत्व का ज्ञान याने अध्यात्म यह परा, अपरा से लेकर सामाजिक शास्त्रों से लेकर विज्ञान तन्त्रज्ञान तक सभी विषयों का अंगी है । अन्य सभी विषय उसके अंग-उपांग हैं । | + | # जीवन से सम्बंधित विभिन्न विषय एक दूसरे से अन्गांगी भाव से जुड़े होते हैं । अंग को हानि अंगी की और अंगी की हानि अंग की हानि होती है । फिर भी अंग से अंगी का महत्व अधिक होता है । अंग नहीं होने पर भी अंगी नष्ट नहीं होता लेकिन अंगी के नष्ट होने पर अंग नष्ट होता ही है । क्यों कि अंग का अस्तित्व ही अन्गी पर निर्भर करता है । जीवन और जगत का निर्माण आत्मतत्व से होने के कारण आत्मतत्व का ज्ञान याने अध्यात्म यह परा, अपरा से लेकर सामाजिक शास्त्रों से लेकर [[Dharmik_Science_and_Technology_(धार्मिक_विज्ञान_एवं_तन्त्रज्ञान_दृष्टि)|विज्ञान] तन्त्रज्ञान तक सभी विषयों का अंगी है । अन्य सभी विषय उसके अंग-उपांग हैं । |
| # जब भी पृथ्वी पर पाप बढ़ जाता है आसमानी संकट का सामना मानव जाति के उस समूह को करना पड़ता है । शायद बड़ी संख्या में लोगोंं को उनके बुरे कर्मों का फल देने की यह व्यवस्था है । | | # जब भी पृथ्वी पर पाप बढ़ जाता है आसमानी संकट का सामना मानव जाति के उस समूह को करना पड़ता है । शायद बड़ी संख्या में लोगोंं को उनके बुरे कर्मों का फल देने की यह व्यवस्था है । |
| # परमात्मा ने सृष्टि को संतुलन के साथ ही बनाया है । सृष्टि में संतुलन बनाए रखने की सामर्थ्य भी होती है । इस सामर्थ्य की एक मर्यादा होती है । इस मर्यादा को लाँघने से प्रकृति के प्रकोप होते हैं । | | # परमात्मा ने सृष्टि को संतुलन के साथ ही बनाया है । सृष्टि में संतुलन बनाए रखने की सामर्थ्य भी होती है । इस सामर्थ्य की एक मर्यादा होती है । इस मर्यादा को लाँघने से प्रकृति के प्रकोप होते हैं । |