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| | == जन्म == | | == जन्म == |
| − | संस्कार की दृष्टि से यह क्षण भी अतिविशिष्ट महत्त्व | + | संस्कार की दृष्टि से यह क्षण भी अतिविशिष्ट महत्त्व रखता है । उस समय अवकाश के ग्रहों और नक्षत्रों, पंचमहाभूतों की स्थिति, माता तथा परिवारजनों की मानसिक स्थिति, जहाँ जन्म हो रहा है वह स्थान शिशु के चरित्र को प्रभावित करते हैं । कुछ विशेष बातें इस प्रकार हैं: |
| − | | + | # जन्म सामान्य प्रसूति से होता है कि सीझर से यह बहुत मायने रखता है । सीझर से होता है तब जन्म लेने के और जन्म देने के प्रत्यक्ष अनुभव से शिशु और माता दोनों वंचित रह जाते हैं जिसका उनके सम्बन्ध पर परिणाम होता है। इसलिये सीझर न करना पड़े इसकी सावधानी सगर्भावस्था में रखनी चाहिये । इस दृष्टि से व्यायाम का महत्त्व है । |
| − | रखता है । उस समय अवकाश के ग्रहों और नक्षत्रों, | + | # जन्म के समय ज्ञानेन्द्रियाँ अतिशय कोमल होती हैं। अब तक वे माता के गर्भाशय में सुरक्षित थीं । अब वे अचानक बाहर के विश्व में आ गई हैं जहाँ वातावरण सर्वथा विपरीत है । उन्हें तेज गंध, तीखी और कर्कश आवाज, अपरिचित व्यक्तियों के दर्शन, कठोर स्पर्श आदि से परेशानी होती है । उनकी संवेदन ग्रहण करने की क्षमता का क्षरण हो जाता है, लोकभाषा में कहें तो वे भोथरी बन जाती हैं । |
| − | | + | # भावी जीवन में ज्ञानेन्द्रियों की सहायता से बाह्य जगत् के जो अनुभव और ज्ञान प्राप्त करना है उसमें बहुत बड़े अवरोध निर्माण हो जाते हैं । इस मुद्दे का विचार कर ही घर में, घर के परिजनों के मध्य, विशेष रूप से बनाये गये कक्ष में, सुन्दर वातावरण में सुखप्रसूति का महत्त्व बताया गया है। यह कैसे होगा इसका विस्तृत वर्णन किया गया है क्योंकि आनेवाला शिशु राष्ट्र की, संस्कृति की, कुल की और मातापिता की मूल्यवान सम्पत्ति है । इस जगत् में उसका आगमन सविशेष सम्मान और सुरक्षापूर्वक होना चाहिये । यह क्षण जीवन में एक ही बार आता है, इसे चूकना नहीं चाहिये । जन्म के बाद दसदिन तक उसे कड़ी सुरक्षा की आवश्यकता होती है । प्रकाश, ध्वनि, स्पर्श, गन्ध, दृश्य आदि ज्ञानेन्द्रियों के विषय में सजगता बरती जाती है । शिशु के कक्ष में किसी को प्रवेश की अनुमति नहीं होती, न शिशु को कक्ष के बाहर लाया जाता है । बाहर के वातावरण के साथ समायोजन करने के लिये जितना समय चाहिये उतना दिया जाता है । गर्भाधान, गर्भावस्था और जन्म की अवस्थायें ऐसी हैं जिनमें दो पीढ़ियों का जीवन शारीरिक दृष्टि से भी असम्पृक्त होकर ही विकसित होता है । स्थूल और सूक्ष्म दोनों शरीर एकदूसरे से जुड़े हैं, सारे अनुभव साँझे हैं, शिशु माता के जीवन का अंग ही है । इसलिय जन्म होने तक वह स्वतन्त्र व्यक्ति नहीं माना जाता है । व्यक्ति की आयु का हिसाब जन्म से ही शुरू होता है क्योंकि जन्म के बाद ही वह स्वतन्त्र होकर जीवनयात्रा शुरू करता है । |
| − | पंचमहाभूतों की स्थिति, माता तथा परिवारजनों की | + | # स्वतन्त्र जीवन की प्रथम अवस्था है शिशुअवस्था । इस अवस्था की औसत आयु होती है जन्म से पाँच वर्ष की । गर्भावस्था के आधार पर यह पाँच सात मास तक अधिक भी हो सकती है परन्तु औसत पाँच वर्ष ही माना जाता है । इस अवस्था की शिक्षा नींव की शिक्षा है । इस अवस्था में भी प्रमुखता चित्त की ही है, परन्तु ज्ञानार्जन के अन्य करण भी सक्रिय होने लगते हैं । हम क्रमशः इस अवस्था की शिक्षा का विचार करे । |
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| − | मानसिक स्थिति, जहाँ जन्म हो रहा है वह स्थान शिशु के | |
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| − | चरित्र को प्रभावित करते हैं । कुछ विशेष बातें इस प्रकार | |
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| − | १, जन्म सामान्य प्रसूति से होता है कि सीझर से यह
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| − | बहुत मायने रखता है । सीझर से होता है तब जन्म लेने के | |
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| − | और जन्म देने के प्रत्यक्ष अनुभव से शिशु और माता दोनों | |
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| − | वंचित रह जाते हैं जिसका उनके सम्बन्ध पर परिणाम होता | |
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| − | है। इसलिये सीझर न करना पड़े इसकी सावधानी | |
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| − | सगर्भावस्था में रखनी चाहिये । इस दृष्टि से व्यायाम का | |
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| − | महत्त्व है । | |
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| − | २. जन्म के समय ज्ञानेन्द्रियाँ अतिशय कोमल होती
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| − | हैं। अब तक वे माता के गर्भाशय में सुरक्षित थीं । अब वे | |
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| − | अचानक बाहर के विश्व में आ गई हैं जहाँ वातावरण सर्वथा | |
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| − | विपरीत है । उन्हें तेज गंध, तीखी और कर्कश आवाज, | |
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| − | अपरिचित व्यक्तियों के दर्शन, कठोर स्पर्श आदि से परेशानी | |
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| − | होती है । उनकी संवेदन ग्रहण करने की क्षमता का क्षरण हो | |
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| − | जाता है, लोकभाषा में कहें तो वे भोथरी बन जाती हैं । | |
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| − | भावी जीवन में ज्ञानेन्द्रियों की सहायता से बाह्य जगत् के | |
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| − | जो अनुभव और ज्ञान प्राप्त करना है उसमें बहुत बड़े | |
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| − | अवरोध निर्माण हो जाते हैं । इस मुद्दे का विचार कर ही घर | |
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| − | में, घर के परिजनों के मध्य, विशेष रूप से बनाये गये कक्ष | |
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| − | में, सुन्दर वातावरण में सुखप्रसूति का महत्त्व बताया गया | |
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| − | है। यह कैसे होगा इसका विस्तृत वर्णन किया गया है | |
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| − | क्योंकि आनेवाला शिशु राष्ट्र की, संस्कृति की, कुल की | |
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| − | और मातापिता की मूल्यवान सम्पत्ति है । इस जगत् में | |
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| − | उसका आगमन सविशेष सम्मान और सुरक्षापूर्वक होना | |
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| − | चाहिये । यह क्षण जीवन में एक ही बार आता है, इसे | |
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| − | चूकना नहीं चाहिये । | |
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| − | आदि ज्ञानेन्द्रियों के विषय में सजगता बरती जाती है । | |
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| − | पीढ़ियों का जीवन शारीरिक दृष्टि से भी असम्पृक्त होकर ही | |
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| − | विकसित होता है । स्थूल और सूक्ष्म दोनों शरीर एकदूसरे | |
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| − | से जुड़े हैं, सारे अनुभव साँझे हैं, शिशु माता के जीवन का | |
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| − | अंग ही है । इसलिय जन्म होने तक वह स्वतन्त्र व्यक्ति नहीं | |
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| − | माना जाता है । व्यक्ति की आयु का हिसाब जन्म से ही | |
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| − | शुरू होता है क्योंकि जन्म के बाद ही वह स्वतन्त्र होकर | |
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| − | जीवनयात्रा शुरू करता है । | |
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| − | स्वतन्त्र जीवन की प्रथम अवस्था है शिशुअवस्था । | |
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| − | इस अवस्था की औसत आयु होती है जन्म से पाँच वर्ष | |
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| − | की । गर्भावस्था के आधार पर यह पाँच सात मास तक | |
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| − | अधिक भी हो सकती है परन्तु औसत पाँच वर्ष ही माना | |
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| − | जाता है । इस अवस्था की शिक्षा नींव की शिक्षा है । इस | |
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| − | अवस्था में भी प्रमुखता चित्त की ही है, परन्तु ज्ञानार्जन के | |
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| − | अन्य करण भी सक्रिय होने लगते हैं । हम क्रमशः इस | |
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| | == शुभ अनुभवों की अनिवार्यता == | | == शुभ अनुभवों की अनिवार्यता == |