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| == शिक्षा की भूमिका == | | == शिक्षा की भूमिका == |
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| विकासोन्मुख और विकसित समाज का यह महत्वपूर्ण | | विकासोन्मुख और विकसित समाज का यह महत्वपूर्ण |
| काम पुरुषार्थ अभ्युद्य का स्रोत है । सर्व प्रकार की... लक्षण है कि वह अपनी नई पीढ़ी को उचित समय पर ही | | काम पुरुषार्थ अभ्युद्य का स्रोत है । सर्व प्रकार की... लक्षण है कि वह अपनी नई पीढ़ी को उचित समय पर ही |
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| जाती रही है । जन्म लेने वाला शिशु केवल शारीरिक दृष्टि है परन्तु यह विस्मरण बहुत भारी पड़ने वाला है क्योंकि | | जाती रही है । जन्म लेने वाला शिशु केवल शारीरिक दृष्टि है परन्तु यह विस्मरण बहुत भारी पड़ने वाला है क्योंकि |
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− | यह विस्मरण हमें पशुता ही नहीं अपितु आसुरी वृत्ति की | + | <nowiki>##</nowiki> |
− | ओर ले जा रहा है । साथ ही संगीत मन को शान्त और | + | # यह विस्मरण हमें पशुता ही नहीं अपितु आसुरी वृत्ति की ओर ले जा रहा है। साथ ही संगीत मन को शान्त और सात्त्विक बनाने में बहुत उपयोगी होता है। आजकल जिस प्रकार का संगीत सुनाई देता है वैसा संगीत किसी काम का नहीं है। वह तो भड़काऊ संगीत है। भारतीय शास्त्रीय संगीत और भारतीय वाद्य मन को शान्त बनाने में बहुत सहायक होते हैं। इनका प्रयोग करना चाहिये । |
− | सात्त्विक बनाने में बहुत उपयोगी होता है । आजकल जिस | + | # मन को शान्त और सदगुणी बनाने में योग अत्यन्त उपयोगी है । विशेष रूप से यम, नियम, प्रत्याहार और ध्यान का विशेष महत्व है। आजकल योग विषय का भी विपर्यास हो गया है। योग को आसनों और शारीरिक व्यायाम का रूप दिया गया है, इसे एक चिकित्सा पद्धति बना दिया गया है और स्पर्धा का तथा प्रदर्शन का विषय बना दिया गया है। इस व्यवस्था को पूर्ण रूप से बदलना होगा। वातावरण में, व्यवस्था में और व्यवहार में सादगी, सुन्दरता, सात्विकता लाना आवश्यक है। यह मुद्दा गणवेश, बस्ता, बैठक व्यवस्था, भवनव्यवस्था आदि सभी आयामों को लागू है। साथ ही खानपान में सात्विकता अत्यन्त आवश्यक है । आजकल सात्विक भोजन बिना स्वाद का होता है, केवल बीमार लोग उसे खाते हैं ऐसा माना जाता है। बच्चों की खाने पीने की आदतों की ओर जरा भी ध्यान नहीं दिया जाता है। बच्चे तो क्या बड़े भी आरोग्य और संस्कार दोनों के लिये अत्यन्त हानिकारक आहार पसन्द करते हैं। केवल आहार ही नहीं, दिनचर्या भी अस्तव्यस्त हो गई है। जिस समय जो काम करना चाहिये, जो काम जिस प्रकार से करना चाहिये उस समय पर और उस प्रकार से करने का कोई आग्रह नहीं होता। इस बात का घोर अआज्ञान है । केवल अज्ञान ही नहीं यह तो विपरीत ज्ञान है। इसे ठीक करना चाहिये । |
− | प्रकार का संगीत सुनाई देता है वैसा संगीत किसी काम का | + | # मनोरंजन का क्षेत्र भीषण संकट निर्माण करने वाला बन गया है। फिल्म, धारावाहिक, नाच गाने के कार्यक्रम और विज्ञापन एक साथ मन के निम्नतर भावों को भड़काने वाले और वासनाओं को बढ़ाने वाले ही होते हैं। संयम को आवश्यक माना ही नहीं जाता है इसलिये उसकी शिक्षा भी किसी माध्यम से होती नहीं है। इस क्षेत्र पर आज साधु संतों, संन्यासियों, धर्माचार्यों, शिक्षकों या किसी भी समझदार लोगों का नियंत्रण या निर्देशन नहीं है। यह क्षेत्र केवल बाजार से निर्देशित होता है और कामोपभोग के लिये लोगों को भड़काकर पैसे बनाने का ही विचार करता है। इसका उपाय करने की आवश्यकता है। |
− | नहीं है। वह तो भड़काऊ संगीत है । भारतीय शास्त्रीय | + | # कामजीवन के स्वास्थ्य हेतु केवल त्याग औरसंयम ही नहीं है। आनंद प्रमोद के सारे क्रियाकलाप हैं। शिशुअवस्था से शुरू कर बड़ी आयु तक रसिकता, सौन्दर्यबोध, उच्च और संस्कारपूर्ण रुचि और आभिजात्य का विकास करना चाहिये। आज देखा जाता है कि नृत्य, गीत, खेल आदि का रस केवल अक्रिय श्रोता या दर्शक बनकर लिया जाता है। लोग गायन सुनते हैं, गाते नहीं हैं। नाटक या खेल देखते हैं, स्वयं खेलते नहीं हैं। नृत्य देखते हैं, करते नहीं। स्वादिष्ट आहार खाते हैं, बनाते नहीं हैं। ये जब भी वे गाते या नाचते हैं तब वह अत्यन्त कुरूप और भोंडा होता है। मनोरंजन के इन क्रियाकलापों में सक्रिय होने से ही सच्ची रसिकता का विकास होता है। कल्पनाशीलता और सृजनशीलता का भी विकास होता है। मन स्वच्छ और स्वस्थ होता है और काम का उन्नयन होता है। आहार, वस्त्र, अलंकार, संगीत, नृत्य, नाटक, पर्यटन आदि में संस्कारिता होनी चाहिये। इसकी शिक्षा, सम्पूर्ण शिक्षा का महत्वपूर्ण हिस्सा है। यह शिक्षा घर में भी देनी चाहिये और विद्यालय में भी। वास्तव में इसका मुख्य केन्द्र घर है परन्तु आज घर इस शिक्षा के लिये सक्षम नहीं होने के कारण विद्यालय को घर का भी मार्गदर्शन करने का दायित्व निभाने की आवश्यकता है । |
− | संगीत और भारतीय वाद्य मन को शान्त बनाने में बहुत | + | # कला और कारीगरी का रक्षण और संवर्धन करने की महती आवश्यकता है । इस दृष्टि से छात्रों को हाथ से काम करना सिखाना और हर काम को उत्तम पद्धति से कर उत्कृष्टता के स्तर तक ले जाना सिखाना चाहिये । शिक्षा केवल पढने लिखने की और लिखित परीक्षा की नहीं � |
− | सहायक होते हैं । इनका प्रयोग करना चाहिये । | |
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− | (२) मन को शान्त और सदगुणी बनाने में योग
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− | अत्यन्त उपयोगी है । विशेष रूप से यम, नियम, प्रत्याहार | |
− | और ध्यान का विशेष महत्व है। आजकल योग विषय | |
− | का भी विपर्यास हो गया है। योग को आसनों और | |
− | शारीरिक व्यायाम का रूप दिया गया है, इसे एक | |
− | चिकित्सा पद्धति बना दिया गया है और स्पर्धा का तथा | |
− | प्रदर्शन का विषय बना दिया गया है । इस व्यवस्था को | |
− | पूर्ण रूप से बदलना होगा । वातावरण में, व्यवस्था में और | |
− | व्यवहार में सादगी, सुन्दरता, सात्विकता लाना आवश्यक | |
− | है। यह मुद्दा गणवेश, se, बैठक व्यवस्था, | |
− | भवनव्यवस्था आदि सभी आयामों को लागू है । साथ ही | |
− | खानपान में सात्त्विकता अत्यन्त आवश्यक है । आजकल | |
− | afta vive बिना स्वाद का होता है, केवल बीमार
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− | लोग उसे खाते हैं ऐसा माना जाता है । बच्चों की खाने | |
− | पीने की आदतों की ओर जरा भी ध्यान नहीं दिया जाता | |
− | है। बच्चे तो क्या बड़े भी आरोग्य और संस्कार दोनों के | |
− | लिये अत्यन्त हानिकारक ऐसा आहार पसन्द करते हैं । | |
− | केवल आहार ही नहीं तो दिनचर्या भी अस्तव्यस्त हो गई | |
− | है। जिस समय जो काम करना चाहिये, जो काम जिस | |
− | प्रकार से करना चाहिये उस समय पर और उस प्रकार से | |
− | करने का कोई आग्रह नहीं होता । इस बात का घोर | |
− | अआज्ञान है । केवल आज्ञान ही नहीं तो विपरीत ज्ञान है। | |
− | इसे ठीक करना चाहिये । | |
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− | (३) मनोरंजन का क्षेत्र भीषण संकट निर्माण करने
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− | वाला बन गया है । फिल्म, धारावाहिक, नाच गाने के | |
− | कार्यक्रम और विज्ञापन एक साथ मन के निम्नतर भावों | |
− | को भड़काने वाले और वासनाओं को बढ़ाने वाले ही होते | |
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− | हैं । संयम को आवश्यक माना ही नहीं
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− | जाता है इसलिये उसकी शिक्षा भी किसी माध्यम से होती | |
− | नहीं है। इस क्षेत्र पर आज साधु संतों, संन्यासियों, | |
− | धर्माचार्यों, शिक्षकों या किसी भी समझदार लोगों का | |
− | नियंत्रण या निर्देशन नहीं है । यह क्षेत्र केवल बाजार से | |
− | निर्देशित होता है और कामोपभोग के लिये लोगों को | |
− | भड़काकर पैसे बनाने का ही विचार करता है । इसका | |
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− | (४) कामजीवन के स्वास्थ्य हेतु केवल त्याग और
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− | संयम ही नहीं है । आनंद प्रमोद के सारे क्रियाकलाप हैं ।
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− | शिशुअवस्था से शुरू कर बड़ी आयु तक रसिकता, | |
− | सौन्दर्यबोध, उच्च और संस्कारपूर्ण रुचि और आभिजात्य | |
− | का विकास करना चाहिये । आज देखा जाता है कि नृत्य, | |
− | गीत, खेल आदि का रस केवल अक्रिय श्रोता या दर्शक | |
− | बनकर लिया जाता है । लोग गायन सुनते हैं, गाते नहीं | |
− | हैं । नाटक या खेल देखते हैं, स्वयं खेलते नहीं हैं । नृत्य
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− | देखते हैं, करते नहीं । स्वादिष्ट आहार खाते हैं, बनाते नहीं | |
− | हैं। ये जब भी वे गाते या नाचते हैं तब वह अत्यन्त | |
− | कुरूप और भोंडा होता है । मनोरंजन के इन क्रियाकलापों | |
− | में सक्रिय होने से ही सच्ची रसिकता का विकास होता 2 | | |
− | कल्पनाशीलता और सृजनशीलता का भी विकास होता | |
− | है । मन स्वच्छ और स्वस्थ होता है और काम का उन्नयन
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− | होता है । आहार, वस्त्र, अलंकार, संगीत, नृत्य, नाटक, | |
− | पर्यटन आदि में संस्कारिता होनी चाहिये । इसकी शिक्षा | |
− | सम्पूर्ण शिक्षा का महत्वपूर्ण हिस्सा है । यह शिक्षा घर में | |
− | भी देनी चाहिये और विद्यालय में भी । वास्तव में इसका | |
− | मुख्य केन्द्र घर है परन्तु आज घर इस शिक्षा के लिये | |
− | सक्षम नहीं होने के कारण विद्यालय को घर का भी | |
− | मार्गदर्शन करने का दायित्व निभाने की आवश्यकता है । | |
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− | (५) कला और कारीगरी का रक्षण और संवर्धन
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− | करने की महती आवश्यकता है । इस दृष्टि से छात्रों को | |
− | हाथ से काम करना सिखाना और हर काम को उत्तम पद्धति | |
− | से कर उत्कृष्टता के स्तर तक ले जाना सिखाना चाहिये । | |
− | शिक्षा केवल पढने लिखने की और लिखित परीक्षा की नहीं | |
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| होती । वह हर स्तर पर प्रायोगिक होनी... चाहिये । इसके अनुकूल व्यवस्थाएँ कैसी होंगी, यह भी | | होती । वह हर स्तर पर प्रायोगिक होनी... चाहिये । इसके अनुकूल व्यवस्थाएँ कैसी होंगी, यह भी |
| चाहिये । हर व्यक्ति के हाथ कुशल कारीगर होने चाहिये । शिक्षा का विषय है । महाविद्यालयीन शिक्षा का यह | | चाहिये । हर व्यक्ति के हाथ कुशल कारीगर होने चाहिये । शिक्षा का विषय है । महाविद्यालयीन शिक्षा का यह |