Difference between revisions of "Vidura Niti (विदुर नीति)"
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− | भारतीय ज्ञान परंपरा में नीतिशास्त्र के अन्तर्गत विदुर नीति का विशेष महत्व है। महात्मा विदुर ने राज्य-शासन की नीति से सम्बन्धित अनेक बातें कही हैं, जो आज भी हमारे लिए वैसी ही लाभदायक हैं। | + | भारतीय ज्ञान परंपरा में नीतिशास्त्र के अन्तर्गत विदुर नीति का विशेष महत्व है। धर्म के अवतार महात्मा विदुर अत्यन्त बुद्धिमान, धर्मज्ञ, ईश्वर भक्त, नीतिनिपुण व व्यवहार कुशल थे। महात्मा विदुर ने राज्य-शासन की नीति से सम्बन्धित अनेक बातें कही हैं, जो आज भी हमारे लिए वैसी ही लाभदायक हैं। महाभारत में उद्योग पर्व के 33वें से 44वें अध्याय तक नीति सम्बन्धी उपदेश संग्रहित हैं इसमें महात्मा विदुर ने राजा धृतराष्ट्र को लोक परलोक की बहुत सी बातें बतायी हैं। विदुर नीति में उन सिद्धांतों और नीतियों का वर्णन किया गया है जिन्हें किसी भी राजा, शासक या सामान्य व्यक्ति को अपने जीवन में अपनाना चाहिए। |
− | == परिचय == | + | ==परिचय== |
− | महात्मा विदुर धृतराष्ट्र और पाण्डु के छोटे भ्राता थे, ये दासी पुत्र थे इस कारण ये राज्य के अधिकारी नहीं हुए। पाण्डु की मृत्यु के पश्चात् जब धृतराष्ट्र राजा बने तब ये उनके मंत्री बने। विदुर नीति के तो पंडित थे ही इनकी बनायी गई विदुर नीति एक प्रामाणिक नीति मानी गई। नीति निपुण विदुर सदा धर्म के पक्ष में रहते अधर्म का खण्डन तो ये सभा के मध्य भी कर देते थे। पाण्डवों को जब बारह वर्ष का वनवास और एक वर्ष का अज्ञातवास हुआ तो ये बड़े दुःखी हुए। विदुर जानते थे कि युद्ध विनाशकारी होगा, क्योंकि महाराज धृतराष्ट्र तो अपने पुत्र मोह में इस प्रकार बंध चुके थे कि वे कोई समाधान नहीं खोज पा रहे थे। दुर्योधन अपनी जिद पर अड़ा था। द्यूत क्रीडा की शर्त के अनुसार पांडवों ने बारह वर्ष का वनवास और एक वर्ष का अज्ञातवास पूर्ण करने के बाद जब अपना राज्य वापस मांगा तो पुत्र मोह में बँधे धृतराष्ट्र उन्हें कोई निर्णायक उत्तर नहीं दे पाये। द्यूत क्रीडा के समय भी विदुर ने धृतराष्ट्र को चेतावनी दी थी कि यदि यह खेल समाप्त नहीं किया गया तो अनर्थ हो जायेगा और हस्तिनापुर को विनाश की कगार से कोई नहीं बचा सकता। विदुर नीति युद्ध की नीति न होकर जीवन में प्रेम व्यवहार की नीति के रूप में अपना विशेष स्थान रखती है। जिस प्रकार चाणक्य नीति राजनीतिज्ञ सिद्धान्तों से ओत प्रोत है वहीं विदुर नीति सत् असत् की दृष्टि से विशेष महत्त्व रखती है। विदुर सदा सत् विचारों का ही परामर्श देते। देखा जाय तो महाराज धृतराष्ट्र और विदुर के बीच ये कैसा संयोग था धृतराष्ट्र अपने पुत्र मोह में फंसे थे इसके विपरीत विदुर अपनी नीति में बँधे हुए थे। जब महाभारत का युद्ध प्रारम्भ हुआ तो ये किसी तरफ भी नहीं हुए, लेकिन मन से ये सदा पांडवों के पक्ष में थे और समय समय पर उन्होंने पांडवों की सहायता की तथा उन्हें कई विपत्तियों से भी बचाया। | + | महात्मा विदुर धृतराष्ट्र और पाण्डु के छोटे भ्राता थे, ये दासी पुत्र थे इस कारण ये राज्य के अधिकारी नहीं हुए। पाण्डु की मृत्यु के पश्चात् जब धृतराष्ट्र राजा बने तब ये उनके मंत्री बने। विदुर नीति के तो पंडित थे ही इनकी बनायी गई विदुर नीति एक प्रामाणिक नीति मानी गई। नीति निपुण विदुर सदा धर्म के पक्ष में रहते अधर्म का खण्डन तो ये सभा के मध्य भी कर देते थे। पाण्डवों को जब बारह वर्ष का वनवास और एक वर्ष का अज्ञातवास हुआ तो ये बड़े दुःखी हुए। विदुर जानते थे कि युद्ध विनाशकारी होगा, क्योंकि महाराज धृतराष्ट्र तो अपने पुत्र मोह में इस प्रकार बंध चुके थे कि वे कोई समाधान नहीं खोज पा रहे थे। दुर्योधन अपनी जिद पर अड़ा था। द्यूत क्रीडा की शर्त के अनुसार पांडवों ने बारह वर्ष का वनवास और एक वर्ष का अज्ञातवास पूर्ण करने के बाद जब अपना राज्य वापस मांगा तो पुत्र मोह में बँधे धृतराष्ट्र उन्हें कोई निर्णायक उत्तर नहीं दे पाये। द्यूत क्रीडा के समय भी विदुर ने धृतराष्ट्र को चेतावनी दी थी कि यदि यह खेल समाप्त नहीं किया गया तो अनर्थ हो जायेगा और हस्तिनापुर को विनाश की कगार से कोई नहीं बचा सकता। विदुर नीति युद्ध की नीति न होकर जीवन में प्रेम व्यवहार की नीति के रूप में अपना विशेष स्थान रखती है। जिस प्रकार चाणक्य नीति राजनीतिज्ञ सिद्धान्तों से ओत प्रोत है वहीं विदुर नीति सत् असत् की दृष्टि से विशेष महत्त्व रखती है। विदुर सदा सत् विचारों का ही परामर्श देते। देखा जाय तो महाराज धृतराष्ट्र और विदुर के बीच ये कैसा संयोग था धृतराष्ट्र अपने पुत्र मोह में फंसे थे इसके विपरीत विदुर अपनी नीति में बँधे हुए थे। जब महाभारत का युद्ध प्रारम्भ हुआ तो ये किसी तरफ भी नहीं हुए, लेकिन मन से ये सदा पांडवों के पक्ष में थे और समय समय पर उन्होंने पांडवों की सहायता की तथा उन्हें कई विपत्तियों से भी बचाया।<ref>पं० माधवप्रसाद व्यास, [https://ia601408.us.archive.org/33/items/in.ernet.dli.2015.326831/2015.326831.Vidhura-Nithi.pdf विदुरनीति 1-37], सन् 1952, भार्गवपुस्तकालय, गायघाट, वाराणसी (पृ० 13)।</ref> |
− | == | + | ==विदुर नीति-वर्ण्यविषय== |
− | नीति की चर्चा महाभारत में कई स्थलों पर आयी। महाभारत में वर्णन आता है कि धृतराष्ट्र ने पुत्र मोह में कई बार पांडवों के साथ अन्याय किया। इसी वजह से धृतराष्ट्र बहुत दुःखी थे तब उन्होंने अपनी चिन्ता मिटाने के लिए विदुर से उपाय पूछा। विदुर ने जो भी उपदेश धृतराष्ट्र को दिये, वह विदुर नीति के नाम से प्रसिद्ध हुई। महाभारत में उद्योग पर्व के 33वें से 44वें अध्याय तक नीति सम्बन्धी उपदेश संग्रहित हैं इसमें महात्मा विदुर ने राजा धृतराष्ट्र को लोक परलोक की बहुत सी बातें बतायी हैं। प्रस्तुत अध्याय में आप विदुर द्वारा प्रदत्त नीतियों का सूक्ष्म रूप में अध्ययन करेंगे - | + | नीति की चर्चा महाभारत में कई स्थलों पर आयी। महाभारत में वर्णन आता है कि धृतराष्ट्र ने पुत्र मोह में कई बार पांडवों के साथ अन्याय किया। इसी वजह से धृतराष्ट्र बहुत दुःखी थे तब उन्होंने अपनी चिन्ता मिटाने के लिए विदुर से उपाय पूछा। विदुर ने जो भी उपदेश धृतराष्ट्र को दिये, वह विदुर नीति के नाम से प्रसिद्ध हुई। महाभारत में उद्योग पर्व के 33वें से 44वें अध्याय तक नीति सम्बन्धी उपदेश संग्रहित हैं इसमें महात्मा विदुर ने राजा धृतराष्ट्र को लोक परलोक की बहुत सी बातें बतायी हैं। प्रस्तुत अध्याय में आप विदुर द्वारा प्रदत्त नीतियों का सूक्ष्म रूप में अध्ययन करेंगे -<ref>शोध गंगा - वीणा महाजन, [https://shodhganga.inflibnet.ac.in/handle/10603/134098 विदुर नीति के विशेष संदर्भ में भारतीय नीतिशास्त्र का अध्ययन], शोध केंद्र - पंजाब विश्वविद्यालय (पृ० 205)।</ref> |
− | 1- विदुर ने अपनी नीति में पंडितों के विषय में कहा है-<blockquote>निश्चित्य यः प्रक्रमते नान्तर्वसति कर्मण। अबन्ध्यकालो वश्यात्मा स वै पण्डित उच्यते॥</blockquote>जो व्यक्ति पहले निश्चय अर्थात् अच्छी प्रकार सोच समझकर फिर कार्य का आरम्भ करता है, कार्य के प्रारम्भ होने के पश्चात् बीच में रूकता नहीं है। अपने समय का सदुपयोग करता है अर्थात् समय को व्यर्थ नहीं जाने देता और अपने चित्त अर्थात् मन को अपने वश में रखता है वही पण्डित कहलाता है। | + | 1- विदुर ने अपनी नीति में पंडितों के विषय में कहा है -<blockquote>निश्चित्य यः प्रक्रमते नान्तर्वसति कर्मण। अबन्ध्यकालो वश्यात्मा स वै पण्डित उच्यते॥ (विदुर नीति 1-29)</blockquote>जो व्यक्ति पहले निश्चय अर्थात् अच्छी प्रकार सोच समझकर फिर कार्य का आरम्भ करता है, कार्य के प्रारम्भ होने के पश्चात् बीच में रूकता नहीं है। अपने समय का सदुपयोग करता है अर्थात् समय को व्यर्थ नहीं जाने देता और अपने चित्त अर्थात् मन को अपने वश में रखता है वही पण्डित कहलाता है। |
− | 2- विदुर ने अपने ज्येष्ठ भ्राता धृतराष्ट्र को नीति सम्मत कई उपदेश दिये। विदुर ने मूर्ख के विषय में बताते हुए कहा है-<blockquote>अकामान् कामयति यः कामयानान् परित्यजेत्। बलवन्तं च या द्वेष्टि तमाहुर्मूढचेतसम्॥</blockquote>जो मनुष्य न चाहने वालों को चाहता है और चाहने योग्य लोगों का परित्याग कर देता है, तथा जो बलवानों के साथ शत्रुवत् बैर बाँधता है, उसे ही के अनुसार मूर्खचित्त वाला मनुष्य कहते हैं। | + | 2- विदुर ने अपने ज्येष्ठ भ्राता धृतराष्ट्र को नीति सम्मत कई उपदेश दिये। विदुर ने मूर्ख के विषय में बताते हुए कहा है -<blockquote>अकामान् कामयति यः कामयानान् परित्यजेत्। बलवन्तं च या द्वेष्टि तमाहुर्मूढचेतसम्॥ (विदुर नीति 1-38)</blockquote>जो मनुष्य न चाहने वालों को चाहता है और चाहने योग्य लोगों का परित्याग कर देता है, तथा जो बलवानों के साथ शत्रुवत् बैर बाँधता है, उसे ही के अनुसार मूर्खचित्त वाला मनुष्य कहते हैं। |
− | 3- विदुर ने अपनी नीति में कुछ आध्यात्मिक प्रसंगों का वर्णन भी किया है, शरीर रूपी को रूपक मानकर विदुर कहते हैं-<blockquote>रथः शरीरं पुरूषस्य राजन्नात्मा नियन्तेन्द्रियाण्यस्य चाश्वाः। तैरप्रमत्तः कुशली सदश्चैर्दान्तैः सुखं याति रथीव धीरः॥</blockquote>विदुर कहते हैं कि मनुष्य का शरीर ही रथ है। उस रथ रूपी शरीर में बुद्धिसारथि है, और इंद्रियां अश्व हैं, अश्वों को अपने वश में करके सावधान, चातुर्य एवं धीर पुरूष एक रथी की भाँति आनंद पूर्वक जीवन की यात्रा करता है। | + | 3- विदुर ने अपनी नीति में कुछ आध्यात्मिक प्रसंगों का वर्णन भी किया है, शरीर रूपी को रूपक मानकर विदुर कहते हैं -<blockquote>रथः शरीरं पुरूषस्य राजन्नात्मा नियन्तेन्द्रियाण्यस्य चाश्वाः। तैरप्रमत्तः कुशली सदश्चैर्दान्तैः सुखं याति रथीव धीरः॥ (विदुर नीति 4-59)</blockquote>विदुर कहते हैं कि मनुष्य का शरीर ही रथ है। उस रथ रूपी शरीर में बुद्धिसारथि है, और इंद्रियां अश्व हैं, अश्वों को अपने वश में करके सावधान, चातुर्य एवं धीर पुरूष एक रथी की भाँति आनंद पूर्वक जीवन की यात्रा करता है। |
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+ | 4- नारी के विषय में बताते हुए विदुर कहते हैं - <blockquote>पूजनीया महाभागाः पुण्याश्च गृहदीप्तयः। स्त्रियः श्रियो गृहस्योक्तास्तस्माद्रक्ष्या विशेषतः॥ (विदुर नीति </blockquote>विदुर ने अपनी नीति में कहा है कि नारियाँ घर की लक्ष्मी होती हैं, वे सदा पूजनीया हैं, अत्यन्त भाग्य स्वरूपा हैं, पुण्यशीला हैं। नारियों के इन गुणों से घर की शोभा में वृद्धि अर्थात् घर सुशोभित होता है। अतः वे विशेष रूप से योग्य है। | ||
4- नारी के विषय में बताते हुए विदुर कहते हैं - <blockquote>पूजनीया महाभागाः पुण्याश्च गृहदीप्तयः। स्त्रियः श्रियो गृहस्योक्तास्तस्माद्रक्ष्या विशेषतः॥</blockquote>विदुर ने अपनी नीति में कहा है कि नारियाँ घर की लक्ष्मी होती हैं, वे सदा पूजनीया हैं, अत्यन्त भाग्य स्वरूपा हैं, पुण्यशीला हैं। नारियों के इन गुणों से घर की शोभा में वृद्धि अर्थात् घर सुशोभित होता है। अतः वे विशेष रूप से योग्य है। | 4- नारी के विषय में बताते हुए विदुर कहते हैं - <blockquote>पूजनीया महाभागाः पुण्याश्च गृहदीप्तयः। स्त्रियः श्रियो गृहस्योक्तास्तस्माद्रक्ष्या विशेषतः॥</blockquote>विदुर ने अपनी नीति में कहा है कि नारियाँ घर की लक्ष्मी होती हैं, वे सदा पूजनीया हैं, अत्यन्त भाग्य स्वरूपा हैं, पुण्यशीला हैं। नारियों के इन गुणों से घर की शोभा में वृद्धि अर्थात् घर सुशोभित होता है। अतः वे विशेष रूप से योग्य है। | ||
− | + | 5- दीर्घदर्शी विदुर के अनुसार नीतियुक्त कथन न तो कहना अच्छा है और न सुनना अच्छा है। यही सब बातें धृतराष्ट्र विदुर को बताते हुए कहते हैं -<blockquote>सुलभाः पुरूषा राजन् सततं प्रियवादिनः । अप्रियस्य तु पथ्यस्य वक्ता श्रोता च दुर्लभः॥</blockquote>विदुर जी कहते हैं कि राजा के समक्ष सदा प्रिय मधुर वचन बोलने वाले पुरूष तो सुलभ हैं अर्थात् बहुत मिल जाते हैं। किन्तु राजा के समक्ष अप्रिय वचन अर्थात् उसको निन्दित लगने वाले हितकारी वचन को कहने वाले तथा उन वचनों को सुनने वाले मनुष्य दुर्लभ हैं। कहने का तात्पर्य यह है जो अप्रिय लगने वाले हितकारी वचन बोलते हैं ऐसे लोग ना के बराबर मिलते हैं। | |
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+ | 6- महात्मा विदुर ने विद्यार्थी के विषय में कहा है-<blockquote>सुखार्थिनः कुतो विद्या नास्ति विद्यार्थिनः सुखम्। सुखार्थी वा त्यजेद् विद्यां विद्यार्थी वा त्यजेद् सुखम्॥</blockquote>विदुर जी कहते हैं जो विद्यार्थी और सुखार्थी हैं ये अलग-अलग पहलू व एक दूसरे के विपरीत हैं विद्यार्थी के लिए सुख कहाँ अर्थात् विद्यार्थी को सुख की प्राप्ति नहीं होती है। जो विद्यार्थी सुख की कामना करता है वह विद्या को प्राप्त नहीं कर सकता है कहने का तात्पर्य यह है कि सुख की कामना करने वाले विद्यार्थी को विद्या का त्याग कर देना चाहिए। क्योंकि विद्या के साथ-साथ सुखों की प्राप्तिनहीं हो सकती। वास्तव में देखा जाय तो महात्मा विदुर ने जो भी उपदेश राजा धृतराष्ट्र को दिये वे सभी नीति परक व राष्ट्र के कल्याण के लिए हितकारी हैं। राजा धृतराष्ट्र कहते हैं कि मैं भी मानता हूँ कि जो धर्म के पक्ष में है विजय उसी की है, मैं भी पाण्डवों के प्रति नीति से पूर्ण बुद्धि रखता हूँ लेकिन पुत्र मोह में फँसकर मैं उसका पालन नहीं कर सका, यही सब बातें महाभारत के उद्योग पर्व में विदुर नीति के नाम से प्रसिद्ध हुई। | ||
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+ | ==महात्मा विदुर== | ||
+ | विदुर जी कि नीति में व्यवहार, नीति, सदाचार, धर्म, न्याय, सत्य, अहिंसा आदि सभी कुछ आ जाता है। विदुर के व्यक्तित्व का कितना सम्मान था ये उनके लिये प्रयुक्त संबोधनों से भी प्रकट है – | ||
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+ | *महाप्राज्ञं , दीर्घदर्शिनः (श्लो० 1.5) | ||
+ | *त्वमेक प्रज्ञासम्मतः (1.15) | ||
+ | *धर्मार्थ कुशलः (2.1) | ||
+ | *महाबुद्धे (3.1) | ||
+ | *महामते (4.50) | ||
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+ | इन विशेषणों से ही स्पष्ट है कि विदुर परम विद्वान , दूर तक की सोचने वाले , राजनीति – धर्मनीति को भली-भांति जानने वाले , उदार चित्त , एकमात्र महाबुद्धिमान और महामतिवान थे। इतने गुणों से सम्पन्न विदुर ने धृतराष्ट्र को यह नीति-उपदेश ही नहीं दिया किन्तु राजघराने की समस्याओं को भी सुलझाया – | ||
− | + | #पांडवों की कठिन परिस्थितियों में उनमें वह लगन भी पैदा की जिससे प्रत्येक पांडुपुत्र अपने-अपने क्षेत्र में आर्यावर्त का सर्वश्रेष्ठ व्यक्ति सिद्ध हुआ। | |
+ | #लाक्षागृह के षड्यन्त्र से पांडवों को विदुर ने ही बचाया था। | ||
+ | #जनमत की प्रबलता को आधार बनाकर पुत्रमोह में फंसे धृतराष्ट्र को – पांडवों को कुलवधू द्रौपदी एवं माता कुंती के साथ हस्तिनापुर बुलाया जाए और पूर्ण औपचारिकता के साथ उनका स्वागत किया जाए , जिसे विदुर जी ने पूरा किया। | ||
+ | #वे आदि से अंत तक कुरु राज्य के प्रति निष्ठावान् रहे , किन्तु इसके साथ ही सदैव निर्भीक होकर धर्म का पक्ष लेते रहे। | ||
− | + | युद्ध टालने का अंतिम प्रयास करने के लिए पांडवों के दूत बनकर आए “श्री कृष्ण’’ ने कुरु राजमहल का आतिथ्य स्वीकार न करके विदुर के यहां ठहरना उचित समझा। इसीलिए आचार्य विदुर महात्मा विदुर माने जाते हैं। इस प्रकार कुरु राजघराने की समस्याओं के अंगस्वरूप महात्मा विदुर का जन्म हुआ और वह आजीवन कुरु राजघराने की समस्याओं को सुलझाने का प्रयास करते रहे। इस प्रकार महात्मा विदुर ने आजीवन नीतिशास्त्र का पालन किया। | |
− | == विदुरनीति का वर्गीकरण == | + | ==विदुरनीति का वर्गीकरण== |
− | === पारिवारिक नीति === | + | ===पारिवारिक नीति=== |
− | === सामाजिक नीति === | + | ===सामाजिक नीति=== |
− | === आचारनीति === | + | ===आचारनीति=== |
− | === राजनीति === | + | ===राजनीति=== |
− | === अर्थनीति === | + | ===अर्थनीति=== |
− | == | + | ==निष्कर्ष== |
+ | विदुर नीति नीति शास्त्र में एक प्रतिष्ठित और महत्वपूर्ण स्थान रखती है। यह न केवल शासकों के लिए, बल्कि सामान्य व्यक्ति के लिए भी एक मार्गदर्शक ग्रंथ है, जो नैतिकता, धर्म, और न्याय के सिद्धांतों का पालन करने की प्रेरणा देता है। विदुर नीति के सिद्धांत आज भी भारतीय समाज में आदर्श माने जाते हैं और नीति शास्त्र के अध्ययन में इसका महत्वपूर्ण योगदान है। | ||
− | == उद्धरण == | + | ==उद्धरण== |
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+ | <references /> |
Revision as of 09:09, 26 August 2024
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भारतीय ज्ञान परंपरा में नीतिशास्त्र के अन्तर्गत विदुर नीति का विशेष महत्व है। धर्म के अवतार महात्मा विदुर अत्यन्त बुद्धिमान, धर्मज्ञ, ईश्वर भक्त, नीतिनिपुण व व्यवहार कुशल थे। महात्मा विदुर ने राज्य-शासन की नीति से सम्बन्धित अनेक बातें कही हैं, जो आज भी हमारे लिए वैसी ही लाभदायक हैं। महाभारत में उद्योग पर्व के 33वें से 44वें अध्याय तक नीति सम्बन्धी उपदेश संग्रहित हैं इसमें महात्मा विदुर ने राजा धृतराष्ट्र को लोक परलोक की बहुत सी बातें बतायी हैं। विदुर नीति में उन सिद्धांतों और नीतियों का वर्णन किया गया है जिन्हें किसी भी राजा, शासक या सामान्य व्यक्ति को अपने जीवन में अपनाना चाहिए।
परिचय
महात्मा विदुर धृतराष्ट्र और पाण्डु के छोटे भ्राता थे, ये दासी पुत्र थे इस कारण ये राज्य के अधिकारी नहीं हुए। पाण्डु की मृत्यु के पश्चात् जब धृतराष्ट्र राजा बने तब ये उनके मंत्री बने। विदुर नीति के तो पंडित थे ही इनकी बनायी गई विदुर नीति एक प्रामाणिक नीति मानी गई। नीति निपुण विदुर सदा धर्म के पक्ष में रहते अधर्म का खण्डन तो ये सभा के मध्य भी कर देते थे। पाण्डवों को जब बारह वर्ष का वनवास और एक वर्ष का अज्ञातवास हुआ तो ये बड़े दुःखी हुए। विदुर जानते थे कि युद्ध विनाशकारी होगा, क्योंकि महाराज धृतराष्ट्र तो अपने पुत्र मोह में इस प्रकार बंध चुके थे कि वे कोई समाधान नहीं खोज पा रहे थे। दुर्योधन अपनी जिद पर अड़ा था। द्यूत क्रीडा की शर्त के अनुसार पांडवों ने बारह वर्ष का वनवास और एक वर्ष का अज्ञातवास पूर्ण करने के बाद जब अपना राज्य वापस मांगा तो पुत्र मोह में बँधे धृतराष्ट्र उन्हें कोई निर्णायक उत्तर नहीं दे पाये। द्यूत क्रीडा के समय भी विदुर ने धृतराष्ट्र को चेतावनी दी थी कि यदि यह खेल समाप्त नहीं किया गया तो अनर्थ हो जायेगा और हस्तिनापुर को विनाश की कगार से कोई नहीं बचा सकता। विदुर नीति युद्ध की नीति न होकर जीवन में प्रेम व्यवहार की नीति के रूप में अपना विशेष स्थान रखती है। जिस प्रकार चाणक्य नीति राजनीतिज्ञ सिद्धान्तों से ओत प्रोत है वहीं विदुर नीति सत् असत् की दृष्टि से विशेष महत्त्व रखती है। विदुर सदा सत् विचारों का ही परामर्श देते। देखा जाय तो महाराज धृतराष्ट्र और विदुर के बीच ये कैसा संयोग था धृतराष्ट्र अपने पुत्र मोह में फंसे थे इसके विपरीत विदुर अपनी नीति में बँधे हुए थे। जब महाभारत का युद्ध प्रारम्भ हुआ तो ये किसी तरफ भी नहीं हुए, लेकिन मन से ये सदा पांडवों के पक्ष में थे और समय समय पर उन्होंने पांडवों की सहायता की तथा उन्हें कई विपत्तियों से भी बचाया।[1]
विदुर नीति-वर्ण्यविषय
नीति की चर्चा महाभारत में कई स्थलों पर आयी। महाभारत में वर्णन आता है कि धृतराष्ट्र ने पुत्र मोह में कई बार पांडवों के साथ अन्याय किया। इसी वजह से धृतराष्ट्र बहुत दुःखी थे तब उन्होंने अपनी चिन्ता मिटाने के लिए विदुर से उपाय पूछा। विदुर ने जो भी उपदेश धृतराष्ट्र को दिये, वह विदुर नीति के नाम से प्रसिद्ध हुई। महाभारत में उद्योग पर्व के 33वें से 44वें अध्याय तक नीति सम्बन्धी उपदेश संग्रहित हैं इसमें महात्मा विदुर ने राजा धृतराष्ट्र को लोक परलोक की बहुत सी बातें बतायी हैं। प्रस्तुत अध्याय में आप विदुर द्वारा प्रदत्त नीतियों का सूक्ष्म रूप में अध्ययन करेंगे -[2]
1- विदुर ने अपनी नीति में पंडितों के विषय में कहा है -
निश्चित्य यः प्रक्रमते नान्तर्वसति कर्मण। अबन्ध्यकालो वश्यात्मा स वै पण्डित उच्यते॥ (विदुर नीति 1-29)
जो व्यक्ति पहले निश्चय अर्थात् अच्छी प्रकार सोच समझकर फिर कार्य का आरम्भ करता है, कार्य के प्रारम्भ होने के पश्चात् बीच में रूकता नहीं है। अपने समय का सदुपयोग करता है अर्थात् समय को व्यर्थ नहीं जाने देता और अपने चित्त अर्थात् मन को अपने वश में रखता है वही पण्डित कहलाता है। 2- विदुर ने अपने ज्येष्ठ भ्राता धृतराष्ट्र को नीति सम्मत कई उपदेश दिये। विदुर ने मूर्ख के विषय में बताते हुए कहा है -
अकामान् कामयति यः कामयानान् परित्यजेत्। बलवन्तं च या द्वेष्टि तमाहुर्मूढचेतसम्॥ (विदुर नीति 1-38)
जो मनुष्य न चाहने वालों को चाहता है और चाहने योग्य लोगों का परित्याग कर देता है, तथा जो बलवानों के साथ शत्रुवत् बैर बाँधता है, उसे ही के अनुसार मूर्खचित्त वाला मनुष्य कहते हैं। 3- विदुर ने अपनी नीति में कुछ आध्यात्मिक प्रसंगों का वर्णन भी किया है, शरीर रूपी को रूपक मानकर विदुर कहते हैं -
रथः शरीरं पुरूषस्य राजन्नात्मा नियन्तेन्द्रियाण्यस्य चाश्वाः। तैरप्रमत्तः कुशली सदश्चैर्दान्तैः सुखं याति रथीव धीरः॥ (विदुर नीति 4-59)
विदुर कहते हैं कि मनुष्य का शरीर ही रथ है। उस रथ रूपी शरीर में बुद्धिसारथि है, और इंद्रियां अश्व हैं, अश्वों को अपने वश में करके सावधान, चातुर्य एवं धीर पुरूष एक रथी की भाँति आनंद पूर्वक जीवन की यात्रा करता है। 4- नारी के विषय में बताते हुए विदुर कहते हैं -
पूजनीया महाभागाः पुण्याश्च गृहदीप्तयः। स्त्रियः श्रियो गृहस्योक्तास्तस्माद्रक्ष्या विशेषतः॥ (विदुर नीति
विदुर ने अपनी नीति में कहा है कि नारियाँ घर की लक्ष्मी होती हैं, वे सदा पूजनीया हैं, अत्यन्त भाग्य स्वरूपा हैं, पुण्यशीला हैं। नारियों के इन गुणों से घर की शोभा में वृद्धि अर्थात् घर सुशोभित होता है। अतः वे विशेष रूप से योग्य है। 4- नारी के विषय में बताते हुए विदुर कहते हैं -
पूजनीया महाभागाः पुण्याश्च गृहदीप्तयः। स्त्रियः श्रियो गृहस्योक्तास्तस्माद्रक्ष्या विशेषतः॥
विदुर ने अपनी नीति में कहा है कि नारियाँ घर की लक्ष्मी होती हैं, वे सदा पूजनीया हैं, अत्यन्त भाग्य स्वरूपा हैं, पुण्यशीला हैं। नारियों के इन गुणों से घर की शोभा में वृद्धि अर्थात् घर सुशोभित होता है। अतः वे विशेष रूप से योग्य है। 5- दीर्घदर्शी विदुर के अनुसार नीतियुक्त कथन न तो कहना अच्छा है और न सुनना अच्छा है। यही सब बातें धृतराष्ट्र विदुर को बताते हुए कहते हैं -
सुलभाः पुरूषा राजन् सततं प्रियवादिनः । अप्रियस्य तु पथ्यस्य वक्ता श्रोता च दुर्लभः॥
विदुर जी कहते हैं कि राजा के समक्ष सदा प्रिय मधुर वचन बोलने वाले पुरूष तो सुलभ हैं अर्थात् बहुत मिल जाते हैं। किन्तु राजा के समक्ष अप्रिय वचन अर्थात् उसको निन्दित लगने वाले हितकारी वचन को कहने वाले तथा उन वचनों को सुनने वाले मनुष्य दुर्लभ हैं। कहने का तात्पर्य यह है जो अप्रिय लगने वाले हितकारी वचन बोलते हैं ऐसे लोग ना के बराबर मिलते हैं। 6- महात्मा विदुर ने विद्यार्थी के विषय में कहा है-
सुखार्थिनः कुतो विद्या नास्ति विद्यार्थिनः सुखम्। सुखार्थी वा त्यजेद् विद्यां विद्यार्थी वा त्यजेद् सुखम्॥
विदुर जी कहते हैं जो विद्यार्थी और सुखार्थी हैं ये अलग-अलग पहलू व एक दूसरे के विपरीत हैं विद्यार्थी के लिए सुख कहाँ अर्थात् विद्यार्थी को सुख की प्राप्ति नहीं होती है। जो विद्यार्थी सुख की कामना करता है वह विद्या को प्राप्त नहीं कर सकता है कहने का तात्पर्य यह है कि सुख की कामना करने वाले विद्यार्थी को विद्या का त्याग कर देना चाहिए। क्योंकि विद्या के साथ-साथ सुखों की प्राप्तिनहीं हो सकती। वास्तव में देखा जाय तो महात्मा विदुर ने जो भी उपदेश राजा धृतराष्ट्र को दिये वे सभी नीति परक व राष्ट्र के कल्याण के लिए हितकारी हैं। राजा धृतराष्ट्र कहते हैं कि मैं भी मानता हूँ कि जो धर्म के पक्ष में है विजय उसी की है, मैं भी पाण्डवों के प्रति नीति से पूर्ण बुद्धि रखता हूँ लेकिन पुत्र मोह में फँसकर मैं उसका पालन नहीं कर सका, यही सब बातें महाभारत के उद्योग पर्व में विदुर नीति के नाम से प्रसिद्ध हुई।
महात्मा विदुर
विदुर जी कि नीति में व्यवहार, नीति, सदाचार, धर्म, न्याय, सत्य, अहिंसा आदि सभी कुछ आ जाता है। विदुर के व्यक्तित्व का कितना सम्मान था ये उनके लिये प्रयुक्त संबोधनों से भी प्रकट है –
- महाप्राज्ञं , दीर्घदर्शिनः (श्लो० 1.5)
- त्वमेक प्रज्ञासम्मतः (1.15)
- धर्मार्थ कुशलः (2.1)
- महाबुद्धे (3.1)
- महामते (4.50)
इन विशेषणों से ही स्पष्ट है कि विदुर परम विद्वान , दूर तक की सोचने वाले , राजनीति – धर्मनीति को भली-भांति जानने वाले , उदार चित्त , एकमात्र महाबुद्धिमान और महामतिवान थे। इतने गुणों से सम्पन्न विदुर ने धृतराष्ट्र को यह नीति-उपदेश ही नहीं दिया किन्तु राजघराने की समस्याओं को भी सुलझाया –
- पांडवों की कठिन परिस्थितियों में उनमें वह लगन भी पैदा की जिससे प्रत्येक पांडुपुत्र अपने-अपने क्षेत्र में आर्यावर्त का सर्वश्रेष्ठ व्यक्ति सिद्ध हुआ।
- लाक्षागृह के षड्यन्त्र से पांडवों को विदुर ने ही बचाया था।
- जनमत की प्रबलता को आधार बनाकर पुत्रमोह में फंसे धृतराष्ट्र को – पांडवों को कुलवधू द्रौपदी एवं माता कुंती के साथ हस्तिनापुर बुलाया जाए और पूर्ण औपचारिकता के साथ उनका स्वागत किया जाए , जिसे विदुर जी ने पूरा किया।
- वे आदि से अंत तक कुरु राज्य के प्रति निष्ठावान् रहे , किन्तु इसके साथ ही सदैव निर्भीक होकर धर्म का पक्ष लेते रहे।
युद्ध टालने का अंतिम प्रयास करने के लिए पांडवों के दूत बनकर आए “श्री कृष्ण’’ ने कुरु राजमहल का आतिथ्य स्वीकार न करके विदुर के यहां ठहरना उचित समझा। इसीलिए आचार्य विदुर महात्मा विदुर माने जाते हैं। इस प्रकार कुरु राजघराने की समस्याओं के अंगस्वरूप महात्मा विदुर का जन्म हुआ और वह आजीवन कुरु राजघराने की समस्याओं को सुलझाने का प्रयास करते रहे। इस प्रकार महात्मा विदुर ने आजीवन नीतिशास्त्र का पालन किया।
विदुरनीति का वर्गीकरण
पारिवारिक नीति
सामाजिक नीति
आचारनीति
राजनीति
अर्थनीति
निष्कर्ष
विदुर नीति नीति शास्त्र में एक प्रतिष्ठित और महत्वपूर्ण स्थान रखती है। यह न केवल शासकों के लिए, बल्कि सामान्य व्यक्ति के लिए भी एक मार्गदर्शक ग्रंथ है, जो नैतिकता, धर्म, और न्याय के सिद्धांतों का पालन करने की प्रेरणा देता है। विदुर नीति के सिद्धांत आज भी भारतीय समाज में आदर्श माने जाते हैं और नीति शास्त्र के अध्ययन में इसका महत्वपूर्ण योगदान है।
उद्धरण
- ↑ पं० माधवप्रसाद व्यास, विदुरनीति 1-37, सन् 1952, भार्गवपुस्तकालय, गायघाट, वाराणसी (पृ० 13)।
- ↑ शोध गंगा - वीणा महाजन, विदुर नीति के विशेष संदर्भ में भारतीय नीतिशास्त्र का अध्ययन, शोध केंद्र - पंजाब विश्वविद्यालय (पृ० 205)।