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२. दूसरा उपाय होता है शासन से अनुदान का । ऐसा एक बड़ा वर्ग है जहाँ सम्यक खर्च शासन का ही होता है। आईआईटी, आईआईएम जैसे बड़े संस्थान अधिकांश विश्वविद्यालय, अनेक महाविद्यालय, अधिकांश प्राथमिक विद्यालय शत प्रतिशत सरकारी खर्च से ही चलते है। सरकार यह खर्च प्रजा से जो कर मिलता है उसमें से करती है। अनेक छोटे बडे निजी विद्यालय शासन द्वारा दिये गये आवर्ती अनुदान से चलते हैं।  
 
२. दूसरा उपाय होता है शासन से अनुदान का । ऐसा एक बड़ा वर्ग है जहाँ सम्यक खर्च शासन का ही होता है। आईआईटी, आईआईएम जैसे बड़े संस्थान अधिकांश विश्वविद्यालय, अनेक महाविद्यालय, अधिकांश प्राथमिक विद्यालय शत प्रतिशत सरकारी खर्च से ही चलते है। सरकार यह खर्च प्रजा से जो कर मिलता है उसमें से करती है। अनेक छोटे बडे निजी विद्यालय शासन द्वारा दिये गये आवर्ती अनुदान से चलते हैं।  
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३. निजी विद्यालयों का एक बड़ा वर्ग ऐसा है जिसे शिक्षकों के वेतन हेतु अनुदान मिलता है परन्तु भवन, फर्नीचर तथा अन्य समग्री के लिये स्वयं का पैसा खर्च करना पडता है। तब यह पैसा समाज के दान के रूप में ही मिलता है। ऐसे विद्यालयों का संचालन सार्वजनिक संस्थायें करती हैं। समाज के दानशील लोग इन्हें सहायता करते हैं।
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३. निजी विद्यालयों का एक बड़ा वर्ग ऐसा है जिसे शिक्षकों के वेतन हेतु अनुदान मिलता है परन्तु भवन, फर्नीचर तथा अन्य समग्री के लिये स्वयं का पैसा खर्च करना पडता है। तब यह पैसा समाज के दान के रूप में ही मिलता है। ऐसे विद्यालयों का संचालन सार्वजनिक संस्थायें करती हैं। समाज के दानशील लोग इन्हें सहायता करते हैं। जो संस्था के नहीं अपितु सर्वथा निजी मालिकी के विद्यालय या विश्वविद्यालय होते हैं उनकी आर्थिक जिम्मेदारी उस मालिक की ही होती है। परन्तु वे शुद्ध बाजार के रूप में ही उन्हें चलाते हैं। अधिकांश ये उद्योजकों की मालिकी के ही होते हैं और उनके उद्योग के एक अंग के रूप में वे चलते हैं। ऐसे विद्यालयों के लिये शुल्क के अतिरिक्त आय का और कोई स्रोत नहीं होता। इन विद्यालयों के मालिक उद्योजक होते हैं, शिक्षक नहीं इसलिये ये विद्यालय कम, उद्योग ही अधिक होते है।
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जो संस्था के नहीं अपितु सर्वथा निजी मालिकी के विद्यालय या विश्वविद्यालय होते हैं उनकी आर्थिक जिम्मेदारी उस मालिक की ही होती है। परन्तु वे
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क्वचित् ऐसे भी विद्यालय होते हैं जिनके पास पर्याप्त भूमि होती है। इस भूमि पर फलों की अथवा तत्सम पदार्थों की फसल ली जाती है जिससे उन्हें अच्छी आय होती है और उनका निभाव अच्छी तरह होता है। विद्यालय के निभाव हेतु विद्यालय का कोई न कोई व्यवसाय भी होता है। ये विद्यालय वास्तव में अत्यन्त व्यवहावादी कहे जाने चाहिये । परन्तु ये इनेगिने ही होते हैं। ये सब वर्तमान परिस्थिति का विचार कर अपनाये गये मार्ग हैं। परन्तु भारतीय दृष्टि से तो विद्यार्थियों द्वारा दी गई गुरुदक्षिणा, पूर्व छात्रों द्वारा विद्यालय की ली गई आर्थिक जिम्मेदारी तथा समाज द्वारा दिया गया दान ही विद्यालय का आय का स्रोत होना चाहिये । साथ ही विद्यालय द्वारा अपनाई गई सादगी, स्वावलम्बन और मितव्ययिता ही सही उपाय है। इन मुद्दों की विस्तारपूर्वक चर्चा इस ग्रन्थ में अन्यत्र की गई हैं इसलिये यहाँ केवल संकेत ही किया है ।
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==== मूल विचार जानना ====
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आज के युग में शिक्षा को उद्योग माना जाता है। इसलिये पैसों के संदर्भ में ही इसका विचार किया जाता है। उसको खरीदने बेचने की चीज़ या तो फिर धन कमाने का साधन माना जाता है। इसलिये हर एक चरण पर शुल्क (फीस), वेतन, भत्ता, संचालन व्यवस्था, प्रशासन आदि बातों का संदर्भ लिया जाता है। इस परिप्रेक्ष्य में भारत का विचार मूल से जानने की आवश्यकता है।  
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१. शिक्षा कोई खरीदने की या बेचने की वस्तु नहीं है,
    
आज हर विद्यालय सशुल्क ही चलता है । इसमें किसी को आपत्ति भी नहीं होती । विद्यालय की शुल्कव्यवस्था इस प्रश्नावली के प्रश्न पुछकर कुछ लोगों से बातचीत हुई उनसे प्राप्त उत्तर इस प्रकार रहे -  
 
आज हर विद्यालय सशुल्क ही चलता है । इसमें किसी को आपत्ति भी नहीं होती । विद्यालय की शुल्कव्यवस्था इस प्रश्नावली के प्रश्न पुछकर कुछ लोगों से बातचीत हुई उनसे प्राप्त उत्तर इस प्रकार रहे -  
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