Difference between revisions of "Tithi (तिथि)"
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तिथि भारतीय पंचांग का सबसे मुख्य अंग है। तिथि के नाम से सर्वप्रथम ध्यान तारीख की ओर जाता है किन्तु भारतीय ज्योतिष शास्त्र में तिथि का विस्तृत उल्लेख किया गया है। यह भारतीय चान्द्रमास का एक दिन होता है। तिथि के आधार पर ही सभी दिन, त्यौहार, जन्मदिन, जयन्ती और पुण्यतिथि आदि का निर्धारण होता है। तिथिका हमारे मस्तिष्क पर गहरा प्रभाव पडता है। इससे हमारे जन्म, मृत्यु और विशेष कार्य जुडे होते हैं। | तिथि भारतीय पंचांग का सबसे मुख्य अंग है। तिथि के नाम से सर्वप्रथम ध्यान तारीख की ओर जाता है किन्तु भारतीय ज्योतिष शास्त्र में तिथि का विस्तृत उल्लेख किया गया है। यह भारतीय चान्द्रमास का एक दिन होता है। तिथि के आधार पर ही सभी दिन, त्यौहार, जन्मदिन, जयन्ती और पुण्यतिथि आदि का निर्धारण होता है। तिथिका हमारे मस्तिष्क पर गहरा प्रभाव पडता है। इससे हमारे जन्म, मृत्यु और विशेष कार्य जुडे होते हैं। | ||
− | == | + | ==परिचय॥ Parichaya== |
− | चन्द्रमा की एक कलाको तिथि कहते हैं। चन्द्र कलारूप क्रिया उपलक्षित कालको तिथि के रूप में व्यवहृत किया जाता है। तिथियाँ १ से ३० तक एक मास में ३० होती हैं। ये पक्षों में विभाजित हैं। प्रत्येक पक्ष में १५-१५ तिथियाँ होती हैं। प्रत्येक तिथि का एक नाम है। तिथि जलतत्व है और यह हमारे मस्तिष्क-मन की स्थिति को दर्शाती है।जन्मकुण्डली में तिथि अतिआवश्यक हिस्सा है। जन्म के दिन पडने वाली तिथि को जन्मतिथि कहते हैं। | + | चन्द्रमा की एक कलाको तिथि कहते हैं। चन्द्र कलारूप क्रिया उपलक्षित कालको तिथि के रूप में व्यवहृत किया जाता है। तिथियाँ १ से ३० तक एक मास में ३० होती हैं। ये पक्षों में विभाजित हैं। प्रत्येक पक्ष में १५-१५ तिथियाँ होती हैं। प्रत्येक तिथि का एक नाम है। तिथि जलतत्व है और यह हमारे मस्तिष्क-मन की स्थिति को दर्शाती है।जन्मकुण्डली में तिथि अतिआवश्यक हिस्सा है। जन्म के दिन पडने वाली तिथि को जन्मतिथि कहते हैं। |
− | == | + | ==परिभाषा॥ Paribhasha== |
तनोति विस्तारयति वर्द्धमानां क्षीयमाणांवा चन्द्रकलामेकां यः कालविशेषः सा तिथिः। | तनोति विस्तारयति वर्द्धमानां क्षीयमाणांवा चन्द्रकलामेकां यः कालविशेषः सा तिथिः। | ||
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भारतवर्ष में दो प्रकार की तिथियाँ प्रचलित हैं। सौर तिथि एवं चान्द्र तिथि। सूर्य की गति के अनुसार मान्य तिथि को सौर तिथि तथा चन्द्रगति के अनुसार मान्य तिथि को चान्द्र तिथि कहते हैं। | भारतवर्ष में दो प्रकार की तिथियाँ प्रचलित हैं। सौर तिथि एवं चान्द्र तिथि। सूर्य की गति के अनुसार मान्य तिथि को सौर तिथि तथा चन्द्रगति के अनुसार मान्य तिथि को चान्द्र तिथि कहते हैं। | ||
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सदैव दर्शे पितृकर्म कृत्वा नान्यद्विधेयं शुभपौष्टिकाद्यम्। मूढैः कृतं तत्र शुभोत्सवाद्यं विनाशमायात्यचिराद्भृशं तत् ॥१४ ॥ </blockquote> | सदैव दर्शे पितृकर्म कृत्वा नान्यद्विधेयं शुभपौष्टिकाद्यम्। मूढैः कृतं तत्र शुभोत्सवाद्यं विनाशमायात्यचिराद्भृशं तत् ॥१४ ॥ </blockquote> | ||
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+ | # '''प्रतिपदा-''' विवाह, उपनयन, यात्रा, प्रतिष्ठा, सीमन्त, चौल, वास्तुकर्म, गृहप्रवेश आदि माङ्गलिक कार्य प्रतिपदा को नहीं करने चाहिये। | ||
+ | # '''द्वितीया-''' यात्रा, विवाह, आभूषण, सङ्गीतविद्या, शिल्प आदि कार्य द्वितीया को नहीं करना चाहिये। | ||
+ | # '''तृतीया-''' द्वितीया तिथि में निषेध कार्यों को तृतीया तिथिमें करना चाहिये। | ||
+ | # '''चतुर्थी-''' विद्युत्कर्म, वध, बन्धन, शस्त्र, विष, अग्नि, घात आदि कार्य चतुर्थी तिथिमें करनेसे सिद्ध नहीं होते हैं। | ||
+ | # '''पञ्चमी-''' द्वितीया तिथि में निषेध कार्यों को पञ्चमी तिथिमें करना चाहिये। | ||
+ | # '''षष्ठी-''' अभ्यंग, यात्रा, पितृकर्म, दन्तकाष्ठ आदि सञ्चय नहीं करना चाहिये। | ||
+ | # '''सप्तमी-''' द्वितीया, तृतीया और पञ्चमी तिथियों की तरह ही उनसभी कार्यों को सप्तमी तिथिमें भी आचरण करना चाहिये। | ||
+ | # '''अष्टमी-''' संग्राम, वास्तु, शिल्पराज, प्रमोद, लेखन, स्त्री, रत्न, अखिल आभूषण आदि सभी कार्यों को अष्टमी तिथिमें करना शुभ होता है। | ||
+ | # '''नवमी-''' चतुर्थी तिथिमें उक्त कार्यों को नवमी तिथि में करना चाहिये। | ||
+ | # '''दशमी-''' द्वितीया, तृतीया, पञ्चमी और सप्तमी तिथियों की तरह ही उनसभी कार्यों को नवमी तिथिमें भी आचरण करना चाहिये। | ||
+ | # '''एकादशी-''' व्रत, उपवास, अनेक धार्मिक कृत्यों को, देव उत्सव, उद्यापन और कथा आदि शुभ कर्मों को एकादशी तिथि में करना चाहिये। | ||
+ | # '''द्वादशी-''' यात्रा आदि को छोडकर पुष्टिकारक सभी धार्मिक एवं शुभ कार्यों को द्वादशी तिथिमें करना चाहिये। | ||
+ | # '''त्रयोदशी-''' द्वितीया, तृतीया, पञ्चमी, सप्तमी और नवमी तिथियों की तरह ही उनसभी कार्यों को त्रयोदशी तिथिमें भी आचरण करना चाहिये। | ||
+ | # '''चतुर्दशी-''' चतुर्थी तिथिमें विहित कार्यों को चतुर्दशी तिथि में भी करना चाहिये। | ||
+ | # '''अमावस्या-''' अमावस्या तिथि में सदा पैतृक कर्मों को ही करना चाहिए। अन्य आचरणीय शुभ कार्यों को अमावस्या में त्याग देना चाहिये। | ||
+ | # '''पूर्णिमा-''' विवाह, शिल्प, पौष्टिककर्म, मंगलकर्म, संग्राम, वास्तुकर्म, यज्ञक्रिया प्रतिष्ठा आदि कार्यों को पूर्णिमा तिथिमें करना चाहिये। | ||
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+ | === युगादि-मन्वादि तिथियाँ === | ||
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+ | === क्षयादि तिथियाँ === | ||
==तिथि निर्माण== | ==तिथि निर्माण== |
Revision as of 09:28, 14 November 2022
तिथि भारतीय पंचांग का सबसे मुख्य अंग है। तिथि के नाम से सर्वप्रथम ध्यान तारीख की ओर जाता है किन्तु भारतीय ज्योतिष शास्त्र में तिथि का विस्तृत उल्लेख किया गया है। यह भारतीय चान्द्रमास का एक दिन होता है। तिथि के आधार पर ही सभी दिन, त्यौहार, जन्मदिन, जयन्ती और पुण्यतिथि आदि का निर्धारण होता है। तिथिका हमारे मस्तिष्क पर गहरा प्रभाव पडता है। इससे हमारे जन्म, मृत्यु और विशेष कार्य जुडे होते हैं।
परिचय॥ Parichaya
चन्द्रमा की एक कलाको तिथि कहते हैं। चन्द्र कलारूप क्रिया उपलक्षित कालको तिथि के रूप में व्यवहृत किया जाता है। तिथियाँ १ से ३० तक एक मास में ३० होती हैं। ये पक्षों में विभाजित हैं। प्रत्येक पक्ष में १५-१५ तिथियाँ होती हैं। प्रत्येक तिथि का एक नाम है। तिथि जलतत्व है और यह हमारे मस्तिष्क-मन की स्थिति को दर्शाती है।जन्मकुण्डली में तिथि अतिआवश्यक हिस्सा है। जन्म के दिन पडने वाली तिथि को जन्मतिथि कहते हैं।
परिभाषा॥ Paribhasha
तनोति विस्तारयति वर्द्धमानां क्षीयमाणांवा चन्द्रकलामेकां यः कालविशेषः सा तिथिः।
तिथि भेद॥
भारतवर्ष में दो प्रकार की तिथियाँ प्रचलित हैं। सौर तिथि एवं चान्द्र तिथि। सूर्य की गति के अनुसार मान्य तिथि को सौर तिथि तथा चन्द्रगति के अनुसार मान्य तिथि को चान्द्र तिथि कहते हैं।
सौर तिथि- सौर तिथि में सूर्य का राशि भ्रमण मुख्य हेतु है। सौर तिथि दो प्रकार से मानी जाती है। एक प्रकार यह है कि जिस-जिस दिन सूर्य की संक्रांति लगती है उस दिन को प्रथम तिथि माना जाये। दूसरा प्रकार यह है कि संक्रान्ति के दूसरे दिन से प्रथम तिथि माना जाय। बंगाल एवं पञ्जाब में इन तिथियों का प्रयोग विशेष रूप से होता है। अन्यत्र भी सौर तिथि के नाम से इनका प्रचलन है। किन्तु, भारत में प्रचलित व्रतों एवं उत्सवादि में इन तिथियों का प्रयोग प्रायः कम ही होता है।
चान्द्र तिथि- भारतीय धार्मिक कार्यों में विशेषरूप से चान्द्र तिथियों का ही प्रयोग होता है। इन तिथियों का नाम एवं तिथि स्वामी इस प्रकार हैं-
क्र०सं० | तिथियों का नाम | तिथियों पर्यायवाची शब्द | तिथि स्वामी | तिथियों की संज्ञाऐं |
---|---|---|---|---|
1. | प्रतिपदा | पक्षति, आद्यतिथि, भू और चन्द्रके सभी पर्यायवाचक शब्द(भूमि, भू, कु, शशी, इन्दु आदि) | अग्नि | नन्दा |
2. | द्वितीया | युग्म, द्वि, यम और नेत्रके सभी पर्याय (नेत्र, अक्षि, अन्तक) अश्वि आदि। | विधि | भद्रा |
3. | तृतीया | अग्नि, वह्नि, हुताशन, अनल, शिवस्वेद। | गौरी | जया |
4. | चतुर्थी | युग, वेद, अब्धि, उदधि। | गणेश | रिक्ता |
5. | पञ्चमी | बाण, शर, नाग, इषु। | अहि(सर्प) | पूर्णा |
6. | षष्ठी | स्कन्द, रस, अंग। | गुह(स्कन्द स्वामी) | नन्दा |
7. | सप्तमी | अश्व, हय, शैल, वायु, अर्क, अद्रि। | रवि | भद्रा |
8. | अष्टमी | वसु, गज, नाग, उरग। | शिव | जया |
9. | नवमी | अंक, गो, ग्रह, नन्द, दुर्गा। | दुर्गा | रिक्ता |
10. | दशमी | दिक् , आशा, काष्ठा। | अन्तक(यम) | पूर्णा |
11. | एकादशी | शिव, रुद्र, ईश। | विश्वेदेव | नन्दा |
12. | द्वादशी | अर्क, रवि, सूर्य, हरि। | हरि | भद्रा |
13. | त्रयोदशी | विश्वे, काम, मदन | कामदेव | जया |
14. | चतुर्दशी | यम, इन्द्र, मनु, शक्र। | शिव | रिक्ता |
15. | अमावस्या(कृष्णपक्ष की पञ्चदशी) | अमा, दर्श, कुहू। | पितृ देवता | पूर्णा |
16. | पूर्णिमा(शुक्लपक्ष की पञ्चदशी) | तिथि, पंचदशी, राका। | शशि( चन्द्रमा) | पूर्णा |
सूर्य एवं चन्द्रमा जिस दिन एक बिन्दु पर आ जाते हैं उस तिथि को अमावस्या कहते हैं। उस दिन सूर्य और चन्द्रमाका गति अन्तर शून्य अक्षांश होता है। एवं इसी प्रकार सूर्य एवं चन्द्रमा परस्पर आमने-सामने अर्थात् ६राशि या १८० अंशके अन्तरपर होते हैं, उस तिथि को पूर्णिमा या पूर्णमासी कहते हैं।
अमावस्या तिथि दो प्रकार की होती है-[2]
- सिनीवाली अमावस्या- जो चतुर्दशी तिथिमिश्रित अमावस्या हो वह सिनीवाली संज्ञक कहलाती है।
- कुहू अमावस्या- जो प्रतिपदा तिथि मिश्रित अमावस्या हो वह कुहू संज्ञक कहलाती है।
पूर्णिमा तिथि के दो प्रकार हैं-
- अनुमति पूर्णिमा- जो चतुर्दशी तिथिमिश्रित पूर्णिमा हो वह अनुमति संज्ञक कहलाती है।
- राका पूर्णिमा- जो प्रतिपदा तिथि मिश्रित पूर्णिमा हो वह राका संज्ञक कहलाती है।
शास्त्रों में अमावस्या तिथि की दर्श एवं पूर्णिमा तिथि की पर्व संज्ञा विहित है।
तिथि विहित कार्य
देवालय निर्माण और देवप्रतिष्ठा आदि माङ्गलिक कार्यों हेतु जो तिथि, नक्षत्र, मुहूर्त आदि का विधान किया गया है वह तद्तद् तिथि अधिष्ठातृ स्वामियों के कालमें भी किया जा सकता है। जैसाकि वाराहसंहिता में कहा गया है-
यत्कार्यं नक्षत्रे तद्दैवत्यासु तिथिषु तत्कार्यम् । करणमुहूर्तेष्वपि तत्सिद्धिकरं देवतानां च ॥
अग्निपुराण में भी तिथि विहित कार्यों का विचार किया गया है-
प्रतिपद्यग्निपूजा स्याद् द्वितीयाया च वेधसः।षष्ठ्यां पूजा गुहस्य च। चतुर्थ्यां गणनाथस्य गौर्यास्तत्पूर्ववासरे। सरस्वत्या नवम्यां च सप्तम्यां भास्करस्य च॥
अष्टम्याश्च चतुर्दश्यामेकादश्यां शिवस्य च। द्वादश्यां च त्रयोदश्यां हरेश्च मदनस्य च ॥
शेषादीनां फणीशानां पञ्चम्यां पूजनं भवेत्। पर्वणीन्दोस्तिथिष्वासु पक्षद्वयगतास्वपि इति॥
प्रत्येक तिथिविहित देवता पूजा विधान के साथ ही श्री महर्षि वसिष्ठ जी तिथि प्रयुक्त कार्यों का उल्लेख करते हैं-[3]
नोद्वाहयात्रोपनयप्रतिष्ठां सीमन्तचौलाखिलवास्तुकर्म। गृहप्रवेशाखिलमङ्गलाद्यं कार्यं हि मासाद्यतिथौ कदाचित्॥१॥
सप्ताङ्गचिह्नानि नृपस्य वास्तुव्रतप्रतिष्ठाखिलमङ्गलानि। यात्राविवाहाखिलभूषणाद्यं कार्यं द्वितीयादिवसे सदैव॥२॥
सङ्गीतविद्याखिलशिल्पकर्मसीमन्तचौलान्नगृहप्रवेशम्। कार्यं द्वितीयादिवसे यदुक्तं सदा तृतीयादिवसेऽपि कार्यम् ॥३॥
रिक्तासु विद्युद्वधबन्धशस्त्रविषाग्निघातादि च याति सिद्धिम्। यन्मङ्गलं तासु कृतं विमूढैर्विनाशमायाति तदाशु नूनम् ॥४॥
शुभानि कार्याणि चरस्थिराणि चोक्तान्यनुक्तान्यपि यानि तानि। सिद्धिं प्रयान्त्याशु ऋणप्रदानं विनाशदं नागतिथौ विधेयम् ॥५॥
अभ्यङ्गयात्रापितृकर्म दन्तकाष्ठं विना पौष्टिकमङ्गलानि। षष्ठ्यां विधेयानि रणोपयोग्यशिल्पानि वास्त्वम्बरभूषणानि॥६॥
द्वितीयायां तृतीयायां पञ्चम्यां कथितान्यपि। तानि सिध्यन्ति कार्याणि सप्तम्यां निखिलान्यपि॥७॥
सङ्ग्रामयोग्याखिलवास्तुशिल्पनृपप्रमोदाखिललेखनानि। स्त्रीरत्नकार्याखिलभूषणानि कार्याणि कार्याणि महेशतिथ्याम् ॥८॥
द्वितीयायां तृतीयायां पञ्चम्यां सप्तमीतिथौ । उक्तानि यानि सिध्यन्ति दशम्यां तानि सर्वदा॥९॥
व्रतोपवासाखिलधर्मकृत्यं सुरोत्सवाद्याखिलवास्तुकर्म। सङ्ग्रामयोग्याखिलवस्तुकर्म विश्वेतिथौ सिध्यति शिल्पकर्म॥१०॥
पृथिव्यां यानि कर्माणि धर्मपुष्टिशुभानि च। चरस्थिराणि द्वादश्यां यात्रां नवगृहं विना॥११॥
विधातृगौरीभुजगभान्वन्तकदिनेषु च। उक्तानि तानि सिध्यन्ति त्रयोदश्यां विशेषतः॥१२॥
यज्ञक्रियापौष्टिक मङ्गलानि सङ्ग्रामयोग्याखिलवास्तुकर्म। उद्वाहशिल्पाखिलभूषणाद्यं कार्यं प्रतिष्ठा खलु पौर्णमास्याम् ॥१३॥
सदैव दर्शे पितृकर्म कृत्वा नान्यद्विधेयं शुभपौष्टिकाद्यम्। मूढैः कृतं तत्र शुभोत्सवाद्यं विनाशमायात्यचिराद्भृशं तत् ॥१४ ॥
- प्रतिपदा- विवाह, उपनयन, यात्रा, प्रतिष्ठा, सीमन्त, चौल, वास्तुकर्म, गृहप्रवेश आदि माङ्गलिक कार्य प्रतिपदा को नहीं करने चाहिये।
- द्वितीया- यात्रा, विवाह, आभूषण, सङ्गीतविद्या, शिल्प आदि कार्य द्वितीया को नहीं करना चाहिये।
- तृतीया- द्वितीया तिथि में निषेध कार्यों को तृतीया तिथिमें करना चाहिये।
- चतुर्थी- विद्युत्कर्म, वध, बन्धन, शस्त्र, विष, अग्नि, घात आदि कार्य चतुर्थी तिथिमें करनेसे सिद्ध नहीं होते हैं।
- पञ्चमी- द्वितीया तिथि में निषेध कार्यों को पञ्चमी तिथिमें करना चाहिये।
- षष्ठी- अभ्यंग, यात्रा, पितृकर्म, दन्तकाष्ठ आदि सञ्चय नहीं करना चाहिये।
- सप्तमी- द्वितीया, तृतीया और पञ्चमी तिथियों की तरह ही उनसभी कार्यों को सप्तमी तिथिमें भी आचरण करना चाहिये।
- अष्टमी- संग्राम, वास्तु, शिल्पराज, प्रमोद, लेखन, स्त्री, रत्न, अखिल आभूषण आदि सभी कार्यों को अष्टमी तिथिमें करना शुभ होता है।
- नवमी- चतुर्थी तिथिमें उक्त कार्यों को नवमी तिथि में करना चाहिये।
- दशमी- द्वितीया, तृतीया, पञ्चमी और सप्तमी तिथियों की तरह ही उनसभी कार्यों को नवमी तिथिमें भी आचरण करना चाहिये।
- एकादशी- व्रत, उपवास, अनेक धार्मिक कृत्यों को, देव उत्सव, उद्यापन और कथा आदि शुभ कर्मों को एकादशी तिथि में करना चाहिये।
- द्वादशी- यात्रा आदि को छोडकर पुष्टिकारक सभी धार्मिक एवं शुभ कार्यों को द्वादशी तिथिमें करना चाहिये।
- त्रयोदशी- द्वितीया, तृतीया, पञ्चमी, सप्तमी और नवमी तिथियों की तरह ही उनसभी कार्यों को त्रयोदशी तिथिमें भी आचरण करना चाहिये।
- चतुर्दशी- चतुर्थी तिथिमें विहित कार्यों को चतुर्दशी तिथि में भी करना चाहिये।
- अमावस्या- अमावस्या तिथि में सदा पैतृक कर्मों को ही करना चाहिए। अन्य आचरणीय शुभ कार्यों को अमावस्या में त्याग देना चाहिये।
- पूर्णिमा- विवाह, शिल्प, पौष्टिककर्म, मंगलकर्म, संग्राम, वास्तुकर्म, यज्ञक्रिया प्रतिष्ठा आदि कार्यों को पूर्णिमा तिथिमें करना चाहिये।
युगादि-मन्वादि तिथियाँ
तिथिवशात् गजच्छाया योग
क्षयादि तिथियाँ
तिथि निर्माण
चन्द्रमा की गति सूर्यसे प्रायः तेरह गुना अधिक है। जब इन दोनों की गति में १२ अंश का अन्तर आ जाता है, तब एक तिथि बनती है। इस प्रकार ३६० अंशवाले 'भचक्र'(आकाश मण्डल) में ३६०÷१२=३० तिथियों का निर्माण होता है। एक मास में ३० तिथियाँ होती हैं। यह नैसर्गिक क्रम निरन्तर चालू रहता है।
तिथिक्षय वृद्धि
एक तिथिका मान १२ अंश होता है, कम न अधिक। सूर्योदयके साथ ही तिथि नाम एवं संख्या बदल जाती है। यदि किसी तिथिका अंशादि मान आगामी सूर्योदयकालसे पूर्व ही समाप्त रहा होता है तो वह तिथि समाप्त होकर आनेवाली तिथि प्रारम्भ मानी जायगी और सूर्योदयकालपर जो तिथि वर्तमान है, वही तिथि उस दिन आगे रहेगी। यदि तिथिका अंशादि मान आगामी सूर्योदयकालके उपरान्ततक, चाहे थोड़े ही कालके लिये सही रहता है तो वह तिथि- वृद्धि मानी जायगी। यदि दो सूर्योदयकालके भीतर दो तिथियाँ आ जाती हैं तो दूसरी तिथि का क्षय माना जायगा और उस क्षयतिथिकी क्रमसंख्या पंचांगमें नहीं लिखते, वह तिथि अंक छोड़ देते हैं। आशय यह है कि सूर्योदयकालतक जिस भी तिथिका अंशादि मान वर्तमान रहता है। चाहे कुछ मिनटोंके लिये ही सही, वही तिथि वर्तमानमें मानी जाती है। तिथि-क्षयवृद्धिका आधार सूर्योदयकाल है।[4]
तिथि और तारीख
तिथि और तारीख में अन्तर है। एक सूर्योदयकालसे अगले सूर्योदयकाल तक के समयको तिथि कहते हैं। तिथिका मान रेखांशके आधारपर विभिन्न स्थानोंपर कुछ मिनट या घण्टा घट-बढ सकता है। तारीख आधी रातसे अगली आधीरात तक के समयको कहते हैं। तारीख चौबीस घण्टेकी होती है। यह आधी रात बारह बजे प्रारम्भ होकर दूसरे दिन आधी रात बारह बजे समाप्त होती है। यह सब स्थानों पर एक समान चौबीस घण्टेकी है।
विचार-विमर्श
उपलब्ध वैदिक संहिताओं में तिथियों का स्पष्ट उल्लेख नहीं होता। किन्तु वेदों के ब्राह्मण भागमें तिथियों का वर्णन प्राप्त होता है। जैसा कि बह्वृच ब्राह्मण में कहा गया है-
या पर्यस्तमियादभ्युदियादिति सा तिथिः।
अर्थात् जिस काल विशेष में चन्द्रमा का उदय अस्त होता है उसको तिथि कहते हैं। तैत्तिरीय ब्राह्मण में -
चन्द्रमा वै पञ्चदशः। एष हि पञ्चदश्यामपक्षीयते। पञ्चदश्यामापूर्यते॥(तै० ब्रा० १/५/१०)
इस प्रकार के कथन से पञ्चदशी शब्द के द्वारा प्रतिपदा आदि तिथियों की भी गणना की सम्भावना दिखाई देती है। इसी प्रकार सामविधान ब्राह्मण में भी कृष्णचतुर्दशी, कृष्णपञ्चमी, शुक्ल चतुर्दशी का भी उल्लेख प्राप्त होता है।
सन्दर्भ
- ↑ श्री विन्ध्येश्वरीप्रसाद द्विवेदी, म्हूर्तचिन्तामणि, पीयूषधारा टीका, शुभाशुभ प्रकरण, सन् २०१८, वाराणसीः चौखम्बा सुरभारती प्रकाशन (पृ०१०/११)
- ↑ पं०श्री सीतारामजी स्वामी, ज्योतिषतत्त्वांक, भारतीय काल गणना, सन् २०१९,गोरखपुर गीताप्रेस, (पृ०२१०)।
- ↑ श्री विन्ध्येश्वरीप्रसाद द्विवेदी, म्हूर्तचिन्तामणि, पीयूषधारा टीका, शुभाशुभ प्रकरण, सन् २०१८, वाराणसीः चौखम्बा सुरभारती प्रकाशन (पृ०११/१२)
- ↑ श्री बलदेव उपाध्याय, संस्कृत वाग्मय का बृहद् इतिहास, ज्योतिषशास्त्र, सन् २०१२, लखनऊः उत्तर प्रदेश संस्कृत संस्थान (पृ०१२६)।