Difference between revisions of "Adiparva Adhyaya 17 (आदिपर्वणि अध्यायः १७)"
Jump to navigation
Jump to search
(Created page with "सूत उवाच एतस्मिन्नेव काले तु भगिन्यौ ते तपोधन। अपश्यतां समायाते...") |
|||
(One intermediate revision by the same user not shown) | |||
Line 1: | Line 1: | ||
− | |||
− | |||
− | |||
− | यं तं देवगणाः सर्वे हृष्टरूपमपूजयन्। | + | सूत उवाच |
− | + | एतस्मिन्नेव काले तु भगिन्यौ ते तपोधन। | |
− | मथ्यमानेऽमृते जातमश्वरत्नमनुत्तमम्॥ 1-17-2 | + | अपश्यतां समायाते उच्चैःश्रवसमन्तिकात्॥ 1-17-1 |
− | + | यं तं देवगणाः सर्वे हृष्टरूपमपूजयन्। | |
− | अमोघबलमश्वानामुत्तमं जगतां वरम्। | + | मथ्यमानेऽमृते जातमश्वरत्नमनुत्तमम्॥ 1-17-2 |
− | + | अमोघबलमश्वानामुत्तमं जगतां वरम्। | |
− | श्रीमन्तमजरं दिव्यं सर्वलक्षणपूजितम्॥ 1-17-3 | + | श्रीमन्तमजरं दिव्यं सर्वलक्षणपूजितम्॥ 1-17-3 |
− | + | शौनक उवाच | |
− | शौनक उवाच | + | कथं तदमृतं देवैर्मथितं क्व च शंस मे। |
− | + | यत्र जज्ञे महावीर्यः सोऽश्वराजो महाद्युतिः॥ 1-17-4 | |
− | कथं तदमृतं देवैर्मथितं क्व च शंस मे। | + | सौतिरुवाच |
− | + | ज्वलन्तमचलं मेरुं तेजोराशिमनुत्तमम्। | |
− | यत्र जज्ञे महावीर्यः सोऽश्वराजो महाद्युतिः॥ 1-17-4 | + | आक्षिपन्तं प्रभां भानोः स्वशृङ्गेः काञ्चनोज्ज्वलैः॥ 1-17-5 |
− | + | कनकाभरणं चित्रं देवगन्धर्वसेवितम्। | |
− | सौतिरुवाच | + | अप्रमेयमनाधृष्यमधर्मबहुलैर्जनैः॥ 1-17-6 |
− | + | व्यालैरावारितं घोरैर्दिव्यौषधिविदीपितम्। | |
− | ज्वलन्तमचलं मेरुं तेजोराशिमनुत्तमम्। | + | नाकमावृत्य तिष्ठन्तमुच्छ्रयेण महागिरिम्॥ 1-17-7 |
− | + | अगम्यं मनसाप्यन्यैर्नदीवृक्षसमन्वितम्। | |
− | आक्षिपन्तं प्रभां भानोः स्वशृङ्गेः काञ्चनोज्ज्वलैः॥ 1-17-5 | + | नानापतगसङ्घैश्च नादितं सुमनोहरैः॥ 1-17-8 |
− | + | तस्य शृङ्गमुपारुह्य बहुरत्नाचितं शुभम्। | |
− | कनकाभरणं चित्रं देवगन्धर्वसेवितम्। | + | अनन्त कल्पमुद्विद्धं सुराः सर्वे महौजसः॥ 1-17-9 |
− | + | ते मन्त्रयितुमारब्धास्तत्रासीना दिवौकसः। | |
− | अप्रमेयमनाधृष्यमधर्मबहुलैर्जनैः॥ 1-17-6 | + | अमृताय समागम्य तपोनियमसंयुताः॥ 1-17-10 |
− | + | तत्र नारायणो देवो ब्रह्माणमिदमब्रवीत्। | |
− | व्यालैरावारितं घोरैर्दिव्यौषधिविदीपितम्। | + | चिन्तयत्सु सुरेष्वेवं मन्त्रयत्सु च सर्वशः॥ 1-17-11 |
− | + | देवैरसुरसङ्घैश्च मथ्यतां कलशोदधिः। | |
− | नाकमावृत्य तिष्ठन्तमुच्छ्रयेण महागिरिम्॥ 1-17-7 | + | भविष्यत्यमृतं तत्र मथ्यमाने महोदधौ॥ 1-17-12 |
− | + | सर्वौषधीः समावाप्य सर्वरत्नानि चैव ह। | |
− | अगम्यं मनसाप्यन्यैर्नदीवृक्षसमन्वितम्। | + | मन्थध्वमुदधिं देवा वेत्स्यध्वममृतं ततः॥ 1-17-13 |
− | + | इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि आस्तीकपर्वणि अमृतमन्थने सप्तदशोऽध्यायः॥ 17 ॥ | |
− | नानापतगसङ्घैश्च नादितं सुमनोहरैः॥ 1-17-8 | + | [[:Category:churning of ocean|''churning of ocean'']] [[:Category:samudramanthan|''samudramanthan'']] |
− | + | [[:Category:समुद्रमन्थन|''समुद्रमन्थन'']] [[:Category:Ucchaishrava|''Ucchaishrava'']] [[:Category:उच्चैश्रवा|''उच्चैश्रवा'']] | |
− | तस्य शृङ्गमुपारुह्य बहुरत्नाचितं शुभम्। | + | [[:Category:Meru|''Meru'']] [[:Category:Mount Meru|''Mount Meru'']] [[:Category:Meru Shikhar|''Meru Shikhar'']] |
− | + | [[:Category:Meru Parvat|''Meru Parvat'']] [[:Category:मेरु पर्वत|''मेरु पर्वत'']] [[:Category:मेरु|''मेरु'']] | |
− | अनन्त कल्पमुद्विद्धं सुराः सर्वे महौजसः॥ 1-17-9 | + | [[:Category:पर्वत|''पर्वत'']] [[:Category:Narayan|''Narayan'']] [[:Category:नारायण|''नारायण'']] |
− | |||
− | ते मन्त्रयितुमारब्धास्तत्रासीना दिवौकसः। | ||
− | |||
− | अमृताय समागम्य तपोनियमसंयुताः॥ 1-17-10 | ||
− | |||
− | तत्र नारायणो देवो ब्रह्माणमिदमब्रवीत्। | ||
− | |||
− | चिन्तयत्सु सुरेष्वेवं मन्त्रयत्सु च सर्वशः॥ 1-17-11 | ||
− | |||
− | देवैरसुरसङ्घैश्च मथ्यतां कलशोदधिः। | ||
− | |||
− | भविष्यत्यमृतं तत्र मथ्यमाने महोदधौ॥ 1-17-12 | ||
− | |||
− | सर्वौषधीः समावाप्य सर्वरत्नानि चैव ह। | ||
− | |||
− | मन्थध्वमुदधिं देवा वेत्स्यध्वममृतं ततः॥ 1-17-13 | ||
− | |||
− | इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि आस्तीकपर्वणि अमृतमन्थने सप्तदशोऽध्यायः॥ 17 ॥ |
Latest revision as of 04:00, 3 September 2019
सूत उवाच एतस्मिन्नेव काले तु भगिन्यौ ते तपोधन। अपश्यतां समायाते उच्चैःश्रवसमन्तिकात्॥ 1-17-1 यं तं देवगणाः सर्वे हृष्टरूपमपूजयन्। मथ्यमानेऽमृते जातमश्वरत्नमनुत्तमम्॥ 1-17-2 अमोघबलमश्वानामुत्तमं जगतां वरम्। श्रीमन्तमजरं दिव्यं सर्वलक्षणपूजितम्॥ 1-17-3 शौनक उवाच कथं तदमृतं देवैर्मथितं क्व च शंस मे। यत्र जज्ञे महावीर्यः सोऽश्वराजो महाद्युतिः॥ 1-17-4 सौतिरुवाच ज्वलन्तमचलं मेरुं तेजोराशिमनुत्तमम्। आक्षिपन्तं प्रभां भानोः स्वशृङ्गेः काञ्चनोज्ज्वलैः॥ 1-17-5 कनकाभरणं चित्रं देवगन्धर्वसेवितम्। अप्रमेयमनाधृष्यमधर्मबहुलैर्जनैः॥ 1-17-6 व्यालैरावारितं घोरैर्दिव्यौषधिविदीपितम्। नाकमावृत्य तिष्ठन्तमुच्छ्रयेण महागिरिम्॥ 1-17-7 अगम्यं मनसाप्यन्यैर्नदीवृक्षसमन्वितम्। नानापतगसङ्घैश्च नादितं सुमनोहरैः॥ 1-17-8 तस्य शृङ्गमुपारुह्य बहुरत्नाचितं शुभम्। अनन्त कल्पमुद्विद्धं सुराः सर्वे महौजसः॥ 1-17-9 ते मन्त्रयितुमारब्धास्तत्रासीना दिवौकसः। अमृताय समागम्य तपोनियमसंयुताः॥ 1-17-10 तत्र नारायणो देवो ब्रह्माणमिदमब्रवीत्। चिन्तयत्सु सुरेष्वेवं मन्त्रयत्सु च सर्वशः॥ 1-17-11 देवैरसुरसङ्घैश्च मथ्यतां कलशोदधिः। भविष्यत्यमृतं तत्र मथ्यमाने महोदधौ॥ 1-17-12 सर्वौषधीः समावाप्य सर्वरत्नानि चैव ह। मन्थध्वमुदधिं देवा वेत्स्यध्वममृतं ततः॥ 1-17-13 इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि आस्तीकपर्वणि अमृतमन्थने सप्तदशोऽध्यायः॥ 17 ॥ churning of ocean samudramanthan समुद्रमन्थन Ucchaishrava उच्चैश्रवा Meru Mount Meru Meru Shikhar Meru Parvat मेरु पर्वत मेरु पर्वत Narayan नारायण