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"न गृहं गृहमित्याहु गृहिणी गृहमुच्यते"{{Citation needed}}   
 
"न गृहं गृहमित्याहु गृहिणी गृहमुच्यते"{{Citation needed}}   
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यह कथन सर्वपरिचित है । गृहिणी का अर्थ है गृह का मूर्त स्त्रीरूप । इस स्त्रीलिंगी संज्ञा का पुल्लिंग रूप है गृही । परन्तु पुरुष को गृही नहीं गृहस्थ कहा जाता है । गृहस्थ का अर्थ है घर में रहनें वाला । स्त्री साक्षात्‌ गृह है, पुरुष उस गृह में रहने वाला है । मकान को घर बनाने में, रक्त सम्बन्ध से जुड़े लोगों का कुटुम्ब बनाने में, स्त्री की कितनी महत्त्वपूर्ण भूमिका है यह दर्शाने के लिये ही यह वाक्यप्रयोग किया गया है । स्त्री को यह भूमिका उसके स्वभाव, गुण, शक्ति, कौशल आदि के कारण मिली है, कानून से नहीं । जो लोग भारत में स्रियों को दबाया जाता है, या उनका शोषण किया जाता है ऐसा कहकर शोर मचाते हैं, भारत की निन्दा करते हैं, और जो स्त्रियाँ भी अब मुक्ति, सशक्तिकरण, समानता, स्वतन्त्रता आदि को लेकर आन्दोलन चलाती हैं उन्हें उत्तर देने के लिये भारतीय कुटुम्ब व्यवस्था में स्त्री के स्थान को लेकर की गई यह एक बात ही पर्याप्त है । आवश्यकता तो यह है कि इस तत्त्व को पुनः प्रस्थापित करने में हमारी शक्ति लगे ।
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यह कथन सर्वपरिचित है । गृहिणी का अर्थ है गृह का मूर्त स्त्रीरूप । इस स्त्रीलिंगी संज्ञा का पुल्लिंग रूप है गृही । परन्तु पुरुष को गृही नहीं गृहस्थ कहा जाता है । गृहस्थ का अर्थ है घर में रहनें वाला । स्त्री साक्षात्‌ गृह है, पुरुष उस गृह में रहने वाला है । मकान को घर बनाने में, रक्त सम्बन्ध से जुड़े लोगोंं का कुटुम्ब बनाने में, स्त्री की कितनी महत्त्वपूर्ण भूमिका है यह दर्शाने के लिये ही यह वाक्यप्रयोग किया गया है । स्त्री को यह भूमिका उसके स्वभाव, गुण, शक्ति, कौशल आदि के कारण मिली है, कानून से नहीं । जो लोग भारत में स्रियों को दबाया जाता है, या उनका शोषण किया जाता है ऐसा कहकर शोर मचाते हैं, भारत की निन्दा करते हैं, और जो स्त्रियाँ भी अब मुक्ति, सशक्तिकरण, समानता, स्वतन्त्रता आदि को लेकर आन्दोलन चलाती हैं उन्हें उत्तर देने के लिये भारतीय कुटुम्ब व्यवस्था में स्त्री के स्थान को लेकर की गई यह एक बात ही पर्याप्त है । आवश्यकता तो यह है कि इस तत्त्व को पुनः प्रस्थापित करने में हमारी शक्ति लगे ।
    
गृहिणी की प्रमुख भूमिका होने के कारण घर की सारी व्यवस्थाओं का संचालन उसके ही अधीन होता है । इसी तत्त्व के अनुसार भारत में आर्थिक पक्ष की व्यवस्था भी ऐसी ही होती थी कि पुरुष अर्थार्जन करता है और स्त्री अर्थ का विनियोग । पुरुष धान्य लाता है और स्त्री भोजन बनाकर सबको खिलाती है । घर के स्वामित्व के सन्दर्भ में तो दोनों बराबर हैं । पति गृहस्वामी है, पत्नी गृहस्वामिनी । पति पत्नी का भी स्वामी नहीं है यद्यपि पत्नी उसे स्वामी के रूप में स्वीकार करती है । पत्नी जिस प्रकार घर की स्वामिनी है उस प्रकार से पति की स्वामिनी नहीं है । उनका सम्बन्ध तो अर्धनारीश्वर का है परन्तु अन्यों के लिये गृहसंचालन की व्यवस्था में गृहिणी की प्रमुख भूमिका है ।
 
गृहिणी की प्रमुख भूमिका होने के कारण घर की सारी व्यवस्थाओं का संचालन उसके ही अधीन होता है । इसी तत्त्व के अनुसार भारत में आर्थिक पक्ष की व्यवस्था भी ऐसी ही होती थी कि पुरुष अर्थार्जन करता है और स्त्री अर्थ का विनियोग । पुरुष धान्य लाता है और स्त्री भोजन बनाकर सबको खिलाती है । घर के स्वामित्व के सन्दर्भ में तो दोनों बराबर हैं । पति गृहस्वामी है, पत्नी गृहस्वामिनी । पति पत्नी का भी स्वामी नहीं है यद्यपि पत्नी उसे स्वामी के रूप में स्वीकार करती है । पत्नी जिस प्रकार घर की स्वामिनी है उस प्रकार से पति की स्वामिनी नहीं है । उनका सम्बन्ध तो अर्धनारीश्वर का है परन्तु अन्यों के लिये गृहसंचालन की व्यवस्था में गृहिणी की प्रमुख भूमिका है ।
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# पिता का वंश पुत्र आगे चलाता है, माता का पुत्री नहीं ।
 
# पिता का वंश पुत्र आगे चलाता है, माता का पुत्री नहीं ।
 
# लड़की हमेशा दूसरे घर की होती है । जिस घर में विवाह के बाद जाती है वह उसका होता है ।  
 
# लड़की हमेशा दूसरे घर की होती है । जिस घर में विवाह के बाद जाती है वह उसका होता है ।  
यह व्यवस्था सहस्रों वर्षों से चली आई है। आज भी चल रही है । यदि इसके स्थान पर स्त्रीकेन्द्री व्यवस्था बनाना चाहें तो नहीं बन सकती, ऐसा तो नहीं है । पुरुष ससुराल जाय, पत्नी के कुल और गोत्र को स्वीकार करे, सन्तानों के साथ माता का नाम जुड़े ऐसा हो सकता है । परन्तु आज ऐसा आमूल परिवर्तन करने का विचार अभी किसी को नहीं आता है। हाँ, आधेअधूरे विचार कई लोगों को आते हैं । उदाहरण के लिये कई लोग अपने नाम के साथ माता और पिता दोनों के नाम लिखते हैं । कुछ लोग अपने नाम के साथ माता के कुल का नाम लगाते हैं । यह तो माता को मान्यता प्रदान करने का मुद्दा है परन्तु अब कुछ शिक्षित महिलायें ऐसा भी आग्रह करती दिखाई देती हैं कि विवाह के बाद वे जिस प्रकार माता-पिता का घर छोड़ती हैं उस प्रकार पति भी अपने माता-पिता का घर छोड़ दे और वे अपना नया घर बसायें । यह न्यूक्लियर फैमिली की संकल्पना है जो पश्चिम की व्यक्तिकेन्द्री समाजव्यवस्था का उदाहरण है । ये सारी बातें भारत की समाजव्यवस्था, परम्परा, भावना आदि का ज्ञान नहीं होने का परिणाम है। वर्तमान शिक्षाव्यवस्था ही इसके लिये जिम्मेदार है ।
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यह व्यवस्था सहस्रों वर्षों से चली आई है। आज भी चल रही है । यदि इसके स्थान पर स्त्रीकेन्द्री व्यवस्था बनाना चाहें तो नहीं बन सकती, ऐसा तो नहीं है । पुरुष ससुराल जाय, पत्नी के कुल और गोत्र को स्वीकार करे, सन्तानों के साथ माता का नाम जुड़े ऐसा हो सकता है । परन्तु आज ऐसा आमूल परिवर्तन करने का विचार अभी किसी को नहीं आता है। हाँ, आधेअधूरे विचार कई लोगोंं को आते हैं । उदाहरण के लिये कई लोग अपने नाम के साथ माता और पिता दोनों के नाम लिखते हैं । कुछ लोग अपने नाम के साथ माता के कुल का नाम लगाते हैं । यह तो माता को मान्यता प्रदान करने का मुद्दा है परन्तु अब कुछ शिक्षित महिलायें ऐसा भी आग्रह करती दिखाई देती हैं कि विवाह के बाद वे जिस प्रकार माता-पिता का घर छोड़ती हैं उस प्रकार पति भी अपने माता-पिता का घर छोड़ दे और वे अपना नया घर बसायें । यह न्यूक्लियर फैमिली की संकल्पना है जो पश्चिम की व्यक्तिकेन्द्री समाजव्यवस्था का उदाहरण है । ये सारी बातें भारत की समाजव्यवस्था, परम्परा, भावना आदि का ज्ञान नहीं होने का परिणाम है। वर्तमान शिक्षाव्यवस्था ही इसके लिये जिम्मेदार है ।
    
पुरुष केन्द्री व्यवस्था और स्त्री केंद्री संचालन में बहुत विरोध या असहमति नहीं दिखाई देती है क्योंकि दोनों बातें काल की कसौटी पर खरी उतरी हैं और समाज में प्रस्थापित हुई हैं । समाज व्यवस्था में व्यक्ति को नहीं अपितु कुटुम्ब को इकाई बनाने के कारण किसी भी व्यवस्था, घटना, रचना, व्यवहार पद्धति का समग्रता में विचार करना और एकात्मता की साधना करना सुकर होता है । सामाजिक सम्मान सुरक्षा, समृद्धि और स्वतन्त्रता भी सुलभ होते हैं; और समाज में सुख, शान्ति, संस्कार, प्रतिष्ठित होते हैं। अनाचार, हिंसा, शोषण, उत्तेजना कम होते हैं । भारतीय विचार के अनुसार तो यही विकास है । जीडीपी के पीछे पड़ने की कोई आवश्यकता नहीं है ।
 
पुरुष केन्द्री व्यवस्था और स्त्री केंद्री संचालन में बहुत विरोध या असहमति नहीं दिखाई देती है क्योंकि दोनों बातें काल की कसौटी पर खरी उतरी हैं और समाज में प्रस्थापित हुई हैं । समाज व्यवस्था में व्यक्ति को नहीं अपितु कुटुम्ब को इकाई बनाने के कारण किसी भी व्यवस्था, घटना, रचना, व्यवहार पद्धति का समग्रता में विचार करना और एकात्मता की साधना करना सुकर होता है । सामाजिक सम्मान सुरक्षा, समृद्धि और स्वतन्त्रता भी सुलभ होते हैं; और समाज में सुख, शान्ति, संस्कार, प्रतिष्ठित होते हैं। अनाचार, हिंसा, शोषण, उत्तेजना कम होते हैं । भारतीय विचार के अनुसार तो यही विकास है । जीडीपी के पीछे पड़ने की कोई आवश्यकता नहीं है ।
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भारतीय कुटुम्ब स्वायत्त है। स्वायत्त कुटुम्ब ही स्वतन्त्र भी होता है । इस कथन का क्‍या अर्थ है ?
 
भारतीय कुटुम्ब स्वायत्त है। स्वायत्त कुटुम्ब ही स्वतन्त्र भी होता है । इस कथन का क्‍या अर्थ है ?
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स्वायत्त कुटुम्ब अपनी जिम्मेदारी पर चलता है। अपने लिये आवश्यक वस्तुयें स्वयं की जिम्मेदारी पर प्राप्त करता है और व्यवस्थायें स्वयं बना लेता है । अपना तन्त्र स्वयं बिठाता है। कुटुम्ब से बाहर का कोई व्यक्ति कुटुम्ब के मामले तय नहीं करता । उदाहरण के लिये घर में क्या खाना बनेगा यह खाना बनानेवाली और खाने वाले मिलकर तय करते हैं। घर की सन्तानों का संगोपन और शिक्षा कैसे करना यह घर के लोग ही निश्चित करते हैं। घर की साजसज्जा, उत्सव पर्व की रचना, अतिथिसत्कार आदि के विषय में घर के लोगों का निर्णय ही आखिरी होता है। अपनी कन्या के लिये कैसा वर ढूँढना और कैसी पुत्रवधू घर में लाना इसका निर्णय भी कुटुम्ब स्वयं करता है । संक्षेप में अपने जीवन से सम्बन्धित सारे निर्णय कुटुम्ब ही करता है।
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स्वायत्त कुटुम्ब अपनी जिम्मेदारी पर चलता है। अपने लिये आवश्यक वस्तुयें स्वयं की जिम्मेदारी पर प्राप्त करता है और व्यवस्थायें स्वयं बना लेता है । अपना तन्त्र स्वयं बिठाता है। कुटुम्ब से बाहर का कोई व्यक्ति कुटुम्ब के मामले तय नहीं करता । उदाहरण के लिये घर में क्या खाना बनेगा यह खाना बनानेवाली और खाने वाले मिलकर तय करते हैं। घर की सन्तानों का संगोपन और शिक्षा कैसे करना यह घर के लोग ही निश्चित करते हैं। घर की साजसज्जा, उत्सव पर्व की रचना, अतिथिसत्कार आदि के विषय में घर के लोगोंं का निर्णय ही आखिरी होता है। अपनी कन्या के लिये कैसा वर ढूँढना और कैसी पुत्रवधू घर में लाना इसका निर्णय भी कुटुम्ब स्वयं करता है । संक्षेप में अपने जीवन से सम्बन्धित सारे निर्णय कुटुम्ब ही करता है।
    
व्यावहारिक जीवन के सभी आयामों में स्वायत्तता और स्वतन्त्रता की एक वरीयता क्रम में रचना बनी है । उसके आधार पर रीतियाँ भी बनी हुई हैं । उदाहरण के लिये कुटुम्ब कितना भी स्वतन्त्र और स्वायत्त हो तो भी व्यवसाय निश्चिति के क्षेत्र में वह स्वायत्त नहीं है। वह सरलता से अपना व्यवसाय न छोड़ सकता है न बदल सकता है। विवाह हेतु अपना वर्ण छोड़ना भी सरल नहीं है। इसी प्रकार से सम्प्रदाय परिवर्तन भी सरल नहीं है। इन बातों में परिवर्तन सर्वथा असम्भव है ऐसा तो नहीं है परन्तु ऐसा करने के लिये अनेक जटिल प्रक्रियाओं से गुजरना पडता है। यह दुष्कर है, असम्भव नहीं । यह दुष्कर इसलिये हैं क्योंकि इससे अनेक कुटुम्ब प्रभावित होते हैं । उनके लिये कठिनाई भी निर्माण हो सकती है। इन सबका निवारण करने की सावधानी रखने के कारण ही. सम्प्रदाय, व्यवसाय, विवाहव्यवस्था में परिवर्तन हेतु जटिल प्रक्रियाओं से गुजरना होता है। स्थापित व्यवस्था सब के हित की रक्षा करनेवाली होती है इसलिये इन जटिल प्रक्रियाओं के सिद्ध होने के लिये ऐसा ही कोई प्रभावी कारण चाहिये । अतः सामान्य स्थिति में लोग ऐसे करते नहीं । भारतीय समाज भी स्वायत्त समाज होता है । इसका अर्थ है कि वह अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु स्वयं व्यवस्था बनाता है। स्वायत्तता हेतु वह स्वायत्तता की विभिन्न श्रेणियाँ बनाता है । उदाहरण के लिये
 
व्यावहारिक जीवन के सभी आयामों में स्वायत्तता और स्वतन्त्रता की एक वरीयता क्रम में रचना बनी है । उसके आधार पर रीतियाँ भी बनी हुई हैं । उदाहरण के लिये कुटुम्ब कितना भी स्वतन्त्र और स्वायत्त हो तो भी व्यवसाय निश्चिति के क्षेत्र में वह स्वायत्त नहीं है। वह सरलता से अपना व्यवसाय न छोड़ सकता है न बदल सकता है। विवाह हेतु अपना वर्ण छोड़ना भी सरल नहीं है। इसी प्रकार से सम्प्रदाय परिवर्तन भी सरल नहीं है। इन बातों में परिवर्तन सर्वथा असम्भव है ऐसा तो नहीं है परन्तु ऐसा करने के लिये अनेक जटिल प्रक्रियाओं से गुजरना पडता है। यह दुष्कर है, असम्भव नहीं । यह दुष्कर इसलिये हैं क्योंकि इससे अनेक कुटुम्ब प्रभावित होते हैं । उनके लिये कठिनाई भी निर्माण हो सकती है। इन सबका निवारण करने की सावधानी रखने के कारण ही. सम्प्रदाय, व्यवसाय, विवाहव्यवस्था में परिवर्तन हेतु जटिल प्रक्रियाओं से गुजरना होता है। स्थापित व्यवस्था सब के हित की रक्षा करनेवाली होती है इसलिये इन जटिल प्रक्रियाओं के सिद्ध होने के लिये ऐसा ही कोई प्रभावी कारण चाहिये । अतः सामान्य स्थिति में लोग ऐसे करते नहीं । भारतीय समाज भी स्वायत्त समाज होता है । इसका अर्थ है कि वह अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु स्वयं व्यवस्था बनाता है। स्वायत्तता हेतु वह स्वायत्तता की विभिन्न श्रेणियाँ बनाता है । उदाहरण के लिये

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