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प्राचीन भारतके शिक्षा पाठ्यक्रमकी परंपरा हमेशा 18 प्रमुख विद्याओं (ज्ञान के विषयों) और 64 कलाओं की बात करती है। ज्ञान और क्रिया के संगम के विना शिक्षा अपूर्ण मानी जाती रही है। ज्ञान एवं कला के प्रचार में गुरुकुलों की भूमिका प्रधान रही है एवं ऋषी महर्षि सन्न्यासी आदि भ्रमणशील रहकर के ज्ञान एवं कला का प्रचार-प्रसार किया करते रहे हैं। गुरुकुल में अध्ययनरत शिक्षार्थियों की मानसिकता उसके परिवार से न बंधकर एक बृहद् कुल की भावना से जुडी हुई होती है जिसके द्वारा वह कला-कौशल लोकोपयोगी सिद्ध हुआ करता है।
 
प्राचीन भारतके शिक्षा पाठ्यक्रमकी परंपरा हमेशा 18 प्रमुख विद्याओं (ज्ञान के विषयों) और 64 कलाओं की बात करती है। ज्ञान और क्रिया के संगम के विना शिक्षा अपूर्ण मानी जाती रही है। ज्ञान एवं कला के प्रचार में गुरुकुलों की भूमिका प्रधान रही है एवं ऋषी महर्षि सन्न्यासी आदि भ्रमणशील रहकर के ज्ञान एवं कला का प्रचार-प्रसार किया करते रहे हैं। गुरुकुल में अध्ययनरत शिक्षार्थियों की मानसिकता उसके परिवार से न बंधकर एक बृहद् कुल की भावना से जुडी हुई होती है जिसके द्वारा वह कला-कौशल लोकोपयोगी सिद्ध हुआ करता है।
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महर्षि भर्तृहरि ने मनुष्य के गोपनीय धन में विद्या का प्रमुख स्थान दिया है-<blockquote>विद्या नाम नरस्य रूपमधिकं प्रच्छन्नगुप्तं धनम् ॥</blockquote>
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==कला की परिभाषा॥ Definition of Kala==
 
==कला की परिभाषा॥ Definition of Kala==
जीवन में आनन्द का संचार कर मानवीय जीवन को उन्नत बनाती है। मानव जीवन में हुये परिवर्तन एवं विकास के मूल कारण को ही भारतीय विचारकों ने जिस अभिधान से पुकारा है, वह 'कला' है। आचार्यजनों ने कला की परिभाषा इस प्रकार की है-<blockquote>कम् आनन्दं लाति इति कला।(समी० शा०)<ref>श्री सीताराम चतुर्वेदी,[https://archive.org/details/in.ernet.dli.2015.478665 समीक्षा शास्त्र], इलाहाबादः साधना सदन,सन् १९६६ पृ०२०६।</ref></blockquote>'कं' संस्कृत शब्द है जिसका अर्थ होता है आनन्द और प्रकाश और 'ला' धातु का अर्थ है लाना। अतः वह क्रिया या शक्ति जो आनन्द और प्रकाश लाती हो उसे कला कहा गया है।
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जीवन में आनन्द का संचार कर मानवीय जीवन को उन्नत बनाती है। मानव जीवन में हुये परिवर्तन एवं विकास के मूल कारण को ही भारतीय विचारकों ने जिस अभिधान से पुकारा है, वह 'कला' है। आचार्यजनों ने कला की परिभाषा इस प्रकार की है-<blockquote>कम् आनन्दं लाति इति कला।(समी० शा०)<ref>श्री सीताराम चतुर्वेदी,[https://archive.org/details/in.ernet.dli.2015.478665 समीक्षा शास्त्र], इलाहाबादः साधना सदन,सन् १९६६ पृ०२०६।</ref></blockquote>कं संस्कृत शब्द है जिसका अर्थ होता है आनन्द और प्रकाश और ला धातु का अर्थ है लाना। अतः वह क्रिया या शक्ति जो आनन्द और प्रकाश लाती हो उसे कला कहा गया है।
    
कला किसी भी देश की साहित्यिक, सांस्कृतिक, सांगीतिक, आध्यात्मिक, वैज्ञानिक एवं शिल्पशास्त्रीय उपलब्धियों का प्रतीक होती है। भारतीय चिन्तन के परिप्रेक्ष्य में कलासाधन की परम्परा अत्यन्त प्राचीन है और इसका इतिहास भी अत्यन्त समृद्ध रहा है।
 
कला किसी भी देश की साहित्यिक, सांस्कृतिक, सांगीतिक, आध्यात्मिक, वैज्ञानिक एवं शिल्पशास्त्रीय उपलब्धियों का प्रतीक होती है। भारतीय चिन्तन के परिप्रेक्ष्य में कलासाधन की परम्परा अत्यन्त प्राचीन है और इसका इतिहास भी अत्यन्त समृद्ध रहा है।
 
==विद्या के अट्ठारह प्रकार॥ Kinds of 18 Vidhyas==
 
==विद्या के अट्ठारह प्रकार॥ Kinds of 18 Vidhyas==
अपौरुषेय वैदिक शब्द राशि से प्रारंभ होकर प्रस्तुत काल पर्यन्त संस्कृत वाङ्मय की परम्परा पाश्चात्य दृष्टिकोण से भी विश्व की प्राचीनतम परम्परा मानी जाती है। विद्या की उपयोगिता जीवन में पग-पग पर अनुभूत की जाती है इसके विना जीवन किसी काम का नहीं रह पाता है। यह सर्व मान्य सिद्धान्त है।
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अपौरुषेय वैदिक शब्द राशि से प्रारंभ होकर प्रस्तुत काल पर्यन्त संस्कृत वाङ्मय की परम्परा पाश्चात्य दृष्टिकोण से भी विश्व की प्राचीनतम परम्परा मानी जाती है। विद्या की उपयोगिता जीवन में पग-पग पर अनुभूत की जाती है इसके विना जीवन किसी काम का नहीं रह पाता है, यह सर्व मान्य सिद्धान्त है। विद्या शब्द की निष्पत्ति विद् धातु में क्यप् और टाप् प्रत्यय के योग से विद्या शब्द निष्पन्न होता है। जिसका अर्थ ज्ञान, अवगम और शिक्षा माना जाता है।भारतीय विद्याओं में अष्टादश विद्याओं का नाम ग्रन्थों में प्राप्त होता है। प्राचीन भारत में विद्या का जो रूप था वह अत्यन्त सारगर्भित और व्यापक था। अष्टादश विद्याओं में सम्मिलित हैं-<blockquote>अंगानि चतुरो वेदा मीमांसा न्यायविस्तर:। पुराणं धर्मशास्त्रं च विद्या ह्येताश्चतुर्दश।।(याज्ञवल्क्य स्मृति)
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आयुर्वेदो   धनुर्वेदो  गांधर्वश्चैव    ते त्रयः। अर्थशास्त्रं चतुर्थन्तु विद्या ह्यष्टादशैव ताः।। (ऋग् ०भा०भूमि०)<ref>पं० श्री जगन्नाथ पाठक,ऋग्वेदभाष्य भूमिका(हिन्दी व्यख्यायुक्त),सन् २०१५,वाराणसी चौखम्बा विद्याभवन पृ० ५३।</ref>(विष्णु पुराण)</blockquote>इन सभी विद्याओं का पावर हाउस वेद है। वेद चार हैं इनके नाम इस प्रकार हैं-
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*'''चतुर्वेदाः'''- ये 1.ऋग्वेद, 2.यजुर्वेद, 3.सामवेद और 4.अथर्ववेद चार वेद होते हैं। सभी वेदों के दो भाग मुख्य रूप से बताये गए हैं। <nowiki>''</nowiki>मन्त्रब्राह्मणयोर्वेद नामधेयम् <nowiki>''</nowiki> अर्थात् मन्त्र(संहिता) और ब्राह्मण वेद हैं।
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# '''मन्त्र-''' संहिता भाग में मन्त्रों का संग्रह है। सभी वेदों की पृथक् - पृथक् संहिताऍं हैं जो आज भी उपलब्ध हैं। इन संहिताओं की कण्ठस्थीकरण की परम्परा हमारे संस्कृत वाङ्मय में पहले से ही रही है। इसको (संहिता) को कण्ठस्थ करने वाला विद्वान् ही नहीं ब्रह्मवेत्ता तथा ब्रह्मज्ञान की क्षमता रखने वाला समझा जाता है।
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# '''ब्राह्मण-''' ब्राह्मण वेद का वह भाग है जिसमें मन्त्रों की व्याख्या (भाष्य) है। इसमें मानव जीवन के लोक-परलोक दोनों को प्रशस्त करने के मार्ग बताए गये हैं। इसके अन्तर्गत आरण्यक, उपनिषद् , वेदाङ्ग तथा स्मृति सभी आते हैं।
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'''(१)आरण्यक-'''अरण्य का अर्थ है जंगल (वन) अभिप्राय यह है कि ऋषियों ने घोर जंगलों में रहकर, कन्द मूल फल का आहार कर जिस ज्ञान को दिया उसे आरण्यक नाम से कहा गया ।
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'''(२)उपनिषद्-'''उप= ऋषियों ने परम्परागत - समीपे अर्थात् गुरु के समीप बैठकर शिष्यों को ज्ञान दिया उसका नाम उपनिषद् है।
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* '''षड्वेदाङ्गानि--'''वेदों के रहस्यों को जानने के लिए पृथक्-पृथक् शास्त्र बनाए गये उनका नाम वेदाङ्ग हैं । ये छह प्रकार के हैं । निम्नलिखित श्लोक से वेदाङ्गों का नाम स्पष्ट हो जायेगा । संस्कृत वाङ्मय में 'ब्राह्मणेन निष्कारणो धर्मः षडङ्गो वेदोऽध्येयो ज्ञेयश्च ॥ इस श्रुति वाक्य से धर्म सहित षड् दर्शनों का अध्ययन और इनका ज्ञान प्राणीमात्र को आवश्यक है । इन षडङ्गों को वेदाङ्ग भी कहते हैं- भास्कराचार्य जी ने इस प्रकार कहा है-
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<blockquote>शब्दशास्त्रं मुखं ज्योतिषं चक्षुषी श्रोत्रमुक्तं-निरुक्तं च कल्पः करी। या तु शिक्षाऽस्य वेदस्य सा नासिका पाद पद्मद्वयं छन्द आद्यैर्बुधः॥</blockquote>'''अर्थ'''- शिक्षा, व्याकरण, छंद, ज्योतिष, कल्प और निरुक्त ये वेद के छः अङ्ग होते हैं।
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'''शिक्षा-''' शिक्षा वेद का घ्राण है। जिसमें मन्त्र के स्वर मात्रा और उच्चारण का विवेचन किया जाता है । इस समय निम्नलिखित शिक्षाएँ उपलब्ध है-
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# ऋग्वेद की पाणिनीय शिक्षा।
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# कृष्ण यजुर्वेद की व्यास शिक्षा।
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# शुक्ल यजुर्वेद के २५ शिक्षा ग्रन्थ उपलब्ध है।
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# सामवेद की गौतमी, लोमशी तथा नारदीय शिक्षा।
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# अथर्ववेद की माण्डूकी शिक्षा।
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'''कल्प-'''कल्प वह शास्त्र है जिसमें यज्ञों की विनियोग विधि का वर्णन किया गया है। कल्प वेद भगवान् का हस्त (हाथ) कहा गया है।
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'''निरुक्त'''-निरुक्त वेद का श्रवण (कान) है । जिसमें वेदार्थ (वेद का अर्थ) निर्वचन किया जाता है । यही वेदों का विश्वकोष भी है। वर्तमान समय में एक मात्र यास्काचार्य का निरुक्त उपलब्ध है। जिसकी अनेक व्याख्याएँ हैं। दूसरा कश्यप शाकमणि का निरुक्त है जो आजकल उपलब्ध नहीं है।
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'''छन्द''' - गायत्री इत्यादि छन्द वेदों के पाद हैं । गति साधक होने के कारण पाद कहलाते हैं। इस समय कुछ गार्ग्यादि छन्द ग्रन्थ निम्न हैं—
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# उपनिदान सूत्र
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# पिङ्गल सूत्र
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# वृत्तरत्नाकर
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# श्रुतबोध
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ये छन्द शास्त्र के ग्रन्थ आज भी उपलब्ध हैं।
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'''व्याकरण–''' वेद का मुख व्याकरण है । व्याकरण की महत्ता विशेष है । इसलिये कहा गया है कि-<blockquote>रक्षार्थं हि वेदानामध्येयं व्याकरणम्॥</blockquote>व्याकरण का प्रयोजन- १. वेद रक्षा, २. उहा, ३. आगम, ४. लाघव, ५. सन्देह और ६. निवृत्ति है ।
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'''ज्योतिष –''' वेद यज्ञकर्म की ओर प्रवृत्त करते हैं । यज्ञ-यागादि काल के अधीन है । अच्छे समय (मुहूर्त्त) में यज्ञ करने से अभीष्ट सिद्धि शीघ्र होती है। भास्कराचार्य जी ने कहा है-<blockquote>वेदास्तावद् यज्ञकर्म प्रवृत्ताः यज्ञाः प्रोक्तास्ते तु कालाश्रयेण। शास्त्रादस्मात् कालबोधो यतः स्यात् वेदाङ्गत्वं ज्योतिषस्योक्तमस्मात् ॥</blockquote>इस प्रकार ज्योतिष शास्त्र वेदाङ्ग है। इसमें किसी भी आचार्य या विद्वान् का मतभेद नहीं है । परन्तु वेद, पुराण, आगम, स्मृति, धर्मशास्त्र आदि के अध्ययन से वेदाङ्ग की सत्यता स्वयं सिद्ध है । ज्योतिष के महत्व को प्रतिपादित करते हुए बहुत आचार्यों ने इसकी महिमा का वर्णन किया है जैसे-<blockquote>यथा शिखा मयूराणां नगानां मणयो यथा। तथा वेदाङ्ग शास्त्राणां ज्योतिषं मूर्ध्नि तिष्ठति॥
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विद्या शब्द की निष्पत्ति विद् धातु में क्यप् और टाप् प्रत्यय के योग से विद्या शब्द निष्पन्न होता है।
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सिद्धान्त संहिता होरा रूपस्कन्धत्रयात्मकं। वेदस्य निर्मलं चक्षुः ज्योतिषशास्त्रमकल्मषम्॥
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जिसका अर्थ ज्ञान, अवगम और शिक्षा माना जाता है। महर्षि भर्तृहरि ने मनुष्य के गोपनीय धन में विद्या का प्रमुख स्थान दिया है-
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विनैदखिलं श्रौत स्मार्तकर्म न सिध्यति। तस्माज्जगत् हिताय ब्रह्मणा निर्मितं पुरा॥</blockquote>'''चत्वारः उपवेदः'''
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विद्या नाम नरस्य रूपमधिकं प्रच्छन्नगुप्तं धनम् ।
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* '''चत्वारः उपवेदः''' - ये आयुर्वेद (चिकित्सा), धनुर्वेद (हथियार), गंधर्ववेद (संगीत) और शिल्पशास्त्र (वास्तुकला) चार उपवेद होते हैं।
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प्राचीन भारत में विद्या का जो रूप था वह अत्यन्त सारगर्भित और व्यापक था।
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'''आयुर्वेद-''' इस उपवेद में चिकित्साशास्त्र आता है। जिसे आधुनिक भाषा में मेडिकल साइन्स के नाम से व्यवहृत है । चिकित्सा प्रद्धति को विस्तार हेतु इस आयुर्वेद का विस्तार कई भागों में किया गया है।
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अष्टादश विद्याओं में शामिल हैं-
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'''धनुर्वेद-''' प्राचीनकाल में युद्ध कौशल का वर्णन इतिहासों में उपलब्ध है । इन युद्धों में दिव्यास्त्र, क्षेप्यास्त्र तथा ब्रह्मास्त्रादि का प्रयोग किया जाता था । परन्तु इन अस्त्रों के बनाने वाले अभियन्ता प्रसिद्ध वैज्ञानिक और प्रद्योगिकी शास्त्र के निष्णात विद्वान् होते थे।
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अंगानि चतुरो वेदा मीमांसा न्यायविस्तर:पुराणं धर्मशास्त्रं च विद्या ह्येताश्चतुर्दश।।(याज्ञवल्क्य स्मृति)
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'''गंधर्ववेद-''' इस उपवेद के अन्तर्गत संगीत शास्त्र आता है जिसके द्वारा मनुष्य से लेकर परमब्रह्म परमात्मा तक वशीकरण करने की प्रक्रिया है संगीत के द्वारा जिसके अन्तर्गत गायन, वादन और नृत्य है । इन कलाओं से पशु और पक्षियों को भी अपने वश में करने की प्रक्रिया सर्वविदित है।
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आयुर्वेदो   धनुर्वेदो  गांधर्वश्चैव    ते त्रयः। अर्थशास्त्रं चतुर्थन्तु विद्या ह्यष्टादशैव ताः।। (ऋग् ०भा०भूमि०)<ref>पं० श्री जगन्नाथ पाठक,ऋग्वेदभाष्य भूमिका(हिन्दी व्यख्यायुक्त),सन् २०१५,वाराणसी चौखम्बा विद्याभवन पृ० ५३।</ref>(विष्णु पुराण)
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'''स्थापत्यवेद-''' इसके अन्तर्गत वास्तुकला, मूर्तिकला, चित्रकला इत्यादि आते हैं प्राचीनकाल में विश्वकर्मा और मय दोनों वास्तु विदों की ख्याति इतिहास में प्रसिद्ध ही है।
*'''चतुर्वेदाः'''- ये ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद चार वेद होते हैं।
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*'''चत्वारः उपवेदः''' - ये आयुर्वेद (चिकित्सा), धनुर्वेद (हथियार), गंधर्ववेद (संगीत) और शिल्पशास्त्र (वास्तुकला) चार उपवेद होते हैं।
   
*'''चत्वारि उपाङ्गानि-''' पुराण, न्याय, मीमांसा और धर्म शास्त्र ये चार उपाङ्ग होते हैं।
 
*'''चत्वारि उपाङ्गानि-''' पुराण, न्याय, मीमांसा और धर्म शास्त्र ये चार उपाङ्ग होते हैं।
*'''षड्वेदाङ्गानि-''' शिक्षा, व्याकरण, छंद, ज्योतिष, कल्प और निरुक्त ये छः अङ्ग होते हैं।
   
यद्यपि समग्र कला आदि के स्रोत अष्टादश विद्याऐं ही हैं। जहां तक कला का संबंध है, वहाँ 64 की प्रतिस्पर्धी गणनाएँ हैं।
 
यद्यपि समग्र कला आदि के स्रोत अष्टादश विद्याऐं ही हैं। जहां तक कला का संबंध है, वहाँ 64 की प्रतिस्पर्धी गणनाएँ हैं।
  
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