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− | प्राचीन भारतीय आध्यात्मिक साहित्यों में उल्लेखित विभिन्न योग साधनाओं में मन्त्र साधना को ध्यान साधना में सबसे सुगम एवं सरल बताया गया है। भारतीय संस्कृति में मंत्रों का विशेष महत्व रहा है। जब भी कोई धार्मिक कार्य पूजा पाठ आदि किया जाता है तो वह मन्त्रोच्चारण के साथ ही प्रारंभ होता है। प्रत्येक शब्द स्वयं में स्पन्दन धारित होता है उच्चारित करने पर विशिष्ट ध्वनि, तरंग एवं कम्पन को जन्म देता है। मंत्र अति विशिष्ट, महान स्पंदनों एवं शक्तिशाली आध्यात्मिक ऊर्जाओं से परिपूर्ण है। इस वाक्य की सहमति के रूपमें ऋग्वेद में भी वर्णित है कि जिस प्रकार सागर में तरंगें उठती है वैसे ही स्पंदन सहित वाक् की तरंगें भी गति करती हैं। | + | प्राचीन भारतीय आध्यात्मिक साहित्यों में उल्लेखित विभिन्न योग साधनाओं में मन्त्र साधना को ध्यान साधना में सबसे सुगम एवं सरल बताया गया है। भारतीय संस्कृति में मंत्रों का विशेष महत्व रहा है। जब भी कोई धार्मिक कार्य पूजा पाठ आदि किया जाता है तो वह मन्त्रोच्चारण के साथ ही प्रारंभ होता है। प्रत्येक शब्द स्वयं में स्पन्दन धारित होता है। उच्चारित करने पर विशिष्ट ध्वनि, तरंग एवं कम्पन को जन्म देता है। मंत्र अति विशिष्ट, महान स्पंदनों एवं शक्तिशाली आध्यात्मिक ऊर्जाओं से परिपूर्ण है। इस वाक्य की सहमति के रूपमें ऋग्वेद में भी वर्णित है कि जिस प्रकार सागर में तरंगें उठती है वैसे ही स्पंदन सहित वाक् की तरंगें भी गति करती हैं। मन्त्र अक्षरों का ऐसा दुर्लभ,विशिष्ट एवं अनोखा संयोग है, जो चेतना जगत को आन्दोलित, आलोडित एवं उद्वेलित करने में सक्षम होता है। मन्त्र जप का लाभ मानसिक ओजस्विता, बौद्धिक प्रखरता एवं आत्मिक वर्चस्व के रूप में तो मिलता ही है, भौतिक स्वास्थ्य भी उससे सहज ही उपलब्ध हो जाता है। मंत्र शब्द का अर्थ असीमित है। वैदिक छन्दोबद्ध ऋचाओं को भी मन्त्र कहा जाता है। |
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− | मन्त्र अक्षरों का ऐसा दुर्लभ,विशिष्ट एवं अनोखा संयोग है, जो चेतना जगत को आन्दोलित, आलोडित एवं उद्वेलित करने में सक्षम होता है। मन्त्र जप का लाभ मानसिक ओजस्विता, बौद्धिक प्रखरता एवं आत्मिक वर्चस्व के रूप में तो मिलता ही है, भौतिक स्वास्थ्य भी उससे सहज ही उपलब्ध हो जाता है। मंत्र शब्द का अर्थ असीमित है। वैदिक छन्दोबद्ध ऋचाओं को भी मन्त्र कहा जाता है।
| + | == परिचय == |
− | ==परिचय== | + | मन्त्र विज्ञान ध्वनि के विद्युत रूपान्तरण की विशिष्ट विधि व ध्यान साधना है। मन्त्र महान स्पन्दनों तथा शक्तिशाली आध्यात्मिक ऊर्जाओं से परिपूर्ण है जो साधक के मन, चेतना तथा बुद्धि की शुद्धता के लिये पूर्ण संतुष्टि प्रदान करता है। मंत्रों की सकारात्मक ऊर्जा मानव चरित्र को श्रेष्ठ बनाने में सहायक होती थी। मानसिक विद्रूपताओं को मन्त्रोच्चारण दूर हटाता है। व्यक्ति को आत्म विकास से भरने में मंत्रशक्ति अत्यंत महत्वपूर्ण है। प्राचीन मान्यता रही है कि मंत्रों के प्रभाव से अग्नि प्रज्ज्वलित हो जाया करती थी। भारतीय संगीत में दीपक राग के गायन से भी अग्नि उत्पन्न करने का उल्लेख भिन्न-भिन्न रूपों में मिलता है। चिकित्सकीय परिणामों के सन्दर्भ यदि अग्नि उत्पन्न करने का प्रयोग देखा जाए तो शारीरिक तापक्रम में वृद्धि से अभिप्राय निकाला जा सकता है। मंत्रों को प्रभावशाली बनाने के लिये केवल वाणी ही पर्याप्त नहीं है, उसके साथ हृदय-अन्तःकरण की शक्तिजुडनी चाहिये जो तप साधना द्वारा जागृत की जाती है। |
− | मन्त्र विज्ञान ध्वनि के विद्युत रूपान्तरण की विशिष्ट विधि व ध्यान साधना है। मन्त्र महान स्पन्दनों तथा शक्तिशाली आध्यात्मिक ऊर्जाओं से परिपूर्ण है जो साधक के मन, चेतना तथा बुद्धि की शुद्धता के लिये पूर्ण संतुष्टि प्रदान करता है। | |
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− | मंत्रों की सकारात्मक ऊर्जा मानव चरित्र को श्रेष्ठ बनाने में सहायक होती थी। मानसिक विद्रूपताओं को मन्त्रोच्चारण दूर हटाता है। व्यक्ति को आत्म विकास से भरने में मंत्रशक्ति अत्यंत महत्वपूर्ण है। | |
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− | प्राचीन मान्यता रही है कि मंत्रों के प्रभाव से अग्नि प्रज्ज्वलित हो जाया करती थी। भारतीय संगीत में दीपक राग के गायन से भी अग्नि उत्पन्न करने का उल्लेख भिन्न-भिन्न रूपों में मिलता है। चिकित्सकीय परिणामों के सन्दर्भ यदि अग्नि उत्पन्न करने का प्रयोग देखा जाए तो शारीरिक तापक्रम में वृद्धि से अभिप्राय निकाला जा सकता है। | |
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− | मंत्रों को प्रभावशाली बनाने के लिये केवल वाणी ही पर्याप्त नहीं है, उसके साथ हृदय-अन्तःकरण की शक्तिजुडनी चाहिये जो तप साधना द्वारा जागृत की जाती है। | |
| ==परिभाषा== | | ==परिभाषा== |
− | रुद्रयामल में मंत्र के विषयमें वर्णन है कि मनन करने से सृष्टि का सत्य रूप ज्ञात हो, भव बंधनों से मुक्ति मिले एवं जो सफलता के मार्ग पर आगे बढाये उसे मन्त्र कहते हैं- | + | रुद्रयामल में मंत्र के विषयमें वर्णन है कि मनन करने से सृष्टि का सत्य रूप ज्ञात हो, भव बंधनों से मुक्ति मिले एवं जो सफलता के मार्ग पर आगे बढाये उसे मन्त्र कहते हैं-<blockquote>मननात् त्रायतेति मंत्रः।</blockquote>मंत्र शब्द मन् एवं त्र के संधि योग से बना हुआ है। यहाँ त्र का अर्थ चिंतन या विचारों की मुक्ति से है। अतः मंत्र का पर्याय हुआ मन के विचारों से मुक्ति। जो शक्ति मन को बन्धन से मुक्त कर दे वही मन्त्र योग है। मानसिक एवं शारीरिक एकात्म ही मन्त्र के प्रभाव का आधार है। मंत्रों का उच्चारण एवं उसका जाप शरीर, मनस और प्रकृति पर सकारात्मक प्रभाव डालता है।<ref>अवधेश प्रताप सिंह तोमर जी, संगीत चिकित्सा पद्धति के क्षेत्र में हुई और हो रही शोध विषयक एक अध्यनात्मक दृष्टि, (शोध गंगा)सन् २०१६, डॉ० हरिसिंह गौर विश्वविद्यालय, अध्याय- ०१, (पृ०११)।</ref><blockquote>मननं विश्वविज्ञानं त्राणं संसारबन्धनात्। यतः करोति संसिद्धो मंत्र इत्युच्यते ततः॥ </blockquote>यास्क मुनि का कथन है। अर्थात् मंत्र वह वर्ण समूह है जिसका बार-बार मनन किया जाय और सोद्देश्यक हो। अर्थात् जिससे मनोवांछित फल की प्राप्ति हो। |
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− | मननात् त्रायतेति मंत्रः।
| + | == मन्त्र का महत्व == |
| + | मन्त्रशास्त्र के साथ अन्तःकरणका बहुत घनिष्ठ सम्बन्ध है। मन्त्रमें जो शक्ति निहित रहती है, वह शक्ति मन्त्रके आश्रयसे [[Antahkarana Chatushtaya (अन्तःकरणचतुष्टयम्)|अन्तःकरण]] में प्रकट हो जाती है। योग में मन्त्र साधना का विशेष महत्वपूर्ण स्थान है। मन्त्र साधना को योग साधना में सबसे सुगम एवं सरल बताते हुये, समस्त योगी ऋषि-मुनि मंत्र साधना के अस्तित्व को स्वीकार किया है।<ref>Karnick CR. Effect of mantras on human beings and plants. Anc Sci Life. 1983 Jan;2(3):141-7. PMID: 22556970; PMCID: PMC3336746.</ref> |
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− | मंत्र शब्द मन् एवं त्र के संधि योग से बना हुआ है। यहाँ त्र का अर्थ चिंतन या विचारों की मुक्ति से है। अतः मंत्र का पर्याय हुआ मन के विचारों से मुक्ति। जो शक्ति मन को बन्धन से मुक्त कर दे वही मन्त्र योग है। मानसिक एवं शारीरिक एकात्म ही मन्त्र के प्रभाव का आधार है। मंत्रों का उच्चारण एवं उसका जाप शरीर, मनस और प्रकृति पर सकारात्मक प्रभाव डालता है।<ref>अवधेश प्रताप सिंह तोमर जी, संगीत चिकित्सा पद्धति के क्षेत्र में हुई और हो रही शोध विषयक एक अध्यनात्मक दृष्टि, (शोध गंगा)सन् २०१६, डॉ० हरिसिंह गौर विश्वविद्यालय, अध्याय- ०१, (पृ०११)।</ref>
| + | मन्त्रो हि गुप्त विज्ञानः। सर्वे बीजात्मकाः वर्णाः मंत्राः ज्ञेयाः शिवात्मिकाः। साधक साधन साध्य विवेकः मन्त्रः। प्रयोगसमवेतार्थस्मारकाः मंत्राः। मननात्तत्वरूपस्य देवस्यामिततेजसः। त्रायते सर्वदुःखेभ्यस्तस्मान्मंत्र इतीरितः॥ |
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− | यास्क मुनि का कथन है। अर्थात् मंत्र वह वर्ण समूह है जिसका बार-बार मनन किया जाय और सोद्देश्यक हो। अर्थात् जिससे मनोवांछित फल की प्राप्ति हो।
| + | मन्यते ज्ञायते आत्मादि येन तन्मन्त्रः॥ |
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− | मन्त्रो हि गुप्त विज्ञानः। सर्वे बीजात्मकाः वर्णाः मंत्राः ज्ञेयाः शिवात्मिकाः। साधक साधन साध्य विवेकः मन्त्रः। प्रयोगसमवेतार्थस्मारकाः मंत्राः।मननात्तत्वरूपस्य देवस्यामिततेजसः। त्रायते सर्वदुःखेभ्यस्तस्मान्मंत्र इतीरितः॥ मननं विश्वविज्ञानं त्राणं संसारबन्धनात् ।यतः करोति संसिद्धो मंत्र इत्युच्यते ततः॥ मन्यते ज्ञायते आत्मादि येन तन्मन्त्रः॥
| + | == मन्त्र योग == |
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− | == मन्त्र का महत्व ==
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− | मन्त्रशास्त्र के साथ अन्तःकरणका बहुत घनिष्ठ सम्बन्ध है। मन्त्रमें जो शक्ति निहित रहती है, वह शक्ति मन्त्रके आश्रयसे [[Antahkarana Chatushtaya (अन्तःकरणचतुष्टयम्)|अन्तःकरण]] में प्रकट हो जाती है।
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− | योग में मन्त्र साधना का विशेष महत्वपूर्ण स्थान है। मन्त्र साधना को योग साधना में सबसे सुगम एवं सरल बताते हुये, समस्त योगी ऋषि-मुनि मंत्र साधना के अस्तित्व को स्वीकार किया है।
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− | ==मन्त्र योग==
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| मनन करने से जो हमारी रक्षा करता है उसे मन्त्रयोग कहते हैं। मन्त्रयोग के द्वारा हम अपने भावों को शुद्ध करते हैं, चित्त की चंचलता को कम करते हैं। इस प्रकार मन्त्रयोग की प्रथम साधना के द्वारा योग साधक अधम स्थिति से मध्यम स्थिति पर आ जाये तथा बुद्धि शुद्ध व चैतन्य हो जाये। मन्त्र योग की साधना करने से मन एकाग्र होकर प्राण सुषुम्ना में प्रवेश कर जाता है तथा चित्त की वृत्तियों का निरोध होता है। मन्त्रयोग के द्वारा सुषुम्ना मार्ग खुल जाता है और कुण्डलिनी शक्ति सहस्रार में सहजता से पहुँच जाती है एवं मन्त्रयोग के द्वारा सुषुम्ना मार्ग शुद्ध हो जाता है।<blockquote>मंत्रजपान्मनोलयो मंत्रयोगः।</blockquote>निरन्तर सिद्ध मंत्र का जाप करते हुये, मन जब अपने आराध्य के ध्यान में तन्मयता से लय भाव प्राप्त कर लेता है, उस अवस्था को मंत्र योग कहते हैं। मंत्र नाद ब्रह्म का प्रतीक है। मंत्र वह है जिसमें मानसिक एकाग्रता एवं निष्ठा का सम्पूर्ण समागम हो। जिसकी रहस्यमय क्षमता पर गहन श्रद्धा हो तथा जिसका अनावश्यक विज्ञापन न करके गोपनीय रखा जाय।<blockquote>मननात् त्राणनाच्चैव मद्रपस्यावबोध नात्। मंत्र इत्युच्यते सम्यक् मदधिष्ठानत प्रिये॥(रुद्रयामल)</blockquote>अर्थ-<blockquote>भवन्ति मन्त्रयोगस्य षोडशांगानि निश्चितम्। यथा सुधांशोर्जायन्ते कला षोडशशोभना॥ | | मनन करने से जो हमारी रक्षा करता है उसे मन्त्रयोग कहते हैं। मन्त्रयोग के द्वारा हम अपने भावों को शुद्ध करते हैं, चित्त की चंचलता को कम करते हैं। इस प्रकार मन्त्रयोग की प्रथम साधना के द्वारा योग साधक अधम स्थिति से मध्यम स्थिति पर आ जाये तथा बुद्धि शुद्ध व चैतन्य हो जाये। मन्त्र योग की साधना करने से मन एकाग्र होकर प्राण सुषुम्ना में प्रवेश कर जाता है तथा चित्त की वृत्तियों का निरोध होता है। मन्त्रयोग के द्वारा सुषुम्ना मार्ग खुल जाता है और कुण्डलिनी शक्ति सहस्रार में सहजता से पहुँच जाती है एवं मन्त्रयोग के द्वारा सुषुम्ना मार्ग शुद्ध हो जाता है।<blockquote>मंत्रजपान्मनोलयो मंत्रयोगः।</blockquote>निरन्तर सिद्ध मंत्र का जाप करते हुये, मन जब अपने आराध्य के ध्यान में तन्मयता से लय भाव प्राप्त कर लेता है, उस अवस्था को मंत्र योग कहते हैं। मंत्र नाद ब्रह्म का प्रतीक है। मंत्र वह है जिसमें मानसिक एकाग्रता एवं निष्ठा का सम्पूर्ण समागम हो। जिसकी रहस्यमय क्षमता पर गहन श्रद्धा हो तथा जिसका अनावश्यक विज्ञापन न करके गोपनीय रखा जाय।<blockquote>मननात् त्राणनाच्चैव मद्रपस्यावबोध नात्। मंत्र इत्युच्यते सम्यक् मदधिष्ठानत प्रिये॥(रुद्रयामल)</blockquote>अर्थ-<blockquote>भवन्ति मन्त्रयोगस्य षोडशांगानि निश्चितम्। यथा सुधांशोर्जायन्ते कला षोडशशोभना॥ |
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| भक्ति शुद्धिश्चासनं च पञ्चांगस्यापि सेवनम्। आचार धारणे दिव्यदेशसेवनमित्यपि॥ | | भक्ति शुद्धिश्चासनं च पञ्चांगस्यापि सेवनम्। आचार धारणे दिव्यदेशसेवनमित्यपि॥ |
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− | प्राणक्रिया तथा मुद्रा तर्पणं हवनं बलिः। यागो जपस्तथा ध्यानं समधिश्चेति षोडशः॥</blockquote>अर्थात् चन्द्रमा की १६ कलाओं के समान मन्त्रयोग के भी १६ अंग होते हैं। ये अंग इस प्रकार हैं- भक्ति, शुद्धि, आसन, पञ्चांगसेवन, आचार, धारणा, दिव्यदेशसेवन, प्राणक्रिया, मुद्रा, तर्पण, हवन, बलि, याग, जप, ध्यान और समाधि। सभी अंगों का संक्षिप्त परिचय इस प्रकार है- | + | प्राणक्रिया तथा मुद्रा तर्पणं हवनं बलिः। यागो जपस्तथा ध्यानं समधिश्चेति षोडशः॥<ref>गरिमा, दैव्यव्यपाश्रय चिकित्सा के परिप्रेक्ष्य में संस्कृत वांग्मय में वर्णित मन्त्रों का समीक्षात्मक अध्ययन, काशी हिन्दू विश्वविद्यालय(२०२०) अध्याय-०२। http://hdl.handle.net/10603/377274</ref></blockquote>अर्थात् चन्द्रमा की १६ कलाओं के समान मन्त्रयोग के भी १६ अंग होते हैं। ये अंग इस प्रकार हैं- भक्ति, शुद्धि, आसन, पञ्चांगसेवन, आचार, धारणा, दिव्यदेशसेवन, प्राणक्रिया, मुद्रा, तर्पण, हवन, बलि, याग, जप, ध्यान और समाधि। सभी अंगों का संक्षिप्त परिचय इस प्रकार है- |
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| '''भक्ति-''' इष्टदेव मन्त्र आदि में परम अनुराग को भक्ति कहते हैं। भक्ति तीन प्रकार की होती है- वैधी, रागाअत्मिका और परा। शास्त्रीय विधि एवं निषेध द्वारा निर्णीत धीर साधकों के द्वारा अपनायी गयी भक्ति वैधी कहलाती है। जिस भक्ति के रस का आस्वादन कर साधक भाव-सागर में डूब जाता है, उसे रागात्मिका भक्ति कहते हैं। परम आनन्ददायक भक्ति को पराभक्ति कहते हैं। | | '''भक्ति-''' इष्टदेव मन्त्र आदि में परम अनुराग को भक्ति कहते हैं। भक्ति तीन प्रकार की होती है- वैधी, रागाअत्मिका और परा। शास्त्रीय विधि एवं निषेध द्वारा निर्णीत धीर साधकों के द्वारा अपनायी गयी भक्ति वैधी कहलाती है। जिस भक्ति के रस का आस्वादन कर साधक भाव-सागर में डूब जाता है, उसे रागात्मिका भक्ति कहते हैं। परम आनन्ददायक भक्ति को पराभक्ति कहते हैं। |
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| '''शुद्धि-''' निर्मलता को शुद्धि कहा जाता है। मन्त्रसाधना में चार प्रकार की शुद्धियों पर बल दिया गया है। वे क्रमशः इस प्रकार हैं- कायशुद्धि, चित्तशुद्धि, दिक्शुद्धि एवं स्थान शुद्धि। | | '''शुद्धि-''' निर्मलता को शुद्धि कहा जाता है। मन्त्रसाधना में चार प्रकार की शुद्धियों पर बल दिया गया है। वे क्रमशः इस प्रकार हैं- कायशुद्धि, चित्तशुद्धि, दिक्शुद्धि एवं स्थान शुद्धि। |
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− | '''आसन-''' मन्त्रसिद्धि के लिये | + | '''आसन-''' मन्त्रसिद्धि के लिये सकाम एवं निष्काम कर्मों के भेद से तथा कामना के तारतम्य से आसन का निर्णय किया जाता है। जैसे- रेशम, कम्बल और [[Importance of kusha (कुशा का महत्त्व)|कुशा]] आदि। |
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− | '''पञ्चांगसेवन-''' | + | '''पञ्चांगसेवन-''' गीता, सहस्रनाम, स्तव, कवच एवं हृदय इन पाँचों को पञ्चांग कहते हैं। अपने-अपने सम्प्रदाय की गीता का स्वाध्याय, मनन एवं चिन्तन करने से, |
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− | '''आचार-''' | + | '''आचार-''' मन्त्रसाधना में मुख्यतया तीन प्रकार के आचार माने गये हैं- वामाचार, दक्षिणाचार तथा दिव्याचार। वाम एवं दक्षिण आचार परस्पर एक दूसरे से भिन्न होते हुये भी एक ही लक्ष्य पर ले जाते हैं। इनमें भेद यह है कि वामाचार प्रवृत्तिमूलक तथा दक्षिणाचार निवृत्तिमूलक है। प्रवृत्ति से निवृत्ति की ओर ले जाने वाला आचार दिव्याचार कहलाता है।गुरु शिष्य की प्रकृति, अभिरुचि एवं शक्ति का विचार कर काम्य एवं निष्काम उपासना के भेद पर ध्यान देकर आचार उपदेश देना चाहिये। |
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− | '''धारणा-''' | + | '''धारणा-''' बाह्य एवं आभ्यन्तर भेद से धारणा दो प्रकार की होती है। बाह्य वस्तुओं के साथ मनोयोग होने से बहिर्धारणा एवं अन्तर्जगत् के सूक्ष्म द्रव्यों के साथ मनोयोग होने से अन्तर्धारणा बनती है। धारणा की सिद्धि हो जाने पर मन्त्रसाधक को ध्यानसिद्धि एवं मन्त्रसिद्धि दोनों मिल जाती है। धारणासिद्धि की स्थूल एवं सूक्ष्म सभी प्रक्रियाओं को योगमर्मज्ञ गुरु से विधिवत् सीखकर मन्त्र-साधना करनी चाहिये। |
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− | '''दिव्यदेशसेवन-''' | + | '''दिव्यदेशसेवन-''' |
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| '''प्राणक्रिया-''' | | '''प्राणक्रिया-''' |
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| '''न्यास-''' विना न्यास के मन्त्र जप करने से जप निष्फल और विघ्नदायक कहा गया है। मन्त्र साधना में सफलता का मूल आधार चित्त की एकाग्रता है। चित्त को एकाग्र करने के लिये मन्त्रांगों के साथ मन्त्र का जाप करना विहित है। | | '''न्यास-''' विना न्यास के मन्त्र जप करने से जप निष्फल और विघ्नदायक कहा गया है। मन्त्र साधना में सफलता का मूल आधार चित्त की एकाग्रता है। चित्त को एकाग्र करने के लिये मन्त्रांगों के साथ मन्त्र का जाप करना विहित है। |
| + | ==मंत्र जाप की विधि== |
| + | मन्त्र विशेष को निरन्तर दोहराने को जप कहा जाता है। अग्निपुराण में जप के शाब्दिक अर्थ में ज को जन्म का विच्छेद और प को पापों का नाश बताया है। अर्थात् जिसके द्वारा जन्म-मरण एवं पापों का नाश हो वह जप है। जप को नित्य जप, नैमित्तिक जप, काम्य जप, निषिद्ध जप, प्रायश्चित्त जप, अचल जप, चल जप, वाचिक जप, उपांशु जप, भ्रामर जप, मानसिक जप, अखण्ड जप, अजपा जप एवं प्रदक्षिणा जप आदि से विभाजित किया गया है। |
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− | '''आसन-'''
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− | ==जप==
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− | मन्त्र विशेष को निरन्तर दोहराने को जप कहा जाता है। अग्निपुराण में जप के शाब्दिक अर्थ में ज को जन्म का विच्छेद और प को पापों का नाश बताया है। अर्थात् जिसके द्वारा जन्म-मरण एवं पापों का नाश हो वह जप है।
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− | जप को नित्य जप, नैमित्तिक जप, काम्य जप, निषिद्ध जप, प्रायश्चित्त जप, अचल जप, चल जप, वाचिक जप, उपांशु जप, भ्रामर जप, मानसिक जप, अखण्ड जप, अजपा जप एवं प्रदक्षिणा जप आदि से विभाजित किया गया है।
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− | ==मंत्र जाप की विधि==
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| अग्नि पुराण के अनुसार-<blockquote>उच्चैर्जपाद्विशिष्टः स्यादुपांशुर्दशभिर्गुणैः। जिह्वाजपे शतगुणः सहस्रो मानसः स्मृतः॥( अग्नि पु० २९३/९८)</blockquote>ऊँचे स्वर मेंकिये जाने वाले जाप की अपेक्षा मन्त्र का मूक जप दसगुणा विशिष्ट है। जिह्वा जप सौ गुणा श्रेष्ठ है और मानस जप हजार गुणा उत्तम है। अग्नि पुराण में वर्णन है कि मंत्र का आरम्भ पूर्वाभिमुख अथवा अधोमुख होकर करना चाहिये। समस्त मन्त्रों के प्रारम्भ में प्रणव का प्रयोग करना चाहिये। साधक के लिये देवालय, नदी व सरोवर मन्त्र साधन के लिये उपयुक्त स्थान माने गये हैं। | | अग्नि पुराण के अनुसार-<blockquote>उच्चैर्जपाद्विशिष्टः स्यादुपांशुर्दशभिर्गुणैः। जिह्वाजपे शतगुणः सहस्रो मानसः स्मृतः॥( अग्नि पु० २९३/९८)</blockquote>ऊँचे स्वर मेंकिये जाने वाले जाप की अपेक्षा मन्त्र का मूक जप दसगुणा विशिष्ट है। जिह्वा जप सौ गुणा श्रेष्ठ है और मानस जप हजार गुणा उत्तम है। अग्नि पुराण में वर्णन है कि मंत्र का आरम्भ पूर्वाभिमुख अथवा अधोमुख होकर करना चाहिये। समस्त मन्त्रों के प्रारम्भ में प्रणव का प्रयोग करना चाहिये। साधक के लिये देवालय, नदी व सरोवर मन्त्र साधन के लिये उपयुक्त स्थान माने गये हैं। |
− | | + | ==उद्धरण॥ References== |
− | == उद्धरण॥ References == | |
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