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| − | दुख (संस्कृतः दुःख) एक ऐसी अवस्था है जिससे निवृत्ति की इच्छा प्राणीमात्र में विद्यमान होती है। दुःख का शाब्दिक अर्थ कष्ट, क्लेश या सुख का विपरीत भाव है। भारतीय ज्ञान परंपरा के अंतर्गत इसका विवरण दर्शन, साहित्य एवं धर्मग्रन्थों में विस्तार से किया गया है। सांख्यदर्शन में दुःख को आध्यात्मिक, आधिभौतिक और आधिदैविक तीन प्रकार का माना है। न्याय और वैशेषिक दुःख को आत्मा का धर्म मानते हैं। वेदान्त ने सुखदुःख रूपी ज्ञान को अविद्या कहा है इसकी निवृत्ति ब्रह्मज्ञान द्वारा हो जाती है। योगदर्शन में चित्तविक्षेप या चित्त के राजसकार्य को दुःख कहा है। | + | दुख (संस्कृतः दुःख) एक ऐसी अवस्था है जिससे निवृत्ति की इच्छा प्राणीमात्र में विद्यमान होती है। दुःख का शाब्दिक अर्थ कष्ट, क्लेश या सुख का विपरीत भाव है। सांख्यदर्शन में दुःख को आध्यात्मिक, आधिभौतिक और आधिदैविक तीन प्रकार का माना है। न्याय और वैशेषिक दुःख को आत्मा का धर्म मानते हैं। वेदान्त ने सुखदुःख रूपी ज्ञान को अविद्या कहा है इसकी निवृत्ति ब्रह्मज्ञान द्वारा हो जाती है। योगदर्शन में चित्तविक्षेप या चित्त के राजसकार्य को दुःख कहा है। भारतीय ज्ञान परंपरा के अंतर्गत दुःख का विवेचन दर्शन, साहित्य एवं धर्मग्रन्थों में विस्तार से किया गया है। |
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| − | एक सामूहिक अज्ञान की स्थिति है। भारतीय ज्ञान परम्परा में दर्शन ही एकमात्र ऐसा साधन है जिससे दुःख को आत्यन्तिक केवल वहीं अपने को इस स्थिति से बचा पाते हैं जिनमें विवेक ज्ञान उत्पन्न हो जाता है। विवेक से आत्मा का वास्तविक स्वरूप ज्ञात हो जाता है। सचराचर लोक में सुख एवं दुःख की अनुभूति प्रत्येक जीव को होती है। कर्माशय की तीव्रता के कारण किसी को तीव्र दुःखानुभूति होती है तो किसी को मन्द दुःख की अनुभूति होती है। दुःख को प्रतिकूल अनुभूति कहा गया है - <blockquote>प्रतिकूलवेदनीयं दुःखम्।</blockquote>जब इच्छाओं के विपरीत किसी वस्तु का सान्निध्य प्राप्त हो जाता है अथवा किसी अत्यन्त प्रिय वस्तु का विच्छेद हो जाता है तो दुःख होता है।
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| | ==परिचय== | | ==परिचय== |
| | सांख्य दर्शन में दुःखत्रयाभिघातादिति, तीन प्रकार के दुःख हैं - आध्यात्मिक, आधिभौतिक और आधिदैविक। इनमें आध्यात्मिक दुःख दो प्रकार का है - शारीरिक और मानसिक। | | सांख्य दर्शन में दुःखत्रयाभिघातादिति, तीन प्रकार के दुःख हैं - आध्यात्मिक, आधिभौतिक और आधिदैविक। इनमें आध्यात्मिक दुःख दो प्रकार का है - शारीरिक और मानसिक। |
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| | ==परिभाषा== | | ==परिभाषा== |
| − | दुःख शब्द का अर्थ व्यथा, पीड़ा, यातना एवं कष्ट आदि है। दुःख अकारांत शब्द एवं नपुंसकलिंग में इसका प्रयोग होता है। - <blockquote>दुष्टानि खानि यस्मिन इति दुःखम्। (दुःखाद् अच्, क्लीब)</blockquote>अमरकोष कार ने दुःख के पर्यायवाची शब्दों का प्रयोग इस प्रकार किया है - | + | दुःख शब्द का अर्थ व्यथा, पीड़ा, यातना एवं कष्ट आदि है। दुःख अकारांत शब्द एवं नपुंसकलिंग में इसका प्रयोग होता है। - <blockquote>दुष्टानि खानि यस्मिन इति दुःखम्, दुःखाद् अच्, क्लीब।(शब्दकल्पद्रुम)</blockquote>अमरकोष कार ने दुःख के पर्यायवाची शब्दों का प्रयोग इस प्रकार किया है - |
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| | पीडा बाधा व्यथा दुःखमामनस्यं प्रसूतिजं स्यात्कष्टं कृच्छ्रमाभीलम् इति। (अमरकोष) | | पीडा बाधा व्यथा दुःखमामनस्यं प्रसूतिजं स्यात्कष्टं कृच्छ्रमाभीलम् इति। (अमरकोष) |
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| | भाषार्थ - पीड़ा, बाधा, व्यथा, दुःख, आमनस्य, प्रसूतिज, कष्ट, कृच्छ्र, आभील आदि पर्यायवाची शब्द प्राप्त होते हैं। | | भाषार्थ - पीड़ा, बाधा, व्यथा, दुःख, आमनस्य, प्रसूतिज, कष्ट, कृच्छ्र, आभील आदि पर्यायवाची शब्द प्राप्त होते हैं। |
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| − | ==प्राचीन ग्रन्थों में दुःख के कारण== | + | ==दुःख की अवधारणा== |
| | + | संस्कृत वांगमय में दुःख का अर्थ केवल शारीरिक या मानसिक पीड़ा तक सीमित नहीं है, किन्तु यह व्यापक रूप से मानव जीवन के अस्तित्वगत और आध्यात्मिक दृष्टिकोण को समाहित करता है। यह जीवन के अंतर्निहित संघर्ष, अनित्यत्व, और मृत्यु की अनिवार्यता से संबंधित है। |
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| | + | '''सांख्य दर्शन - दुःख की अवधारणा''' |
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| | '''योगदर्शन में दुःख''' | | '''योगदर्शन में दुःख''' |
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| − | योगदर्शन में दुःख को तीन प्रकार से वर्गीकृत किया गया है - | + | योगदर्शन में दुःख को वर्गीकृत करते हुए बताया गया है कि परिणाम दुःख, ताप दुःख, संस्कार दुःख और गुणवृत्ति विरोध से उत्पन्न दुःख के कारण, विवेकी पुरुषों के लिए सभी दुःख का ही रूप होते हैं - <blockquote>परिणामतापसंस्कारदुःखैर्गुणवृत्तिविरोधाच्च दुःखमेव सर्वं विवेकिनः॥ (योग सूत्र)<ref>योगसूत्र, [https://sa.wikisource.org/wiki/%E0%A4%AA%E0%A4%BE%E0%A4%A4%E0%A4%9E%E0%A5%8D%E0%A4%9C%E0%A4%B2%E0%A4%AF%E0%A5%8B%E0%A4%97%E0%A4%B8%E0%A5%82%E0%A4%A4%E0%A5%8D%E0%A4%B0%E0%A4%AD%E0%A4%BE%E0%A4%B7%E0%A5%8D%E0%A4%AF%E0%A4%B5%E0%A4%BF%E0%A4%B5%E0%A4%B0%E0%A4%A3%E0%A4%AE%E0%A5%8D/%E0%A4%B8%E0%A4%BE%E0%A4%A7%E0%A4%A8%E0%A4%AA%E0%A4%BE%E0%A4%A6%E0%A4%83 साधनपाद-सूत्र १५]।</ref></blockquote>इसमें मुख्य रूप से तीन प्रकार के दुःखो का वर्णन किया गया है - |
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| | + | '''परिणाम दुःख'''- विषय सुख के भोग के बाद सुख के वियोग की सम्भावना का दुःख अर्थात हम इन्द्रियों से मिलने वाली तृप्ति या सुखद अहसास को ही सुख समझने लगते हैं। लेकिन वास्तव में वह सुख नहीं है। इस प्रकार इन्द्रियों से उत्पन्न तृप्ति कभी भी शान्त नहीं होती बल्कि उनको और भी ज्यादा पाने की इच्छा होती रहती है। जैसे – स्वादिष्ट भोजन, सुन्दर स्त्री या पुरुष का सहयोग, आनन्द प्राप्ति के साधन आदि। इन सभी से हमें केवल एक क्षण के लिए तो आनंद मिलता है। लेकिन यह वास्तव में सुख नहीं है। यह एक पल की तृप्ति हमारी इन्द्रियों को कमजोर कर देती है । इसी को परिणाम दुःख कहते हैं। |
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| | + | '''ताप दुःख -''' सुख की अपूर्णता और सुख प्राप्ति में विघ्नों का दुःख अर्थात सुख पहुँचाने वाले साधनों व व्यक्तियों के प्रति राग अर्थात आसक्ति होना। दुःख पहुँचाने वाले साधनों व व्यक्तियों के प्रति द्वेष या घृणा होना ही ताप दुःख कहलाता है। ये राग व द्वेष दोनों ही दुःख पहुँचाने वाले होते हैं। |
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| | + | '''संस्कार दुःख -''' सुख वियोग के बाद सुख भोग के संस्कारों का दुःख अर्थात मनुष्य में सुख के भोगने से सुख के संस्कार व दुःख को भोगने से दुःख के संस्कार बनते हैं। इन सुख व दुःख के संस्कारों से व्यक्ति इसी जीवन-मरण के चक्र में बंधा रहता है। उसके चित्त में सुख व दुःख के संस्कार घूमते रहते हैं। यही संस्कार दुःख है। |
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| | + | ==दुःख निवृत्ति उपाय== |
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| − | # '''परिणाम''' - विषय सुख के भोग के बाद सुख के वियोग की सम्भावना का दुःख।
| + | ==सारांश== |
| − | # '''ताप -''' सुख की अपूर्णता और सुख प्राप्ति में विघ्नों का दुःख।
| + | एक सामूहिक अज्ञान की स्थिति है। भारतीय ज्ञान परम्परा में दर्शन ही एकमात्र ऐसा साधन है जिससे दुःख को आत्यन्तिक केवल वहीं अपने को इस स्थिति से बचा पाते हैं जिनमें विवेक ज्ञान उत्पन्न हो जाता है। विवेक से आत्मा का वास्तविक स्वरूप ज्ञात हो जाता है। सचराचर लोक में सुख एवं दुःख की अनुभूति प्रत्येक जीव को होती है। कर्माशय की तीव्रता के कारण किसी को तीव्र दुःखानुभूति होती है तो किसी को मन्द दुःख की अनुभूति होती है। दुःख को प्रतिकूल अनुभूति कहा गया है -<blockquote>प्रतिकूलवेदनीयं दुःखम्।</blockquote>जब इच्छाओं के विपरीत किसी वस्तु का सान्निध्य प्राप्त हो जाता है अथवा किसी अत्यन्त प्रिय वस्तु का विच्छेद हो जाता है तो दुःख होता है। |
| − | # '''संस्कार -''' सुख वियोग के बाद सुख भोग के संस्कारों का दुःख।
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| | ==उद्धरण== | | ==उद्धरण== |