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# जन्म लेनेवाली सन्तति के साथ पिता का कुल, गोत्र आदि जुड़ता है, माता का नहीं ।
 
# जन्म लेनेवाली सन्तति के साथ पिता का कुल, गोत्र आदि जुड़ता है, माता का नहीं ।
 
# पिता का वंश पुत्र आगे चलाता है, माता का पुत्री नहीं ।
 
# पिता का वंश पुत्र आगे चलाता है, माता का पुत्री नहीं ।
# लड़की हमेशा दूसरे घर की होती है । जिस घर में विवाह के बाद जाती है वह उसका होता है ।  
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# लड़की सदा दूसरे घर की होती है । जिस घर में विवाह के बाद जाती है वह उसका होता है ।  
 
यह व्यवस्था सहस्रों वर्षों से चली आई है। आज भी चल रही है । यदि इसके स्थान पर स्त्रीकेन्द्री व्यवस्था बनाना चाहें तो नहीं बन सकती, ऐसा तो नहीं है । पुरुष ससुराल जाय, पत्नी के कुल और गोत्र को स्वीकार करे, सन्तानों के साथ माता का नाम जुड़े ऐसा हो सकता है । परन्तु आज ऐसा आमूल परिवर्तन करने का विचार अभी किसी को नहीं आता है। हाँ, आधेअधूरे विचार कई लोगोंं को आते हैं । उदाहरण के लिये कई लोग अपने नाम के साथ माता और पिता दोनों के नाम लिखते हैं । कुछ लोग अपने नाम के साथ माता के कुल का नाम लगाते हैं । यह तो माता को मान्यता प्रदान करने का मुद्दा है परन्तु अब कुछ शिक्षित महिलायें ऐसा भी आग्रह करती दिखाई देती हैं कि विवाह के बाद वे जिस प्रकार माता-पिता का घर छोड़ती हैं उस प्रकार पति भी अपने माता-पिता का घर छोड़ दे और वे अपना नया घर बसायें । यह न्यूक्लियर फैमिली की संकल्पना है जो पश्चिम की व्यक्तिकेन्द्री समाजव्यवस्था का उदाहरण है । ये सारी बातें भारत की समाजव्यवस्था, परम्परा, भावना आदि का ज्ञान नहीं होने का परिणाम है। वर्तमान शिक्षाव्यवस्था ही इसके लिये जिम्मेदार है ।
 
यह व्यवस्था सहस्रों वर्षों से चली आई है। आज भी चल रही है । यदि इसके स्थान पर स्त्रीकेन्द्री व्यवस्था बनाना चाहें तो नहीं बन सकती, ऐसा तो नहीं है । पुरुष ससुराल जाय, पत्नी के कुल और गोत्र को स्वीकार करे, सन्तानों के साथ माता का नाम जुड़े ऐसा हो सकता है । परन्तु आज ऐसा आमूल परिवर्तन करने का विचार अभी किसी को नहीं आता है। हाँ, आधेअधूरे विचार कई लोगोंं को आते हैं । उदाहरण के लिये कई लोग अपने नाम के साथ माता और पिता दोनों के नाम लिखते हैं । कुछ लोग अपने नाम के साथ माता के कुल का नाम लगाते हैं । यह तो माता को मान्यता प्रदान करने का मुद्दा है परन्तु अब कुछ शिक्षित महिलायें ऐसा भी आग्रह करती दिखाई देती हैं कि विवाह के बाद वे जिस प्रकार माता-पिता का घर छोड़ती हैं उस प्रकार पति भी अपने माता-पिता का घर छोड़ दे और वे अपना नया घर बसायें । यह न्यूक्लियर फैमिली की संकल्पना है जो पश्चिम की व्यक्तिकेन्द्री समाजव्यवस्था का उदाहरण है । ये सारी बातें भारत की समाजव्यवस्था, परम्परा, भावना आदि का ज्ञान नहीं होने का परिणाम है। वर्तमान शिक्षाव्यवस्था ही इसके लिये जिम्मेदार है ।
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== सुखी कुटुम्ब से सुखी समाज बनाने के कुछ सूत्र ==
 
== सुखी कुटुम्ब से सुखी समाज बनाने के कुछ सूत्र ==
 
# अपना काम स्वयं करना, किसी का काम करना नहीं, किसी से अपना काम करवाना नहीं । यह एक बड़ी मूल्यवान व्यवस्था है । जब अनेक मनुष्य साथ साथ रहते हैं और प्रकृति की व्यवस्था से ही परस्परावलम्बी हैं तब एकदूसरे का काम नहीं करना और किसी से काम नहीं करवाना सम्भव नहीं है और व्यवहार्य भी नहीं है। परन्तु इस सूत्र का तात्पर्य यह है कि किसी का काम स्वार्थ, भय, लालच, दबाव या अन्य विवशता से नहीं करना या किसी को इन्हीं कारणों से अपना काम करने हेतु बाध्य नहीं करना अपितु एकदूसरे का काम स्नेह, सख्य, आदर, श्रद्धा, कृतज्ञता, दया, करुणा से प्रेरित होकर करना चाहिये । आधार सेवा है, स्वार्थ नहीं ।  
 
# अपना काम स्वयं करना, किसी का काम करना नहीं, किसी से अपना काम करवाना नहीं । यह एक बड़ी मूल्यवान व्यवस्था है । जब अनेक मनुष्य साथ साथ रहते हैं और प्रकृति की व्यवस्था से ही परस्परावलम्बी हैं तब एकदूसरे का काम नहीं करना और किसी से काम नहीं करवाना सम्भव नहीं है और व्यवहार्य भी नहीं है। परन्तु इस सूत्र का तात्पर्य यह है कि किसी का काम स्वार्थ, भय, लालच, दबाव या अन्य विवशता से नहीं करना या किसी को इन्हीं कारणों से अपना काम करने हेतु बाध्य नहीं करना अपितु एकदूसरे का काम स्नेह, सख्य, आदर, श्रद्धा, कृतज्ञता, दया, करुणा से प्रेरित होकर करना चाहिये । आधार सेवा है, स्वार्थ नहीं ।  
# आय से व्यय हमेशा कम होना चाहिए । जरा सा विचार करने पर इस सूत्र की सार्थकता समझ में आती है । मनुष्य का मन इच्छाओं का पुंज है । वे कभी सन्तुष्ट नहीं होती और पूर्ण भी नहीं होती । इसलिये व्यावहारिक समझदारी इसमें है कि अर्थार्जन के अनुसार अपनी आवश्यकताओं को ढालकर संतोष को अपनाओ । इसी में से दान और बचत भी करो । इसीके चलते कम अर्थवान होना सामाजिक प्रतिष्ठा और सम्मान के आडे नहीं आता |
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# आय से व्यय सदा कम होना चाहिए । जरा सा विचार करने पर इस सूत्र की सार्थकता समझ में आती है । मनुष्य का मन इच्छाओं का पुंज है । वे कभी सन्तुष्ट नहीं होती और पूर्ण भी नहीं होती । इसलिये व्यावहारिक समझदारी इसमें है कि अर्थार्जन के अनुसार अपनी आवश्यकताओं को ढालकर संतोष को अपनाओ । इसी में से दान और बचत भी करो । इसीके चलते कम अर्थवान होना सामाजिक प्रतिष्ठा और सम्मान के आडे नहीं आता |
 
# कोई भी काम हेय नहीं है । समाज के लिये किया गया कोई भी काम, कोई भी व्यवसाय हेय नहीं है । यह काम सबका अपना अपना स्वधर्म है और स्वधर्म छोड़ने की किसी को अनुमति नहीं है। काम नहीं अपितु काम करने की नीयत किसी को श्रेष्ठ या कनिष्ठ बनाती है। आज इस सूत्र को छोड़ने से सामाजिक और आर्थिक क्षेत्र में कितनी अनवस्था फैल गई है इसका हम अनुभव कर ही रहे हैं ।
 
# कोई भी काम हेय नहीं है । समाज के लिये किया गया कोई भी काम, कोई भी व्यवसाय हेय नहीं है । यह काम सबका अपना अपना स्वधर्म है और स्वधर्म छोड़ने की किसी को अनुमति नहीं है। काम नहीं अपितु काम करने की नीयत किसी को श्रेष्ठ या कनिष्ठ बनाती है। आज इस सूत्र को छोड़ने से सामाजिक और आर्थिक क्षेत्र में कितनी अनवस्था फैल गई है इसका हम अनुभव कर ही रहे हैं ।
 
# मोक्ष के लिये कोई भी सांसारिक बात आडे नहीं आती । व्याघ, कुम्हार, बुनकर, चमार, व्यापारी,  योद्धा आदि किसी को भी संतत्व, आत्मसाक्षात्कार, मोक्ष नहीं मिल सकता है ऐसा नहीं है । तो वेदपाठी ब्राह्मण भी अपने आप ही मोक्ष का अधिकारी नहीं बन जाता । इस कारण से भी समाज में ऊँचनीच का दूषण पैदा नहीं होता ।
 
# मोक्ष के लिये कोई भी सांसारिक बात आडे नहीं आती । व्याघ, कुम्हार, बुनकर, चमार, व्यापारी,  योद्धा आदि किसी को भी संतत्व, आत्मसाक्षात्कार, मोक्ष नहीं मिल सकता है ऐसा नहीं है । तो वेदपाठी ब्राह्मण भी अपने आप ही मोक्ष का अधिकारी नहीं बन जाता । इस कारण से भी समाज में ऊँचनीच का दूषण पैदा नहीं होता ।

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