Changes

Jump to navigation Jump to search
m
no edit summary
Line 129: Line 129:     
=== व्यायाम॥ Vyayama ===
 
=== व्यायाम॥ Vyayama ===
{{Main|Vyayama_(व्यायामम्)}}
+
{{Main|Vyayama_(व्यायामम्)}}जीवनचर्या में व्यायाम का वही महत्त्व है जैसा कि भोजन का। जैसे शरीर को जीवित रखने के लिये प्रतिदिन भोजन की आवश्यकता है इसी प्रकार उस खाये हुए भोजन को पचाने के लिये व्यायाम भी अनिवार्य है। एक सनातनधर्मी के हृदय में स्नान संध्या भगवदुपासना के लिए जितनी श्रद्धा और प्रेम है उतना ही व्यायाम के लिये भी है।  हमारे देश के प्राचीन से प्राचीन ग्रन्थों के अवलोकन से यह स्पष्ट हो जाता है कि यहां व्यायाम प्रारम्भ काल से ही व्याप्त है। व्यायाम के मुख्य प्रकार थे- सूर्य नमस्कार, आसन, डंड बैठक, मुग्दर परिचालन, गदाअ, मल्लयुद्ध आदि का विशेष प्रचार-प्रसार था।
 +
 
 +
भारतीय व्यायाम दो बृहद् भागों में एवं कई उपविभागों में विभाजित हैं। दोनों का उद्देश्य है शारीरिक उन्नति। किन्तु उन दोनों प्रकार के व्यायामों में एक भाग आसन एवं दूसरा व्यायाम के नाम से पुकारा जाता है। आसनों का कार्य शरीर को निर्मल, निरोग, एवं उन कारणों को जिनसे रोग उत्पन्न होते हैं उन्हैं दूर करके शारीरिक उन्नति करना।
    
=== तैलाभ्यंग॥ Tailabhyanga ===
 
=== तैलाभ्यंग॥ Tailabhyanga ===
Line 142: Line 144:     
=== पूजाविधान॥ pujavidhana ===
 
=== पूजाविधान॥ pujavidhana ===
 +
 +
 +
जिससे पवित्र हुआ जाये, जो आत्मा को पवित्र करे, दुर्विचारों को दूर करे तथा पापकर्मों से बचाकर जो पुण्य कर्मों या शुभ क्रियाओं में लगाये वह पूजा है। भाव पूजा एवं द्रव्य पूजा के भेद से पूजा के दो प्रकार होते हैं। पूजा का वास्तविक स्वरूप है पूज्य के आदर्श को अनुकरण करके उसके सद्गुणों का स्वयं भी ग्रहण करना चाहिये।
    
=== योगसाधना॥ yoga sadhana ===
 
=== योगसाधना॥ yoga sadhana ===
Line 168: Line 173:     
=== लोक संग्रह-व्यवहार-जीविका॥ Loka sangraha- Vyavahara jivika ===
 
=== लोक संग्रह-व्यवहार-जीविका॥ Loka sangraha- Vyavahara jivika ===
 +
प्रतिदिन भोजन के बाद प्रत्येक व्यक्ति (चाहे वह खी हो या पुरुष) को स्व कर्म मे लग जाना चाहिए। दो याम (छः घण्टा) दिन मे जीवन निर्वाह हेतु सत्य-श्रम-अहिंसा-अक्रोध-अलोभ-विद्या-बुद्धि-प्रतिभा-वैभव द्वारा धनार्जन का उपक्रम करना चाहिए। व्यक्ति जो कुछ अर्जित करता है वह केवल अपने लिए नही; बल्कि अपनी योग्यता से अपने पाल्य (आश्रित) जनो, परिवार, समाज, जनपद, राज, राष्ट ओर समस्त मानवता के लिए अर्जित करता हे। अतः लोकव्यवहार संचालन के लिए तथा अपनी गृहस्थी को चलाने के लिए प्रत्येक व्यक्ति को प्रतिदिन अवश्य ही परिश्रम करना चाहिए। चित्त संयमित और वित्त न्यायोपार्जित होना चाहिए।
 +
 +
==== धनार्जन के माध्यम ====
 +
धन कमाने के अनेक माध्यम हें। ये माध्यम सहस्राधिक हँ। इन माध्यम को अनेक क्रमों में विभाजित ओर परिसमूहित किया जाता है-
 +
 +
* भूमिज कर्म- पृथ्वी से धन प्राप्त करना।
 +
* अन्तरिक्षज कर्म- आकाश का दोहन कर धन प्राप्त करना।
 +
* अग्निज कर्म- अग्नि के माध्यम से धन प्राप्त करना।
 +
* दैवज (ब्राह्य.) कर्म- धर्म, यज्ञ, पूजन, मंत्र, शिक्षा से धनार्जन करना।
 +
* वारुण कर्म- जल के माध्यम से धनार्जन करना।
 +
 +
इन पच संविभागो मे मनुष्य के पुरुषार्थं से उत्पन्न सभी कर्म (लोक व्यवहार ओर जीविका आदि) समाहित होते है। भूमिज कर्म का विस्तार ही मनुष्य के लिए अनन्त प्रकार के कर्मो को जन्म देता हे।
    
=== संध्या-गोधूलि-प्रदोष॥ sayam Sandhya ===
 
=== संध्या-गोधूलि-प्रदोष॥ sayam Sandhya ===
924

edits

Navigation menu