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| | == परिचय॥ Introduction == | | == परिचय॥ Introduction == |
| − | महाभारत में दण्ड का सार्वभौम रूप प्रस्तुत हुआ है। उसमें कहा गया है कि दण्ड प्रजा पर शासन करता एवं उसकी रक्षा करता है। जब संसार शयन करता है तब दण्ड जागता है अतः विद्वान् उसे ही धर्म मानते हैं। दण्ड के ही भय से मनुष्य कर्त्तव्य करता है, यह भय राजदण्ड मूलक हो अथवा यमदण्ड मूलक दण्डभय से ही मनुष्य पाप प्रवृत्ति क्षीण होती है। | + | प्राचीन भारतीय न्यायिक क्षेत्र में दण्ड व्यवस्था को महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त था। तत्कालीन समाज में जीवन के क्रिया कलापों में भी दण्ड का प्रमुख योगदान है। महाभारत में दण्ड का सार्वभौम रूप प्रस्तुत हुआ है, उसमें कहा गया है कि - <blockquote>राजदण्डभयादेके नराः पापं न कुर्वते। यमदण्डभयादेके परलोकभयादपि॥ (महाभारत)<ref name=":0" /> </blockquote>दण्ड प्रजा पर शासन करता एवं उसकी रक्षा करता है। जब संसार शयन करता है तब दण्ड जागता है अतः विद्वान् उसे ही धर्म मानते हैं। दण्ड के ही भय से मनुष्य कर्त्तव्य करता है, यह भय राजदण्ड मूलक हो अथवा यमदण्ड मूलक दण्डभय से ही मनुष्य पाप प्रवृत्ति क्षीण होती है।<ref>शोध कर्ता - बबिता मौर्या, [https://shodhganga.inflibnet.ac.in/handle/10603/181757 प्राचीन भारतीय दण्ड व्यवस्था का समाजशास्त्रीय अध्ययन], सन २०१२, शोधकेन्द्र- वीर बहादुर सिंह पूर्वाञ्चल विश्वविद्यालय, जौनपुर (पृ० १३)।</ref> अरिषड् वर्ग काम, [[Krodha (क्रोधः)|क्रोध]], लोभ, मोह, मद, मात्सर्य , प्रभृति कुप्रवृत्तियों पर नियंत्रण अत्यावश्यक है। दण्ड की आवश्यकता एवं महत्ता पर प्रकाश डालते हुये वेदव्यास जी कहते हैं कि ब्रह्मचारी, गृहस्थ, वानप्रस्थ और [[Sannyasashrama (सन्न्यासाश्रमः)|सन्यासी]] इन चारों आश्रमों में स्थित मनुष्य दण्ड के भय से ही अपने-अपने मार्ग पर स्थिर रहते हैं - <blockquote>ब्रह्मचारी गृहस्थश्च वानप्रस्थश्च भिक्षकः। दण्डस्यैव भयादेते मनुष्यात् वर्त्मनि स्थिताः॥ (महाभारत)</blockquote>दण्ड व्यवस्था के विलुप्त होते ही सर्वत्र वर्णसंकरता फैलने लगती है। कर्त्तव्याकर्त्तव्य, भक्ष्याभक्ष्य, पेयापेय आदि का विचार समाप्त होने लगता है। लोग एक दूसरे ही हिंसा करने लगते हैं। बलवान निर्बल को, धनवान निर्धन को सताने लगते हैं। अतः काल रूप यह दण्ड [[Srishti (सृष्टिः)|सृष्टि]] के आदि, मध्य और अन्त में जागता रहता है। यही समस्ता प्रजाओं का पालक है।<ref>डॉ० भक्तवत्सल, [https://www.jetir.org/papers/JETIR1809891.pdf महामानवचम्पू काव्य में वर्णित दण्ड विधान की आवश्यकता], सन २०१८, जर्नल ऑफ इमर्जिंग टेक्नोलॉजीज एण्ड इनोवेटिव रिसर्च (पृ० ६४७)।</ref> |
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| − | == उद्धरण == | + | ==दण्ड की उत्पत्ति== |
| | + | दण्ड की उत्पत्ति राज्यसंस्था की उत्पत्ति के साथ हुई। [[Manusmrti (मनुस्मृतिः)|मनुस्मृति]] के सप्तम अध्याय और [[Mahabharat (महाभारत)|महाभारत]] के शांतिपर्व के ५६ अध्याय में यह कहा गया है कि मानव जाति की प्रारंभिक स्थिति अत्यंत पवित्र स्वभाव, दोषरहित कर्म, सत्वप्रकृति और और ऋतु की थी। जब न तो किसी राजा की स्थिति थी, न राज्य था, न दण्ड था, न दंडी था और सभी लोग [[Dharma (धर्मः)|धर्म]] के द्वारा ही एक दूसरे की रक्षा करते थे - <blockquote>न राज्यं न च राजासीत न दण्डो न च दाण्डिकः। स्वयमेव प्रजाः सर्वा रक्षन्ति स्म परस्परम्॥ (महाभारत)<ref>महाभारत, शांतिपर्व, अध्याय- ६७, श्लोक- १४।</ref></blockquote>राज्य की शक्ति के रूप में दण्ड न्यायिक क्षेत्र में प्रसारित होने लगा। |
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| | + | ==दण्ड के सिद्धान्त== |
| | + | राजा की दण्डव्यवस्था से चारों वर्ण और आश्रम संरक्षित रहते हैं। संपूर्ण समाज अपने-अपने धर्म और कर्म में निरंतर प्रवृत्त होकर मर्यादा बनाए रखता है। यही दण्डविधान सामाजिक व्यवस्था का आधार है। इस दण्डव्यवस्था को निम्न प्रकारों में विभाजित किया गया है - |
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| | + | *प्रतिशोधात्मक दण्ड - अपराध के बदले में दण्ड देना। |
| | + | *प्रतीकारात्मक दण्ड - अपराधी को उसके कर्म का उचित प्रतिफल देना। |
| | + | *सुधारात्मक दण्ड - अपराधी के सुधार पर केंद्रित दण्ड। |
| | + | *द्युत् समाह्य दण्ड - न्याय के सम्यक संतुलन हेतु दण्ड। |
| | + | *प्रकीर्णक दण्ड - विविध स्थितियों में प्रयोग किए जाने वाले दण्ड। |
| | + | *आदर्शात्मक दण्ड - समाज में आदर्श आचरण की स्थापना के लिए दण्ड। |
| | + | |
| | + | इनके अतिरिक्त कौटिल्य ने अर्थदण्ड (धनदण्ड), मृत्युदण्ड तथा अन्य अनेक दण्डों का भी उल्लेख किया है। दण्ड के इन प्रकारों के साथ-साथ प्रायश्चित की संकल्पना भी है, जो नैतिकता पर आधारित है। प्रायश्चित और दण्ड में मूल अंतर यह है कि प्रायश्चित पाप के लिए होता है, जबकि दण्ड अपराध के लिए। जहाँ पाप और अपराध में स्पष्ट भेद होता है, वहाँ प्रायश्चित का प्रभाव अधिक माना गया है।<ref>शोधार्थिनी- श्रीमती संगीता मिश्रा, [https://shodhganga.inflibnet.ac.in/handle/10603/180446 मौर्य काल में न्याय-व्यवस्था], सन २००६,शोधकेन्द्र- श्री गाँधी स्नातकोत्तर महाविद्यालय मालटारी-आजमगढ (पृ० १३२)।</ref> |
| | + | |
| | + | ==दण्ड के प्रकार== |
| | + | '''शारीरिक दण्ड''' |
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| | + | '''अर्थदण्ड''' |
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| | + | ==स्मृतियों में दंड व्यवस्था॥ Penal system in Smritis== |
| | + | आचार्य कौटिल्य ने लोककल्याण के लिए [[Anvikshiki (आन्वीक्षिकी)|आन्वीक्षिकी]], त्रयी, वार्त्ता और दण्ड-नीति का उल्लेख किया है, जिसे सभी आचार्यों ने स्वीकार किया है।<ref>शोधकर्ता- राजेश गर्ग, [https://shodhganga.inflibnet.ac.in/handle/10603/653260 मौर्यकालीन न्याय एवं दण्ड व्यवस्थाः एक विश्लेषणात्मक अध्ययन], सन २००४, शोधकेन्द्र- चौ० चरण सिंह विश्वविद्यालय, मेरठ (पृ० ८४)।</ref> दण्ड की महत्ता पर प्रकाश डालते हुये मनु कहते हैं कि - <blockquote>दण्डः शास्ति प्रजाः सर्वा दण्ड एवाभिरक्षति। दण्डः सुप्तेषु जागर्ति दण्डः धर्मं विदुर्बुधाः॥ (मनु स्मृति)<ref>[https://sa.wikisource.org/wiki/%E0%A4%AE%E0%A4%A8%E0%A5%81%E0%A4%B8%E0%A5%8D%E0%A4%AE%E0%A5%83%E0%A4%A4%E0%A4%BF%E0%A4%83/%E0%A4%B8%E0%A4%AA%E0%A5%8D%E0%A4%A4%E0%A4%AE%E0%A5%8B%E0%A4%A7%E0%A5%8D%E0%A4%AF%E0%A4%BE%E0%A4%AF%E0%A4%83 मनु स्मृति], अध्याय- ७, श्लोक- १८।</ref></blockquote>दण्ड [[Dharma (धर्मः)|धर्म]], अर्थ और काम का रक्षक है। अतएव दण्ड को त्रिवर्ण रूप कहा गया है। दण्ड से ही धन-धान्य की रक्षा और अभिवृद्धि होती है। कितने ही अपराधी राजदण्ड के भय से अपराध नहीं करते हैं। दण्ड, उदण्ड मनुष्यों का दमन करता है। दुष्टों को दण्ड देता है। अतः दमन के कारण ही विद्वान जन इसे दण्ड कहते हैं। जैसा कि - <blockquote>वाचा दण्डो ब्राह्मणानां क्षत्रियाणां भुजार्पणम्। दान दण्डाः स्मृता वैश्या निर्दण्डः शूद्र उच्यते॥ (महाभारत)<ref name=":0">[https://sa.wikisource.org/wiki/%E0%A4%AE%E0%A4%B9%E0%A4%BE%E0%A4%AD%E0%A4%BE%E0%A4%B0%E0%A4%A4%E0%A4%AE%E0%A5%8D-12-%E0%A4%B6%E0%A4%BE%E0%A4%82%E0%A4%A4%E0%A4%BF%E0%A4%AA%E0%A4%B0%E0%A5%8D%E0%A4%B5-015 महाभारत], शान्तिपर्व, अध्याय-१५, श्लोक-११।</ref></blockquote>[[Mahabharat (महाभारत)|महाभारत]] काल में [[Varna Dharma (वर्णधर्मः)|वर्णव्यवस्था]] अनुसार यदि ब्राह्मण अपराध करे तो वाणी से उसको अपमानित करना ही उसका दण्ड है। क्षत्रिय को भोजन मात्र के लिये वेतन देकर उससे कार्य लेना उसका दण्ड है। वैश्यों से जुर्माना के रूप में धन वसूल करना उसका दण्ड है, किन्तु शूद्र दण्ड रहित कहे गये हैं। प्राचीन भारत में दण्ड का उद्देश्य अपराध की निवृत्ति एवं समाज कल्याण था।<ref>शोधार्थी- रश्मि तिवारी, [https://shodhganga.inflibnet.ac.in/handle/10603/327696 याज्ञवल्क्यस्मृति में न्याय एवं दण्ड व्यवस्था], सन २००४, राजशास्त्र विभाग- महात्मा गाँधी काशी विद्यापीठ, वाराणसी (पृ० २११)।</ref> |
| | + | |
| | + | ==दण्ड व्यवस्था एवं मानसिक परिष्कार== |
| | + | प्राचीन भारतवर्ष में दण्ड-व्यवस्था का परम उद्देश्य अपराध-निवृत्ति तथा लोककल्याण की प्रतिष्ठा था। दण्ड का प्रयोजन केवल दमन न होकर अपराधी के संस्कारपरिवर्तन में निहित था। अतः दण्ड-विधान में प्रायश्चित्त का विशेष प्राधान्य प्राप्त था, जिससे अपराधी पुनः शुद्धि एवं पावनता की अवस्था को प्राप्त हो सके। धर्मशास्त्रज्ञों के मत में अपराध-निवारण के लिये बहुविध दण्ड-प्रणालियाँ प्रचलित थीं। जैसे मनुस्मृति - <blockquote>वाग्दण्डं प्रथमं कुर्याद्धिग्दण्डं तदनन्तरम्। तृतीयं धनदण्डं तु वधदण्डमतः परम्॥ (मनुस्मृति)<ref>[https://sa.wikisource.org/wiki/%E0%A4%AE%E0%A4%A8%E0%A5%81%E0%A4%B8%E0%A5%8D%E0%A4%AE%E0%A5%83%E0%A4%A4%E0%A4%BF%E0%A4%83/%E0%A4%85%E0%A4%B7%E0%A5%8D%E0%A4%9F%E0%A4%AE%E0%A5%8B%E0%A4%A7%E0%A5%8D%E0%A4%AF%E0%A4%BE%E0%A4%AF%E0%A4%83 मनु स्मृति], अध्याय- ८, श्लोक- १२९।</ref> </blockquote>याज्ञवल्क्यस्मृति - <blockquote>धिग्दण्डस्त्वथवाग्दण्डो धनदण्डोवधस्तथा। योज्या व्यस्ताः समस्ता व ह्यपराधवशादिमे॥ (याज्ञवल्क्यस्मृति)<ref>[https://sa.wikisource.org/wiki/%E0%A4%AF%E0%A4%BE%E0%A4%9C%E0%A5%8D%E0%A4%9E%E0%A4%B5%E0%A4%B2%E0%A5%8D%E0%A4%95%E0%A5%8D%E0%A4%AF%E0%A4%B8%E0%A5%8D%E0%A4%AE%E0%A5%83%E0%A4%A4%E0%A4%BF%E0%A4%83/%E0%A4%86%E0%A4%9A%E0%A4%BE%E0%A4%B0%E0%A4%BE%E0%A4%A7%E0%A5%8D%E0%A4%AF%E0%A4%BE%E0%A4%AF%E0%A4%83/%E0%A4%B0%E0%A4%BE%E0%A4%9C%E0%A4%A7%E0%A4%B0%E0%A5%8D%E0%A4%AE%E0%A4%AA%E0%A5%8D%E0%A4%B0%E0%A4%95%E0%A4%B0%E0%A4%A3%E0%A4%AE%E0%A5%8D याज्ञवल्क्य स्मृति], आचाराध्याय, श्लोक - ३६७।</ref> </blockquote>मनु, याज्ञवल्क्य तथा बृहस्पति ने चार प्रमुख दण्ड-विधियों का निर्देशन किया है - |
| | + | |
| | + | #'''वाक्-दण्ड''' |
| | + | #'''धिक्-दण्ड''' |
| | + | #'''धन-दण्ड''' |
| | + | #'''वध-दण्ड''' |
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| | + | ये दण्ड अपराध की प्रकृति के अनुसार पृथक-पृथक या सम्मिलित रूप में भी प्रयोग किए जाते थे। वाक्-दण्ड और धिक्-दण्ड का प्रयोग प्रायः अपराधी के सुधार के लिए किया जाता था। वाक्-दण्ड में अपराधी को उपदेशात्मक वचनों द्वारा यह समझाया जाता था कि उसका कृत्य अनुचित है और भविष्य में इसकी पुनरावृत्ति नहीं होनी चाहिए। धिक्-दण्ड में इससे एक कदम आगे बढ़कर अपराधी की निंदा या धिक्कार की जाती थी, जैसे – 'तुम्हें धिक्कार है', 'तुम पाप के भागी हो' या 'तुम दुष्ट आचरण करने वाले हो।' विचारशील और संवेदनशील व्यक्तियों के लिए ये दोनों प्रकार के दण्ड अपराध से निवृत्त होने हेतु पर्याप्त माने जाते थे। |
| | + | |
| | + | *मनु के अनुसार, दण्ड प्रदान करने की क्रमबद्ध प्रक्रिया में पहले वाक्-दण्ड, फिर धिक्-दण्ड, उसके पश्चात अर्थ-दण्ड और अंत में आवश्यकता पड़ने पर वध-दण्ड दिया जाना चाहिए। |
| | + | *वृहस्पति के अनुसार गुरुजनों, पुरोहितों, आचार्यों तथा पुत्रों को शारीरिक दण्ड से मुक्त रखा गया था, उन्हें केवल वाक् या धिक्-दण्ड ही दिया जाता था। |
| | + | *जबकि महापातक अपराधों के लिए शारीरिक या वध-दण्ड का विधान था। |
| | + | *वाक्-दण्ड और धिक्-दण्ड प्राड्विवाक (न्यायाधीश) द्वारा तथा वध-दण्ड राज द्वारा प्रदान किया जाता था। |
| | + | शुक्राचार्य वध दण्ड का निषेध करते हैं, उनका मत है कि यदि कोई व्यक्ति अपने धन के गर्व से अपराध करता है तो उसे धन का चौथा भाग दण्ड के रूप में लेना चाहिये। उसके बाद भी यदि अपराध करता है तो आधा धन ले लेना चाहिये - <blockquote>भार्या पुत्रश्च भगिनी शिष्यो दासः स्नुषाऽनुजः। कृतापराधास्ताड्यास्ते तनुरज्जुसुवेणुभिः॥ |
| | + | |
| | + | पृष्ठतस्तु शरीरस्य नोत्तमांगे कथञ्चन। अतोऽन्यथा तु प्रहरेच्चोरवद्दण्डमर्हति॥ |
| | + | |
| | + | नीचकर्मकरं कुर्याद् बन्धयित्वा तु पापिनम्। मासमात्रं त्रिमासं वा षण्मासं वाऽपि वत्सरम्। यावज्जीवं तु वा कश्चिन्न कश्चिद्वधमर्हति॥ (शुक्रनीति)<ref>पं० श्री ब्रह्माशंकर मिश्र, [https://dn721605.ca.archive.org/0/items/20230223_20230223_0110/%E0%A4%B6%E0%A5%81%E0%A4%95%E0%A5%8D%E0%A4%B0%20%E0%A4%A8%E0%A5%80%E0%A4%A4%E0%A4%BF-%E0%A4%B9%E0%A4%BF%E0%A4%A8%E0%A5%8D%E0%A4%A6%E0%A5%80%20%E0%A4%9F%E0%A5%80%E0%A4%95%E0%A4%BE%20%E0%A4%B8%E0%A4%B9%E0%A4%BF%E0%A4%A4.pdf शुक्रनीति]-विद्योतिनी हिन्दीव्याख्या समेत, सन १९६८, चौखम्बा संस्कृत सीरीज ऑफिस, वाराणसी (पृ० १९६)।</ref></blockquote>अपनी स्त्री, पुत्र, बहन, शिष्य, सेवक, छोटा भाई या बहु अपराध करे तो उसे पतली छडी से शरीर पर, हाथ या पीठ पर पीटना चाहिये। सिर पर कभी नहीं मारना चाहिये। वेद वचन का अनुसरण करते हुये शुक्राचार्य वधदण्ड की स्वीकृति नहीं देते हैं। वध दण्ड के स्थान पर हथकडी, वेडी के साथ कैद रखना, मारना-पीटना कष्ट पहुँचाना उचित है।<ref>डॉ० पूनम कुमारी, [https://www.jetir.org/papers/JETIR1901B60.pdf शुक्राचार्य की दण्डनीति], सन २०१९, इंटरनेशनल जर्नल ऑफ़ इमर्जिंग टेक्नोलॉजीज एंड इनोवेटिव रिसर्च (पृ० ४६१)।</ref> |
| | + | |
| | + | ==व्यवहार के अठारह प्रकार== |
| | + | मनु, याज्ञवल्क्य तथा नारद स्मृतियों में अपराध तथा दण्ड व्यवस्था का विस्तृत वर्णन किया गया है। धर्मशास्त्र में उन विषयों को जिनके अन्तर्गत विवाद उत्पन्न हो सकता है उन्हें अठारह शीर्षकों में रखा है -<ref>रेखा सिंह, राकेश शर्मा, [https://www.socialsciencejournal.in/assets/archives/2016/vol2issue8/2-10-32-983.pdf मनु याज्ञवल्क्य एवं नारद स्मृतियों में वर्णित दण्ड व्यवस्था], सन २०१६, इण्टरनेशनल जर्नल ऑफ ह्यूमैनिटीज एण्ड सोशल साइंस रिसर्च (पृ० १०८)।</ref><blockquote>प्रत्यहं देशदृष्टैश्च शास्त्रदृष्टैश्च हेतुभिः। अष्टादशसु मार्गेषु निबद्धानि पृथक्पृथक्॥ |
| | + | |
| | + | तेषां आद्यं ऋणादानं निक्षेपोऽस्वामिविक्रयः। संभूय च समुत्थानं दत्तस्यानपकर्म च॥ |
| | + | |
| | + | वेतनस्यैव चादानं संविदश्च व्यतिक्रमः। क्रयविक्रयानुशयो विवादः स्वामिपालयोः॥ |
| | + | |
| | + | सीमाविवादधर्मश्च पारुष्ये दण्डवाचिके। स्तेयं च साहसं चैव स्त्रीसंग्रहणं एव च॥ |
| | + | |
| | + | स्त्रीपुंधर्मो विभागश्च द्यूतं आह्वय एव च। पदान्यष्टादशैतानि व्यवहारस्थिताविह॥ (मनु स्मृति)<ref>[https://sa.wikisource.org/wiki/%E0%A4%AE%E0%A4%A8%E0%A5%81%E0%A4%B8%E0%A5%8D%E0%A4%AE%E0%A5%83%E0%A4%A4%E0%A4%BF%E0%A4%83/%E0%A4%85%E0%A4%B7%E0%A5%8D%E0%A4%9F%E0%A4%AE%E0%A5%8B%E0%A4%A7%E0%A5%8D%E0%A4%AF%E0%A4%BE%E0%A4%AF%E0%A4%83 मनु स्मृति], अध्याय- ८, श्लोक - ३-७।</ref> </blockquote>भाषार्थ - न्याय-व्यवस्था की शरण में जाने या मुकदमों के लिए मनु ने १८ कारण गिनाये हैं। जिनके नाम हैं - ऋण और धरोहर का भुगतान न करना, बिना स्वामित्व का विक्रय करना, साझीदारों के संबंध में गडबडी हो जाना, दान दी हुई वस्तु को पुनः वापिस लेना, पारिश्रमिक का भुगतान न करना, समझौतों को भंग करना, क्रय-विक्रय की व्यवस्था का उल्लंघन करना, स्वामी तथा भृत्य के बीच विवाद पैदा होना, सीमा संबंधी अडचन का उपस्थित होना, किसी को मारना, किसी का अपमान करना, किसी की चोरी करना, हिंसा तथा व्यभिचार करना, वैयक्तिक कर्त्तव्यों को न निभाना, पैतृक सम्पत्ति के बँटवारे में मतभेद हो जाना और जुआ तथा पांसा आदि खेलना।<ref name=":1">वाचस्पति गैरोला, [https://archive.org/details/koutheliy-arthshastra-hindi/Arthasastra%20Of%20Kautilya%20%26%20Chanakya%20Sutra%20Vachaspati%20Gairola%20Chowkambha/mode/1up कौटिलीय-अर्थशास्त्र-हिन्दीव्याख्यासमेत], सन १९८४, चौखम्बा विद्याभवन, वाराणसी (पृ० ५३)।</ref> |
| | + | |
| | + | मनु एवं अन्य स्मृतिकारों में व्यवहारपदों की संख्या एवं संज्ञा को लेकर पर्याप्त भिन्नता है। निम्नलिखित तालिका इस कथन को स्पष्ट करती है -<ref>डॉ० पांडुरंग वामन काणे, [https://archive.org/details/in.ernet.dli.2015.306909/page/n143/mode/1up धर्मशास्त्र का इतिहास भाग-२], सन १९६५, उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान, लखनऊ (पृ० ७०७)।</ref> |
| | + | {| class="wikitable" |
| | + | |+व्यवहारपदों की तुलना<ref>डॉ० पांडुरंग वामन काणे, [https://archive.org/details/in.ernet.dli.2015.306909/page/n143/mode/1up धर्मशास्त्र का इतिहास भाग-२], सन १९६५, उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान, लखनऊ (पृ० ७०७)।</ref> |
| | + | !क्र०सं० |
| | + | !मनु |
| | + | !कौटिल्य |
| | + | !याज्ञवल्क्य |
| | + | (मिताक्षरा) |
| | + | ! नारद |
| | + | !बृहस्पति |
| | + | |- |
| | + | |०१ |
| | + | |ऋणादान |
| | + | |ऋणादान |
| | + | |ऋणादान |
| | + | |ऋणादान |
| | + | |कुसीद |
| | + | |- |
| | + | |०२ |
| | + | |निक्षेप |
| | + | |उपनिधि |
| | + | | |
| | + | |निक्षेप |
| | + | |निधि |
| | + | |- |
| | + | |०३ |
| | + | |अस्वामिविक्रय |
| | + | |अस्वामिविक्रय |
| | + | | |
| | + | |अस्वामिविक्रय |
| | + | |अस्वामिविक्रय |
| | + | |- |
| | + | |०४ |
| | + | |सम्भूय-समुत्थान |
| | + | |सम्भूय-समुत्थान |
| | + | | |
| | + | |सम्भूय-समुत्थान |
| | + | |सम्भूय-समुत्थान |
| | + | |- |
| | + | |०५ |
| | + | |दत्तस्यानपाकर्म |
| | + | |दत्तस्यानपाकर्म |
| | + | |दत्ताप्रदानिक |
| | + | |दत्ताप्रदानिक |
| | + | |अदेयाद्य |
| | + | |- |
| | + | |०६ |
| | + | |वेतनादान |
| | + | |कर्मकरकल्प |
| | + | |वेतनादान |
| | + | |वेतनस्यानपाकर्म |
| | + | |भृत्यदान |
| | + | |- |
| | + | |०७ |
| | + | |संविद्-व्यतिक्रम |
| | + | |समयस्यानपाकर्म |
| | + | |संविद्-व्यतिक्रम |
| | + | |समयस्यानपाकर्म |
| | + | |समयातिक्रम |
| | + | |- |
| | + | |०८ |
| | + | |क्रयविक्रयानशय |
| | + | |विक्रीत-क्रीतानशय |
| | + | |क्रीतानुशय |
| | + | |
| | + | विक्रीयासप्रदान |
| | + | |क्रीतानुशय |
| | + | |
| | + | विक्रीयासप्रदान |
| | + | |क्रयविक्रयानुशय |
| | + | |- |
| | + | | ०९ |
| | + | |स्वामिपालविवाद |
| | + | | |
| | + | |स्वामिपालविवाद |
| | + | | |
| | + | | |
| | + | |- |
| | + | |१० |
| | + | |सीमाविवाद |
| | + | |सीमाविवाद |
| | + | |सीमाविवाद |
| | + | |क्षेत्रजविवाद |
| | + | |भूवाद |
| | + | |- |
| | + | |११ |
| | + | |वाक्पारुष्य |
| | + | |वाक्पारुष्य |
| | + | |वाक्पारुष्य |
| | + | |वाक्पारुष्य |
| | + | |वाक्पारुष्य |
| | + | |- |
| | + | |१२ |
| | + | |दण्डपारुष्य |
| | + | |दण्डपारुष्य |
| | + | |दण्डपारुष्य |
| | + | |दण्डपारुष्य |
| | + | |दण्डपारुष्य |
| | + | |- |
| | + | |१३ |
| | + | |स्तेय |
| | + | | |
| | + | |स्तेय |
| | + | | |
| | + | |स्तेय |
| | + | |- |
| | + | |१४ |
| | + | |साहस |
| | + | |साहस |
| | + | |साहस |
| | + | |साहस |
| | + | |वध |
| | + | |- |
| | + | |१५ |
| | + | |स्त्रीसंग्रहण |
| | + | |संग्रहण |
| | + | |स्त्री-संग्रहण |
| | + | | |
| | + | |स्त्रीसंग्रह |
| | + | |- |
| | + | |१६ |
| | + | |स्त्रीपुंधर्म |
| | + | | |
| | + | | |
| | + | |स्त्रीपुंसयोग |
| | + | |स्त्रीपुंसयोग |
| | + | |- |
| | + | | १७ |
| | + | |विभाग |
| | + | |दायभाग |
| | + | |दायविभाग |
| | + | |दायभाग |
| | + | |दायभाग |
| | + | |- |
| | + | |१८ |
| | + | |द्यूतसमाह्वय |
| | + | |द्यूतसमाह्वय |
| | + | |द्यूतसमाह्वय |
| | + | |द्यूतसमाह्वय |
| | + | |अक्षदेवन |
| | + | |- |
| | + | |१९ |
| | + | | |
| | + | |प्रकीर्णक |
| | + | |अभ्युपेत्याशुश्रूषा |
| | + | |अभ्युपेत्याशुश्रूषा |
| | + | |अशुश्रूषा |
| | + | |- |
| | + | |२० |
| | + | | |
| | + | | |
| | + | |प्रकीर्णक |
| | + | |प्रकीर्णक |
| | + | |प्रकीर्णक |
| | + | |} |
| | + | परंपरा और शास्त्रों द्वारा, अष्टादश (18) व्यवहारपदों का उल्लेख है। अर्थात ये अठारह प्रकार के न्यायिक विषय (cases or legal proceedings) जिन पर राज्य में न्याय किया जाता है। ये सब पृथक-पृथक रूप से निर्धारित हैं - |
| | + | |
| | + | #'''ऋणदान -''' इसमें ऋण के लेने देने से उत्पन्न होने वाले विवाद आते हैं। |
| | + | #'''निक्षेप -''' इसके अन्तर्गत अपनी वस्तु को दूसरे के पास धरोहर रखने से उत्पन्न विवाद आते हैं। |
| | + | #'''अस्वामी विक्रय -''' अधिकार न होते हुये दूसरे की वस्तु बेच देना। |
| | + | #'''संभूय समुत्थान -''' अनेक जनों का मिलकर साँझे में व्यवसाय करना। |
| | + | #'''दत्तस्य अनपाकर्म -''' कोई वस्तु देकर फिर क्रोध आदि लोभ के कारण बदल जाना। |
| | + | #'''वेतन का न देना -''' किसी से काम लेकर उसका मेहनताना न देना। |
| | + | #'''संविद का व्यतिक्रम -''' कोई व्यवस्था किसी के साथ करके उसे पूरा न करना। |
| | + | #'''क्रय विक्रय का अनुशय -''' किसी वस्तु के खरीदने या बेचने के बाद में असंतोष होना। |
| | + | #'''स्वामी और पशुपालन का विवाद -''' चरवाहे की असावधानता से जानवरों की मृत्यु आदि के संबंध में। |
| | + | #'''ग्राम आदि की सीमा का विवाद -''' मकान आदि की सीमा विवाद भी इसी में आता है। |
| | + | #'''वाक पारूष्य -''' गाली गलौच करना पारूष्य |
| | + | #'''दण्ड पारुष्य -''' मारपीट |
| | + | #'''स्तेय (चोरी) -''' यह कृत्य स्वामी से छिपकर होता है। |
| | + | #'''सहस-डकैती -''' बल पूर्वक स्वामी की उपस्थिति में धन का हरण। |
| | + | #'''स्त्री संग्रहण -''' स्त्रियों के साथ व्यभिचार |
| | + | #'''स्त्री पुंधर्म -''' स्त्री और पुरुष (पत्नी-पति) के आपस में विवाद। |
| | + | #'''विभाग-दाय विभाग -''' पैतृक संपत्ति आदि का विभाजन। |
| | + | #'''द्यूत और समाहृय -''' दोनों जुआँ के अन्तर्गत आते हैं। प्राणी रहित पदार्थों के द्वारा ताश, चौपड, जुआ, द्यूत कहलाता है। प्राणियों के द्वारा तीतर, बटेर आदि का युद्ध घुडदौड आदि समाहृय। |
| | + | |
| | + | व्यवहार के इन अठारह पदों का वर्णन मनुस्मृति में किया गया है। नारद स्मृति में व्यवहार के जिन अठारह पदों का वर्णन किया गया है, वे मनुस्मृति से कुछ भिन्न हैं।<ref>डॉ० श्रीमती विभा, [https://ia800408.us.archive.org/34/items/DharmaShastraSahityaMeinApradhEvamDandVidhanDr.Vibha/Dharma%20Shastra%20Sahitya%20Mein%20Apradh%20Evam%20Dand%20Vidhan%20-%20Dr.%20Vibha.pdf धर्मशास्त्र साहित्य में अपराध एवं दण्ड विधान], सन २००२, संस्कृत ग्रन्थागार, दिल्ली (पृ० ३०)।</ref> |
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| | + | == दण्ड व्यवस्था का महत्व== |
| | + | भारतीय ज्ञान परंपरा में राजधर्म के अन्तर्गत राजा का यह कर्तव्य है कि वह धर्म का उल्लंघन करने वाले को दण्डित करें एवं धर्म का पालन करने वालों की रक्षा करें। मनु के अनुसार राजा दण्डाधिकारी है। गौतम के अनुसार दण्ड से अभिप्राय है नियंत्रित करना। भारतीय धर्म ग्रन्थों महाभारत, वेदों, पुराणों एवं उपनिषदों में दण्ड की महत्ता के बारे में विस्तार से वर्णन मिलता है। कामन्दक नीतिसार (द्वितीय १५), शुक्रनीति (प्रथम, १४) और महाभारत (शांतिपर्व, १५-८) की परिभाषा के अनुसार अपराधों का दमन (दम) ही दण्ड अथवा नीति कहलाता है। |
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| | + | ==उपाय चतुष्टय एवं दण्ड नीति== |
| | + | आन्वीक्षिकी, त्रयी और वार्ता, इन सभी विद्याओं की सुख-समृद्धि दण्ड पर निर्भर है। दण्ड को प्रतिपादित करने वाली नीति ही दण्डनीति कहलाती है - <blockquote>अलब्धलाभार्थाः, लब्धपरिरक्षणी, रक्षितविवर्धनी, वृद्धस्यतीर्थेषु प्रतिपादनी च॥ (अर्थशास्त्र)<ref name=":1" /></blockquote>कौटिल्य के द्वारा अर्थ-शास्त्र में दण्ड-नीति के चार प्रयोजन बतलाए गए हैं - |
| | + | |
| | + | *अलब्ध-लाभ |
| | + | *लब्ध-परिरक्षण |
| | + | *रक्षित-सम्वर्धन |
| | + | *सम्वर्धित सम्पत्ति का पात्र में समर्पण |
| | + | |
| | + | इस प्रकार से उचित रूप में बताये गये दण्ड-प्रयोग करने से मूर्त्त धन-धान्यादि तथा अमूर्त्त यश की प्राप्ति होती है। |
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| | + | दण्डेन नीयते चेदं दण्डं नयति वा पुनः। दण्ड-नीतिरिति ख्याता त्रींल्लोकानभिवर्त्तते॥ (महाभारत) |
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| | + | उपायाः साम दानं च भेदो दण्डस्तथैव च। सम्यक्प्रयुक्ताः सिध्येयुर्दण्डस्त्वगतिका गतिः॥ (याज्ञवल्क्य स्मृति)<ref>[https://sa.wikisource.org/wiki/%E0%A4%AF%E0%A4%BE%E0%A4%9C%E0%A5%8D%E0%A4%9E%E0%A4%B5%E0%A4%B2%E0%A5%8D%E0%A4%95%E0%A5%8D%E0%A4%AF%E0%A4%B8%E0%A5%8D%E0%A4%AE%E0%A5%83%E0%A4%A4%E0%A4%BF%E0%A4%83/%E0%A4%86%E0%A4%9A%E0%A4%BE%E0%A4%B0%E0%A4%BE%E0%A4%A7%E0%A5%8D%E0%A4%AF%E0%A4%BE%E0%A4%AF%E0%A4%83/%E0%A4%B0%E0%A4%BE%E0%A4%9C%E0%A4%A7%E0%A4%B0%E0%A5%8D%E0%A4%AE%E0%A4%AA%E0%A5%8D%E0%A4%B0%E0%A4%95%E0%A4%B0%E0%A4%A3%E0%A4%AE%E0%A5%8D याज्ञवल्क्य स्मृति], आचाराध्याय, श्लोक- ३४६।</ref> |
| | + | |
| | + | साम, दान, भेद और दण्ड- ये चार उपाय बताए गए हैं। जब इनका उचित समय पर और सही प्रकार से प्रयोग किया जाए, तो ये सभी उद्देश्य की सिद्धि कर देते हैं। किन्तु जब अन्य उपाय असफल हो जाएं, तब दण्ड ही शेष उपाय (अंतिम मार्ग) रह जाता है। महाभारत में युधिष्ठिर के प्रति भीष्म का कथन है कि - <blockquote>दण्ड-नीत्यां यदा राजा सम्यक्कार्त्स्येन वर्त्तते। तदा कृत-युगं नाम कालसृष्टं प्रवर्त्तते॥ |
| | + | |
| | + | दण्ड-नीत्यां यदा राजा त्रीनंशाननुवर्त्तते। चतुर्थमंशमुत्सृज्य तदा त्रेता प्रवर्त्तते॥ |
| | + | |
| | + | अर्धं त्यक्त्वा यदा राजा नीत्यर्धमनुवर्त्तते। ततस्तु द्वापरं नाम स कालः सम्प्रवर्त्तते॥ |
| | + | |
| | + | दण्ड-नीति परित्यज्य यदा कार्त्स्येन भूमिपः। प्रजाः क्लिश्नात्ययोगेन प्रवर्त्तेत तदा कलिः॥ |
| | + | |
| | + | राजा कृत-युग-स्रष्टा त्रेताया द्वापरस्य च। युगस्य च चतुर्थस्य राजा भवति कारणम्॥ (महाभारत)<ref>[https://sa.wikisource.org/wiki/%E0%A4%AE%E0%A4%B9%E0%A4%BE%E0%A4%AD%E0%A4%BE%E0%A4%B0%E0%A4%A4%E0%A4%AE%E0%A5%8D-12-%E0%A4%B6%E0%A4%BE%E0%A4%82%E0%A4%A4%E0%A4%BF%E0%A4%AA%E0%A4%B0%E0%A5%8D%E0%A4%B5-069 महाभारत], शांतिपर्व, अध्याय- ६९, श्लोक- १५-१८।</ref></blockquote>'''भाषार्थ -''' सत्ययुग, त्रेता, द्वापर तथा कलि-युग का अर्थ है - दण्ड के प्रयोग में राजा के अवधान का आधिक्य और अल्पत्व। इससे यही सार निकलता है कि राजा की कुशलता तथा अकुशलता के ऊपर ही कृत-युग तथा कलियुग निर्भर हैं, इनकी कोई निश्चित अवधि नहीं है। |
| | + | |
| | + | ==निष्कर्ष== |
| | + | न्याय-कार्य मुख्यतः राजा के अधीन थे। राजा प्रारम्भिक एवं अन्तिम न्यायालय था। स्मृतियों एवं निबन्धों का कहना है कि अकेला राजा न्याय-कार्य नहीं कर सकता, उसे अन्य लोगों की सहायता से न्याय करना चाहिए। राजा अन्तिम न्यायकर्ता थे और उनके नीचे का न्यायालय उसके द्वारा नियुक्त न्यायाधीशों का न्यायालय था। बृहस्पति का कथन है कि साहस नामक मामलों के अतिरिक्त सभी प्रकार के मुकदमों का फैसला कुल, श्रेणी एवं गण कर सकते थे, किन्तु निर्णयों को कार्यान्वित करने का अधिकार राजा को ही प्राप्त था। पितामह ने तीन प्रकार के न्यायालयों की ओर संकेत किया है, किन्तु याज्ञवल्क्य एवं नारद ने दो न्यायलयों की चर्चा की है - |
| | + | |
| | + | #मुख्य न्यायाधीश का न्यायालय |
| | + | #राजा का न्यायालय |
| | + | |
| | + | पितामह ने लिखा है कि ग्राम में किया गया निर्णय नगर में पहुँचता है और नगर वाला निर्णय राजा के पास और राजा का निर्णय गलत है या सही, वही अन्तिम होता है। |
| | + | |
| | + | ==उद्धरण॥ References== |
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| | + | <references /> |