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लेख सम्पादित किया
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मनुष्य इस विश्व से अलग होना नहीं चाहता। जन्मजन्मांतर में भी वह यही सुख चाहता है। वास्तव में काम से प्रेरित होकर जो भी क्रियाकलाप हम करते हैं उसी से हमारा भाग्य बनता है, उसी से संस्कार बनते हैं। वे क्रियाकलाप हमारे कर्म होते हैं। उन कर्मों के फल होते हैं। उन कर्मफलों का भोग करने के लिये पुनर्जन्म होता है। कर्म, कर्मफल, फलों का भोग, उन्हें भोगते समय किए जाने वाले नए कर्म, इस प्रकार जन्मजन्मांतर की यात्रा चलती रहती है। सामान्य लोग जन्मजन्मांतर की यात्रा से मुक्त होना नहीं चाहते हैं। वे भोगों के लिये पुन: पुन: आना चाहते हैं। वे इसे बन्धन नहीं मानते। परन्तु अनुभवी और जानकार लोग इस संसार को, कामनामय और दुःखमय ही मानते हैं और उससे मुक्ति चाहते हैं।
 
मनुष्य इस विश्व से अलग होना नहीं चाहता। जन्मजन्मांतर में भी वह यही सुख चाहता है। वास्तव में काम से प्रेरित होकर जो भी क्रियाकलाप हम करते हैं उसी से हमारा भाग्य बनता है, उसी से संस्कार बनते हैं। वे क्रियाकलाप हमारे कर्म होते हैं। उन कर्मों के फल होते हैं। उन कर्मफलों का भोग करने के लिये पुनर्जन्म होता है। कर्म, कर्मफल, फलों का भोग, उन्हें भोगते समय किए जाने वाले नए कर्म, इस प्रकार जन्मजन्मांतर की यात्रा चलती रहती है। सामान्य लोग जन्मजन्मांतर की यात्रा से मुक्त होना नहीं चाहते हैं। वे भोगों के लिये पुन: पुन: आना चाहते हैं। वे इसे बन्धन नहीं मानते। परन्तु अनुभवी और जानकार लोग इस संसार को, कामनामय और दुःखमय ही मानते हैं और उससे मुक्ति चाहते हैं।
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क्या काम का यह संसार इतना हेय है ? क्या
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क्या काम का यह संसार इतना हेय है ? क्या उसका तिरस्कार कर उसे छोड़ देना चाहिये ? क्या उसमें दुःख ही दुःख है ? यदि वह इतना तिरस्कार करने योग्य है तो उसे परमात्मा ने बनाया ही क्यों ?
उसका तिरस्कार कर उसे छोड़ देना चाहिये ? क्या उसमें
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दुःख ही दुःख है ? यदि वह इतना तिरस्कार करने योग्य है
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तो उसे परमात्मा ने बनाया ही क्यों ?
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इस सम्बन्ध में दो रास्ते हैं । एक है, काम का पूर्ण
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इस सम्बन्ध में दो रास्ते हैं। एक है, काम का पूर्ण त्याग करना। "मुझे कुछ नहीं चाहिये" ऐसा संकल्प कर अपनी आवश्यकताओं को कम करते जाना और धीरे धीरे निःशेष करते जाना। ऐसा त्याग करने वाला भारत में संन्यासी कहलाता है। एक संन्यासी की न्यूनतम आवश्यकता केवल हाथ की अंजली में समाने वाली भिक्षा और वृक्ष के नीचे आश्रय 'करतल भिक्षा तरुतल वास' इतनी ही बताई जाती है। तपश्चर्या और संयम कर वह अपनी आवश्यकतायें कम करता है। वह अपने कुटुंब को छोड़ता है। वह अपने नाम और अन्य सारी पहचानों को छोड़ता है। परन्तु इस प्रकार सारे पदार्थों का त्याग करना सरल नहीं है। वह अत्यन्त कठिन है। साथ ही उसमें एक खतरा भी है । सारे पदार्थों का त्याग कर संन्यासी बन जाने के बाद भी कब काम हावी हो जाएगा यह कोई निश्चित नहीं कह सकता है। काम बड़ा बलवान होता है और बहुत चतुराई पूर्वक व्यक्ति को बांध लेता है। इसलिये संन्यास का मार्ग बहुत कठिन है।
त्याग करना । मुझे कुछ नहीं चाहिये ऐसा संकल्प कर
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अपनी आवश्यकताओं को कम करते जाना और धीरे धीरे
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निःशेष करते जाना । ऐसा त्याग करने वाला भारत में
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संन्यासी कहलाता है। एक संन्यासी की. न्यूनतम
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आवश्यकता केवल हाथ की अंजली में समाने वाली भिक्षा
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और वृक्ष के नीचे आश्रय “*करतल भिक्षा तरुतल वास'
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इतनी ही बताई जाती है । तपश्चर्या और संयम कर वह
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अपनी आवश्यकतायें कम करता है । वह अपने कुट्म्ब को
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छोड़ता है । वह अपने नाम और अन्य सारी पहचानों को
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छोड़ता है । परन्तु इस प्रकार सारे पदार्थों का त्याग करना
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सरल नहीं है । वह अत्यन्त कठिन है । साथ ही उसमें एक
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खतरा भी है । सारे पदार्थों का त्याग कर संन्यासी बन
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दूसरा मार्ग है काम के संग का त्याग करना। इसे गीता कर्मफल का त्याग कहती है। आसक्ति कम करना, मोह कम करना, अपेक्षायें नहीं करना और निष्काम भाव से कर्म करना काम से मुक्ति का मार्ग है। इसमें काम का नहीं अपितु उसके बंधनों का त्याग करना है। काम से प्रेरित होकर जो कर्म किए जाते हैं उनका त्याग करना तो सम्भव नहीं है। एक संन्यासी को भी खाना, पीना, सोना तो होता ही है। संसार में हर व्यक्ति की अपनी एक भूमिका होती है। उस भूमिका ने अनेक कर्तव्यों का विधान बनाया है। इस कर्तव्य का पालन नहीं करने से बड़ी अव्यवस्था हो जाएगी। इसलिये कर्मों का त्याग करना ठीक नहीं है। कर्म करना ही चाहिये परन्तु उसके फल की अपेक्षा के बिना करना चाहिये। उदाहरण के लिये भोजन तो करना ही चाहिये परन्तु वह मन को स्वाद का सुख मिले इस हेतु से नहीं अपितु शरीर को पोषण दे और मन की भावनाओं को संस्कारित करें तथा सत्वशुद्धि प्राप्त करवाए, ऐसा होना चाहिये। भोजन बनाना चाहिये परन्तु वह किसी स्वार्थ या भय या विवशता से प्रेरित होकर नहीं अपितु भोजन करने वाला साक्षात्‌ भगवान है और उसके लिये भोजन बनाना उसकी और उसके माध्यम से परमात्मा की सेवा है, इस भाव से बनाना चाहिये। कर्तव्य कर्म को कभी भी नहीं छोड़ना, कर्तव्य कर्म करते समय दुःखी नहीं होना, कर्तव्य कर्म अकुशलतापूर्वक अथवा लापरवाही से नहीं करना ही निष्कामता की ओर ले जाता है। अनेक बार ऐसा होता है कि इन सारी सावधानियों के बाद भी कर्म अच्छा होता है परन्तु फल की अपेक्षा अवश्य रहती है। फल नहीं मिला तो कर्म करना भले ही न छोड़ें तो भी दुःख या शिकायत अवश्य निर्माण होती है। ऐसा होने से काम से मुक्ति नहीं मिलती और कामजनित दुःखों से भी मुक्ति नहीं मिलती।
जाने के बाद भी कब काम हावी हो जाएगा यह कोई
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निश्चित नहीं कह सकता है । काम बड़ा बलवान होता है
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और बहुत चतुराई पूर्वक व्यक्ति को बांध लेता है।
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इसलिये संन्यास का मार्ग बहुत कठिन है
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दूसरा मार्ग है काम के संग का त्याग करना । इसे
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निष्कामता साधने के लिये एक मार्ग विशेष उल्लेखनीय है और वह संसार के सभी क्रियाकलापों के लिये है। वह है काम का उन्नयन करना। उपभोग को पूजा में रूपांतरित करना उपभोग का उन्नयन है। भोजन को जठराग्नि में दी जाने वाली आहुति मानकर यज्ञ करना भोजन का उन्नयन है। मैथुन के सुख रूपी काम को प्रेम में रूपांतरित करना मैथुन का उन्नयन है। गर्भाधान को प्रार्थना में रूपांतरित करना गर्भाधान का उन्नयन है। सारी कलाओं को सौन्दर्यबोध के स्तर पर ले जाना और विलासिता से मुक्त करना कलासाधना का उन्नयन है। जीवन का लक्ष्य सुखोपभोग नहीं अपितु मोक्ष मानना जीवन का उन्नयन है।
गीता कर्मफल का त्याग कहती है । आसक्ति कम करना,
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मोह कम करना, अपेक्षायें नहीं करना और निष्काम भाव
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से कर्म करना काम से मुक्ति का मार्ग है । इसमें काम का
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नहीं अपितु उसके बंधनों का त्याग करना है । काम से
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प्रेरित होकर जो कर्म किए जाते हैं उनका त्याग करना तो
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सम्भव नहीं है । एक संन्यासी को भी खाना, पीना, सोना
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तो होता ही है। संसार में हर व्यक्ति की अपनी एक
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भूमिका होती है । उस भूमिका ने अनेक कर्तव्यों का
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विधान बनाया है । इस कर्तव्य का पालन नहीं करने से
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बड़ी अव्यवस्था हो जाएगी । इसलिये कर्मों का त्याग
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करना ठीक नहीं है । कर्म करना ही चाहिये परन्तु उसके
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फल की अपेक्षा के बिना करना चाहिये । उदाहरण के
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लिये भोजन तो करना ही चाहिये परन्तु वह मन को स्वाद
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का सुख मिले इस हेतु से नहीं अपितु शरीर को पोषण दे
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और मन की भावनाओं को संस्कारित करें तथा सत्त्वशुद्धि
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प्राप्त करवाए ऐसा होना चाहिये । भोजन बनाना चाहिये
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परन्तु वह किसी स्वार्थ या भय या विवशता से प्रेरित
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होकर नहीं अपितु भोजन करने वाला साक्षात्‌ भगवान है
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और उसके लिये भोजन बनाना उसकी और उसके माध्यम
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से परमात्मा की सेवा है इस भाव से बनाना चाहिये ।
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कर्तव्य कर्म को कभी भी नहीं छोड़ना, कर्त्तव्य कर्म करते
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समय दुःखी नहीं होना, कर्तव्य कर्म अकुशलतापूर्वक
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अथवा लापरवाही से नहीं करना ही निष्कामता की ओर ले
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जाता है। अनेक बार ऐसा होता है कि इन सारी
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सावधानियों के बाद भी कर्म अच्छा होता है परन्तु फल
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कि अपेक्षा अवश्य रहती है। फल नहीं मिला तो कर्म
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करना भले ही न छोड़ें तो भी दुःख या शिकायत अवश्य
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निर्माण होती है । ऐसा होने से काम से मुक्ति नहीं मिलती
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आसक्ति को समर्पण में रूपांतरित करना आसक्ति का उन्नयन है। अर्थार्जन को समाज की सेवा में प्रयुक्त करना अर्थार्जन का उन्नयन है। हर क्रियाकलाप को अत्यन्त उत्कृष्टतापूर्वक करना यह प्रथम चरण है और इस प्रकार किए हुए क्रियाकलाप को उपासना, साधना, सेवा या पूजा में रूपांतरित करना हर क्रियाकलाप का उन्नयन है। काम जब प्रेम में रूपांतरित होता है तो शुद्ध होता है और व्यक्ति के विकास का साधन बनकर उसे मोक्ष की ओर ले जाता है।
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और कामजनित दुःखों से भी मुक्ति
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काम का तिरस्कार करने की आवश्यकता नहीं। वह परमात्मा के व्यक्त होने के संकल्प का ही विश्वरूप है। वह अत्यन्त सामर्थ्यवान है। वह सांसारिक जीवन को समृद्ध और सुखद बनाता है। केवल इसका परिष्कार, इसका नियमन, इसका प्रेम में रूपान्तरण करना आवश्यक है।
नहीं मिलती ।
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निष्कामता साधने के लिये एक मार्ग विशेष
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काम का नियमन कौन कर सकता है?
उल्लेखनीय है और वह संसार के सभी क्रियाकलापों के
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लिये है। वह है काम का उन्नयन करना । उपभोग को
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पूजा में रूपांतरित करना उपभोग का उन्नयन है । भोजन
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को जठरागि में दी जाने वाली आहुति मानकर यज्ञ करना
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भोजन का उन्नयन है । मैथुन के सुख रूपी काम को प्रेम में
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रूपांतरित करना मैथुन का उन्नयन है । गर्भाधान को प्रार्थना
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में रूपांतरित करना गर्भाधान का उन्नयन है । सारी कलाओं
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को सौन्दर्यबोध के स्तर पर ले जाना और विलासिता से
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मुक्त करना कलासाधना का उन्नयन है । जीवन का लक्ष्य
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सुखोपभोग नहीं अपितु मोक्ष मानना जीवन का उन्नयन है ।
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आसक्ति को समर्पण में रूपांतरित करना आसक्ति का
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उन्नयन है । अथर्जिन को समाज कि सेवा में प्रयुक्त करना
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अथर्जिन का उन्नयन है । हर क्रियाकलाप को अत्यन्त
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उत्कृष्टतापूर्वक करना यह प्रथम चरण है और इस प्रकार
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किए हुए क्रियाकलाप को उपासना, साधना, सेवा या पूजा
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में रूपांतरित करना हर क्रियाकलाप का उन्नयन है । काम
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जब प्रेम में रूपांतरित होता है तो शुद्ध होता है और व्यक्ति
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के विकास का साधन बनकर उसे मोक्ष की ओर ले जाता
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है।
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काम का तिरस्कार करने कि आवश्यकता नहीं । वह
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एक ही वाक्य में कहा जाय तो काम का नियमन धर्म करता है।
परमात्मा के व्यक्त होने के संकल्प का ही विश्वरूप है।
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वह अत्यन्त सामर्थ्यवान है। वह सांसारिक जीवन को
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समृद्ध और सुखद बनाता है । केवल इसका परिष्कार,
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इसका नियमन, इसका प्रेम में रूपान्तरण करना आवश्यक
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है।
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काम का नियमन कौन कर सकता है ? एक ही
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वाक्य में कहा जाय तो काम का नियमन धर्म करता है ।
  −
श्री भगवान स्वयं. कहते हैं कि. “धर्माविरुद्धो
  −
भूतेषुकामोइस्मि भरतर्षभ' अर्थात्‌ धर्म के अविरोधी काम
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भगवान कि ही विभूति है। इसलिये काम का महत्त्व
  −
समझकर उसका उचित सम्मान करना चाहिये और उसके
  −
     −
सामर्थ्य को समझ कर उसे नियमन में. से ही स्वस्थ हो यह पर्याप्त नहीं है, वह जन्म से ही
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श्री भगवान स्वयं कहते हैं<ref>श्रीमद भगवदगीता 17.11 </ref>:<blockquote>धर्माविरुद्धो भूतेषु कामोऽस्मि भरतर्षभ।।7.11।।</blockquote>अर्थात्‌ धर्म के अविरोधी काम भगवान की ही विभूति है। इसलिये काम का महत्व समझकर उसका उचित सम्मान करना चाहिये और उसके सामर्थ्य को समझ कर उसे नियमन में रखने के लिये प्रवृत्त होना चाहिये।
रखने के लिये प्रवृत्त होना चाहिये । अच्छा चरित्र लेकर आये ऐसी व्यवस्था की जाती रही है ।
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आज इस विषय में घोर अनवस्था दिखाई देती है ।
      
== शिक्षा की भूमिका ==
 
== शिक्षा की भूमिका ==
विकासोन्मुख और विकसित समाज का यह महत्त्वपूर्ण
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विकासोन्मुख और विकसित समाज का यह महत्वपूर्ण
 
काम पुरुषार्थ अभ्युद्य का स्रोत है । सर्व प्रकार की... लक्षण है कि वह अपनी नई पीढ़ी को उचित समय पर ही
 
काम पुरुषार्थ अभ्युद्य का स्रोत है । सर्व प्रकार की... लक्षण है कि वह अपनी नई पीढ़ी को उचित समय पर ही
 
भौतिक समृद्धि का क्षेत्र है। इसे व्यवस्थित करने हेतु काम पुरुषार्थ की शिक्षा दे । यह उचित समय frees
 
भौतिक समृद्धि का क्षेत्र है। इसे व्यवस्थित करने हेतु काम पुरुषार्थ की शिक्षा दे । यह उचित समय frees
 
शिक्षा का नियोजन होना चाहिये । काम पुरुषार्थ की शिक्षा... गर्भावस्‍था और शिशुअवस्था ही है । शिशु अवस्था में घर
 
शिक्षा का नियोजन होना चाहिये । काम पुरुषार्थ की शिक्षा... गर्भावस्‍था और शिशुअवस्था ही है । शिशु अवस्था में घर
 
के आयाम इस प्रकार हैं ... का वातावरण और व्यवहार शिशु के मन को ठीक करने
 
के आयाम इस प्रकार हैं ... का वातावरण और व्यवहार शिशु के मन को ठीक करने
(१) जीवन में अनेक प्रकार से हम प्रवृत्त होते हैं। के लिये सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण होता है । मानसिक शान्ति,
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(१) जीवन में अनेक प्रकार से हम प्रवृत्त होते हैं। के लिये सर्वाधिक महत्वपूर्ण होता है । मानसिक शान्ति,
    
मन और शरीर हमेशा क्रियाशील रहते हैं । इन क्रियाओं के. तृप्ति, सन्तोष, उदारता, सख्यभाव आदि वातावरण और
 
मन और शरीर हमेशा क्रियाशील रहते हैं । इन क्रियाओं के. तृप्ति, सन्तोष, उदारता, सख्यभाव आदि वातावरण और
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किया है, उसका बालक के चरित्र पर गहरा प्रभाव होता... बच्चों में एकदूसरे को सहायता करने की प्रवृत्ति सहज रूप
 
किया है, उसका बालक के चरित्र पर गहरा प्रभाव होता... बच्चों में एकदूसरे को सहायता करने की प्रवृत्ति सहज रूप
 
है । इसलिये हमारी परम्परा में गर्भवती की परिचर्या को. .. से होती है। बड़े होते होते हमारी व्यवस्थाओं के चलते
 
है । इसलिये हमारी परम्परा में गर्भवती की परिचर्या को. .. से होती है। बड़े होते होते हमारी व्यवस्थाओं के चलते
बहुत महत्त्व दिया गया है । घर में अच्छे बालक का जन्म... वह नष्ट होती है और स्वार्थ, इंष्या, लोभ आदि बढ़ने
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बहुत महत्व दिया गया है । घर में अच्छे बालक का जन्म... वह नष्ट होती है और स्वार्थ, इंष्या, लोभ आदि बढ़ने
 
हो इस दृष्टि से होने वाले माता पिता को सम्यक्‌ मार्गदर्शन. लगते हैं। पाठ्यपुस्तकों के पाठों की विषयवस्तु के
 
हो इस दृष्टि से होने वाले माता पिता को सम्यक्‌ मार्गदर्शन. लगते हैं। पाठ्यपुस्तकों के पाठों की विषयवस्तु के
 
दिया जाता रहा है, माता की शिक्षा का भी ध्यान रखा... माध्यम से तथा वार्तालाप के माध्यम से इन्हें पनपने से
 
दिया जाता रहा है, माता की शिक्षा का भी ध्यान रखा... माध्यम से तथा वार्तालाप के माध्यम से इन्हें पनपने से
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(२) मन को शान्त और सदगुणी बनाने में योग
 
(२) मन को शान्त और सदगुणी बनाने में योग
 
अत्यन्त उपयोगी है । विशेष रूप से यम, नियम, प्रत्याहार
 
अत्यन्त उपयोगी है । विशेष रूप से यम, नियम, प्रत्याहार
और ध्यान का विशेष महत्त्व है। आजकल योग विषय
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और ध्यान का विशेष महत्व है। आजकल योग विषय
 
का भी विपर्यास हो गया है। योग को आसनों और
 
का भी विपर्यास हो गया है। योग को आसनों और
 
शारीरिक व्यायाम का रूप दिया गया है, इसे एक
 
शारीरिक व्यायाम का रूप दिया गया है, इसे एक
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होता है । आहार, वस्त्र, अलंकार, संगीत, नृत्य, नाटक,
 
होता है । आहार, वस्त्र, अलंकार, संगीत, नृत्य, नाटक,
 
पर्यटन आदि में संस्कारिता होनी चाहिये । इसकी शिक्षा
 
पर्यटन आदि में संस्कारिता होनी चाहिये । इसकी शिक्षा
सम्पूर्ण शिक्षा का महत्त्वपूर्ण हिस्सा है । यह शिक्षा घर में
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सम्पूर्ण शिक्षा का महत्वपूर्ण हिस्सा है । यह शिक्षा घर में
 
भी देनी चाहिये और विद्यालय में भी । वास्तव में इसका
 
भी देनी चाहिये और विद्यालय में भी । वास्तव में इसका
 
मुख्य केन्द्र घर है परन्तु आज घर इस शिक्षा के लिये
 
मुख्य केन्द्र घर है परन्तु आज घर इस शिक्षा के लिये
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होती । वह हर स्तर पर प्रायोगिक होनी... चाहिये । इसके अनुकूल व्यवस्थाएँ कैसी होंगी, यह भी
 
होती । वह हर स्तर पर प्रायोगिक होनी... चाहिये । इसके अनुकूल व्यवस्थाएँ कैसी होंगी, यह भी
 
चाहिये । हर व्यक्ति के हाथ कुशल कारीगर होने चाहिये । शिक्षा का विषय है । महाविद्यालयीन शिक्षा का यह
 
चाहिये । हर व्यक्ति के हाथ कुशल कारीगर होने चाहिये । शिक्षा का विषय है । महाविद्यालयीन शिक्षा का यह
हर व्यक्ति का मन सेवाभाव से युक्त होना चाहिये ।.... महत्त्वपूर्ण विषय बनना चाहिये ।
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हर व्यक्ति का मन सेवाभाव से युक्त होना चाहिये ।.... महत्वपूर्ण विषय बनना चाहिये ।
चित्तशुद्धि के लिये सेवाभाव अत्यन्त आवश्यक है। (७) यौनशिक्षा भी तरुणों की शिक्षा का महत्त्वपूर्ण
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चित्तशुद्धि के लिये सेवाभाव अत्यन्त आवश्यक है। (७) यौनशिक्षा भी तरुणों की शिक्षा का महत्वपूर्ण
 
सृजनशीलता का विकास, उत्कृष्ट निर्माणशीलता, सेवाभाव, fee है । परन्तु यह सामूहिक शिक्षा का विषय नहीं है ।
 
सृजनशीलता का विकास, उत्कृष्ट निर्माणशीलता, सेवाभाव, fee है । परन्तु यह सामूहिक शिक्षा का विषय नहीं है ।
 
सृजन से प्राप्त होने वाला आनन्द काम का उन्नयन करते... वह व्यक्तिगत शिक्षा का विषय है । वह शास्त्रीय रूप में
 
सृजन से प्राप्त होने वाला आनन्द काम का उन्नयन करते... वह व्यक्तिगत शिक्षा का विषय है । वह शास्त्रीय रूप में
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को विनय से अलंकृत करता है । आहार विहार की चिन्ता करनी चाहिये । इसे आग्रहपूर्वक
 
को विनय से अलंकृत करता है । आहार विहार की चिन्ता करनी चाहिये । इसे आग्रहपूर्वक
 
(६) स्त्रीपुरुष सम्बन्ध का क्षेत्र बहुत ध्यान देने योग्य. समाज की तथा छात्रों की मानसिकता में प्रतिष्ठित करना
 
(६) स्त्रीपुरुष सम्बन्ध का क्षेत्र बहुत ध्यान देने योग्य. समाज की तथा छात्रों की मानसिकता में प्रतिष्ठित करना
है। आज यह विशेष चिन्ता का विषय बन गया है।.. चाहिये । सामाजिक शिष्टाचार का यह एक महत्त्वपूर्ण अंग
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है। आज यह विशेष चिन्ता का विषय बन गया है।.. चाहिये । सामाजिक शिष्टाचार का यह एक महत्वपूर्ण अंग
 
बलात्कार और अनाचार की मात्रा बढ़ गई है । feat .. बनना चाहिये ।
 
बलात्कार और अनाचार की मात्रा बढ़ गई है । feat .. बनना चाहिये ।
 
सुरक्षित नहीं हैं और पुरुष लज्जाहीन हो गए हैं । खियाँ भी (९) काम पुरुषार्थ के लिये शिक्षा कैसी हो इसका
 
सुरक्षित नहीं हैं और पुरुष लज्जाहीन हो गए हैं । खियाँ भी (९) काम पुरुषार्थ के लिये शिक्षा कैसी हो इसका
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के माध्यम से प्रस्तुत की जाने वाली सामग्री को नियंत्रित. चर्चा होनी चाहिये । सबसे मुख्य स्थान घर है।
 
के माध्यम से प्रस्तुत की जाने वाली सामग्री को नियंत्रित. चर्चा होनी चाहिये । सबसे मुख्य स्थान घर है।
 
करने की आवश्यकता है । बालक बालिकाओं, किशोर. परिवारशिक्षा को एक स्वतन्त्र विषय बनाने से और उसमें
 
करने की आवश्यकता है । बालक बालिकाओं, किशोर. परिवारशिक्षा को एक स्वतन्त्र विषय बनाने से और उसमें
किशोरियों, युवक युवतियों के परस्पर संपर्क को स्वस्थ इसे महत्त्वपूर्ण स्थान देने से कुछ परिणाम मिल सकता 2 |
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किशोरियों, युवक युवतियों के परस्पर संपर्क को स्वस्थ इसे महत्वपूर्ण स्थान देने से कुछ परिणाम मिल सकता 2 |
 
कैसे बनाया जाय इसकी शिक्षा उस उस स्तर के विद्यालयों. उच्चशिक्षा के क्षेत्र में अध्ययन और अनुसन्धान की योजना
 
कैसे बनाया जाय इसकी शिक्षा उस उस स्तर के विद्यालयों. उच्चशिक्षा के क्षेत्र में अध्ययन और अनुसन्धान की योजना
 
और घरों में आग्रहपूर्वक देनी चाहिये । आज इस विषय में... बनना भी आवश्यक है । लेखकों ने इस विषय को लेकर
 
और घरों में आग्रहपूर्वक देनी चाहिये । आज इस विषय में... बनना भी आवश्यक है । लेखकों ने इस विषय को लेकर

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