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| | प्रयागराज तीर्थ स्थान त्रिवेणी संगम के नाम से प्रसिद्ध है। शास्त्रों में त्रिवेणी से गंगा, यमुना, सरस्वती इन तीन नदियों को बताया गया है। संगम में गंगा, यमुना दृश्य नदियाँ हैं और सरस्वती का दर्शन प्रत्यक्ष आँखों से नहीं होता है। इसलिये इसे अन्तःसलिला अर्थात भूमि के अन्दर बहने वाली माना गया है।<ref>स्वामी हृदयानन्द गिरि, [https://ia601504.us.archive.org/9/items/ZPNA_amrit-kalash-prayag-raj-kumbh-parv-compiled-by-ved-nidhi-vedic-heritage-research/Amrit%20Kalash%20prayag%20Raj%20Kumbh%20Parv%20Compiled%20By%20Ved%20Nidhi%20Vedic%20Heritage%20Research%20Foundation%20-%20Swami%20Hridayanand%20Giri%2C%20Hriday%20Dip%20Ashram%2C%20Jammu%20_text.pdf अमृत-कलश], सन 2019, हृदयदीप आश्रम, जम्मू (पृ० 133)।</ref> पद्मपुराण में प्रयागशताध्यायी के रूप में प्रयाग का बृहत वर्णन प्राप्त होता है। मत्स्यपुराण में प्रयाग माहात्म्य के क्रममें कहा गया है कि - <blockquote>पञ्चयोजन विस्तीर्ण प्रयागस्य तु मण्डलम्। प्रविष्टस्यैव तद् भूयावश्वमेधः पदे-पदे॥ (मत्स्यपुराण)<ref>[https://sa.wikisource.org/wiki/%E0%A4%AE%E0%A4%A4%E0%A5%8D%E0%A4%B8%E0%A5%8D%E0%A4%AF%E0%A4%AA%E0%A5%81%E0%A4%B0%E0%A4%BE%E0%A4%A3%E0%A4%AE%E0%A5%8D/%E0%A4%85%E0%A4%A7%E0%A5%8D%E0%A4%AF%E0%A4%BE%E0%A4%AF%E0%A4%83_%E0%A5%A7%E0%A5%A6%E0%A5%AE मत्स्य पुराण], अध्याय-१०८, श्लोक-९।</ref> </blockquote> | | प्रयागराज तीर्थ स्थान त्रिवेणी संगम के नाम से प्रसिद्ध है। शास्त्रों में त्रिवेणी से गंगा, यमुना, सरस्वती इन तीन नदियों को बताया गया है। संगम में गंगा, यमुना दृश्य नदियाँ हैं और सरस्वती का दर्शन प्रत्यक्ष आँखों से नहीं होता है। इसलिये इसे अन्तःसलिला अर्थात भूमि के अन्दर बहने वाली माना गया है।<ref>स्वामी हृदयानन्द गिरि, [https://ia601504.us.archive.org/9/items/ZPNA_amrit-kalash-prayag-raj-kumbh-parv-compiled-by-ved-nidhi-vedic-heritage-research/Amrit%20Kalash%20prayag%20Raj%20Kumbh%20Parv%20Compiled%20By%20Ved%20Nidhi%20Vedic%20Heritage%20Research%20Foundation%20-%20Swami%20Hridayanand%20Giri%2C%20Hriday%20Dip%20Ashram%2C%20Jammu%20_text.pdf अमृत-कलश], सन 2019, हृदयदीप आश्रम, जम्मू (पृ० 133)।</ref> पद्मपुराण में प्रयागशताध्यायी के रूप में प्रयाग का बृहत वर्णन प्राप्त होता है। मत्स्यपुराण में प्रयाग माहात्म्य के क्रममें कहा गया है कि - <blockquote>पञ्चयोजन विस्तीर्ण प्रयागस्य तु मण्डलम्। प्रविष्टस्यैव तद् भूयावश्वमेधः पदे-पदे॥ (मत्स्यपुराण)<ref>[https://sa.wikisource.org/wiki/%E0%A4%AE%E0%A4%A4%E0%A5%8D%E0%A4%B8%E0%A5%8D%E0%A4%AF%E0%A4%AA%E0%A5%81%E0%A4%B0%E0%A4%BE%E0%A4%A3%E0%A4%AE%E0%A5%8D/%E0%A4%85%E0%A4%A7%E0%A5%8D%E0%A4%AF%E0%A4%BE%E0%A4%AF%E0%A4%83_%E0%A5%A7%E0%A5%A6%E0%A5%AE मत्स्य पुराण], अध्याय-१०८, श्लोक-९।</ref> </blockquote> |
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| − | पाँच योजन परिधि में फैले इस प्रयाग में प्रवेश करने पर प्रत्येक कदम पर अश्वमेध यज्ञ का फल प्राप्त होता है। प्रजापिता भगवान ब्रह्मा जी द्वारा किये गये यज्ञों के स्थान अर्थात यज्ञ वेदी भारतवर्ष में चार हैं - | + | पाँच योजन परिधि में फैले इस प्रयाग में प्रवेश करने पर प्रत्येक कदम पर अश्वमेध यज्ञ का फल प्राप्त होता है। प्रजापिता भगवान ब्रह्मा जी द्वारा किये गये यज्ञों के स्थान अर्थात यज्ञ वेदी भारतवर्ष में तीन हैं - |
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| | #प्रथम - कुरुक्षेत्र | | #प्रथम - कुरुक्षेत्र |
| | #द्वितीय - प्रयाग | | #द्वितीय - प्रयाग |
| − | #तृतीय - गया जी | + | #तृतीय - गया |
| − | #चतुर्थ - पुष्कर
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| − | प्रयागराज ब्रह्मा जी की मध्य वेदी है, भगवान विष्णु का यहाँ पर नित्य वास और शिव इस तीर्थ क्षेत्र के रक्षक हैं। गंगा-यमुना की धाराने पूरे प्रयाग-क्षेत्रको तीन भागोंमें विभक्त कर दिया है। ये तीनों भाग अग्निस्वरूप-यज्ञवेदी माने जाते हैं। गंगा-यमुना के मध्य भागको प्रयाग कहा है गार्हपत्याग्नि, गंगापारका भाग (प्रतिष्ठानपुर-झूँसी) आहवनीय अग्नि और यमुनापारका भाग अरैल या अलर्कपुर दक्षिणाग्नि माना है। इन स्थानों में पवित्र होकर एक-एक रात्रि निवाससे तीनों अग्नियोंकी उपासनाका फल प्राप्त होता है। स्कन्द पुराण, अग्नि पुराण, शिव पुराण, ब्रह्म पुराण, वामन पुराण, बृहन्नारदीय पुराण, मनुस्मृति, वाल्मीकि रामायण, महाभारत, रघुवंश महाकाव्य आदि में भी प्रयाग की महत्ता का विस्तार से वर्णन किया गया है। | + | प्रयागराज ब्रह्मा जी की मध्य वेदी है, भगवान विष्णु का यहाँ पर नित्य वास और शिव इस तीर्थ क्षेत्र के रक्षक हैं। गंगा-यमुना की धाराने पूरे प्रयाग-क्षेत्रको तीन भागोंमें विभक्त कर दिया है। ये तीनों भाग अग्निस्वरूप-यज्ञवेदी माने जाते हैं। गंगा-यमुना के मध्य भागको प्रयाग कहा है गार्हपत्याग्नि, गंगापारका भाग (प्रतिष्ठानपुर-झूँसी) आहवनीय अग्नि और यमुनापारका भाग अरैल या अलर्कपुर दक्षिणाग्नि माना है।<ref>डॉ० राजबली पाण्डेय, [https://archive.org/details/in.ernet.dli.2015.540544/page/n425/mode/1up हिन्दू धर्म कोश], सन १९८८, उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान, लखनऊ (पृ० ४२३)।</ref> इन स्थानों में पवित्र होकर एक-एक रात्रि निवाससे तीनों अग्नियोंकी उपासनाका फल प्राप्त होता है। स्कन्द पुराण, अग्नि पुराण, शिव पुराण, ब्रह्म पुराण, वामन पुराण, बृहन्नारदीय पुराण, मनुस्मृति, वाल्मीकि रामायण, महाभारत, रघुवंश महाकाव्य आदि में भी प्रयाग की महत्ता का विस्तार से वर्णन किया गया है। |
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| | ==परिभाषा॥ Definition== | | ==परिभाषा॥ Definition== |
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| | दृष्ट्वा प्रकृष्टयागेभ्यः पुष्टेभ्यो दक्षिणादिभिः। प्रयागमिति तन्नाम कृतं हरिहरादिभिः॥ (स्कंद पुराण)<ref>[https://sa.wikisource.org/wiki/%E0%A4%B8%E0%A5%8D%E0%A4%95%E0%A4%A8%E0%A5%8D%E0%A4%A6%E0%A4%AA%E0%A5%81%E0%A4%B0%E0%A4%BE%E0%A4%A3%E0%A4%AE%E0%A5%8D/%E0%A4%96%E0%A4%A3%E0%A5%8D%E0%A4%A1%E0%A4%83_%E0%A5%AA_(%E0%A4%95%E0%A4%BE%E0%A4%B6%E0%A5%80%E0%A4%96%E0%A4%A3%E0%A5%8D%E0%A4%A1%E0%A4%83)/%E0%A4%85%E0%A4%A7%E0%A5%8D%E0%A4%AF%E0%A4%BE%E0%A4%AF%E0%A4%83_%E0%A5%A6%E0%A5%A8%E0%A5%A8 स्कंद पुराण], काशी खण्ड, अध्याय- २२, श्लोक- ६१।</ref></blockquote> | | दृष्ट्वा प्रकृष्टयागेभ्यः पुष्टेभ्यो दक्षिणादिभिः। प्रयागमिति तन्नाम कृतं हरिहरादिभिः॥ (स्कंद पुराण)<ref>[https://sa.wikisource.org/wiki/%E0%A4%B8%E0%A5%8D%E0%A4%95%E0%A4%A8%E0%A5%8D%E0%A4%A6%E0%A4%AA%E0%A5%81%E0%A4%B0%E0%A4%BE%E0%A4%A3%E0%A4%AE%E0%A5%8D/%E0%A4%96%E0%A4%A3%E0%A5%8D%E0%A4%A1%E0%A4%83_%E0%A5%AA_(%E0%A4%95%E0%A4%BE%E0%A4%B6%E0%A5%80%E0%A4%96%E0%A4%A3%E0%A5%8D%E0%A4%A1%E0%A4%83)/%E0%A4%85%E0%A4%A7%E0%A5%8D%E0%A4%AF%E0%A4%BE%E0%A4%AF%E0%A4%83_%E0%A5%A6%E0%A5%A8%E0%A5%A8 स्कंद पुराण], काशी खण्ड, अध्याय- २२, श्लोक- ६१।</ref></blockquote> |
| | सृष्टिके आदिमें यहाँ श्रीब्रह्माजी का प्रकृष्ट यज्ञ हुआ था। इसीसे इसका नाम प्रयाग कहलाया।<ref>कल्याण पत्रिका - [https://archive.org/details/in.ernet.dli.2015.346899/page/n169/mode/1up तीर्थांक], सन 2018, गीताप्रेस, गोरखपुर (पृ० 171)।</ref> | | सृष्टिके आदिमें यहाँ श्रीब्रह्माजी का प्रकृष्ट यज्ञ हुआ था। इसीसे इसका नाम प्रयाग कहलाया।<ref>कल्याण पत्रिका - [https://archive.org/details/in.ernet.dli.2015.346899/page/n169/mode/1up तीर्थांक], सन 2018, गीताप्रेस, गोरखपुर (पृ० 171)।</ref> |
| − | ==प्रयागराज एवं त्रिवेणी संगम॥ Prayagraj and Triveni Sangam== | + | == प्रयागराज एवं त्रिवेणी संगम॥ Prayagraj and Triveni Sangam== |
| | [[File:संगम .png|thumb|331x331px|प्रयागराज: त्रिवेणी संगम]] | | [[File:संगम .png|thumb|331x331px|प्रयागराज: त्रिवेणी संगम]] |
| | प्रयागराज का सर्व प्रसिद्ध तीर्थ स्थान त्रिवेणी है। यहाँ दृश्य गंगा-यमुना और अदृश्य सरस्वती का संगम है। जैसे तीन वेणी (बालों की लट) गूंथने पर दो ही दिखाई देती है, तीसरी वेणी लुप्त हो जाती है वैसे ही तीसरी वेणी सरस्वती भी यहाँ अदृश्य है। त्रिवेणी के संगम में अनेक तीर्थ हैं। प्राचीन काल में प्रयागराज में सरस्वती नदी (प्राची सरस्वती) थी इसके प्रमाण शास्त्रों में प्राप्त होते हैं, जैसे पश्चिम वाहिनी सरस्वती लुप्त हो गई, वैसे ही पूर्व वाहिनी सरस्वती भी लुप्त हो गई। मान्यता है कि सभी नदियाँ ऊपर से सूख जाती है परन्तु उनका जल अन्दर ही अन्दर रहता है इसलिये प्रयागराज तीन नदियों के संगम के नाम से प्रसिद्ध है।<ref>डॉ० पाण्डुरंग वामन काणे, [https://archive.org/details/03.-dharma-shastra-ka-itihas-tatha-anya-smritiyan/03.Dharma%20Shastra%20Ka%20Itihas%20of%20Dr.%20Pandurang%20Vaman%20Kane%20Vol.%203%20-%20Uttar%20Pradesh%20Hindi%20Sansthan%20Lucknow-Reduced/page/n333/mode/1up धर्मशास्त्र का इतिहास - तृतीय भाग] , सन २००३, उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान, लखनऊ (पृ० १३२६)।</ref> | | प्रयागराज का सर्व प्रसिद्ध तीर्थ स्थान त्रिवेणी है। यहाँ दृश्य गंगा-यमुना और अदृश्य सरस्वती का संगम है। जैसे तीन वेणी (बालों की लट) गूंथने पर दो ही दिखाई देती है, तीसरी वेणी लुप्त हो जाती है वैसे ही तीसरी वेणी सरस्वती भी यहाँ अदृश्य है। त्रिवेणी के संगम में अनेक तीर्थ हैं। प्राचीन काल में प्रयागराज में सरस्वती नदी (प्राची सरस्वती) थी इसके प्रमाण शास्त्रों में प्राप्त होते हैं, जैसे पश्चिम वाहिनी सरस्वती लुप्त हो गई, वैसे ही पूर्व वाहिनी सरस्वती भी लुप्त हो गई। मान्यता है कि सभी नदियाँ ऊपर से सूख जाती है परन्तु उनका जल अन्दर ही अन्दर रहता है इसलिये प्रयागराज तीन नदियों के संगम के नाम से प्रसिद्ध है।<ref>डॉ० पाण्डुरंग वामन काणे, [https://archive.org/details/03.-dharma-shastra-ka-itihas-tatha-anya-smritiyan/03.Dharma%20Shastra%20Ka%20Itihas%20of%20Dr.%20Pandurang%20Vaman%20Kane%20Vol.%203%20-%20Uttar%20Pradesh%20Hindi%20Sansthan%20Lucknow-Reduced/page/n333/mode/1up धर्मशास्त्र का इतिहास - तृतीय भाग] , सन २००३, उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान, लखनऊ (पृ० १३२६)।</ref> |
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| | ===अक्षयवट ॥ Akshayvata=== | | ===अक्षयवट ॥ Akshayvata=== |
| − | प्रयागराज में स्थित अक्षयवट आदि वट के नाम से कहा गया है और वह वह कल्पान्त (प्रलय) में भी स्थिर देखा जाता है या वर्तमान रहता है। उसके पत्र पर प्रलय काल में भगवान विष्णु शयन करते हैं। अतः उसको अक्षय वट कहा गया है - <ref name=":1">शोधकर्ता-विनय प्रकाश यादव, [https://archive.org/details/in.ernet.dli.2015.480648/page/n14/mode/1up प्रयाग के प्राचीन स्थलों का संजाति इतिहास], सन 2002, शोध केंद्र - मानव विज्ञान विभाग, इलाहाबाद विश्वविद्यालय, इलाहाबाद (पृ० 29)। </ref><blockquote>आदिवटः समाख्यातः कल्पान्तेऽपि च दृश्यते। शेते विष्णुर्यस्य पत्रे अतोऽयमव्ययः स्मृतः॥ (पद्मपुराण)</blockquote>'''भाषार्थ -''' अक्षयवट का मूल (जड) स्वयं साक्षात् विष्णु हैं, स्कन्ध (तना) स्वयं मंगलमयी लक्ष्मी है, देवी सरस्वती उसके पत्र है और देवेश्वर शंकर पुष्प, सभी फल ब्रह्मा हैं। इन सबके आधार भगवान विष्णु हैं। चीनी यात्री ह्वेनसांग (७वीं शती) जब प्रयाग आया था तो उसने अक्षयवट को संगम की पश्चिम दिशा में होना बताया है। इतिहासकारों का ऐसा मत है कि दुर्ग का निर्माण करते समय अकबर ने उसे कटवा दिया था, किंतु "अक्षयवट" होने के कारण वह समूल नष्ट न हो सका। इस दृष्टि से विद्वानों का अभिमत है कि आज दुर्ग के तथा संगम स्थल के आस-पास जो छोटे-बडे वट वृक्ष दिखाई देते हैं, वे उसी अक्षयवट की जडों की शाखाएं हैं और इस लिए उतने ही पूज्य एवं विश्वस्त हैं।<ref name=":1" /> | + | प्रयागराज में स्थित अक्षयवट आदि वट के नाम से कहा गया है और वह वह कल्पान्त (प्रलय) में भी स्थिर देखा जाता है या वर्तमान रहता है। उसके पत्र पर प्रलय काल में भगवान विष्णु शयन करते हैं। अतः उसको अक्षय वट कहा गया है - <ref name=":1">शोधकर्ता-विनय प्रकाश यादव, [https://archive.org/details/in.ernet.dli.2015.480648/page/n14/mode/1up प्रयाग के प्राचीन स्थलों का संजाति इतिहास], सन 2002, शोध केंद्र - मानव विज्ञान विभाग, इलाहाबाद विश्वविद्यालय, इलाहाबाद (पृ० 29)। </ref><blockquote>स चाक्षयवटः ख्यातः कल्पान्तेऽपि च दृश्यते। शेते विष्णुर्यस्य पत्रे अतोऽयमव्ययः स्मृतः॥ (पद्मपुराण)<ref>[https://sa.wikisource.org/wiki/%E0%A4%AA%E0%A4%A6%E0%A5%8D%E0%A4%AE%E0%A4%AA%E0%A5%81%E0%A4%B0%E0%A4%BE%E0%A4%A3%E0%A4%AE%E0%A5%8D/%E0%A4%96%E0%A4%A3%E0%A5%8D%E0%A4%A1%E0%A4%83_%E0%A5%AC_(%E0%A4%89%E0%A4%A4%E0%A5%8D%E0%A4%A4%E0%A4%B0%E0%A4%96%E0%A4%A3%E0%A5%8D%E0%A4%A1%E0%A4%83)/%E0%A4%85%E0%A4%A7%E0%A5%8D%E0%A4%AF%E0%A4%BE%E0%A4%AF%E0%A4%83_%E0%A5%A6%E0%A5%A8%E0%A5%AA पद्मपुराण], उत्तरखण्ड, अध्याय-२४, श्लोक-८।</ref></blockquote>'''भाषार्थ -''' सृष्टि के प्रलय काल में भी यह वृक्ष स्थित देखा जाता है। इसका नाश कभी नहीं होता। इसके पत्तों के ऊपर शंखचक्र गदापद्मधारी भगवान विष्णु उस समय शयन करते हैं। अतः इसे अक्षय(अव्यय) वट कहा गया है।<blockquote>मूलं विष्णुः स्वयं साक्षात् स्कन्धा लक्ष्मी स्वयं शुभा। पत्राणि भारती देवी पुष्पाणि विबुधेश्वरः। ब्रह्मा फलानि सर्वाणि सर्वधारी हरिः प्रभुः॥ (पद्मपुराण)</blockquote>'''भाषार्थ -''' अक्षयवट का मूल (जड) स्वयं साक्षात् विष्णु हैं, स्कन्ध (तना) स्वयं मंगलमयी लक्ष्मी है, देवी सरस्वती उसके पत्र है और देवेश्वर शंकर पुष्प, सभी फल ब्रह्मा हैं। इन सबके आधार भगवान विष्णु हैं। |
| | + | |
| | + | जिस समय भगवान श्रीराम अयोध्या से चित्रकूट जा रहे थे, उस समय सीता जी ने इस वृक्ष को प्रणाम कर अचल अहिवात की कामना की थी और लंका विजय के पश्चात जब श्रीराम पुष्पक विमान से अयोध्या वापस लौट रहे थे उस समय भी उन्होंने सीता जी को इसे प्रणाम करने के लिए कहा था।<ref name=":3" /> |
| | + | |
| | + | चीनी यात्री ह्वेनसांग (७वीं शती) जब प्रयाग आया था तो उसने अक्षयवट को संगम की पश्चिम दिशा में होना बताया है। इतिहासकारों का ऐसा मत है कि दुर्ग का निर्माण करते समय अकबर ने उसे कटवा दिया था, किंतु "अक्षयवट" होने के कारण वह समूल नष्ट न हो सका। इस दृष्टि से विद्वानों का अभिमत है कि आज दुर्ग के तथा संगम स्थल के आस-पास जो छोटे-बडे वट वृक्ष दिखाई देते हैं, वे उसी अक्षयवट की जडों की शाखाएं हैं और इस लिए उतने ही पूज्य एवं विश्वस्त हैं।<ref name=":1" /> |
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| | ==प्रयागराज यात्रा के मुख्यकर्म॥ Prayagaraja Yatra ke Mukhyakarma== | | ==प्रयागराज यात्रा के मुख्यकर्म॥ Prayagaraja Yatra ke Mukhyakarma== |
| Line 54: |
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| | *नागवासुकि | | *नागवासुकि |
| | *बलदेव (शेषनाग) जी | | *बलदेव (शेषनाग) जी |
| − | *शिवफुटी | + | * शिवफुटी |
| | *भरद्वाज-आश्रम | | *भरद्वाज-आश्रम |
| | *अलोपी देवी | | *अलोपी देवी |
| Line 95: |
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| | ==प्रयागराज एवं पंचप्रयाग॥ Prayagaraja evan Panchprayaga== | | ==प्रयागराज एवं पंचप्रयाग॥ Prayagaraja evan Panchprayaga== |
| | + | प्रयाग उस स्थल को कहा जाता है, जहाँ पर दो या दो से अधिक नदियों का संगम होता है। इस इलावास में स्थित तीर्थराज प्रयाग के अतिरिक्त और भी चौदह प्रयाग हैं - देव प्रयाग, रुद्र प्रयाग, कर्ण प्रयाग, नंद प्रयाग, विष्णु प्रयाग, सूर्य प्रयाग, इन्द्र प्रयाग, सोम प्रयाग, भास्कर प्रयाग, हरि प्रयाग, गुप्त प्रयाग, श्याम प्रयाग और केशव प्रयाग। |
| | + | |
| | + | इन चतुर्दश प्रयागों के अतिरिक्त सम्भल क्षेत्र में वासुकि प्रयाग, क्षेमक प्रयाग, तारक प्रयाग और गन्धर्व प्रयाग का भी वर्णन मिलता है।<ref name=":3">रतिभान त्रिपाठी, [https://ccrtindia.gov.in/wp-content/uploads/2020/09/Tirathraj-Prayag.pdf तीर्थराज प्रयाग], सन २०००, सांस्कृतिक स्रोत एवं प्रशिक्षण केंद्र (पृ० ३५)।</ref> |
| | + | |
| | देवभूमि उत्तराखण्ड में पांच प्रमुख संगम स्थल हैं जिन्हें पंच प्रयाग के नाम से जाना जाता है - देवप्रयाग, रुद्रप्रयाग, कर्णप्रयाग, नंदप्रयाग और विष्णुप्रयाग। | | देवभूमि उत्तराखण्ड में पांच प्रमुख संगम स्थल हैं जिन्हें पंच प्रयाग के नाम से जाना जाता है - देवप्रयाग, रुद्रप्रयाग, कर्णप्रयाग, नंदप्रयाग और विष्णुप्रयाग। |
| | + | |
| | + | ===रुद्रप्रयाग॥ Rudraprayaga=== |
| | + | उत्तराखण्ड का एक पावन तीर्थ है। यहाँ अलकनन्दा और मन्दाकिनी का संगम है। यहाँ से केदारनाथ तथा बद्रीनाथ के मार्ग पृथक होते हैं। देवर्षि नारद ने संगीत विद्या की प्राप्ति के लिए यहाँ शंकरजी की आराधना की थी। हृषीकेश से रुद्रप्रयाग ८४ मील है। |
| | + | |
| | + | ===विष्णुप्रयाग॥ Vishnu Prayaga=== |
| | + | |
| | + | ===देवप्रयाग॥ Devprayag=== |
| | + | |
| | + | ===कर्णप्रयाग॥ Karna Prayaga=== |
| | + | |
| | + | ===नन्दप्रयाग॥ Nanda Prayaga=== |
| | | | |
| | ==प्रयागराज का इतिहास॥ History Of Prayagraja== | | ==प्रयागराज का इतिहास॥ History Of Prayagraja== |
| Line 102: |
Line 120: |
| | *योग वशिष्ठ और वाल्मीकि रामायण में भगवान राम द्वारा प्रयागराज की तीर्थ यात्रा का उल्लेख किया गया है। रामायण काल में प्रयाग सूर्यवंशी राजा दशरथ के अन्तर्गत था। उस समय निषादराज गुह वहाँ के राजा और राजधानी शृंगवेरपुर थी। अयोध्या से वन गमन के समय एक रात निषादराज के यहाँ ठहरे थे। उस समय प्रयाग भरद्वाज ऋषि के कारण प्रसिद्ध था। भरद्वाज ऋषि के आश्रम में जाकर राम, सीता तथा लक्ष्मण ने आशीर्वाद प्राप्त किया था। | | *योग वशिष्ठ और वाल्मीकि रामायण में भगवान राम द्वारा प्रयागराज की तीर्थ यात्रा का उल्लेख किया गया है। रामायण काल में प्रयाग सूर्यवंशी राजा दशरथ के अन्तर्गत था। उस समय निषादराज गुह वहाँ के राजा और राजधानी शृंगवेरपुर थी। अयोध्या से वन गमन के समय एक रात निषादराज के यहाँ ठहरे थे। उस समय प्रयाग भरद्वाज ऋषि के कारण प्रसिद्ध था। भरद्वाज ऋषि के आश्रम में जाकर राम, सीता तथा लक्ष्मण ने आशीर्वाद प्राप्त किया था। |
| | *कुंभ का आयोजन राजा हर्षवर्धन के राज्य काल में आरंभ हुआ था। प्रसिद्ध चीनी यात्री ह्वेनसांग जब अपनी भारत यात्रा के बाद उन्होंने कुंभ मेले के आयोजन का उल्लेख किया था। इसी के साथ उन्होंने राजा हर्षवर्धन का भी जिक्र किया है। उनके दयालु स्वभाव के बारे में भी उन्होंने जिक्र किया था। ह्वेनसांग ने कहा था कि राजा हर्षवर्धन लगभग हर 5 साल में नदियों के संगम पर एक बड़ा आयोजन करते थे। जिसमें वह अपना पूरा कोष गरीबों और धार्मिक लोगों को दान में दे दिया करते थे।<ref>डॉ० असीम श्रीवास्तव, [https://archive.org/details/20200715_20200715_0757/page/n5/mode/1up प्रयाग-कुम्भः उत्पत्ति तथा इतिहास-एक विश्लेषण], सन् २०१९, हिन्दुस्तानी एकेडेमी, प्रयागराज (पृ० २)।</ref> | | *कुंभ का आयोजन राजा हर्षवर्धन के राज्य काल में आरंभ हुआ था। प्रसिद्ध चीनी यात्री ह्वेनसांग जब अपनी भारत यात्रा के बाद उन्होंने कुंभ मेले के आयोजन का उल्लेख किया था। इसी के साथ उन्होंने राजा हर्षवर्धन का भी जिक्र किया है। उनके दयालु स्वभाव के बारे में भी उन्होंने जिक्र किया था। ह्वेनसांग ने कहा था कि राजा हर्षवर्धन लगभग हर 5 साल में नदियों के संगम पर एक बड़ा आयोजन करते थे। जिसमें वह अपना पूरा कोष गरीबों और धार्मिक लोगों को दान में दे दिया करते थे।<ref>डॉ० असीम श्रीवास्तव, [https://archive.org/details/20200715_20200715_0757/page/n5/mode/1up प्रयाग-कुम्भः उत्पत्ति तथा इतिहास-एक विश्लेषण], सन् २०१९, हिन्दुस्तानी एकेडेमी, प्रयागराज (पृ० २)।</ref> |
| − | *प्राचीन काल में प्रयागराज के पास स्थित प्रतिष्ठानपुर (झूसी) चन्द्रवंशी राजा पुरूरवा की राजधानी थी। इनके पूर्वज पुरुरवा थे, जो मनु की पुत्री इला और बुध के पुत्र थे। इला का जन्म प्रयाग में हुआ था एवं प्रयाग में ही वास था इसलिए प्रयाग को इलावास भी कहा जाता था, मुगल काल में जिसे बदलकर इलाहाबाद कर दिया गया। यह स्थान भी धार्मिक और सांस्कृतिक दृष्टि से अत्यधिक महत्वपूर्ण था। पुरूरवा को चंद्र वंश का संस्थापक माना जाता है और उनके शासनकाल में यह क्षेत्र अत्यधिक समृद्धि को प्राप्त हुआ। | + | * प्राचीन काल में प्रयागराज के पास स्थित प्रतिष्ठानपुर (झूसी) चन्द्रवंशी राजा पुरूरवा की राजधानी थी। इनके पूर्वज पुरुरवा थे, जो मनु की पुत्री इला और बुध के पुत्र थे। इला का जन्म प्रयाग में हुआ था एवं प्रयाग में ही वास था इसलिए प्रयाग को इलावास भी कहा जाता था, मुगल काल में जिसे बदलकर इलाहाबाद कर दिया गया। यह स्थान भी धार्मिक और सांस्कृतिक दृष्टि से अत्यधिक महत्वपूर्ण था। पुरूरवा को चंद्र वंश का संस्थापक माना जाता है और उनके शासनकाल में यह क्षेत्र अत्यधिक समृद्धि को प्राप्त हुआ। |
| | *कालिदास ने रघुवंश के 13वें सर्ग में गंगा-यमुना के संगम का मनोहारी वर्णन किया है तथा गंगा-यमुना के संगम के स्नान को मुक्तिदायक माना है - | | *कालिदास ने रघुवंश के 13वें सर्ग में गंगा-यमुना के संगम का मनोहारी वर्णन किया है तथा गंगा-यमुना के संगम के स्नान को मुक्तिदायक माना है - |
| | <blockquote>समुद्र-पत्न्योर्जलसन्निपात पूतात्मनामत्र किलाभिषेकात्, तत्त्वावबोधेन विनापि भूय: तनुस्त्यजां नास्ति शरीरबंध:। (रघुवंश महाकाव्य)<ref name=":2">महाकवि कालिदास, [https://archive.org/details/raghuvansh_mahakavya_032598_std_202109/page/n1046/mode/1up?view=theater रघुवंश महाकाव्य] मल्लिनाथ-सञ्जीवनी टीका, धारादत्त मिश्र-संस्कृत व्याख्या एवं हिन्दी अनुवाद सहित, सन १९८७, मोतीलाल बनारसीदास, वाराणसी (पृ० १७४)।</ref></blockquote>भाषार्थ - समुद्र की दो पत्नियों (गंगा-यमुना) के संगम में स्नान करने से, पवित्र मन वाले पुरुष तत्त्वज्ञानी न होने पर भी वर्तमान शरीर छूट जाने पर शरीर के बन्धन से छूट जाते हैं। अर्थात अन्यत्र सब स्थानों में ज्ञान से ही मुक्ति होती है किन्तु यहां संगम में स्नान करने मात्र से मुक्ति मिल जाती है। पुनः शरीर धारण नहीं करना पडता है।<ref name=":2" /> | | <blockquote>समुद्र-पत्न्योर्जलसन्निपात पूतात्मनामत्र किलाभिषेकात्, तत्त्वावबोधेन विनापि भूय: तनुस्त्यजां नास्ति शरीरबंध:। (रघुवंश महाकाव्य)<ref name=":2">महाकवि कालिदास, [https://archive.org/details/raghuvansh_mahakavya_032598_std_202109/page/n1046/mode/1up?view=theater रघुवंश महाकाव्य] मल्लिनाथ-सञ्जीवनी टीका, धारादत्त मिश्र-संस्कृत व्याख्या एवं हिन्दी अनुवाद सहित, सन १९८७, मोतीलाल बनारसीदास, वाराणसी (पृ० १७४)।</ref></blockquote>भाषार्थ - समुद्र की दो पत्नियों (गंगा-यमुना) के संगम में स्नान करने से, पवित्र मन वाले पुरुष तत्त्वज्ञानी न होने पर भी वर्तमान शरीर छूट जाने पर शरीर के बन्धन से छूट जाते हैं। अर्थात अन्यत्र सब स्थानों में ज्ञान से ही मुक्ति होती है किन्तु यहां संगम में स्नान करने मात्र से मुक्ति मिल जाती है। पुनः शरीर धारण नहीं करना पडता है।<ref name=":2" /> |