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तीर्थायात्रा मुख्यतः नदियों के किनारों एवं संगम के साथ-साथ थी। तीर्थ, मन व विचारों की पवित्रता से जुडा था एवं पापों के प्रायश्चित एवं निर्वाण के लिये किया जाता था। धर्मशास्त्र के अनुसार प्रायश्चित्त के अनुष्ठान की अनेक प्रयोग विधियाँ हैं, जैसे उपवास, दोषख्यापन, प्राणायाम, जप, तप, होम एवं तीर्थयात्रा आदि। तीर्थगमन को प्रायश्चित्त का मुख्य अंग माना गया है। स्कन्दपुराणमें कहा गया है -  <blockquote>
 
तीर्थायात्रा मुख्यतः नदियों के किनारों एवं संगम के साथ-साथ थी। तीर्थ, मन व विचारों की पवित्रता से जुडा था एवं पापों के प्रायश्चित एवं निर्वाण के लिये किया जाता था। धर्मशास्त्र के अनुसार प्रायश्चित्त के अनुष्ठान की अनेक प्रयोग विधियाँ हैं, जैसे उपवास, दोषख्यापन, प्राणायाम, जप, तप, होम एवं तीर्थयात्रा आदि। तीर्थगमन को प्रायश्चित्त का मुख्य अंग माना गया है। स्कन्दपुराणमें कहा गया है -  <blockquote>
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यस्य हस्तौ च पादौ च मनश्चैव सुसंयतम्। निर्विकाराः क्रियाः सर्वाः स तीर्थफलमश्नुते॥ (माहे० कुमार० २/) </blockquote>
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यस्य हस्तौ च पादौ च मनश्चैव सुसंयतम्। निर्विकाराः क्रियाः सर्वाः स तीर्थफलमश्नुते॥ (स्कन्दपुराण)<ref>[https://sa.wikisource.org/wiki/%E0%A4%B8%E0%A5%8D%E0%A4%95%E0%A4%A8%E0%A5%8D%E0%A4%A6%E0%A4%AA%E0%A5%81%E0%A4%B0%E0%A4%BE%E0%A4%A3%E0%A4%AE%E0%A5%8D/%E0%A4%96%E0%A4%A3%E0%A5%8D%E0%A4%A1%E0%A4%83_%E0%A5%A7_(%E0%A4%AE%E0%A4%BE%E0%A4%B9%E0%A5%87%E0%A4%B6%E0%A5%8D%E0%A4%B5%E0%A4%B0%E0%A4%96%E0%A4%A3%E0%A5%8D%E0%A4%A1%E0%A4%83)/%E0%A4%95%E0%A5%8C%E0%A4%AE%E0%A4%BE%E0%A4%B0%E0%A4%BF%E0%A4%95%E0%A4%BE%E0%A4%96%E0%A4%A3%E0%A5%8D%E0%A4%A1%E0%A4%83/%E0%A4%85%E0%A4%A7%E0%A5%8D%E0%A4%AF%E0%A4%BE%E0%A4%AF%E0%A4%83_%E0%A5%AC%E0%A5%AA स्कन्दपुराण], माहेश्वरखण्ड, अध्याय-६४, श्लोक-२६।</ref> </blockquote>
    
अर्थात जिसके हाथ, पैर और मन अच्छी तरह से वशमें हों तथा जिसकी सभी क्रियाएँ निर्विकारभावसे सम्पन्न होती हों, वही तीर्थका पूर्ण फल प्राप्त करता है। श्री रामजी वनगमन के समय जहां-जहां वास किये वो सभी तीर्थ कहलाये, उनकी यात्रा के अन्तर्गत आने वाले तीर्थों की संख्या १०८ है - <blockquote>वनवासगतो रामो यत्र यत्र व्यवस्थितः। तानि चोक्तानि तीर्थानि शतमष्टोत्तरण क्षितौ॥ (बृहद्धर्म० पूर्व० १४)</blockquote>लंका से लौटते समय श्रीराम ने सीता जी को दिखाते हुए अपने पूर्व निवास स्थलों को एक-एककर गिनाया है। महाभारत-वनपर्वके अन्तर्गत तीर्थयात्रापर्वके ८२ से ९५ तकके अध्यायोंमें महर्षि पुलस्त्यने भीष्मसे, देवर्षि नारदने युधिष्ठिरसे तथा पद्मपुराण-आदिखण्ड (स्वर्गखण्ड) के १० से २८ तकके अध्यायोंमें महर्षि वसिष्ठने दिलीपसे एवं अन्यत्र भी वामन आदि पुराणोंमें कई स्थलोंपर तीर्थयात्रा करने का एक क्रम बतलाया है।
 
अर्थात जिसके हाथ, पैर और मन अच्छी तरह से वशमें हों तथा जिसकी सभी क्रियाएँ निर्विकारभावसे सम्पन्न होती हों, वही तीर्थका पूर्ण फल प्राप्त करता है। श्री रामजी वनगमन के समय जहां-जहां वास किये वो सभी तीर्थ कहलाये, उनकी यात्रा के अन्तर्गत आने वाले तीर्थों की संख्या १०८ है - <blockquote>वनवासगतो रामो यत्र यत्र व्यवस्थितः। तानि चोक्तानि तीर्थानि शतमष्टोत्तरण क्षितौ॥ (बृहद्धर्म० पूर्व० १४)</blockquote>लंका से लौटते समय श्रीराम ने सीता जी को दिखाते हुए अपने पूर्व निवास स्थलों को एक-एककर गिनाया है। महाभारत-वनपर्वके अन्तर्गत तीर्थयात्रापर्वके ८२ से ९५ तकके अध्यायोंमें महर्षि पुलस्त्यने भीष्मसे, देवर्षि नारदने युधिष्ठिरसे तथा पद्मपुराण-आदिखण्ड (स्वर्गखण्ड) के १० से २८ तकके अध्यायोंमें महर्षि वसिष्ठने दिलीपसे एवं अन्यत्र भी वामन आदि पुराणोंमें कई स्थलोंपर तीर्थयात्रा करने का एक क्रम बतलाया है।
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