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ग्रहण आकाशीय अद्भुत चमत्कृतिका अनोखा दृश्य है। उससे अश्रुतपूर्व, अद्भुत ज्योतिष्क-ज्ञान और ग्रह-उपग्रहोंकी गतिविधि एवं स्वरूपका परिस्फुट परिचय प्राप्त हुआ है। आकाशीय यह घटना भारतीय मनीषियोंको अत्यन्त प्राचीनकालसे अभिज्ञात रही है और इस पर धार्मिक तथा वैज्ञानिक विवेचन धार्मिक एवं ज्योतिषीय ग्रन्थों में प्राप्त होता आया है। महर्षि अत्रिमुनि ग्रहण ज्ञानके उपज्ञ(प्रथम ज्ञाता) आचार्य थे। ऋग्वेदीय प्रकाशकालसे ग्रहणके ऊपर अध्ययन, मनन और स्थापन होते चले आये हैं। गणितके बलपर ग्रहणका पूर्ण पर्यवेक्षण प्रायः पर्यवसित हो चुका है।
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ग्रहण आकाशीय अद्भुत चमत्कृतिका अनोखा दृश्य है। उससे अश्रुतपूर्व, अद्भुत ज्योतिष्क-ज्ञान और ग्रह-उपग्रहोंकी गतिविधि एवं स्वरूपका परिस्फुट परिचय प्राप्त हुआ है। आकाशीय यह घटना भारतीय मनीषियोंको अत्यन्त प्राचीनकालसे अभिज्ञात रही है और इस पर धार्मिक तथा वैज्ञानिक विवेचन धार्मिक एवं ज्योतिषीय ग्रन्थों में प्राप्त होता आया है। महर्षि अत्रिमुनि ग्रहण ज्ञानके उपज्ञ(प्रथम ज्ञाता) आचार्य थे। ऋग्वेदीय प्रकाशकालसे ग्रहणके ऊपर अध्ययन, मनन और स्थापन होते चले आये हैं। गणितके बलपर ग्रहणका पूर्ण पर्यवेक्षण प्रायः पर्यवसित हो चुका है। पृथ्वी पर मुख्यतः दो प्रकार के ग्रहण होते हैं- पहला सूर्य ग्रहण और दूसरा चन्द्र ग्रहण।
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==परिचय==
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ग्रहण सिद्धान्त ज्योतिष का महत्वपूर्ण अंग है। सामान्यतया हम जानते हैं कि ग्रहण एक खगोलीय घटना है, जो आकाश में ग्रह (सूर्य-चन्द्र एवं पृथ्वी) पिण्डों के परस्पर कारण से घटित होता है। ग्रहण के बारे में गणितीय  एवं फलित सिद्धान्तों को जानने का प्रयास किया। ग्रहण एक खगोलीय घटना है जिसका प्रभाव ज्योतिषशास्त्र में बृहद् रूप में अंकित किया गया है। प्राचीन ज्योतिर्विदों ने सिद्धान्त स्कन्ध में बताया है कि सामान्यतया ग्रहण(एक ग्रह बिम्ब के द्वारा दूसरे ग्रह बिम्ब का ढका जाना) अनेकों आकाश में होते रहते हैं परन्तु रवि एवं चन्द्र का ग्रहण हमारे जगत् को विशेष रूप से प्रभावित करता है, इसलिये इनके ग्रहण की आनयन विधि तथा विविध प्रकार का क्षेत्रात्मक फल या प्रभाव भी वर्णित किया गया है। ज्योतिषशास्त्र के स्कन्धत्रय में ग्रहण की परिचर्चा है। सिद्धान्त स्कन्ध के अन्तर्गत ग्रहण गणना को बताया गया है तथा व्यक्ति पर ग्रहण के प्रभाव को होराशास्त्र में तथा सामूहिक एवं समष्टिगत प्रभाव की गणना संहिता ग्रन्थों में विस्तार से किया गया है।
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==परिभाषा==
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'''ग्रहण-''' गृह्णाति इति ग्रहणम्।
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ग्रहण एक आकाशीय घटना है, जो दो बिम्बों के कारण निश्चित कालावधि में घटित होता है। मुख्यतया दो ग्रहण होते हैं- चन्द्रग्रहण एवं सूर्यग्रहण।
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'''चन्द्रग्रहण-''' चन्द्रस्य ग्रहणं चन्द्रग्रहणं भवति।
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यह ग्रहण पूर्णिमा तिथि को शराभाव में होता है। जब सपात सूर्य का भुजांश १४॰ या उससे न्यून होता है। इसमें छाद्य चन्द्रमा एवं छादक भूभा होता है।
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'''सूर्यग्रहण-''' सूर्यस्य ग्रहणं सूर्यग्रहणम्।
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यह ग्रहण अमावस्या को शराभाव में होता है। जब सपात सूर्य का भुजांश ७ अंश या उससे न्यून होता है। इसमें छाद्य सूर्य तथा छादक चन्द्रमा होता है।
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'''अमावस्या'''- कृष्णपक्ष की पन्द्रहवीं तिथि को अमावस्या कहते हैं। इसी तिथि को शराभाव में सूर्यग्रहण संभव होता है।
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'''पूर्णिमा-''' शुक्लपक्ष की पन्द्रहवीं तिथि को पूर्णिमा संज्ञक कहा गया है। चन्द्रग्रहण पूर्णिमा को ही शराभाव में होता है।
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==ग्रहण की अवस्था, स्वरूप एवं प्रभाव==
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ग्रहण की पाँच अवस्थाएँ होती है-
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1 .  स्पर्श 2 . सम्मीलन 3 . मध्य 4 . उन्मीलन 5 . मोक्ष
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'''ग्रहण स्वरूप -'''
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ग्रहण के चार स्वरूप होते हैं - खण्ड, पूर्ण, खग्रास तथा वलय।
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ग्रहण के प्रभाव को हम तीन वर्गों में विभाजित करके विवेचना कर सकते हैं-
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#'''व्यक्तिगत प्रभाव-''' ग्रहण के प्रभाव को प्रायः सभी शास्त्रकारों ने अशुभ माना है। यदि कोई भी व्यक्ति ग्रहण को देखता है तो उसके लिये शास्त्रकारों ने हितकर नहीं बताया है। प्रत्येक मनुष्य पर ग्रहण के दुष्प्रभाव को प्राचीन आचार्यों ने अपनी-अपनी अन्वेषण पद्धति से पृथक् - पृथक् परिगणित किया है। आचार्य हारीत ने बताया है कि जिस भी व्यक्ति के जन्मनक्षत्र में चन्द्र या सूर्य का ग्रहण होता है तो उसे हानि, शत्रुता तथा तिरस्कार प्राप्त होता है।
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#'''सामूहिक प्रभाव-''' विशेषरूप से ग्रहण के सामूहिक का ही वर्णन प्राचीन ग्रन्थों एवं पुराणों में प्राप्त होता है। महाभारत में पाया जाता है कि- चन्द्रसूर्यावुभौ ग्रस्तौ एक मासीं त्रयोदशीम्। अपर्वणि ग्रहावेतावुत्पातं जनयिष्यतः॥ अर्थात् ऐसे ग्रहण काल में उत्पात अवश्य होंगे। इस प्रकार के ग्रहण का आख्यान गोपथ ब्राह्मण २/३/१९ तथा शतपथ ब्राह्मण ५/३/२/२ एवं तैत्तिरीय ब्राह्मण ४/२ में प्राप्त होता है। बृहत्संहिता में वराहमिहिराचार्य जी ने बताया है कि यदि एक मास में रवि एवं चन्द्र दोनों का ग्रहण हो तो राजा के सेना में विद्रोह तथा कोश एवं शस्त्र नाश होता है। इस प्रकार वशिष्ठ संहिता में बताया गया है कि यदि उत्तरायण में सूर्य या चन्द्र ग्रहण हो तो विप्र, सज्जन एवं राजा की हानि होती हैं। वसिष्ठ संहिता के ही ६ पर्वों के आधार पर पृथक् - पृथक् अशुभ फलों को बताया गया है। ग्रहण  के समय में उत्पात, उल्कापात, दिग्दाह, भूकम्प, धूलिवर्षण आदि दिखाई दे तो पुनः ग्रहण तथा अशुभदायक माना गया है।
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#'''स्थानीय प्रभाव-''' ज्योतिषशास्त्र एक वैज्ञानिक शास्त्र है। प्रत्येक परिस्थितियों का विश्लेषण करना इसका पुनीत एवं मंगल कार्य है। काल की गणना तथा कालजन्य विकृतियों का खण्ड-खण्ड कर उसका विश्लेषण तथा दोष शमन उपाय प्रत्येक ज्योतिषशास्त्रीय ग्रन्थों में अवश्य प्राप्त होता ही है। भचक्र में गतिमान रवि-चन्द्र ग्रहण निश्चित रूप से अमावस्या तथा पूर्णिमा को ही होगा परन्तु, मास का निश्चय नहीं है कि यह ग्रहण अमुक मास में ही पतित होगा।
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==ग्रहण विचार==
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किसी खगोलीय पिण्ड का पूर्ण अथवा आंशिक रूप से किसी अन्य खगोलीय पिण्ड के द्वारा ढका जाना ग्रहण कहलाता है। जब कोई खगोलीय पिण्ड किसी अन्य पिण्ड के पीछे आ जाता है या किसी खगोलीय पिण्ड का प्रकाश अन्य पिण्ड के द्वारा बाधित होता है, तब ग्रहण होता है। भूसापेक्ष दृश्य अनुरोध के द्वारा मुख्यतया ग्रहण के दो भेद हैं- सूर्य ग्रहण एवं दूसरा चन्द्रग्रहण। चन्द्रमा अमावस्या को सूर्य और पृथ्वी के मध्यस्थान में प्रवेश करता है और पृथ्वी पूर्णिमा को चन्द्रमा और सूर्य के मध्यवर्तिनी होती है। पृथ्वी स्वयं पर प्रकाश एवं ईषत् दीर्घ गोलाकार है, इससे इसका जो भाग सूर्यरश्मि से प्रकाशित होता है, उसके विपरीत भाग में सूच्याकार (सूची सी आकृति) इस भूच्छाया में जब चन्द्रमा प्रवेश करत है, तब वह क्रमशः अन्धकार से आच्छादित होने लगता है। इसी को चन्द्रग्रहण कहते हैं। ऐसी घटना केवल पूर्णिमा को ही होती है इस कारण पूर्णिमा को ही चन्द्रग्रहण हो सकता है।
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चन्द्रमा यदि सूर्य और पृथ्वी के मध्यवर्ती हो तो सूर्यरश्मि चन्द्र से अवरुद्ध होती है, उसी को सूर्यग्रहण कहते हैं। सूर्य और चन्द्रमा के संगमकाल में अर्थात् अमावस्या को सूर्यग्रहण की संभावना होती है। यदि चन्द्रकक्षा और भूकक्षा समतल स्थित होती तो प्रति पूर्णमासी को चन्द्रग्रहण एवं प्रत्येक अमावस्या को सूर्यग्रहण होता। क्योंकि उस काल में सूर्य, पृथ्वी और चन्द्रमा एक सूत्र में रहने से चन्द्र द्वारा सूर्यरश्मि बाधित वा भूच्छाया द्वारा चन्द्रबिम्ब छादित होता। किन्तु चन्द्रकक्षा और पृथ्वी कक्षा समतलस्थ नहीं है। इन दो कक्षाओं के दो बिन्दुमात्र  में तिर्यग्भाव से सन्धि होती है। जिन राहु, केतु को चन्द्रपात कहते हैं, इसी पातस्थान में या उसके समीप में चन्द्रमा जब आता है। तब चन्द्रमा, सूर्य और पृथ्वी समतलस्थ होती है। अत एव प्रत्येक पूर्णमासी वा अमावस्या को चन्द्रमा अपने पातस्थ वा निकटस्थ न होने से चन्द्र या सूर्यग्रहण नहीं होता।
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==सूर्य ग्रहण विचार==
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#'''पूर्ण सूर्य ग्रहण-''' पूर्ण सूर्य ग्रहण उस समय होता है जब चन्द्रमा पृथ्वी के काफ़ी पास रहते हुए पृथ्वी और सूर्य के बीच में आ जाता है और चन्द्रमा पूरी तरह से पृथ्वी को अपने छाया क्षेत्र में ले लेता है। इसके फलस्वरूप सूर्य का प्रकाश पृथ्वी तक पहुँच नहीं पाता है और पृथ्वी पर अंधकार जैसी स्थिति उत्पन्न हो जाती है तब पृथ्वी पर पूरा सूर्य दिखाई नहीं देता। इस प्रकार बनने वाला ग्रहण पूर्ण सूर्य ग्रहण कहलाता है।
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#'''आंशिक सूर्य ग्रहण-''' आंशिक सूर्यग्रहण में जब चन्द्रमा सूर्य व पृथ्वी के बीच में इस प्रकार आए कि सूर्य का कुछ ही भाग पृथ्वी से दिखाई नहीं देता है अर्थात् चन्द्रमा, सूर्य के केवल कुछ भाग को ही अपनी छाया में ले पाता है। इससे सूर्य का कुछ भाग ग्रहण ग्रास में तथा कुछ भाग ग्रहण से अप्रभावित रहता है तो पृथ्वी के उस भाग विशेष में लगा ग्रहण आंशिक सूर्य ग्रहण कहलाता है।
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#'''वलयाकार सूर्य ग्रहण-''' वलयाकार सूर्य ग्रहण में जब चन्द्रमा पृथ्वी के काफी दूर रहते हुए पृथ्वी और सूर्य के बीच में आ जाता है अर्थात् चन्द्र सूर्य को इस प्रकार ढकता है, कि सूर्य का केवल मध्य भाग ही छाया क्षेत्र में आता है और पृथ्वी से देखने पर चन्द्रमा द्वारा सूर्य पूरी तरह ढका दिखाई नहीं देता बल्कि सूर्य के बाहर का क्षेत्र प्रकाशित होने के कारण कंगन या वलय के रूप में चमकता दिखाई देता है। कंगन आकार में बने सूर्यग्रहण को ही वलयाकार सूर्य ग्रहण कहा जाता है।
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===वैज्ञानिक दृष्टिकोण में सूर्य ग्रहण===
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===चन्द्र ग्रहण विचार===
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==धार्मिक विवेचन==
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ऋषि-मुनियों ने सूर्य ग्रहण लगने के समय भोजन के लिए मना किया है, क्योंकि उनकी मान्यता थी कि ग्रहण
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के समय में कीटाणु बहुलता से फैल जाते हैं। खाद्य वस्तु, जल आदि में सूक्ष्म जीवाणु एकत्रित होकर उसे दूषित कर देते हैं। इसलिये ऋषियों ने पात्रों में कुश डालने को कहा है, ताकि सब कीटाणु कुश में एकत्रित हो जायें और उन्हें ग्रहण के बाद फेंका जा सके। पात्रों में अग्नि डालकर उन्हें पवित्र बनाया जाता है ताकि कीटाणु मर जायें। ग्रहण के बाद स्नान करने का विधान भी इसीलिये बनाया गया ताकि स्नान से शरीर के अंदर ऊष्मा का प्रवाह बढे, भीतर-बाहर के कीटाणु नष्ट हो जायें और धुल कर बह जायें।
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ग्रहण के दौरान भोजन न करने के विषय में "जीव विज्ञान" विषय के प्रोफेसर टारिंस्टन ने पर्याप्त अनुसंधान करके सिद्ध किया है कि सूर्य-चंद्र ग्रहण के समय मनुष्य के पेट की पाचन-शक्ति कमजोर हो जाती है, जिसके कारण इस समय किया गया भोजन अपच, अजीर्ण आदि शिकायतें पैदा कर शारीरिक या मानसिक हानि पहुँचा सकता है। भारतीय धर्म विज्ञानवेत्ताओं का मानना है कि सूर्य-चंद्र ग्रहण लगने से दस घंटे पूर्व से ही इसका कुप्रभाव शुरू हो जाता है। अंतरिक्षीय प्रदूषण के समय को सूतक काल कहा गया है। इसलिए सूतक काल और ग्रहण के समय में भोजन तथा पेय पदार्थों के सेवन की मनाही की गई है। चूंकि ग्रहण से हमारी जीवन शक्ति का ह्रास होता है और तुलसी दल में विद्युत शक्ति व प्राण शक्ति सबसे अधिक होती है, इसलिये सौर मण्डलीय ग्रहण काल में ग्रहण प्रदूषण को समाप्त करने के लिए भोजन तथा पेय सामग्री में तुलसी के कुछ पत्ते डाल दिए जाते हैं जिसके प्रभाव से न केवल भोज्य पदार्थ बल्कि अन्न, आटा आदि भी प्रदूषण से मुक्त बने रह सकते हैं।
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===आधुनिक विज्ञान द्वारा विश्लेषण===
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आधुनिक विज्ञान की दृष्टि से जब सूर्य व पृथ्वी के बीच में चन्द्रमा आ जाता है तो चन्द्रमा के पीछे सूर्य का बिम्ब कुछ समय के लिए ढक जाता है, उसी घटना को सूर्यग्रहण कहा जाता है। पृथ्वी सूरज की परिक्रमा करती है और चन्द्रमा पृथ्वी की। कभी-कभी चन्द्रमा, सूर्य और धरती के बीच आ जाता है। फिर वह सूर्य की आंशिक या समस्त प्रकाश को रोक लेता है जिससे धरती पर छाया फैल जाता है। इस घटना को सूर्य ग्रहण कहा जाता है। यह घटना प्रत्येक अमावस्या को ही होती है। सामान्यतया चन्द्रमा, सूर्य के सिर्फ कुछ हिस्से को ही ढकता है। यह स्थिति खण्ड -ग्रहण कहलाती है। कभी-कभी ही ऐसा होता है कि चन्द्रमा, सूर्य को पूरी तरह ढँक लेता है। इसे पूर्ण-ग्रहण कहते हैं। पूर्ण-ग्रहण धरती के बहुत कम क्षेत्र में ही देखा जा सकता है। ज्यादा से ज्यादा दो सौ पचास (२५०) किलोमीटर के सम्पर्क में। इस क्षेत्र के बाहर केवल खंड-ग्रहण दिखाई देता है। पूर्ण-ग्रहण के समय चन्द्रमा को सूरज के सामने से गुजरने में दो घण्टे लगते हैं। चन्द्रमा सूरज को पूरी तरह से, ज्यादा से ज्यादा, सात मिनट तक ढँकता है। इन कुछ क्षणों के लिये आसमान में अंधेरा हो जाता है, या यूँ कहें कि दिन में रात हो जाती है। चन्द्रमा द्वारा सूर्य बिम्ब के पूरे या कम भाग के ढके जाने की वजह से सूर्य ग्रहण तीन प्रकार के होते हैं जिन्हैं पूर्ण सूर्य ग्रहण, आंशिक सूर्य ग्रहण व वलयाकार सूर्य ग्रहण कहते हैं।
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==ग्रहण एवं राहु केतु==
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विश्व के मूर्धन्य खगोलविदों से पूछिये तो राहु तथा केतु नाम के कोई ग्रह हमारे सौर मण्डल में नहीं हैं। सौर-मण्डल के ग्रह हैं- बुध, शुक्र, पृथ्वी, मंगल, बृहस्पति, शनि, अरुण(हर्शल), वरुण (नेपच्यून) यम(प्लूटो) नाम का नवां ग्रह भी कुछ दिनों पूर्व तक स्वीकृत था, किन्तु अंतर्राष्ट्रीय खगोलीय संघ ने लम्बी वार्ता एवं वाद-प्रतिवाद के पश्चात यम को ग्रह कहे जा सकने की पात्रता से वंचित कर दिया है अतः अब सौर-मण्डल में मात्र आठ ग्रह हैं। सूर्य तथा चन्द्र आधुनिक परिभाषाओं के अनुसार ग्रह नहीं हैं। सूर्य एक तारा है तथा चन्द्रमा पृथ्वी का उपग्रह है। ग्रह तथा उपग्रह की आधुनिक परिभाषा के अनुसार जो आकाशीय पिण्ड सूर्य की परिक्रमा करते हैं वे ग्रह हैं तथा जो पिण्ड इन ग्रहों की परिक्रमा करते हैं वे उस ग्रह-विशेष के उपग्रह हैं। किन्तु भारतीय ज्योतिष में ग्रह की परिभाषा भिन्न है। याज्ञवल्क्य स्मृति में एक श्लोक इस प्रकार है-<blockquote>सूर्यः सोमो महीपुत्रः सोमपुत्रो बृहस्पतिः। शुक्रः शनैश्चरो राहुः केतुश्चेति ग्रहाः स्मृताः॥(आचाराध्याय)</blockquote>सूर्य, चन्द्र, महीपुत्र अर्थात् मंगल, सोमपुत्र या चन्द्र-पुत्र अर्थात् बुध, बृहस्पति, शुक्र, शनि, राहु तथा केतु ग्रह कहे जाते हैं। पृथ्वी से देखने पर जो भी आकाशीय पिण्ड अंतरिक्ष में पृथ्वी के सापेक्ष गति करते प्रतीत होते हैं उन सब को भारतीय ज्योतिष में ग्रह की संज्ञा प्रदान की गयी और इस दृष्टि से चन्द्रमा तो पृथ्वी के सापेक्ष स्पष्टतः गतिमान है ही, सूर्य भी पृथ्वी के सापेक्ष गतिमान प्रतीत होता है भले ही उसकी गति आभासी तथा पृथ्वी की अपनी गति के कारण है अतः भारतीय ज्योतिष में सूर्य भी ग्रह माना गया। पृथ्वी से पृथ्वी की कोई सापेक्ष गति नहीं है अतः भारतीय ज्योतिष में पृथ्वी को ग्रह नहीं माना गया। यह अंतर ज्योतिष तथा खगोल का अन्तर है अतः इससे भ्रम में नहीं पडना चाहिये।
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==सारांश==
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चन्द्रग्रहण पूर्णिमा तथा सूर्यग्रहण अमावस्या को होता है क्योंकि अपनी-अपनी कक्षाओं में भ्रमण करते हुए सूर्य एवं चन्द्रमा का परस्पर १८० अंश की दूरी पर होते हैं तो पूर्णिमा होती है तथा उस समय सूर्य एवं चन्द्रमा के मध्य में स्थित भूपिण्डस्थ जनों के समक्ष सूर्य किरणों के संसर्ग से प्रकाशित चन्द्रपिण्ड का उज्ज्वल भाग पूर्ण बिम्ब रूप में दिखाई पडता है परन्तु उक्त स्थिति में जब चन्द्रमा अपनी कक्षा में पात के आसन्न होता है तब पृथ्वी द्वारा सूर्य किरणों के अवरोध होने से जो भूमि की छाया बनती है वह भी स्वविरुद्ध दिशा में १८० अंश पर द्वितीय पात के आसन्न सूर्य एवं चन्द्र कक्षाओं से होकर ही आगे तक जाती है। अतः अपनी कक्षा में भ्रमण करता हुआ चन्द्रमा उस भूभा में प्रविष्ट होकर ग्रहण ग्रस्त हो जाता है।
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==पारिभाषिक शब्दावली==
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'''भूभा-''' भू का अर्थ पृथ्वी और भा का अर्थ छाया होता है। इस प्रकार भूभा का अर्थ भूमि की छाया हुआ।
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'''पात-''' चन्द्रविमण्डल और क्रान्तिवृत्त का सम्पात दो स्थानों पर होता है। प्रथम सम्पात को पात (राहु) एवं द्वितीय सम्पात को केतु कहते हैं।
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'''ग्रास-''' ग्रास से तात्पर्य छादक बिम्ब द्वारा छाद्य बिम्ब को ढकने से है। ग्रहणकाल में जितना भाग ढकता है, उतना ही ग्रासमान माना जाता है। यह सामान्य बात है। विशेषतः सैद्धान्तिक दृष्टिकोण से छाद्य और छादक के मानैक्यार्ध (छाद्य बिम्ब और छादक बिम्ब के व्यास के योग का आधा) में तात्कालिक चन्द्रशर घटाने से शेष ग्रास प्रमाण होता है।
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'''शर-''' सामान्यतया शर का अर्थ होता है- दूरी या अन्तर। इसी को विक्षेप भी कहते हैं। गोलीय रीति के अनुसार कदम्बप्रोत्तवृत्त में बिम्ब से ग्रहस्थान तक की दूरी (अन्तर) को मध्यम शर कहते हैं।
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'''स्पष्टशर -''' स्थानीय बिम्बीय अहोरात्रवृत्त के अन्तर(ध्रुवप्रोतवृत्त) में को स्पष्ट शर कहते हैं।
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==उद्धरण==

Revision as of 11:34, 16 August 2023

ग्रहण आकाशीय अद्भुत चमत्कृतिका अनोखा दृश्य है। उससे अश्रुतपूर्व, अद्भुत ज्योतिष्क-ज्ञान और ग्रह-उपग्रहोंकी गतिविधि एवं स्वरूपका परिस्फुट परिचय प्राप्त हुआ है। आकाशीय यह घटना भारतीय मनीषियोंको अत्यन्त प्राचीनकालसे अभिज्ञात रही है और इस पर धार्मिक तथा वैज्ञानिक विवेचन धार्मिक एवं ज्योतिषीय ग्रन्थों में प्राप्त होता आया है। महर्षि अत्रिमुनि ग्रहण ज्ञानके उपज्ञ(प्रथम ज्ञाता) आचार्य थे। ऋग्वेदीय प्रकाशकालसे ग्रहणके ऊपर अध्ययन, मनन और स्थापन होते चले आये हैं। गणितके बलपर ग्रहणका पूर्ण पर्यवेक्षण प्रायः पर्यवसित हो चुका है। पृथ्वी पर मुख्यतः दो प्रकार के ग्रहण होते हैं- पहला सूर्य ग्रहण और दूसरा चन्द्र ग्रहण।

परिचय

ग्रहण सिद्धान्त ज्योतिष का महत्वपूर्ण अंग है। सामान्यतया हम जानते हैं कि ग्रहण एक खगोलीय घटना है, जो आकाश में ग्रह (सूर्य-चन्द्र एवं पृथ्वी) पिण्डों के परस्पर कारण से घटित होता है। ग्रहण के बारे में गणितीय एवं फलित सिद्धान्तों को जानने का प्रयास किया। ग्रहण एक खगोलीय घटना है जिसका प्रभाव ज्योतिषशास्त्र में बृहद् रूप में अंकित किया गया है। प्राचीन ज्योतिर्विदों ने सिद्धान्त स्कन्ध में बताया है कि सामान्यतया ग्रहण(एक ग्रह बिम्ब के द्वारा दूसरे ग्रह बिम्ब का ढका जाना) अनेकों आकाश में होते रहते हैं परन्तु रवि एवं चन्द्र का ग्रहण हमारे जगत् को विशेष रूप से प्रभावित करता है, इसलिये इनके ग्रहण की आनयन विधि तथा विविध प्रकार का क्षेत्रात्मक फल या प्रभाव भी वर्णित किया गया है। ज्योतिषशास्त्र के स्कन्धत्रय में ग्रहण की परिचर्चा है। सिद्धान्त स्कन्ध के अन्तर्गत ग्रहण गणना को बताया गया है तथा व्यक्ति पर ग्रहण के प्रभाव को होराशास्त्र में तथा सामूहिक एवं समष्टिगत प्रभाव की गणना संहिता ग्रन्थों में विस्तार से किया गया है।

परिभाषा

ग्रहण- गृह्णाति इति ग्रहणम्।

ग्रहण एक आकाशीय घटना है, जो दो बिम्बों के कारण निश्चित कालावधि में घटित होता है। मुख्यतया दो ग्रहण होते हैं- चन्द्रग्रहण एवं सूर्यग्रहण।

चन्द्रग्रहण- चन्द्रस्य ग्रहणं चन्द्रग्रहणं भवति।

यह ग्रहण पूर्णिमा तिथि को शराभाव में होता है। जब सपात सूर्य का भुजांश १४॰ या उससे न्यून होता है। इसमें छाद्य चन्द्रमा एवं छादक भूभा होता है।

सूर्यग्रहण- सूर्यस्य ग्रहणं सूर्यग्रहणम्।

यह ग्रहण अमावस्या को शराभाव में होता है। जब सपात सूर्य का भुजांश ७ अंश या उससे न्यून होता है। इसमें छाद्य सूर्य तथा छादक चन्द्रमा होता है।

अमावस्या- कृष्णपक्ष की पन्द्रहवीं तिथि को अमावस्या कहते हैं। इसी तिथि को शराभाव में सूर्यग्रहण संभव होता है।

पूर्णिमा- शुक्लपक्ष की पन्द्रहवीं तिथि को पूर्णिमा संज्ञक कहा गया है। चन्द्रग्रहण पूर्णिमा को ही शराभाव में होता है।

ग्रहण की अवस्था, स्वरूप एवं प्रभाव

ग्रहण की पाँच अवस्थाएँ होती है-

1 . स्पर्श 2 . सम्मीलन 3 . मध्य 4 . उन्मीलन 5 . मोक्ष

ग्रहण स्वरूप -

ग्रहण के चार स्वरूप होते हैं - खण्ड, पूर्ण, खग्रास तथा वलय।

ग्रहण के प्रभाव को हम तीन वर्गों में विभाजित करके विवेचना कर सकते हैं-

  1. व्यक्तिगत प्रभाव- ग्रहण के प्रभाव को प्रायः सभी शास्त्रकारों ने अशुभ माना है। यदि कोई भी व्यक्ति ग्रहण को देखता है तो उसके लिये शास्त्रकारों ने हितकर नहीं बताया है। प्रत्येक मनुष्य पर ग्रहण के दुष्प्रभाव को प्राचीन आचार्यों ने अपनी-अपनी अन्वेषण पद्धति से पृथक् - पृथक् परिगणित किया है। आचार्य हारीत ने बताया है कि जिस भी व्यक्ति के जन्मनक्षत्र में चन्द्र या सूर्य का ग्रहण होता है तो उसे हानि, शत्रुता तथा तिरस्कार प्राप्त होता है।
  2. सामूहिक प्रभाव- विशेषरूप से ग्रहण के सामूहिक का ही वर्णन प्राचीन ग्रन्थों एवं पुराणों में प्राप्त होता है। महाभारत में पाया जाता है कि- चन्द्रसूर्यावुभौ ग्रस्तौ एक मासीं त्रयोदशीम्। अपर्वणि ग्रहावेतावुत्पातं जनयिष्यतः॥ अर्थात् ऐसे ग्रहण काल में उत्पात अवश्य होंगे। इस प्रकार के ग्रहण का आख्यान गोपथ ब्राह्मण २/३/१९ तथा शतपथ ब्राह्मण ५/३/२/२ एवं तैत्तिरीय ब्राह्मण ४/२ में प्राप्त होता है। बृहत्संहिता में वराहमिहिराचार्य जी ने बताया है कि यदि एक मास में रवि एवं चन्द्र दोनों का ग्रहण हो तो राजा के सेना में विद्रोह तथा कोश एवं शस्त्र नाश होता है। इस प्रकार वशिष्ठ संहिता में बताया गया है कि यदि उत्तरायण में सूर्य या चन्द्र ग्रहण हो तो विप्र, सज्जन एवं राजा की हानि होती हैं। वसिष्ठ संहिता के ही ६ पर्वों के आधार पर पृथक् - पृथक् अशुभ फलों को बताया गया है। ग्रहण के समय में उत्पात, उल्कापात, दिग्दाह, भूकम्प, धूलिवर्षण आदि दिखाई दे तो पुनः ग्रहण तथा अशुभदायक माना गया है।
  3. स्थानीय प्रभाव- ज्योतिषशास्त्र एक वैज्ञानिक शास्त्र है। प्रत्येक परिस्थितियों का विश्लेषण करना इसका पुनीत एवं मंगल कार्य है। काल की गणना तथा कालजन्य विकृतियों का खण्ड-खण्ड कर उसका विश्लेषण तथा दोष शमन उपाय प्रत्येक ज्योतिषशास्त्रीय ग्रन्थों में अवश्य प्राप्त होता ही है। भचक्र में गतिमान रवि-चन्द्र ग्रहण निश्चित रूप से अमावस्या तथा पूर्णिमा को ही होगा परन्तु, मास का निश्चय नहीं है कि यह ग्रहण अमुक मास में ही पतित होगा।

ग्रहण विचार

किसी खगोलीय पिण्ड का पूर्ण अथवा आंशिक रूप से किसी अन्य खगोलीय पिण्ड के द्वारा ढका जाना ग्रहण कहलाता है। जब कोई खगोलीय पिण्ड किसी अन्य पिण्ड के पीछे आ जाता है या किसी खगोलीय पिण्ड का प्रकाश अन्य पिण्ड के द्वारा बाधित होता है, तब ग्रहण होता है। भूसापेक्ष दृश्य अनुरोध के द्वारा मुख्यतया ग्रहण के दो भेद हैं- सूर्य ग्रहण एवं दूसरा चन्द्रग्रहण। चन्द्रमा अमावस्या को सूर्य और पृथ्वी के मध्यस्थान में प्रवेश करता है और पृथ्वी पूर्णिमा को चन्द्रमा और सूर्य के मध्यवर्तिनी होती है। पृथ्वी स्वयं पर प्रकाश एवं ईषत् दीर्घ गोलाकार है, इससे इसका जो भाग सूर्यरश्मि से प्रकाशित होता है, उसके विपरीत भाग में सूच्याकार (सूची सी आकृति) इस भूच्छाया में जब चन्द्रमा प्रवेश करत है, तब वह क्रमशः अन्धकार से आच्छादित होने लगता है। इसी को चन्द्रग्रहण कहते हैं। ऐसी घटना केवल पूर्णिमा को ही होती है इस कारण पूर्णिमा को ही चन्द्रग्रहण हो सकता है।

चन्द्रमा यदि सूर्य और पृथ्वी के मध्यवर्ती हो तो सूर्यरश्मि चन्द्र से अवरुद्ध होती है, उसी को सूर्यग्रहण कहते हैं। सूर्य और चन्द्रमा के संगमकाल में अर्थात् अमावस्या को सूर्यग्रहण की संभावना होती है। यदि चन्द्रकक्षा और भूकक्षा समतल स्थित होती तो प्रति पूर्णमासी को चन्द्रग्रहण एवं प्रत्येक अमावस्या को सूर्यग्रहण होता। क्योंकि उस काल में सूर्य, पृथ्वी और चन्द्रमा एक सूत्र में रहने से चन्द्र द्वारा सूर्यरश्मि बाधित वा भूच्छाया द्वारा चन्द्रबिम्ब छादित होता। किन्तु चन्द्रकक्षा और पृथ्वी कक्षा समतलस्थ नहीं है। इन दो कक्षाओं के दो बिन्दुमात्र में तिर्यग्भाव से सन्धि होती है। जिन राहु, केतु को चन्द्रपात कहते हैं, इसी पातस्थान में या उसके समीप में चन्द्रमा जब आता है। तब चन्द्रमा, सूर्य और पृथ्वी समतलस्थ होती है। अत एव प्रत्येक पूर्णमासी वा अमावस्या को चन्द्रमा अपने पातस्थ वा निकटस्थ न होने से चन्द्र या सूर्यग्रहण नहीं होता।

सूर्य ग्रहण विचार

  1. पूर्ण सूर्य ग्रहण- पूर्ण सूर्य ग्रहण उस समय होता है जब चन्द्रमा पृथ्वी के काफ़ी पास रहते हुए पृथ्वी और सूर्य के बीच में आ जाता है और चन्द्रमा पूरी तरह से पृथ्वी को अपने छाया क्षेत्र में ले लेता है। इसके फलस्वरूप सूर्य का प्रकाश पृथ्वी तक पहुँच नहीं पाता है और पृथ्वी पर अंधकार जैसी स्थिति उत्पन्न हो जाती है तब पृथ्वी पर पूरा सूर्य दिखाई नहीं देता। इस प्रकार बनने वाला ग्रहण पूर्ण सूर्य ग्रहण कहलाता है।
  2. आंशिक सूर्य ग्रहण- आंशिक सूर्यग्रहण में जब चन्द्रमा सूर्य व पृथ्वी के बीच में इस प्रकार आए कि सूर्य का कुछ ही भाग पृथ्वी से दिखाई नहीं देता है अर्थात् चन्द्रमा, सूर्य के केवल कुछ भाग को ही अपनी छाया में ले पाता है। इससे सूर्य का कुछ भाग ग्रहण ग्रास में तथा कुछ भाग ग्रहण से अप्रभावित रहता है तो पृथ्वी के उस भाग विशेष में लगा ग्रहण आंशिक सूर्य ग्रहण कहलाता है।
  3. वलयाकार सूर्य ग्रहण- वलयाकार सूर्य ग्रहण में जब चन्द्रमा पृथ्वी के काफी दूर रहते हुए पृथ्वी और सूर्य के बीच में आ जाता है अर्थात् चन्द्र सूर्य को इस प्रकार ढकता है, कि सूर्य का केवल मध्य भाग ही छाया क्षेत्र में आता है और पृथ्वी से देखने पर चन्द्रमा द्वारा सूर्य पूरी तरह ढका दिखाई नहीं देता बल्कि सूर्य के बाहर का क्षेत्र प्रकाशित होने के कारण कंगन या वलय के रूप में चमकता दिखाई देता है। कंगन आकार में बने सूर्यग्रहण को ही वलयाकार सूर्य ग्रहण कहा जाता है।

वैज्ञानिक दृष्टिकोण में सूर्य ग्रहण

चन्द्र ग्रहण विचार

धार्मिक विवेचन

ऋषि-मुनियों ने सूर्य ग्रहण लगने के समय भोजन के लिए मना किया है, क्योंकि उनकी मान्यता थी कि ग्रहण

के समय में कीटाणु बहुलता से फैल जाते हैं। खाद्य वस्तु, जल आदि में सूक्ष्म जीवाणु एकत्रित होकर उसे दूषित कर देते हैं। इसलिये ऋषियों ने पात्रों में कुश डालने को कहा है, ताकि सब कीटाणु कुश में एकत्रित हो जायें और उन्हें ग्रहण के बाद फेंका जा सके। पात्रों में अग्नि डालकर उन्हें पवित्र बनाया जाता है ताकि कीटाणु मर जायें। ग्रहण के बाद स्नान करने का विधान भी इसीलिये बनाया गया ताकि स्नान से शरीर के अंदर ऊष्मा का प्रवाह बढे, भीतर-बाहर के कीटाणु नष्ट हो जायें और धुल कर बह जायें।

ग्रहण के दौरान भोजन न करने के विषय में "जीव विज्ञान" विषय के प्रोफेसर टारिंस्टन ने पर्याप्त अनुसंधान करके सिद्ध किया है कि सूर्य-चंद्र ग्रहण के समय मनुष्य के पेट की पाचन-शक्ति कमजोर हो जाती है, जिसके कारण इस समय किया गया भोजन अपच, अजीर्ण आदि शिकायतें पैदा कर शारीरिक या मानसिक हानि पहुँचा सकता है। भारतीय धर्म विज्ञानवेत्ताओं का मानना है कि सूर्य-चंद्र ग्रहण लगने से दस घंटे पूर्व से ही इसका कुप्रभाव शुरू हो जाता है। अंतरिक्षीय प्रदूषण के समय को सूतक काल कहा गया है। इसलिए सूतक काल और ग्रहण के समय में भोजन तथा पेय पदार्थों के सेवन की मनाही की गई है। चूंकि ग्रहण से हमारी जीवन शक्ति का ह्रास होता है और तुलसी दल में विद्युत शक्ति व प्राण शक्ति सबसे अधिक होती है, इसलिये सौर मण्डलीय ग्रहण काल में ग्रहण प्रदूषण को समाप्त करने के लिए भोजन तथा पेय सामग्री में तुलसी के कुछ पत्ते डाल दिए जाते हैं जिसके प्रभाव से न केवल भोज्य पदार्थ बल्कि अन्न, आटा आदि भी प्रदूषण से मुक्त बने रह सकते हैं।

आधुनिक विज्ञान द्वारा विश्लेषण

आधुनिक विज्ञान की दृष्टि से जब सूर्य व पृथ्वी के बीच में चन्द्रमा आ जाता है तो चन्द्रमा के पीछे सूर्य का बिम्ब कुछ समय के लिए ढक जाता है, उसी घटना को सूर्यग्रहण कहा जाता है। पृथ्वी सूरज की परिक्रमा करती है और चन्द्रमा पृथ्वी की। कभी-कभी चन्द्रमा, सूर्य और धरती के बीच आ जाता है। फिर वह सूर्य की आंशिक या समस्त प्रकाश को रोक लेता है जिससे धरती पर छाया फैल जाता है। इस घटना को सूर्य ग्रहण कहा जाता है। यह घटना प्रत्येक अमावस्या को ही होती है। सामान्यतया चन्द्रमा, सूर्य के सिर्फ कुछ हिस्से को ही ढकता है। यह स्थिति खण्ड -ग्रहण कहलाती है। कभी-कभी ही ऐसा होता है कि चन्द्रमा, सूर्य को पूरी तरह ढँक लेता है। इसे पूर्ण-ग्रहण कहते हैं। पूर्ण-ग्रहण धरती के बहुत कम क्षेत्र में ही देखा जा सकता है। ज्यादा से ज्यादा दो सौ पचास (२५०) किलोमीटर के सम्पर्क में। इस क्षेत्र के बाहर केवल खंड-ग्रहण दिखाई देता है। पूर्ण-ग्रहण के समय चन्द्रमा को सूरज के सामने से गुजरने में दो घण्टे लगते हैं। चन्द्रमा सूरज को पूरी तरह से, ज्यादा से ज्यादा, सात मिनट तक ढँकता है। इन कुछ क्षणों के लिये आसमान में अंधेरा हो जाता है, या यूँ कहें कि दिन में रात हो जाती है। चन्द्रमा द्वारा सूर्य बिम्ब के पूरे या कम भाग के ढके जाने की वजह से सूर्य ग्रहण तीन प्रकार के होते हैं जिन्हैं पूर्ण सूर्य ग्रहण, आंशिक सूर्य ग्रहण व वलयाकार सूर्य ग्रहण कहते हैं।

ग्रहण एवं राहु केतु

विश्व के मूर्धन्य खगोलविदों से पूछिये तो राहु तथा केतु नाम के कोई ग्रह हमारे सौर मण्डल में नहीं हैं। सौर-मण्डल के ग्रह हैं- बुध, शुक्र, पृथ्वी, मंगल, बृहस्पति, शनि, अरुण(हर्शल), वरुण (नेपच्यून) यम(प्लूटो) नाम का नवां ग्रह भी कुछ दिनों पूर्व तक स्वीकृत था, किन्तु अंतर्राष्ट्रीय खगोलीय संघ ने लम्बी वार्ता एवं वाद-प्रतिवाद के पश्चात यम को ग्रह कहे जा सकने की पात्रता से वंचित कर दिया है अतः अब सौर-मण्डल में मात्र आठ ग्रह हैं। सूर्य तथा चन्द्र आधुनिक परिभाषाओं के अनुसार ग्रह नहीं हैं। सूर्य एक तारा है तथा चन्द्रमा पृथ्वी का उपग्रह है। ग्रह तथा उपग्रह की आधुनिक परिभाषा के अनुसार जो आकाशीय पिण्ड सूर्य की परिक्रमा करते हैं वे ग्रह हैं तथा जो पिण्ड इन ग्रहों की परिक्रमा करते हैं वे उस ग्रह-विशेष के उपग्रह हैं। किन्तु भारतीय ज्योतिष में ग्रह की परिभाषा भिन्न है। याज्ञवल्क्य स्मृति में एक श्लोक इस प्रकार है-

सूर्यः सोमो महीपुत्रः सोमपुत्रो बृहस्पतिः। शुक्रः शनैश्चरो राहुः केतुश्चेति ग्रहाः स्मृताः॥(आचाराध्याय)

सूर्य, चन्द्र, महीपुत्र अर्थात् मंगल, सोमपुत्र या चन्द्र-पुत्र अर्थात् बुध, बृहस्पति, शुक्र, शनि, राहु तथा केतु ग्रह कहे जाते हैं। पृथ्वी से देखने पर जो भी आकाशीय पिण्ड अंतरिक्ष में पृथ्वी के सापेक्ष गति करते प्रतीत होते हैं उन सब को भारतीय ज्योतिष में ग्रह की संज्ञा प्रदान की गयी और इस दृष्टि से चन्द्रमा तो पृथ्वी के सापेक्ष स्पष्टतः गतिमान है ही, सूर्य भी पृथ्वी के सापेक्ष गतिमान प्रतीत होता है भले ही उसकी गति आभासी तथा पृथ्वी की अपनी गति के कारण है अतः भारतीय ज्योतिष में सूर्य भी ग्रह माना गया। पृथ्वी से पृथ्वी की कोई सापेक्ष गति नहीं है अतः भारतीय ज्योतिष में पृथ्वी को ग्रह नहीं माना गया। यह अंतर ज्योतिष तथा खगोल का अन्तर है अतः इससे भ्रम में नहीं पडना चाहिये।

सारांश

चन्द्रग्रहण पूर्णिमा तथा सूर्यग्रहण अमावस्या को होता है क्योंकि अपनी-अपनी कक्षाओं में भ्रमण करते हुए सूर्य एवं चन्द्रमा का परस्पर १८० अंश की दूरी पर होते हैं तो पूर्णिमा होती है तथा उस समय सूर्य एवं चन्द्रमा के मध्य में स्थित भूपिण्डस्थ जनों के समक्ष सूर्य किरणों के संसर्ग से प्रकाशित चन्द्रपिण्ड का उज्ज्वल भाग पूर्ण बिम्ब रूप में दिखाई पडता है परन्तु उक्त स्थिति में जब चन्द्रमा अपनी कक्षा में पात के आसन्न होता है तब पृथ्वी द्वारा सूर्य किरणों के अवरोध होने से जो भूमि की छाया बनती है वह भी स्वविरुद्ध दिशा में १८० अंश पर द्वितीय पात के आसन्न सूर्य एवं चन्द्र कक्षाओं से होकर ही आगे तक जाती है। अतः अपनी कक्षा में भ्रमण करता हुआ चन्द्रमा उस भूभा में प्रविष्ट होकर ग्रहण ग्रस्त हो जाता है।

पारिभाषिक शब्दावली

भूभा- भू का अर्थ पृथ्वी और भा का अर्थ छाया होता है। इस प्रकार भूभा का अर्थ भूमि की छाया हुआ।

पात- चन्द्रविमण्डल और क्रान्तिवृत्त का सम्पात दो स्थानों पर होता है। प्रथम सम्पात को पात (राहु) एवं द्वितीय सम्पात को केतु कहते हैं।

ग्रास- ग्रास से तात्पर्य छादक बिम्ब द्वारा छाद्य बिम्ब को ढकने से है। ग्रहणकाल में जितना भाग ढकता है, उतना ही ग्रासमान माना जाता है। यह सामान्य बात है। विशेषतः सैद्धान्तिक दृष्टिकोण से छाद्य और छादक के मानैक्यार्ध (छाद्य बिम्ब और छादक बिम्ब के व्यास के योग का आधा) में तात्कालिक चन्द्रशर घटाने से शेष ग्रास प्रमाण होता है।

शर- सामान्यतया शर का अर्थ होता है- दूरी या अन्तर। इसी को विक्षेप भी कहते हैं। गोलीय रीति के अनुसार कदम्बप्रोत्तवृत्त में बिम्ब से ग्रहस्थान तक की दूरी (अन्तर) को मध्यम शर कहते हैं।

स्पष्टशर - स्थानीय बिम्बीय अहोरात्रवृत्त के अन्तर(ध्रुवप्रोतवृत्त) में को स्पष्ट शर कहते हैं।

उद्धरण