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सुधार जारि
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सनातनीय आचार व्यवस्था में स्नान एक आवश्यक एवं अनिवार्य कर्म है। सन्ध्योपासनादि दैनिक कृत्यों से लेकर अश्वमेधादि यज्ञ पर्यन्त सभी कर्मों का प्रारम्भ स्नान से ही होता है। इतना ही मात्र नहीं सनातनीय लोगों के जीवन का प्रारम्भ एवं पर्यवसान भी स्नान से ही होता है। जैसा कि व्यक्ति जन्म लेकर ज्योंही जीवन रक्षा के लिए व्याकुल वाणी में पुकारना प्रारम्भ करता है तभी कुशल धात्री सर्व प्रथम उसके शरीर को स्वच्छ करके स्नान कराती है। इसी प्रकार जीवन के पर्यवसान में भी जब उसकी आत्मा शरीर को छोड़कर अनन्त मे लीन हो जाती है तब भी उसके शरीर को चितारोहण से पूर्व एक बार पुनः स्नान कराया जाता है और अन्त में जब सब कुछ शरीर भस्मान्त बन जाता है उस समय उस भस्म में से चुनी हुईं अस्थियॉं भी पतित पावनी जाह्नवी में अनन्त स्नान के लिए विसर्जित की जाती हैं। इससे अधिक स्नान का महत्त्व किसी देश और किसी धर्म में देखने को नहीं मिल सकता है। स्नान करने के पश्चात् मनुष्य शुद्ध होकर सन्ध्या, जप, देवपूजन आदि समस्त कर्मों के योग्य बनता है।  
 
सनातनीय आचार व्यवस्था में स्नान एक आवश्यक एवं अनिवार्य कर्म है। सन्ध्योपासनादि दैनिक कृत्यों से लेकर अश्वमेधादि यज्ञ पर्यन्त सभी कर्मों का प्रारम्भ स्नान से ही होता है। इतना ही मात्र नहीं सनातनीय लोगों के जीवन का प्रारम्भ एवं पर्यवसान भी स्नान से ही होता है। जैसा कि व्यक्ति जन्म लेकर ज्योंही जीवन रक्षा के लिए व्याकुल वाणी में पुकारना प्रारम्भ करता है तभी कुशल धात्री सर्व प्रथम उसके शरीर को स्वच्छ करके स्नान कराती है। इसी प्रकार जीवन के पर्यवसान में भी जब उसकी आत्मा शरीर को छोड़कर अनन्त मे लीन हो जाती है तब भी उसके शरीर को चितारोहण से पूर्व एक बार पुनः स्नान कराया जाता है और अन्त में जब सब कुछ शरीर भस्मान्त बन जाता है उस समय उस भस्म में से चुनी हुईं अस्थियॉं भी पतित पावनी जाह्नवी में अनन्त स्नान के लिए विसर्जित की जाती हैं। इससे अधिक स्नान का महत्त्व किसी देश और किसी धर्म में देखने को नहीं मिल सकता है। स्नान करने के पश्चात् मनुष्य शुद्ध होकर सन्ध्या, जप, देवपूजन आदि समस्त कर्मों के योग्य बनता है।  
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स्नानमूलाः क्रियाः सर्वाः श्रुतिस्मृत्युदिता नृणाम् । तस्मात् स्नानं निषेवेत श्रीपुष्ट्यारोग्यवर्धनम् ।।
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श्री पुष्टि एवं आरोग्यकी वृद्धि चाहनेवाले मनुष्यको स्नान सदैव करना चाहिये। इसीलिये शास्त्रों में स्नान का विधान किया गया है।
      
== परिचय ==
 
== परिचय ==
<blockquote>नित्यं स्नात्वा शुचिः कुर्याद्देवर्षिपितृतर्पणम् (मनु)</blockquote>अर्थात्-प्रतिदिन प्रात स्नान करके शुचि होकर सन्ध्यावन्दन तथा देवपि तर्पणादि नित्य कर्म करे ।
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<blockquote>स्नानमूलाः क्रियाः सर्वाः श्रुतिस्मृत्युदिता नृणाम् । तस्मात् स्नानं निषेवेत श्रीपुष्ट्यारोग्यवर्धनम् ।।</blockquote>श्री पुष्टि एवं आरोग्यकी वृद्धि चाहनेवाले मनुष्यको स्नान सदैव करना चाहिये। इसीलिये शास्त्रों में स्नान का विधान किया गया है। <blockquote>नित्यं स्नात्वा शुचिः कुर्याद्देवर्षिपितृतर्पणम् (मनु)</blockquote>अर्थात्-प्रतिदिन प्रात स्नान करके शुचि होकर सन्ध्यावन्दन तथा देवपि तर्पणादि नित्य कर्म करे ।
    
हिन्दु जाति के सभी धार्मिक तथा सामाजिक कृत्यो मे 'स्नान' एक अनिवार्य और आवश्यक कृत्य है । सध्या वन्दनादि साधारण दैनिक कृत्यो से लेकर बड़े से बडे अश्वमेव यज्ञ पर्यन्त सभी कर्मों का प्रारम्भ स्नान से ही होता है। यही क्यो, एक हिन्दू के जीवन का प्रारम्भ भी स्नान ही से होता है और पर्यवसान भी स्नान मे ही । वालक,<blockquote>गुणा दश स्नानकृतो हि पुंसो रूपं च तेजश्च बलं च शौचम्। (विश्वा०स्मृ० १।८६)</blockquote>स्नानसे मात्र शुद्धि ही नहीं, अपितु रूप, तेज, शौर्य आदिकी भी वृद्धि होती है।  
 
हिन्दु जाति के सभी धार्मिक तथा सामाजिक कृत्यो मे 'स्नान' एक अनिवार्य और आवश्यक कृत्य है । सध्या वन्दनादि साधारण दैनिक कृत्यो से लेकर बड़े से बडे अश्वमेव यज्ञ पर्यन्त सभी कर्मों का प्रारम्भ स्नान से ही होता है। यही क्यो, एक हिन्दू के जीवन का प्रारम्भ भी स्नान ही से होता है और पर्यवसान भी स्नान मे ही । वालक,<blockquote>गुणा दश स्नानकृतो हि पुंसो रूपं च तेजश्च बलं च शौचम्। (विश्वा०स्मृ० १।८६)</blockquote>स्नानसे मात्र शुद्धि ही नहीं, अपितु रूप, तेज, शौर्य आदिकी भी वृद्धि होती है।  
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स्नानकी विधि-उषा की लालीसे पहले ही स्नान करना उत्तम माना गया है । इससे प्राजापत्यका फल प्राप्त होता है । तेल लगाकर तथा देहको मल-मलकर नदीमें नहाना मना है। अतः नदीसे बाहर तटपर ही देहहाथ मलकर नहा ले, तब नदीमें गोता लगाये। शास्त्रोंने इसे 'मलापकर्षण' स्नान कहा है। यह अमन्त्रक होता है। यह स्नान स्वास्थ्य और शुचिता दोनोंके लिये आवश्यक है। देहमें मल रह जानेसे शुचितामें कमी आ जाती है और रोमछिद्रोंके न खुलनेसे स्वास्थ्य में भी अवरोध हो जाता है। इसलिये मोटे कपड़ेसे प्रत्येक अङ्गको खूब रगड़-रगड़कर तटपर नहा लेना चाहिये। निवीती होकर बेसन आदिसे यज्ञोपवीत भी स्वच्छ कर ले ।
 
स्नानकी विधि-उषा की लालीसे पहले ही स्नान करना उत्तम माना गया है । इससे प्राजापत्यका फल प्राप्त होता है । तेल लगाकर तथा देहको मल-मलकर नदीमें नहाना मना है। अतः नदीसे बाहर तटपर ही देहहाथ मलकर नहा ले, तब नदीमें गोता लगाये। शास्त्रोंने इसे 'मलापकर्षण' स्नान कहा है। यह अमन्त्रक होता है। यह स्नान स्वास्थ्य और शुचिता दोनोंके लिये आवश्यक है। देहमें मल रह जानेसे शुचितामें कमी आ जाती है और रोमछिद्रोंके न खुलनेसे स्वास्थ्य में भी अवरोध हो जाता है। इसलिये मोटे कपड़ेसे प्रत्येक अङ्गको खूब रगड़-रगड़कर तटपर नहा लेना चाहिये। निवीती होकर बेसन आदिसे यज्ञोपवीत भी स्वच्छ कर ले ।
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==== शूद्रों के हाथ से स्नान निषेध ====
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==== स्नान निषेध ====
    
==== स्नान के अंग ====
 
==== स्नान के अंग ====
    
==== विशेष स्नान ====
 
==== विशेष स्नान ====
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<blockquote>सन्ध्याकालेऽर्चनाकाले संक्रान्तौ ग्रहणे तथा । वमने मद्यमांसास्थिचर्मस्पर्शेऽङ्गनारतौ ॥ १०७ ॥</blockquote><blockquote>अशौचान्ते च रोगान्ते स्मशाने मरणश्रुतौ । दुःस्वप्ने च शवस्पर्शे स्पर्शनेऽन्त्यजनेऽपि वा ॥ १०८ ।।</blockquote><blockquote>स्पृष्टे विष्णमूत्रकाकोलूकश्वानग्रामस्करे । ऋषीणां मरणे जाते दूरान्तमरणे श्रुते ॥ १०९॥</blockquote><blockquote>उच्छिष्टास्पृश्यवान्तादिरजस्वलादिसंश्रये । अस्पृश्यस्पृष्टवस्त्रात्रभुक्तपत्रविभाजने ॥ ११० ॥</blockquote><blockquote>शुद्ध वारिणि पूर्वोक्तं यन्त्र मन्त्रे सचेलकः । कुर्यात्स्नानत्रयं जिहादन्तधावनपूर्वकम् ॥ १११ ।।</blockquote><blockquote>अर्घ च तर्पणं मन्त्रजपदानार्चनं चरेत् । बहिरन्तर्गता शुद्धिरेवं स्याद्गृहमेधिनाम् ॥ ११२ ॥</blockquote>'''अर्थ-'''सन्ध्याके समय, पूजाके समय, संक्रान्तिके दिन, ग्रहण के दिन, उल्टी हो जानेपर, मदिरा, मांस हडी, चर्म, इनका स्पर्श हो जानेपर, मैथुन करनेपर, टट्टी होकर आने पर, बीमारीसे उठने पर, मशान घाटके ऊपर जानेपर, किसीका मरण सुनने पर, खराब स्वप्नके आनेपर, मुर्देसे छू जानेपर, चांडालादिका स्पर्श हो जानेपर, बिष्ठा-मूत्र, कौआ, उजू, स्वान, ग्राम-शूकरोंसे छू आनेपर, ऋषियोंकी मृत्यु हो जानेपर, अपने कुटुंबीकी दूरसे या पाससे मरणकी सुनावनी आनेपर, उच्छिष्ठ, अस्पर्श, वमन, रजस्वला आदिका संसर्ग हो जानेपर, अस्पर्श मनुष्योंके जुए हुए वस्त्र, अन्न, भोजन, आदिसे छू जाने पर और जीमते समय पत्तल फट जानेपर, दतौनके साथ साथ पूर्वोक्त मंत्र-यंत्रे पूर्वक शुद्ध जलसे तीन वार स्नान करे, अपने पहने हुए सब कपड़ोंको धोवे तथा अर्घ, तर्पण, मंत्र, जप, दान, पूजा वगैरह सब कार्य करे । इस तरह करनेसे गृहस्थियोंकी बाह्य अभ्यन्तर शुद्धि होती है ॥१०७॥११२ ॥<ref>श्रीसोमसेन भट्टारक, त्रैवर्णिकाचार, बम्बई: जैनसाहित्य-प्रसारक कार्यलय हीराबाग गिरगाव(पृ० ४५)।</ref>
    
==== स्नान के समय में मन्त्र ====
 
==== स्नान के समय में मन्त्र ====
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== स्नान के लाभ ==
 
== स्नान के लाभ ==
 
स्नान करते ही मनुष्य पवित्रता और आनन्द का अनुभव करने लगता है। भौतिक लाभ की दृष्टि से आयुर्वेद शास्त्र सुश्रुत संहिता में इस प्रकार लिखा है-<blockquote>निद्रादाहश्रम हरं स्वेद कण्डू तृषापहम् । हृद्य मल हरं श्रेष्ठं सर्वेन्द्रिय विशोधनम् ॥</blockquote><blockquote>तन्द्रायाथोपशमनं पुष्टिदं पुसत्व वर्द्धनम् । रक्तप्रसादनं चापि स्नान मग्नेश्च दीपनम् ॥ (सु०चि०स्थान ११७।११८)</blockquote>अर्थात् स्नान से निद्रा, दाह, थकावट, पसीना, तथा प्यास दूर होती है। स्नान हृदय को हितकर मैल को दूर करने में श्रेष्ठ तथा समस्त इन्द्रियों का शोधन करने वाला होता है। तन्द्रा (आलस्य अथवा ऊंघना ) कष्ट निवारक, पुष्टिकर्ता, पुरुषत्ववर्द्धक, रक्त शोधक और जठराग्नि को प्रदीप्त करने वाला है । चरक में भी लिखा है कि-<blockquote>दौर्गन्ध्यं गौरवं तन्द्रा कण्डूमलमरोचकम् । स्वेदं वीभत्सतां हन्ति शरीर परिमार्जनम् ।।</blockquote>अर्थात् स्नान देह दुर्गन्ध नाशक, शरीर के भारीपन को दूर करने वाला, तन्द्रा ( शरीर में निद्रावत् क्लान्ति होना ), खुजली, मैल, मन की अरुचि तथा पसीना एवं देह की कुरूपता को नष्ट करता है। जो लोग ढोंग समझकर अथवा आलस्यवश नित्य स्नान नहीं करते उन्हें स्नान के गुण व लाभ समझ लेने चाहिये और नित्य प्रातः स्नान अवश्य करना चाहिये ।
 
स्नान करते ही मनुष्य पवित्रता और आनन्द का अनुभव करने लगता है। भौतिक लाभ की दृष्टि से आयुर्वेद शास्त्र सुश्रुत संहिता में इस प्रकार लिखा है-<blockquote>निद्रादाहश्रम हरं स्वेद कण्डू तृषापहम् । हृद्य मल हरं श्रेष्ठं सर्वेन्द्रिय विशोधनम् ॥</blockquote><blockquote>तन्द्रायाथोपशमनं पुष्टिदं पुसत्व वर्द्धनम् । रक्तप्रसादनं चापि स्नान मग्नेश्च दीपनम् ॥ (सु०चि०स्थान ११७।११८)</blockquote>अर्थात् स्नान से निद्रा, दाह, थकावट, पसीना, तथा प्यास दूर होती है। स्नान हृदय को हितकर मैल को दूर करने में श्रेष्ठ तथा समस्त इन्द्रियों का शोधन करने वाला होता है। तन्द्रा (आलस्य अथवा ऊंघना ) कष्ट निवारक, पुष्टिकर्ता, पुरुषत्ववर्द्धक, रक्त शोधक और जठराग्नि को प्रदीप्त करने वाला है । चरक में भी लिखा है कि-<blockquote>दौर्गन्ध्यं गौरवं तन्द्रा कण्डूमलमरोचकम् । स्वेदं वीभत्सतां हन्ति शरीर परिमार्जनम् ।।</blockquote>अर्थात् स्नान देह दुर्गन्ध नाशक, शरीर के भारीपन को दूर करने वाला, तन्द्रा ( शरीर में निद्रावत् क्लान्ति होना ), खुजली, मैल, मन की अरुचि तथा पसीना एवं देह की कुरूपता को नष्ट करता है। जो लोग ढोंग समझकर अथवा आलस्यवश नित्य स्नान नहीं करते उन्हें स्नान के गुण व लाभ समझ लेने चाहिये और नित्य प्रातः स्नान अवश्य करना चाहिये ।
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स्नानमूलाः क्रियाः सर्वाः श्रुतिस्मृत्युदिता नृणाम् । तस्मात् स्नानं निषेवेत श्रीपुष्ट्यारोग्यवर्धनम् ।।
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श्री पुष्टि एवं आरोग्यकी वृद्धि चाहनेवाले मनुष्यको स्नान सदैव करना चाहिये। इसीलिये शास्त्रों में स्नान का विधान किया गया है। 
    
== उद्धरण ==
 
== उद्धरण ==
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