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− | शारीरिक शिक्षा
| + | {{One source|date=October 2019}} |
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− | उद्देश्य | + | == उद्देश्य == |
| + | एक कहावत है 'पहला सुख, निरोगी काया' अर्थात् शरीर का आरोग्य अच्छा हो तभी सुख का अनुभव होता है<ref>प्रारम्भिक पाठ्यक्रम एवं आचार्य अभिभावक निर्देशिका - अध्याय ८, प्रकाशक: पुनरुत्थान प्रकाशन सेवा ट्रस्ट, लेखिका: श्रीमती इंदुमती काटदरे</ref>। अन्य किसी भी प्रकार का सुख यदि शरीर स्वस्थ न हो तो भोगा नहीं जा सकता है। संस्कृत में एक उक्ति है, 'शरीरमाद्यं खल धर्मसाधनम' धर्म के आचरण के लिए पहला साधन शरीर है। हमारा जीवन व्यवहार चलाने में महत्तम उपयोग शरीर का ही होता है। शरीर के बिना हमारा जीवन चल ही नहीं सकता। अतः शरीर का स्वस्थ होना ईश्वर का ही मूल्यवान आशीर्वाद है। शरीर को स्वस्थ रखना प्रत्येक व्यक्ति का प्रथम कर्तव्य है। |
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− | एक कहावत है 'पहेला सुख, निरोगी काया' अर्थात् शरीर का आरोग्य अच्छा हो तभी सुख का अनुभव होता है। अन्य किसी भी प्रकार का सुख यदि शरीर स्वस्थ न हो तो भोगा नहीं जा सकता है। संस्कृत में एक उक्ति है, 'शरीरमाद्यं खल धर्मसाधनम' धर्म के आचरण के लिए पहला साधन शरीर है। हमारा जीवन व्यवहार चलाने में महत्तम उपयोग शरीर का ही होता है। शरीर के बिना हमारा जीवन चल ही नहीं सकता। इसलिए शरीर का स्वस्थ होना ईश्वर का ही मूल्यवान आशीर्वाद है। शरीर को स्वस्थ रखना प्रत्येक व्यक्ति का प्रथम कर्तव्य है।
| + | शरीर स्वस्थ बने एवं रहे इस दृष्टि से विद्यालयों में शारीरिक शिक्षण की व्यवस्था की जाती है। परंतु स्वस्थ शरीर का अर्थ क्या है ? केवल सुन्दर होना ही स्वस्थ शरीर का मापदंड नहीं है। अच्छे स्वस्थ शरीर के लक्षण इस प्रकार है। |
| + | # शरीर स्वस्थ होना, अर्थात् शरीर के बाह्याभन्तर अंगोंने अपना अपना कार्य सुचारू रूप से करना। शरीर के आंतरिक अंग अर्थात् पेट, हृदय, मस्तिष्क, फेफडे इत्यादि। विज्ञान की भाषा में इन्हें पाचनतंत्र, रूधिराभिसरण तंत्र, श्वसनतंत्र इत्यादि कहते हैं। ये सभी अंग अच्छी तरह कार्य करते हों तो शरीर स्वस्थ रहता है। शरीर में रक्त, अस्थियाँ, मांस, मज्जा, स्नायु इत्यादि भी होते हैं। ये सब भी उत्तम स्थिति में हों तो शरीर स्वास्थ्य अच्छा है ऐसा कहा जाएगा। |
| + | # अच्छे स्वस्थ शरीर का दूसरा लक्षण बल है। शरीर में ताकत भी होना चाहिए। तभी वह भारी कार्यों को करने में समर्थ बन पायेगा। अधिक कार्य कर पायेगा। लंबे समय तक कार्य कर पायेगा। थकान कम लगेगी. बीमारी कम आएगी। यदि बीमारी आए तो जल्दी से स्वस्थ हो जाएगा। ताकत हो तो वह अधिक वजन उठा सकेगा, दौड़ में ज्यादा दूरी तय कर पायेगा, चल सकेगा,एवं साहसपूर्ण कार्य भी कर पाएगा। |
| + | # अच्छे शरीर का तीसरा लक्षण है काम करने की कुशलता। अंग्रेजी में इसे (Skill) कहते हैं। कुशलता को इतना मूल्यवान माना गया है कि श्रीमद् भगवद्गीता में कहा है, 'योगः कर्मसु कौशलम्' अर्थात् कार्य करने की कुशलता ही योग है। हमारी ज्ञानेन्द्रियां एवं कर्मेन्द्रियां अपना अपना कार्य सही रूप से करें, तेजी से करें, एवं उसमें नयापन हो तो उसे कुशलता कहा जाएगा। कुशलतापूर्वक कार्य करने से ही कलाकारीगरी का विकास होता है। अपने कार्य में कुशलता होने के कारण ही कुम्हार नये-नये प्रकार के विविध आकार के गहने बनाता है। एक कुशल दर्जी नए नए फैशन के कपड़े सीता है। एक कुशल माता विविध प्रकार के स्वादिष्ट व्यंजन बनाकर खिलाती है। एक कुशल लिपिक सुंदर अक्षर से लिखता है। संक्षेप में देखा जाए तो व्यावहारिक जीवन में कशलता बहत बड़ी चीज है। |
| + | # अच्छे शरीर का चौथा लक्षण है - तितिक्षा, अर्थात् सहनशक्ति। सर्दी, गर्मी, वर्षा, भूख, प्यास, जागरण, थकान, इत्यादि शरीर पर पड़ने वाले कष्ट हैं। जानबूझकर इन कष्टों को नहीं भोगना चाहिए परंतु स्थिति आने पर यदि ऐसा कष्ट आ जाए तो उसे सह सकने की क्षमतावाला शरीर होना चाहिए। मध्य जंगल में गाड़ी कहीं रूक जाए, आसपास कहीं भी पानी या खानेकी व्यवस्था न हो तो दसबीस घंटों तक बिना भोजन पानी के रह सकनेवाला शरीर होना चाहिए। कभी किसी उत्सव की तैयारी में सारी रात जगना पड़े तो भी दूसरे दिन ताजा ही रहे ऐसा शरीर होना चाहिए। इस तरह के शरीर को ही अच्छा शरीर कहा जाएगा। |
| + | # अच्छे शरीर का पाँचवाँ लक्षण है -लचीलापन। अर्थात् शरीर को जैसे भी मोडना हो. मोडा जा सके ऐसा लचीलापन हो तो ही अच्छा खेल सकते हैं. अच्छा नृत्य कर सकते हैं, अच्छी तरह काम कर सकते हैं। |
| + | शरीर को ऐसे पाँच गुणों से युक्त बनाना ही शारीरिक शिक्षा का उद्देश्य है। |
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− | शरीर स्वस्थ बने एवं रहे इस दृष्टि से विद्यालयों में शारीरिक शिक्षण की व्यवस्था की जाती है। परंतु स्वस्थ शरीर का अर्थ क्या है ? केवल सुन्दर होना ही स्वस्थ शरीर का मापदंड नहीं है। अच्छे स्वस्थ शरीर के लक्षण इस प्रकार है। १. शरीर स्वस्थ होना, अर्थात् शरीर के बाह्याभन्तर अंगोंने अपना अपना कार्य | + | == आलंबन == |
| + | # शरीर ईश्वर के द्वारा प्रदान की गई अमूल्य सम्पत्ति है। उसका जतन करना चाहिए। शरीर का जतन करना हमारा प्रथम कर्तव्य है। |
| + | # शरीर काम करने के लिए है, केवल शोभा के लिए। |
| + | # सुन्दर शरीर की अपेक्षा मेहनती व गठीले शरीर की आवश्यकता अधिक है। |
| + | # यह 'तन' सेवा करने के लिए है, सेवा लेने के लिए नहीं है। |
| + | # व्यक्तिगत काम, परिवार के कार्य, विविध प्रकार की कारीगरी, कला, खेल, इत्यादि करना शरीर का काम है। |
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− | सुचारू रूप से करना। शरीर के आंतरिक अंग अर्थात् पेट, हृदय, मस्तिष्क, फेफडे इत्यादि। विज्ञान की भाषा में इन्हें पाचनतंत्र, रूधिराभिसरण तंत्र, श्वसनतंत्र इत्यादि कहते हैं। ये सभी अंग अच्छी तरह कार्य करते हों तो शरीर स्वस्थ रहता है। शरीर में रक्त, अस्थियाँ, मांस, मज्जा, स्नायु इत्यादि भी होते हैं। ये सब भी उत्तम स्थिति में हों तो शरीर स्वास्थ्य अच्छा है
| + | == पाठ्यक्रम == |
| + | उपर्युक्त उद्देश्य व आलंबन को ध्यान में रखकर कक्षा १ व २ के लिए निम्न बातें पाठ्यक्रम के रूप में निश्चित की गई हैं। |
| + | # शरीर की भिन्न भिन्न स्थितियाँ योग्य बनें। अर्थात् उन्हें बैठने की, खड़े रहने की, लेटने की, सोने की, चलने की योग्य पद्धति सिखाना। |
| + | # ज्ञानेन्द्रियों को अनुभव लेना, एवं कर्मेन्द्रियों को कुशलतापूर्वक काम करना सिखाना। कुल पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ हैं - दृश्येन्द्रिय, श्रवणेन्द्रिय, स्वादेन्द्रिय, घ्राणेन्द्रिय एवं स्पर्शेन्द्रिय। पाँचों ज्ञानेन्द्रियों के विषय हैं - देखना, सुनना, चखना, सुंघना एवं स्पर्श करना। इन पाँचों अनुभवों की खूबियाँ व विशेषताएँ सीखना। पाँच कर्मेन्द्रियाँ हैं - हाथ, पैर, वाणी, आयु एवं उपस्थ । इन में से तीन कर्मेन्द्रियों की कुशलता सिखाना चाहिए। ये तीन कर्मेन्द्रियाँ हैं हाथ, पैर एवं वाणी। हाथ की कुशलताएँ इस प्रकार हैं - पकड़ना, गूंथना, लिखना, फैंकना, उठाना, दबाना, घसीटना, खींचना, ढकेलना, उछालना, चित्र बनाना, कूटना, रंगना इत्यादि। इनमें से गूंथना, चित्र बनाना, पीसना, कूटना, रंगना उद्योग के विषय में पहले समावेश पा चुका है। 'लिखने' का समावेश [[शिक्षा पाठ्यक्रम एवं निर्देशिका-भाषा-3|भाषा]] में होगा। शेष कुशलताओं का समावेश शारीरिक शिक्षा के विषय में होगा। पैर की कुशलताएँ इस प्रकार हैं: खड़े रहना, चलना, दौड़ना, ठोकर मारना, पैरों से दबाना, कूदना, छलांग लगाना, नृत्य करना, पेडल मारना, चढ़ना, उतरना, पालथी लगाना इत्यादि। इनमें से नृत्य करने का समावेश [[शिक्षा पाठ्यक्रम एवं निर्देशिका-संगीत-5|संगीत]] में होता है। एवं पालथी लगाने का समावेश [[शिक्षा पाठ्यक्रम एवं निर्देशिका-योग-1|योग]] में होता है। शेष सभी कुशलताएँ शारीरिक शिक्षा का भाग हैं। बोलना व गाना वाणी की कुशलताएँ हैं। इनमें से बोलना [[शिक्षा पाठ्यक्रम एवं निर्देशिका-भाषा-3|भाषाशिक्षण]] एवं गाना [[शिक्षा पाठ्यक्रम एवं निर्देशिका-संगीत-5|संगीत]] विषय का भाग है। इस तरह कुशलता की दृष्टि से देखा जाय तो पैर व हाथ की कुशलताओं के प्रति ध्यान केन्द्रित करने की आवश्यकता है। |
| + | # शरीर का संतुलन व संचालन: शरीर के सभी अंग एक साथ मिलकर काम करते हैं, अकेले अकेले अलग अलग नहीं करते हैं। अतः सभी तरह की हलचल व्यवस्थित रूप से हो, इसके लिए शरीर पर नियंत्रण प्राप्त होना आवश्यक है। जीवन व्यवहार के सभी कार्य हाथ, पैर, वाणी का एकसाथ उपयोग करके ही होते हैं। जैसे हलचल आवश्यक है, उसी तरह बिना हिले स्थिर बैठना भी आवश्यक है। संकरी जगह में खड़े रहना, चलना भी जरुरी है। कम जगह में सिकुड़कर बैठना भी आवश्यक है, अचानक धक्का लगने पर लुढ़क न जाएँ यह भी आवश्यक है, अचानक कोई पत्थर अपनी तरफ आता हो तो उससे बचना भी आवश्यक है, निशाना लगाना भी आवश्यक है। यह सब शरीर के संतुलन एवं शरीर के नियंत्रण से हो सकता है। |
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− | ऐसा कहा जाएगा। २. अच्छे स्वस्थ शरीर का दूसरा लक्षण बल है। शरीर में ताकत भी होना
| + | == शरीर परिचय == |
− | | + | अपने शरीर को जानना, समझना, पहचानना भी आवश्यक है। हमारा शरीर किस प्रकार काम करता है। इसकी हमें जानकारी होनी चाहिए। इस दृष्टि से शरीर के बाह्य एवं आंतरिक अंगों का परिचय, उनकी काम करने पद्धति, इत्यादि छात्रों को जानना चाहिए। |
− | चाहिए। तभी वह भारी कार्यों को करने में समर्थ बन पायेगा। अधिक कार्य कर पायेगा। लंबे समय तक कार्य कर पायेगा। थकान कम लगेगी. बीमारी कम आएगी। यदि बीमारी आए तो जल्दी से स्वस्थ हो जाएगा। ताकत हो तो वह अधिक वजन उठा सकेगा, दौड़ में ज्यादा दूरी तय कर पायेगा, चल
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− | सकेगा,एवं साहसपूर्ण कार्य भी कर पाएगा। ३. अच्छे शरीर का तीसरा लक्षण है काम करने की कुशलता। अंग्रेजी में इसे (Skill) कहते हैं। कुशलता को इतना मूल्यवान माना गया है कि श्रीमद् भगवद्गीता में कहा है, 'योगः कर्मसु कौशलम्' अर्थात् कार्य करने की कुशलता ही योग है। हमारी ज्ञानेन्द्रियां एवं कर्मेन्द्रियां अपना अपना कार्य सही रूप से करें, तेजी से करें, एवं उसमें नयापन हो तो उसे कुशलता कहा जाएगा। कुशलतापूर्वक कार्य करने से ही कलाकारीगरी का विकास होता है। अपने कार्य में कुशलता होने के कारण ही कुम्हार नये-नये प्रकार के विविध आकार के गहने बनाता है। एक कुशल दर्जी नए नए फैशन के कपड़े सीता है। एक कुशल माता विविध प्रकार के स्वादिष्ट व्यंजन बनाकर खिलाती है। एक कुशल लिपिक सुंदर अक्षर से लिखता है। संक्षेप में देखा जाए तो व्यावहारिक जीवन में कशलता बहत बड़ी चीज है। अच्छे शरीर का चौथा लक्षण है - तितिक्षा, अर्थात् सहनशक्ति। सर्दी, गर्मी, वर्षा, भूख, प्यास, जागरण, थकान, इत्यादि शरीर पर पड़ने वाले कष्ट हैं। जानबूझकर इन कष्टों को नहीं भोगना चाहिए परंतु स्थिति आने पर यदि ऐसा कष्ट आ जाए तो उसे सह सकने की क्षमतावाला शरीर होना चाहिए। बीच जंगल में गाड़ी कहीं रूक जाए, आसपास कहीं भी पानी या खानेकी व्यवस्था न हो तो दसबीस घंटों तक बिना भोजन पानी के रह सकनेवाला शरीर होना चाहिए। कभी किसी उत्सव की तैयारी में सारी रात जगना पड़े तो भी दूसरे दिन ताजा ही रहे ऐसा शरीर होना चाहिए। इस तरह के शरीर को ही अच्छा शरीर कहा जाएगा। अच्छे शरीर का पाँचवाँ लक्षण है -लचीलापन। अर्थात् शरीर को जैसे भी मोडना हो. मोडा जा सके ऐसा लचीलापन हो तो ही अच्छा खेल सकते हैं. अच्छा नृत्य कर सकते हैं, अच्छी तरह काम कर सकते हैं।
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− | शरीर को ऐसे पाँच गुणों से युक्त बनाना ही शारीरिक शिक्षा का उद्देश्य है। आलंबन १. शरीर ईश्वर के द्वारा प्रदान की गई अमूल्य सम्पत्ति है। उसका जतन करना
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− | चाहिए। शरीर का जतन करना हमारा प्रथम कर्तव्य है। २. शरीर काम करने के लिए है, केवल शोभा के लिए। ३. सुन्दर शरीर की अपेक्षा मेहनती व गठीले शरीर की आवश्यकता अधिक है। ४. यह 'तन' सेवा करने के लिए है, सेवा लेने के लिए नहीं है। ५. व्यक्तिगत काम, परिवार के कार्य, विविध प्रकार की कारीगरी, कला, खेल,
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− | इत्यादि करना शरीर का काम है।
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− | पाठ्यक्रम
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− | उपर्युक्त उद्देश्य व आलंबन को ध्यान में रखकर कक्षा १ व २ के लिए निम्न
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− | बातें पाठ्यक्रम के रूप में निश्चित की गई हैं। १. शरीर की भिन्न भिन्न स्थितियाँ योग्य बनें। अर्थात् उन्हें बैठने की, खड़े रहने
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− | की, लेटने की, सोने की, चलने की योग्य पद्धति सिखाना। ज्ञानेन्द्रियों को अनुभव लेना, एवं कर्मेन्द्रियों को कुशलतापूर्वक काम करना सिखाना। कुल पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ हैं - दृश्येन्द्रिय, श्रवणेन्द्रिय, स्वादेन्द्रिय, घ्राणेन्द्रिय एवं स्पर्शेन्द्रिय। पाँचों ज्ञानेन्द्रियों के विषय हैं - देखना, सुनना, चखना, सुंघना एवं स्पर्श करना। इन पाँचों अनुभवों की खूबियाँ व विशेषताएँ सीखना। पाँच कर्मेन्द्रियाँ हैं - हाथ, पैर, वाणी, आयु एवं उपस्थ । इन में से तीन कर्मेन्द्रियों की कुशलता
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− | सिखाना चाहिए। ये तीन कर्मेन्द्रियाँ हैं हाथ, पैर एवं वाणी। हाथ की कुशलताएँ इस प्रकार हैं -
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− | पकड़ना, गूंथना, लिखना, फैंकना, उठाना, दबाना, घसीटना, खींचना, ढकेलना, उछालना, चित्र बनाना, कूटना, रंगना इत्यादि। इनमें से गूंथना, चित्र बनाना, पीसना, कूटना, रंगना उद्योग के विषय में पहले समावेश पा चुका है।
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− | 'लिखने' का समावेश भाषा में होगा। शेष कुशलताओं का समावेश शारीरिक शिक्षा के विषय में होगा।
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− | पैर की कुशलताएँ इस प्रकार हैं।
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− | खड़े रहना, चलना, दौड़ना, ठोकर मारना, पैरों से दबाना, कूदना, छलांग लगाना, नृत्य करना, पेडल मारना, चढ़ना, उतरना, पालथी लगाना इत्यादि।
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− | इनमें से नृत्य करने का समावेश संगीत में होता है। एवं पालथी लगाने का समावेश योग में होता है। शेष सभी कुशलताएँ शारीरिक शिक्षा का भाग हैं।
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− | बोलना व गाना वाणी की कुशलताएँ हैं। इनमें से बोलना भाषाशिक्षण एवं गाना संगीत विषय का भाग है। इस तरह कुशलता की दृष्टि से देखा जाय तो पैर व हाथ की कुशलताओं के प्रति ध्यान केन्द्रित करने की आवश्यकता है। ३. शरीर का संतुलन व संचालन
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− | शरीर के सभी अंग एक साथ मिलकर काम करते हैं, अकेले अकेले अलग अलग नहीं करते हैं। इसलिए सभी तरह की हलचल व्यवस्थित रूप से हो, इसके लिए शरीर पर नियंत्रण प्राप्त होना आवश्यक है। जीवन व्यवहार के सभी कार्य हाथ, पैर, वाणी का एकसाथ उपयोग करके ही होते हैं। जैसे हलचल आवश्यक है, उसी तरह बिना हिले स्थिर बैठना भी जरूरी है। संकरी जगह में खड़े रहना, चलना भी जरुरी है। कम जगह में सिकुड़कर बैठना भी आवश्यक है, अचानक धक्का लगने पर लुढ़क न जाएँ यह भी आवश्यक है, अचानक कोई पत्थर अपनी तरफ आता हो तो उससे बचना भी आवश्यक है, निशाना लगाना भी जरूरी है। यह सब शरीर के संतुलन एवं शरीर के नियंत्रण से हो सकता है। ४. शरीर परिचय
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− | अपने शरीर को जानना, समझना, पहचानना भी आवश्यक है। हमारा शरीर किस प्रकार काम करता है। इसकी हमें जानकारी होनी चाहिए। इस दृष्टि से शरीर के बाह्य एवं आंतरिक अंगों का परिचय, उनकी काम करने पद्धति, इत्यादि छात्रों को जानना चाहिए। ५. आहार विहार | |
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| + | == आहार विहार == |
| शरीर को स्वस्थ रखने के लिए, बलवान बनाने के लिए, सुडौल बनाने के लिए, कार्यक्षम बनाने के लिए आहार एवं विहार का ध्यान रखना आवश्यक है। | | शरीर को स्वस्थ रखने के लिए, बलवान बनाने के लिए, सुडौल बनाने के लिए, कार्यक्षम बनाने के लिए आहार एवं विहार का ध्यान रखना आवश्यक है। |
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− | आहार : आहार अर्थात् भोजन। क्या खाना, कितना खाना, कैसे खाना, क्यों खाना इत्यादि। इस विषय में केवल सूचना ही पर्याप्त है ऐसा न मानकर उसका प्रायोगिक स्वरूप में होना आवश्यक है। जैसे क्या खाना यह महत्त्वपूर्ण है वैसे ही क्या न खाना यह जानना एवं उस अनुसार करना भी उतना ही आवश्यक है। * विहार १. दिनचर्या : दिन के किस भाग में क्या करना इसके आयोजन को दिनचर्या | + | === आहार : === |
− | | + | आहार अर्थात् भोजन। क्या खाना, कितना खाना, कैसे खाना, क्यों खाना इत्यादि। इस विषय में केवल सूचना ही पर्याप्त है ऐसा न मानकर उसका प्रायोगिक स्वरूप में होना आवश्यक है। जैसे क्या खाना यह महत्त्वपूर्ण है वैसे ही क्या न खाना यह जानना एवं उस अनुसार करना भी उतना ही आवश्यक है। |
− | कहते हैं। २. कपड़े एवं पादत्राण : कैसे होने चाहिए एवं कैसे नहीं होने चाहिए। । ३. स्वच्छता : शरीर के अंगों की अर्थात् दाँत, आँख, कान, नाक, संपूर्ण शरीर ।
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− | इस दृष्टि से निम्न बातें सिखाएँ - दाँत साफ करना, कुल्ला करना, आँख एवं
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− | नाक साफ करना, हाथ पैर धोना, स्नान करना, बाल सँवारना इत्यादि। ४. निद्रा : कितना सोना, कैसे सोना, कब सोना, बिस्तर कैसा हो इत्यादि।
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− | विवरण
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− | १. शरीरकी भिन्न भिन्न स्थितियाँ १. बैठना : बैठते तो सभी हैं, परंतु अच्छी तरह बैठना चाहिए इस ओर बहुत
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− | कम लोग ध्यान देते हैं। इस दृष्टि से निम्न बातों का ध्यान रखना चाहिए। १. सीधे बैठना : सीधे बैठना अर्थात् सिर का पीछे का हिस्सा, पीठ एवं
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− | कमर सीधी रेखा में रहे इस तरह बैठना। ऐसी आदत बचपन से ही डालना चाहिए। शिथिल होकर बैठना : सीधे बैठने का सिखाने पर छात्र तनकर बैठने लगते हैं। इस तनाव को कम करवाना चाहिए। शिथिल बैठना अर्थात् ढलकर बैठना एवं सीधा बैठना अर्थात तनकर बैठना - ऐसा अर्थ न
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− | करें। ३. बैठक व धरती (जमीन) के बीच में कोई अंतर (दूरी) न रहे इस
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− | प्रकार बैठना चाहिए। पालथी लगाकर बैठे हों या पैरों के बल पर बैठे
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− | हों। तब पैर जमीन से स्पर्श करते हों इसका खास ख्याल रखें। ४. कम से कम समय पैर लटकाकर बैठना पड़े इसका ख्याल रखें। * ध्यान में रखने योग्य बातें १. बचपन में स्वाभाविक रूप से ही शरीर लचीला होता है। इसलिए योग्य
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− | स्थिति की आदत बचपन से ही डालना चाहिए। जैसे जैसे आयु बढ़ती है,
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− | पुरानी आदतों को बदलना या भुलाना मुश्किल होता जाता है। २. सीधे बैठा जा सके इसके लिए लिखने के लिए, काम करने के लिए सामने
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− | चौकी होना आवश्यक है। नहीं तो कार्य करने के लिए भी शरीर विकृत रूप
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− | से ढ़लता जाता है। २. खड़े रहना १. दोनों पैरों पर समान भार रहे इस तरह खड़े रहना चाहिए। यह एक
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− | बहुत ही उपयोगी आदत है। परंतु इस ओर ध्यान न देने के कारण लोग डेढ़ पैर पर खड़े रहना सीखते हैं। इसलिए ऐसी आदत विशेष
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− | रूप से डालना चाहिए। २. दोनों पैर एकसाथ जुड़े हों, या दो पैरों के बीच दो कंधों के बीच
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− | जितनी दूरी होती है, उतनी दूरी रखना चाहिए।
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− | ३. खड़े रहते समय एडी अंदर की ओर एवं पंजा बाहर की ओर रहे यही
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− | सही स्थिति है। उस ओर ध्यान दें। आदर्श स्थिति यह है कि एड़ी को जोड़कर यदि शरीर के समकोण पर सीधी रेखा खींची आए तो पंजों के बीच का कोण बनना चाहिए। यदी एडी जुड़ी हो तो दोनों के
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− | बीच ३०° का कोण बनना चाहिए। ४. सीधे खड़े रहना चाहिए। कमर या कंधे दबे हुए या झुके हुए न हों
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− | इसका ध्यान रखना चाहिए। इस ओर आजकल लोगों का ध्यान न होने के कारण अनेकों लोगो का सीना दबा होता है, या कंधे झुके होते हैं, या कमर बैठी हुई होती है, या तो पेट बाहर की ओर निकला
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− | हुआ होता है। ३. चलना १. जो स्थिति सीधे खड़े रहने की है। वही चलने के लिए भी आदर्श
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− | स्थिति है। २. पैर घसीटकर नहीं परन्तु पैर उठाकर चलना चाहिए। ३. चलते समय पैर अन्दर या बाहर की ओर न पड़कर सीधे ही जमीन
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− | पर पड़ें इसका ख्याल रखना चाहिए। ४. छात्र जब चलते हों तब उनके पैरों का आकार व चलने की पद्धति पर
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− | विशेष रूप से ध्यान केन्द्रित करना चाहिए। ४. उठना १. बैठे हों या लेटे हों, उस अवस्था से उठते समय शरीर बेढब न बने
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− | इसका ख्याल रखना चाहिए। २. यदि लेटे हों एवं उठना हो तो प्रथम करवट बदलें और इसके बाद
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− | उठने का उपक्रम करना चाहिए। ४. सोना
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− | १. हाथपैर समेटकर या बकुची बांधकर कभी भी नहीं सोना चाहिए। २. हमेशा बाई करवट ही सोएँ। ३. सीधे (पीठ के बल), उल्टे (पेट के बल) कभी भी न सोएँ। ४. मुँह खुला रखकर न सोएँ। ५. सिरमुँह ढंककर कभी नहीं सोना चाहिए।
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− | <nowiki>*</nowiki>
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− | ध्यान में रखने योग्य बातें १. सोने के विषय में जितना सोनेवाले ने अर्थात् छात्र ने ध्यान रखना है उतना
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− | ही या शायद उससे भी अधिक बड़ों को ध्यान रखना है। बड़ों को यह ध्यान रखना चाहिए कि बिस्तर डनलप की गद्दी इत्यादि का न रखकर रूई का ही बना हुआ हो। * उपर की चद्दर पोलीस्टर की न हो। * खिड़की दरवाजे बंद न हों, कमरे में हवा आसानी से आतीजाती हो।
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− | कमरे में खटमल, मच्छर इत्यादि का उपद्रव न हो। यदि हो तो कछुआ छाप मच्छर अगरबत्ती या अन्य साधनों का उपयोग करने के बजाए मच्छरदानी का उपयोग करना चाहिए।
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− | मैले या पोलीस्टर के कपड़े पहनकर नहीं सोना चाहिए। * हाथपैर धोकर ही सोना चाहिए।
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− | निद्रा शरीर के पोषण व स्वास्थ्य के लिए अत्यंत महत्त्वपूर्ण है।
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− | इसलिए उसके प्रति पर्याप्त ध्यान देना चाहिए। २ (क) ज्ञानेन्द्रियाँ १. आँख १. आँखें रंग व आकृति की पहचान करती है। इसलिए छात्रों को भिन्न
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− | भिन्न रंगों व आकारों का परिचय व पहचान करवाना चाहिए। २. आँख को धूप व धुएँ से बचाना चाहिए। ३. आँखों को टी.वी. से तो खास बचाने की आवश्यकता है। कान कान आवाज की पहचान करते हैं। इसलिये उन्हें भिन्न भिन्न ध्वनि से परिचय करवाना चाहिए। जैसे; १. प्राणी, पशुपक्षी, वाहन, मनुष्य, यंत्र इत्यादि की आवाज। २. स्वर पहचानना। ३. गीतों का स्वर पहचानना । ४. हँसना, रोना, गुनगुनाना आदि की पहचान करवाना। ५. भिन्न भिन्न वाद्यों की ध्वनि पहचानना। ६. हमारे आसपास स्थित भिन्न भिन्न आवाजों को पहचानना।
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− | ३. नाक
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− | नाक गंध परखती है। इसलिए भिन्न भिन्न प्रकार की गंधों का परिचय करवाना चाहिए। जैसे १. सुगंध व दुर्गंध २. फूल, फल, सब्जी व मिठाई की सुगंध ३. सड़ने, जलने व गलने की दुर्गंध ४. दवाई की गंध।
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− | जिह्वा
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− | जिह्वा स्वाद परखती है। इसलिए भिन्न-भिन्न प्रकार के स्वाद का परिचय करवाना चाहिए। जैसे : १. मीठा, खट्टा, तीखा, नमकीन, कडुवा व कसैला। २. अलग अलग स्वाद का मिश्रण। ३. फीका एवं तीव्र ४. फल, सागसब्जी, मसाले, मिठाई, भिन्न भिन्न व्यंजन इत्यादि। त्वचा त्वचा भिन्न भिन्न स्पर्श पहचानती है। इसलिए भिन्न भिन्न प्रकार के स्पर्श का परिचय करवाना चाहिए। जैसे - १. ठंडा व गर्म २. खुरदरा व मुलायम
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− | रख्त व नर्म
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− | तीक्ष्ण व भोथरा ५. करकरा व चिकना ६. भिन्न भिन्न वस्तुओं का स्पर्श, जैसे पानी, हवा, मिट्टी, फलफूल, घास
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− | इत्यादि। ध्यान में रखने योग्य बातें १. ज्ञानेन्द्रियों को अलग अलग परिचय करवाते समय चोट न लगे इसका ध्यान
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− | रखना चाहिए। २. ज्ञानेन्द्रियों के अनुभव में विविधता होनी चाहिए। ३. ज्ञानेन्द्रियों के अनुभव में निश्चितता होनी चाहिए। स्वाद या रंग, स्वर या
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− | स्पर्श के विषय में अनिश्चित नहीं रहना चाहिए।
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− | ४. मिश्र रंग या मिश्र स्वाद का परिचय करवाने से पहले मूल रंग एवं मूल स्वाद
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− | का परिचय करवाना चाहिए। इसी तरह फीके (मंद) एवं जलद की प्रक्रिया
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− | भी बताना (दिखाना) चाहिए। २ (ख) कर्मेन्द्रियाँ
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− | आगे बताए गए अनुसार पाँच कर्मेन्द्रियों में से यहाँ सिर्फ दो ही कर्मेन्द्रियों के बारे में हमें सोचना है। वे कर्मेन्द्रियाँ हाथ व पैर हैं। इनमें भी हाथ के कुछ कौशलों के बारे में उद्योग विषय में सोचा गया है। इसलिए
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− | शेष हाथ के कौशल व पैर के कौशल के बारे में यहाँ विचार करना है। हाथ १. फैंकना
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− | १. फैंकने के लिए प्रथम पकड़ना आना चाहिए। २. इसके बाद कहाँ फैंकना है यह निश्चित करके कितना बल लगाना
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− | पड़ेगा व हाथ की स्थिति कैसी रखनी होगी इसका अंदाज लगाना होगा। इस प्रकार फैंकने की क्रिया में हाथ के साथ साथ बुद्धि का भी
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− | उपयोग करना पडता है। ३. क्या क्या फैंका जा सकता है ?
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− | पत्थर, कंकड, गेंद, रिंग, हाथ में समानेवाली कोई भी वस्तु। २. झेलना
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− | किसी अ
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− | न्य के द्वारा फैंकी हुई या स्वयं ही उछाली हुई वस्तु को झेलने के लिए वस्तु की स्थिति, दिशा व चाल का अंदाज तथा हाथ की
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− | योग्य पकड़ होना बहुत जरूरी है। ३. पटकना और झेलना
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− | उछालना व झेलना, फैंकना व झेलना। इन तीनों में दो दो क्रियाएँ एक साथ होती है। दीवार पर गेंद को टकराकर रीबाउन्ड होने पर झेलना, जमीन पर गेंद पटककर रीबाउन्ड होने पर झेलना एवं ऊँचा उछालकर नीचे आने पर गेंद को झेलना यह कौशल व अंदाज करने की क्षमता का दर्शक है। यद्यपि जैसे छोटों को सुनसुनकर बोलना व देख देखकर करना आ जाता है उसी तरह खेलते खेलते, अभ्यास करते करते ये सभी कौशल प्राप्त हो जाते हैं। केवल उन्हें यह सब करने के लिए एक मौके की आवश्यकता है।
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− | ४. ढकेलना
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− | ढकेलना का एक प्रकार गोल वस्तु को ढ़नगाने का है। एवं दूसरा प्रकार सपाट वस्तु को ढकेलने का है। ढकेलना अर्थात् वस्तु को पीछे से जोर लगाकर आगे की ओर सरकना। घसीटना किसी वस्तु को रस्सी से बाँधकर या पकड़कर अपने पीछे पीछे खींचना घसीटना कहलाता है। घसीटने व खींचने में फर्क यह है कि घसीटने में वस्तु हमेशा जमीन के संपर्क में रहती है, जबकि खींचने में वस्तु का जमीन से स्पर्श होना जरूरी नहीं है। ठोकर मारना पैरों से किसी वस्तु को दूर फेंकना ठोकर मारना कहलाता है। गेंद, पत्थर या ऐसी किसी भी वस्तु को ठोकर मारकर दूर फैंकना भी एक अहम कौशल है। ठोकर मारते समय वस्तु का वजन, कितनी दूर फैंकना है, उसका अंदाज, उसकी दिशा तथा उसके अनुसार पैरों की स्थिति आदि का एकसाथ ही
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− | ख्याल रखना पड़ता है। परंतु अभ्यास से ये सभी बातें आने लगती हैं। ७. कूदना १. लंबा कूदना : प्रथम एक पैर से छलांग लगाना सिखाना चाहिए। इसके
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− | बाद ही दोनों पैरों से एक साथ कूदा जा सकेगा। २. छलांग लगाना : पहले एक पैर से एवं बाद में दूसरे पैर से ऊँची वस्तु
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− | को लांघना ही छलांग लगाना है। ३. ऊंची कूद : दोनों पैरों से एकसाथ कूदकर ऊँची वस्तुओं को लांघने
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− | की क्रिया ऊँची कूद कहलाती है। ४. ऊँचाई से कूदना : ऊँचाइ पर खड़े रहकर नीचे की ओर कूदना।
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− | रस्सी कूदना, सीढियाँ लांघना, जीने पर से नीचे कूदना, दहलीज
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− | लांघना इत्यादि प्रकार से ऐसी कूद का अभ्यास किया जा सकता है। ५. पेड़ल मारना : एक के बाद एक पैरो को गोल घुमाना अर्थात् पेड़ल
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− | मारना। तीन पहिएवाली साइकिल चलाना, दो पहिएवाली साइकिल
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− | चलाना, तैरना आदि इस तरह से सीख सकते है। इस तरह कर्मेन्द्रियों के अलग अलग कौशल सीखने के लिए अनेकों खेल व व्यायाम का आयोजन करना चाहिए।
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− | हमारे बहुत से देशी खेल इन सभी कौशलों का विकास करने में सहायता करते हैं। ये खेल आज भी बहुत उपयोगी हैं। कुछदेशी खेल इस प्रकार हैं।
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− | १. कंचे खेलना, २. लट्ट चलाना, ३. चक्र घूमाना, ४. मारदड़ी खेलना, ५. दीवार पर गेंद टकराकर उसे झेलना, ६. गिरो-उठावो खेल, ७. सलाखें घोंचना, ८. जीना का खेल खेलना, ९. रस्सी कूदना इत्यादि। ३. शारीरिक संतुलन व संचालन
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− | शरीर संचालन तो अनेकों खेल व साहसिक कार्यों के द्वारा होता है, परंतु शारीरिक संतुलन के लिए
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− | १. रेखा पर चलना, २. संकरे पट्टे पर चलना, ३. इंट पर चलना, ४. हाथ में पानी से भरा प्याला लेकर चलना, ५. कमर पर हाथ रखकर चलना, ६. सिर पर कोई वस्तु रखकर चलना, ७. रस्सी पर चलना, ८. आँखे बंध करके चलना, ९. पीछे की ओर चलना, १०. एक पैर खडे रहना, ११. एक पैर पर खड़े रहकर झुककर कोई वस्तु उठाना...
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− | आदि खेल करवाएँ जाने चाहिए। शरीर परिचय १. शरीर के अंगों व उपांगों का परिचय करवाना १. सिर : बाल, खोपड़ी, कपाल, आँखें, भ्रमर, कनपटी, कान,
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− | ना
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− | क, होठ, जीभ, दांत, दाढ़ी, गला, गरदन इत्यादि २. धड़ : पीठ, सीना, कमर,पेट, कंधा इत्यादि
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− | हाथपैर हाथ : अंगुलियाँ, अंगूठा, हथेली, पंजा, कलाई, कोहनी, कंधा पैर : अंगुलियाँ, अंगूठा, एडी, पैर, तलवा, पंजा, घुटना, जंघा
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− | इत्यादि। २. शरीर के अंगउपांग के कार्य
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− | पैर : चलना, शरीर का भार उठाना, दौड़ना, नृत्य करना । हाथ : पकड़ना, लिखना, दबाना इत्यादि।
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− | आँख इत्यादि ज्ञानेन्द्रियों के कार्यों की चर्चा आगे ही चुकी है। ३. शरीर के आंतरिक अंगों एवं उनके कार्यों का परिचय
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− | मस्तिष्क, फेफड़े, आंतें, पेट इत्यादि।
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− | मस्तिष्क : शरीर के अंगों का संचालन। फेफड़े : श्वास की सहायता से रक्त शुद्ध करना।
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− | पेट : भोजन का पाचन करना इत्यादि। ४. शरीर में स्थित सप्तधातु
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− | रस, रक्त, मांस, मज्जा, अस्थि, ओज ५. कुछ प्रक्रियाओं की पहचान करवाना
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− | उदाहरण के तौर पर : अन्न चबाया जाता है, उसका रक्त में रूपान्तर होता है। श्वास अंदर जाता है तो रक्त शुद्ध होता है। मस्तिष्क के
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− | कारण ही संदेशव्यवहार चलता है।... इत्यादि। ५. आहार विहार
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− | आहार १. आहार ताजा होना चाहिए। २. आहार पौष्टिक होना चाहिए। ३. आहार सात्त्विक होना चाहिए। ४. दूध, फल,सब्जी, अनाज खाना चाहिए। ५. भोजन पालथी लगाकर बैठकर ही लेना चाहिए। ६. खूब भूख लगने पर ही भोजन करना चाहिए। भरपेट खाना चाहिए।
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− | अच्छी तरह चबाकर खाना चाहिए। ७. खाने से पहले पानी नहीं पीना चाहिए। आधा भोजन कर लेने के बाद
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− | एक दो बूंट पानी पीना चाहिए, पूर्ण भोजन के बाद भी एकाध बूंट ही
| + | === विहार === |
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− | पानी पीना चाहिए। ८. ठंडे पेय पदार्थ, फ्रीज में रखी वस्तुएँ, बासी व बाजारू वस्तुएँ,
| + | ==== दिनचर्या : ==== |
| + | दिन के किस भाग में क्या करना इसके आयोजन को दिनचर्या कहते हैं। |
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− | बिस्कुट, चॉकलेट वगैरह नहीं खाना चाहिए। ९. भोजन शांति से करना चाहिए। भोजन से पूर्व मंत्र बोलना चाहिए। १०. भोजन से पूर्व गाय व कुत्ते का हिस्सा निकालकर अलग रखना
| + | ==== कपड़े एवं पादत्राण ==== |
| + | कैसे होने चाहिए एवं कैसे नहीं होने चाहिए। |
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− | चाहिए। २. दिनचर्या
| + | ==== स्वच्छता ==== |
| + | शरीर के अंगों की अर्थात् दाँत, आँख, कान, नाक, संपूर्ण शरीर। इस दृष्टि से निम्न बातें सिखाएँ - दाँत साफ करना, कुल्ला करना, आँख एवं नाक साफ करना, हाथ पैर धोना, स्नान करना, बाल सँवारना इत्यादि। |
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− | १. सुबह जल्दी उठना चाहिए। २. रात में जल्दी सो जाना चाहिए।
| + | ==== निद्रा ==== |
| + | कितना सोना, कैसे सोना, कब सोना, बिस्तर कैसा हो इत्यादि। |
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− | ३. सुबह उठकर प्रथम हाथों का व भगवान का दर्शन करना चाहिए। ४. सुबह व्यायाम व प्रार्थना करना चाहिए। ५. दांत स्वच्छ करना, शौच व स्नान करना चाहिए। ६. सुबह एक घण्टा पढ़ाई करना चाहिए। कुछ नया पढ़ना चाहिए, माता
| + | == विवरण == |
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− | को काम में सहायता करना चाहिए। ७. दोपहर में ११ से १२ के बीच भोजन करना चाहिए। ८. भोजन के बाद थोड़ा आराम करना चाहिए। ९. शाम को मैदान में दौड़-पकड़ जैसे खेल खेलना चाहिए। १०. संध्यासमय में प्रार्थना करना चाहिए। ११. पढ़ना चाहिए व गृहकार्य करना चाहिए। १२. शाम को ७ से ७.३० के बीच भोजन करना चाहिए। १३. रात को ९ बजे तक सो जाना चाहिए। | + | === शरीरकी भिन्न भिन्न स्थितियाँ === |
| + | # बैठना : बैठते तो सभी हैं, परंतु अच्छी तरह बैठना चाहिए इस ओर बहुत कम लोग ध्यान देते हैं। इस दृष्टि से निम्न बातों का ध्यान रखना चाहिए। |
| + | ## सीधे बैठना : सीधे बैठना अर्थात् सिर का पीछे का हिस्सा, पीठ एवं कमर सीधी रेखा में रहे इस तरह बैठना। ऐसी आदत बचपन से ही डालना चाहिए। |
| + | ## शिथिल होकर बैठना : सीधे बैठने का सिखाने पर छात्र तनकर बैठने लगते हैं। इस तनाव को कम करवाना चाहिए। शिथिल बैठना अर्थात् ढलकर बैठना एवं सीधा बैठना अर्थात तनकर बैठना - ऐसा अर्थ न करें। |
| + | ## बैठक व धरती (जमीन) के मध्य में कोई अंतर (दूरी) न रहे इस प्रकार बैठना चाहिए। पालथी लगाकर बैठे हों या पैरों के बल पर बैठे हों। तब पैर जमीन से स्पर्श करते हों इसका खास ख्याल रखें। |
| + | ## कम से कम समय पैर लटकाकर बैठना पड़े इसका ख्याल रखें। |
| + | ## ध्यान में रखने योग्य बातें: |
| + | ### बचपन में स्वाभाविक रूप से ही शरीर लचीला होता है। अतः योग्य स्थिति की आदत बचपन से ही डालना चाहिए। जैसे जैसे आयु बढ़ती है, पुरानी आदतों को बदलना या भुलाना मुश्किल होता जाता है। |
| + | ### सीधे बैठा जा सके इसके लिए लिखने के लिए, काम करने के लिए सामने चौकी होना आवश्यक है। नहीं तो कार्य करने के लिए भी शरीर विकृत रूप से ढ़लता जाता है। |
| + | # खड़े रहना |
| + | ## दोनों पैरों पर समान भार रहे इस तरह खड़े रहना चाहिए। यह एक बहुत ही उपयोगी आदत है। परंतु इस ओर ध्यान न देने के कारण लोग डेढ़ पैर पर खड़े रहना सीखते हैं। अतः ऐसी आदत विशेष रूप से डालना चाहिए। |
| + | ## दोनों पैर एकसाथ जुड़े हों, या दो पैरों के मध्य दो कंधों के मध्य जितनी दूरी होती है, उतनी दूरी रखना चाहिए। |
| + | ## खड़े रहते समय एडी अंदर की ओर एवं पंजा बाहर की ओर रहे यही सही स्थिति है। उस ओर ध्यान दें। आदर्श स्थिति यह है कि एड़ी को जोड़कर यदि शरीर के समकोण पर सीधी रेखा खींची आए तो पंजों के मध्य का कोण बनना चाहिए। यदी एडी जुड़ी हो तो दोनों के मध्य ३०° का कोण बनना चाहिए। |
| + | ## सीधे खड़े रहना चाहिए। कमर या कंधे दबे हुए या झुके हुए न हों इसका ध्यान रखना चाहिए। इस ओर आजकल लोगोंं का ध्यान न होने के कारण अनेकों लोगों का सीना दबा होता है, या कंधे झुके होते हैं, या कमर बैठी हुई होती है, या तो पेट बाहर की ओर निकला हुआ होता है। |
| + | # चलना |
| + | ## जो स्थिति सीधे खड़े रहने की है। वही चलने के लिए भी आदर्श स्थिति है। |
| + | ## पैर घसीटकर नहीं परन्तु पैर उठाकर चलना चाहिए। |
| + | ## चलते समय पैर अन्दर या बाहर की ओर न पड़कर सीधे ही जमीन पर पड़ें इसका ख्याल रखना चाहिए। |
| + | ## छात्र जब चलते हों तब उनके पैरों का आकार व चलने की पद्धति पर विशेष रूप से ध्यान केन्द्रित करना चाहिए। |
| + | # उठना |
| + | ## बैठे हों या लेटे हों, उस अवस्था से उठते समय शरीर बेढब न बने इसका ख्याल रखना चाहिए। |
| + | ## यदि लेटे हों एवं उठना हो तो प्रथम करवट बदलें और इसके बाद उठने का उपक्रम करना चाहिए। |
| + | # सोना |
| + | ## हाथपैर समेटकर या बकुची बांधकर कभी भी नहीं सोना चाहिए। |
| + | ## सदा बाई करवट ही सोएँ। |
| + | ## सीधे (पीठ के बल), उल्टे (पेट के बल) कभी भी न सोएँ। |
| + | ## मुँह खुला रखकर न सोएँ। |
| + | ## सिर मुँह ढंककर कभी नहीं सोना चाहिए। |
| + | ## ध्यान में रखने योग्य बातें |
| + | ### सोने के विषय में जितना सोनेवाले ने अर्थात् छात्र ने ध्यान रखना है उतना ही या संभवतः उससे भी अधिक बड़ों को ध्यान रखना है। बड़ों को यह ध्यान रखना चाहिए कि बिस्तर डनलप की गद्दी इत्यादि का न रखकर रूई का ही बना हुआ हो। |
| + | ### उपर की चद्दर पोलीस्टर की न हो। |
| + | ### खिड़की दरवाजे बंद न हों, कमरे में हवा आसानी से आतीजाती हो। |
| + | ### कमरे में खटमल, मच्छर इत्यादि का उपद्रव न हो। यदि हो तो कछुआ छाप मच्छर अगरबत्ती या अन्य साधनों का उपयोग करने के बजाए मच्छरदानी का उपयोग करना चाहिए। |
| + | ### मैले या पोलीस्टर के कपड़े पहनकर नहीं सोना चाहिए। |
| + | ### हाथपैर धोकर ही सोना चाहिए। |
| + | ### निद्रा शरीर के पोषण व स्वास्थ्य के लिए अत्यंत महत्त्वपूर्ण है। अतः उसके प्रति पर्याप्त ध्यान देना चाहिए। |
| | | |
− | १४. सोते समय प्रार्थना करना चाहिए। ३. कपड़े व जूते
| + | == ज्ञानेन्द्रियाँ == |
| | | |
− | १. कपड़े ढीले व सूती होने चाहिए। २. कपड़े हमेशा धुले हुए व स्वच्छ होने चाहिए। ३. सर्दियों में सिर, कान, सीना, घुटना, पैर अच्छी तरह से ढंके रहे ऐसे
| + | === आँख === |
| + | # आँखें रंग व आकृति की पहचान करती है। अतः छात्रों को भिन्न भिन्न रंगों व आकारों का परिचय व पहचान करवाना चाहिए। |
| + | # आँख को धूप व धुएँ से बचाना चाहिए। |
| + | # आँखों को टी.वी. से तो खास बचाने की आवश्यकता है। |
| | | |
− | व गर्मी में पतले, कम व ढीले कपड़े पहनने चाहिए। ४. जुर्राबें हमेशा सूती व जूते चप्पल चमड़े के होने चाहिए। ५. जुर्राबें हमेशा पहनकर न रखें। ६. जो कपड़े सारा दिन पहने हों उन्हें पहन कर सोना नहीं चाहिए। एवं
| + | === कान === |
| + | कान आवाज की पहचान करते हैं। इसलिये उन्हें भिन्न भिन्न ध्वनि से परिचय करवाना चाहिए। जैसे; |
| + | # प्राणी, पशुपक्षी, वाहन, मनुष्य, यंत्र इत्यादि की आवाज। |
| + | # स्वर पहचानना। |
| + | # गीतों का स्वर पहचानना । |
| + | # हँसना, रोना, गुनगुनाना आदि की पहचान करवाना। |
| + | # भिन्न भिन्न वाद्यों की ध्वनि पहचानना। |
| + | # हमारे आसपास स्थित भिन्न भिन्न आवाजों को पहचानना। |
| | | |
− | रात को सोते समय जो कपड़े पहने हों उन्हें दिन में नहीं पहनना
| + | === नाक === |
| + | नाक गंध परखती है। अतः भिन्न भिन्न प्रकार की गंधों का परिचय करवाना चाहिए। जैसे |
| + | # सुगंध व दुर्गंध |
| + | # फूल, फल, सब्जी व मिठाई की सुगंध |
| + | # सड़ने, जलने व गलने की दुर्गंध |
| + | # दवाई की गंध। |
| | | |
− | चाहिए। ७. सुबह स्नान के बाद धुले हुए कपड़े ही पहनने चाहिए।
| + | === जिह्वा === |
| + | जिह्वा स्वाद परखती है। अतः भिन्न-भिन्न प्रकार के स्वाद का परिचय करवाना चाहिए। जैसे : |
| + | # मीठा, खट्टा, तीखा, नमकीन, कडुवा व कसैला। |
| + | # अलग अलग स्वाद का मिश्रण। |
| + | # फीका एवं तीव्र |
| + | # फल, सागसब्जी, मसाले, मिठाई, भिन्न भिन्न व्यंजन इत्यादि। |
| | | |
− | ८. जुर्राबें भी हमेशा धुली हुई ही पहनना चाहिए। ४. शुद्धिक्रिया १. कुल्ला करना : मुँह में पानी भरकर खूब हिलाकर उसे बाहर निकाल
| + | === त्वचा === |
| + | त्वचा भिन्न भिन्न स्पर्श पहचानती है। अतः भिन्न भिन्न प्रकार के स्पर्श का परिचय करवाना चाहिए। जैसे: |
| + | # ठंडा व गर्म |
| + | # खुरदरा व मुलायम |
| + | # सख्त व नर्म |
| + | # तीक्ष्ण व भोथरा |
| + | # करकरा व चिकना |
| + | # भिन्न भिन्न वस्तुओं का स्पर्श, जैसे पानी, हवा, मिट्टी, फलफूल, घास इत्यादि। |
| | | |
− | देना चाहिए। सुबह उठकर दांत साफ करके कुछ भी खाने के बाद बिना भूले कुल्ला करना चाहिए।
| + | === ध्यान में रखने योग्य बातें === |
| + | # ज्ञानेन्द्रियों को अलग अलग परिचय करवाते समय चोट न लगे इसका ध्यान रखना चाहिए। |
| + | # ज्ञानेन्द्रियों के अनुभव में विविधता होनी चाहिए। |
| + | # ज्ञानेन्द्रियों के अनुभव में निश्चितता होनी चाहिए। स्वाद या रंग, स्वर या स्पर्श के विषय में अनिश्चित नहीं रहना चाहिए। |
| + | # मिश्र रंग या मिश्र स्वाद का परिचय करवाने से पहले मूल रंग एवं मूल स्वाद का परिचय करवाना चाहिए। इसी तरह फीके (मंद) एवं जलद की प्रक्रिया भी बताना (दिखाना) चाहिए। |
| | | |
− | २. दांत साफ करना : दातून, दंतमंजन या नमक से अंगुली का उपयोग
| + | == कर्मेन्द्रियाँ == |
| + | आगे बताए गए अनुसार पाँच कर्मेन्द्रियों में से यहाँ सिर्फ दो ही कर्मेन्द्रियों के बारे में हमें सोचना है। वे कर्मेन्द्रियाँ हाथ व पैर हैं। इनमें भी हाथ के कुछ कौशलों के बारे में उद्योग विषय में सोचा गया है। अतः शेष हाथ के कौशल व पैर के कौशल के बारे में यहाँ विचार करना है। |
| | | |
− | करके दांत साफ करना चाहिए। ३. नाक, आँख व कान साफ करना : हमेशा छींककर, पानी से, अंगुली | + | === हाथ === |
| + | # फैंकना: |
| + | ## फैंकने के लिए प्रथम पकड़ना आना चाहिए। |
| + | ## इसके बाद कहाँ फैंकना है यह निश्चित करके कितना बल लगाना पड़ेगा व हाथ की स्थिति कैसी रखनी होगी इसका अंदाज लगाना होगा। इस प्रकार फैंकने की क्रिया में हाथ के साथ साथ बुद्धि का भी उपयोग करना पडता है |
| + | ## क्या क्या फैंका जा सकता है ? पत्थर, कंकड, गेंद, रिंग, हाथ में समानेवाली कोई भी वस्तु। |
| + | # झेलना: किसी अन्य के द्वारा फैंकी हुई या स्वयं ही उछाली हुई वस्तु को झेलने के लिए वस्तु की स्थिति, दिशा व चाल का अंदाज तथा हाथ की योग्य पकड़ होना बहुत आवश्यक है। |
| + | # पटकना और झेलना: उछालना व झेलना, फैंकना व झेलना। इन तीनों में दो दो क्रियाएँ एक साथ होती है। दीवार पर गेंद को टकराकर रीबाउन्ड होने पर झेलना, जमीन पर गेंद पटककर रीबाउन्ड होने पर झेलना एवं ऊँचा उछालकर नीचे आने पर गेंद को झेलना यह कौशल व अंदाज करने की क्षमता का दर्शक है। यद्यपि जैसे छोटों को सुनसुनकर बोलना व देख देखकर करना आ जाता है उसी तरह खेलते खेलते, अभ्यास करते करते ये सभी कौशल प्राप्त हो जाते हैं। केवल उन्हें यह सब करने के लिए एक मौके की आवश्यकता है। |
| + | # ढकेलना: ढकेलना का एक प्रकार गोल वस्तु को ढ़नगाने का है। एवं दूसरा प्रकार सपाट वस्तु को ढकेलने का है। ढकेलना अर्थात् वस्तु को पीछे से जोर लगाकर आगे की ओर सरकना। |
| + | # घसीटना: किसी वस्तु को रस्सी से बाँधकर या पकड़कर अपने पीछे पीछे खींचना घसीटना कहलाता है। घसीटने व खींचने में फर्क यह है कि घसीटने में वस्तु सदा जमीन के संपर्क में रहती है, जबकि खींचने में वस्तु का जमीन से स्पर्श होना आवश्यक नहीं है। |
| + | # ठोकर मारना: पैरों से किसी वस्तु को दूर फेंकना ठोकर मारना कहलाता है। गेंद, पत्थर या ऐसी किसी भी वस्तु को ठोकर मारकर दूर फैंकना भी एक अहम कौशल है। ठोकर मारते समय वस्तु का वजन, कितनी दूर फैंकना है, उसका अंदाज, उसकी दिशा तथा उसके अनुसार पैरों की स्थिति आदि का एकसाथ ही ख्याल रखना पड़ता है। परंतु अभ्यास से ये सभी बातें आने लगती हैं। |
| + | # कूदना |
| + | ## लंबा कूदना : प्रथम एक पैर से छलांग लगाना सिखाना चाहिए। इसके बाद ही दोनों पैरों से एक साथ कूदा जा सकेगा। |
| + | ## छलांग लगाना : पहले एक पैर से एवं बाद में दूसरे पैर से ऊँची वस्तु को लांघना ही छलांग लगाना है। |
| + | ## ऊंची कूद : दोनों पैरों से एकसाथ कूदकर ऊँची वस्तुओं को लांघने की क्रिया ऊँची कूद कहलाती है। |
| + | ## ऊँचाई से कूदना : ऊँचाइ पर खड़े रहकर नीचे की ओर कूदना। रस्सी कूदना, सीढियाँ लांघना, जीने पर से नीचे कूदना, दहलीज लांघना इत्यादि प्रकार से ऐसी कूद का अभ्यास किया जा सकता है। |
| + | ## पेड़ल मारना : एक के बाद एक पैरो को गोल घुमाना अर्थात् पेड़ल मारना। तीन पहिएवाली साइकिल चलाना, दो पहिएवाली साइकिल चलाना, तैरना आदि इस तरह से सीख सकते है। |
| + | इस तरह कर्मेन्द्रियों के अलग अलग कौशल सीखने के लिए अनेकों खेल व व्यायाम का आयोजन करना चाहिए। |
| | | |
− | से नाक, कान व आँखें साफ करना व रखना चाहिए। स्नान : ताजे स्वच्छ पानी से, रगड़-रगड़ कर शरीर को साफ करना अर्थात् स्नान करना। साबुन का उपयोग अनिवार्य नहीं है। खादी के छोटे टुकड़े से पूरा शरीर रगड़कर साफ किया जाए तो शरीर स्वच्छ हो जाता है। इसके बाद तौलिए से पूरा शरीर पोंछ डालना चाहिए। गीले शरीर में हवा नहीं लगने देना चाहिए। सर्दियों में गर्म पानी से व | + | हमारे बहुत से देशी खेल इन सभी कौशलों का विकास करने में सहायता करते हैं। ये खेल आज भी बहुत उपयोगी हैं। कुछ देशी खेल इस प्रकार हैं: १. कंचे खेलना, २. लट्ट चलाना, ३. चक्र घूमाना, ४. मारदड़ी खेलना, ५. दीवार पर गेंद टकराकर उसे झेलना, ६. गिरो-उठावो खेल, ७. सलाखें घोंचना, ८. जीना का खेल खेलना, ९. रस्सी कूदना इत्यादि। |
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− | गर्मियों में ठण्डे पानी से स्नान करना चाहिए। ५. मालिश : स्नान से पूर्व तिल या सरसों के तेल से पूरे शरीर पर
| + | == शारीरिक संतुलन व संचालन == |
| + | शरीर संचालन तो अनेकों खेल व साहसिक कार्यों के द्वारा होता है, परंतु शारीरिक संतुलन के लिए निम्न खेल करवाएँ जाने चाहिए: |
| + | # रेखा पर चलना |
| + | # संकरे पट्टे पर चलना |
| + | # इंट पर चलना |
| + | # हाथ में पानी से भरा प्याला लेकर चलना |
| + | # कमर पर हाथ रखकर चलना |
| + | # सिर पर कोई वस्तु रखकर चलना |
| + | # रस्सी पर चलना |
| + | # आँखे बंध करके चलना |
| + | # पीछे की ओर चलना |
| + | # एक पैर खडे रहना |
| + | # एक पैर पर खड़े रहकर झुककर कोई वस्तु उठाना |
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− | अच्छी तरह मालिश करना चाहिए। मालिश करने के थोड़ी देर बार
| + | == शरीर परिचय == |
| | | |
− | ही स्नान करना चाहिए। ६. स्नो, पावडर, क्रीम, वगैरह का उपयोग नहीं करना चाहिए। ७. सिर में अच्छी तरह तेल मलकर कंधी करना चाहिए। ८. भोजन से पूर्व, खेल के बाद, विद्यालय से आनेपर, सोने से पूर्व
| + | === शरीर के अंगों व उपांगों का परिचय करवाना === |
| + | # सिर : बाल, खोपड़ी, कपाल, आँखें, भ्रमर, कनपटी, कान, नाक, होठ, जीभ, दांत, दाढ़ी, गला, गरदन इत्यादि |
| + | # धड़ : पीठ, सीना, कमर,पेट, कंधा इत्यादि |
| + | # हाथपैर: |
| + | ## हाथ : अंगुलियाँ, अंगूठा, हथेली, पंजा, कलाई, कोहनी, कंधा |
| + | ## पैर : अंगुलियाँ, अंगूठा, एडी, पैर, तलवा, पंजा, घुटना, जंघा इत्यादि। |
| | | |
− | अच्छी तरह हाथ पैर रगड़कर धोना चाहिए व तैलिए से पोंछकर
| + | === शरीर के अंगउपांग के कार्य === |
| + | # पैर : चलना, शरीर का भार उठाना, दौड़ना, नृत्य करना । |
| + | # हाथ : पकड़ना, लिखना, दबाना इत्यादि। |
| + | # आँख इत्यादि ज्ञानेन्द्रियों के कार्यों की चर्चा आगे ही चुकी है। |
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− | सुखाना चाहिए। कुछ ध्यान में रखने योग्य बातें १. शारीरिक शिक्षण की कुछ बातें विद्यालय में करने के लिए हैं, तो
| + | === शरीर के आंतरिक अंगों एवं उनके कार्यों का परिचय === |
| + | # मस्तिष्क, फेफड़े, आंतें, पेट इत्यादि। |
| + | # मस्तिष्क : शरीर के अंगों का संचालन। |
| + | # फेफड़े : श्वास की सहायता से रक्त शुद्ध करना। |
| + | # पेट: भोजन का पाचन करना इत्यादि। |
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− | कुछ घरमें करने के लिये हैं। विद्यालय में करने योग्य बातों को अच्छी तरह करवाने की जिम्मेदारी शिक्षकों की है तथा घरमें करने योग्य बातों की जिम्मेदारी मातापिता की है यह अच्छी तरह समझने की
| + | === शरीर में स्थित सप्तधातु === |
| + | रस, रक्त, मांस, मज्जा, अस्थि, ओज |
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− | आवश्यकता है। २. शारीरिक शिक्षा पढ़ने व याद रखने के लिए नहीं अपितु समझने व
| + | === कुछ प्रक्रियाओं की पहचान करवाना === |
| + | उदाहरण के तौर पर : अन्न चबाया जाता है, उसका रक्त में रूपान्तर होता है। श्वास अंदर जाता है तो रक्त शुद्ध होता है। मस्तिष्क के कारण ही संदेशव्यवहार चलता है।... इत्यादि। |
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− | करने के लिए है। इसलिए इसका स्वरूप क्रियात्मक ही होना चाहिए। ३. शारीरिक शिक्षा की उपेक्षा न करें। उसे कम अहमियत न दें। वर्तमान
| + | === आहार विहार === |
| + | # आहार |
| + | ## आहार ताजा होना चाहिए। |
| + | ## आहार पौष्टिक होना चाहिए। |
| + | ## आहार सात्त्विक होना चाहिए। |
| + | ## दूध, फल,सब्जी, अनाज खाना चाहिए। |
| + | ## भोजन पालथी लगाकर बैठकर ही लेना चाहिए। |
| + | ## खूब भूख लगने पर ही भोजन करना चाहिए। भरपेट खाना चाहिए। अच्छी तरह चबाकर खाना चाहिए। |
| + | ## खाने से पहले पानी नहीं पीना चाहिए। आधा भोजन कर लेने के बाद एक दो बूंट पानी पीना चाहिए, पूर्ण भोजन के बाद भी एकाध बूंट ही पानी पीना चाहिए। |
| + | ## ठंडे पेय पदार्थ, फ्रीज में रखी वस्तुएँ, बासी व बाजारू वस्तुएँ, बिस्कुट, चॉकलेट वगैरह नहीं खाना चाहिए। |
| + | ## भोजन शांति से करना चाहिए। भोजन से पूर्व मंत्र बोलना चाहिए। |
| + | ## भोजन से पूर्व गाय व कुत्ते का हिस्सा निकालकर अलग रखना चाहिए। |
| + | # दिनचर्या |
| + | ## सुबह जल्दी उठना चाहिए। |
| + | ## रात में जल्दी सो जाना चाहिए। |
| + | ## सुबह उठकर प्रथम हाथों का व भगवान का दर्शन करना चाहिए। |
| + | ## सुबह व्यायाम व प्रार्थना करना चाहिए। |
| + | ## दांत स्वच्छ करना, शौच व स्नान करना चाहिए। |
| + | ## सुबह एक घण्टा पढ़ाई करना चाहिए। कुछ नया पढ़ना चाहिए, माता को काम में सहायता करना चाहिए। |
| + | ## दोपहर में ११ से १२ के मध्य भोजन करना चाहिए। |
| + | ## भोजन के बाद थोड़ा आराम करना चाहिए। |
| + | ## शाम को मैदान में दौड़-पकड़ जैसे खेल खेलना चाहिए। |
| + | ## संध्यासमय में प्रार्थना करना चाहिए। |
| + | ## पढ़ना चाहिए व गृहकार्य करना चाहिए। |
| + | ## शाम को ७ से ७.३० के मध्य भोजन करना चाहिए। |
| + | ## रात को ९ बजे तक सो जाना चाहिए। |
| + | ## सोते समय प्रार्थना करना चाहिए। |
| + | # कपड़े व जूते |
| + | ## कपड़े ढीले व सूती होने चाहिए। |
| + | ## कपड़े सदा धुले हुए व स्वच्छ होने चाहिए। |
| + | ## सर्दियों में सिर, कान, सीना, घुटना, पैर अच्छी तरह से ढंके रहे ऐसे व गर्मी में पतले, कम व ढीले कपड़े पहनने चाहिए। |
| + | ## जुर्राबें सदा सूती व जूते चप्पल चमड़े के होने चाहिए। |
| + | ## जुर्राबें सदा पहनकर न रखें। |
| + | ## जो कपड़े सारा दिन पहने हों उन्हें पहन कर सोना नहीं चाहिए। एवं रात को सोते समय जो कपड़े पहने हों उन्हें दिन में नहीं पहनना चाहिए। |
| + | ## सुबह स्नान के बाद धुले हुए कपड़े ही पहनने चाहिए। |
| + | ## जुर्राबें भी सदा धुली हुई ही पहनना चाहिए। |
| + | # शुद्धिक्रिया |
| + | ## कुल्ला करना : मुँह में पानी भरकर खूब हिलाकर उसे बाहर निकाल देना चाहिए। सुबह उठकर दांत साफ करके कुछ भी खाने के बाद बिना भूले कुल्ला करना चाहिए। |
| + | ## दांत साफ करना : दातून, दंतमंजन या नमक से अंगुली का उपयोग करके दांत साफ करना चाहिए। |
| + | ## नाक, आँख व कान साफ करना : सदा छींककर, पानी से, अंगुली से नाक, कान व आँखें साफ करना व रखना चाहिए। |
| + | ## स्नान : ताजे स्वच्छ पानी से, रगड़-रगड़ कर शरीर को साफ करना अर्थात् स्नान करना। साबुन का उपयोग अनिवार्य नहीं है। खादी के छोटे टुकड़े से पूरा शरीर रगड़कर साफ किया जाए तो शरीर स्वच्छ हो जाता है। इसके बाद तौलिए से पूरा शरीर पोंछ डालना चाहिए। गीले शरीर में हवा नहीं लगने देना चाहिए। सर्दियों में गर्म पानी से व गर्मियों में ठण्डे पानी से स्नान करना चाहिए। |
| + | ## मालिश : स्नान से पूर्व तिल या सरसों के तेल से पूरे शरीर पर अच्छी तरह मालिश करना चाहिए। मालिश करने के थोड़ी देर बार ही स्नान करना चाहिए। |
| + | ## स्नो, पावडर, क्रीम, वगैरह का उपयोग नहीं करना चाहिए। |
| + | ## सिर में अच्छी तरह तेल मलकर कंधी करना चाहिए। |
| + | ## भोजन से पूर्व, खेल के बाद, विद्यालय से आनेपर, सोने से पूर्व अच्छी तरह हाथ पैर रगड़कर धोना चाहिए व तैलिए से पोंछकर सुखाना चाहिए। |
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− | समय में ऐसा करने के कारण ही हमारे बच्चे दुर्बल व बीमार लगते हैं। | + | === कुछ ध्यान में रखने योग्य बातें === |
| + | # शारीरिक शिक्षण की कुछ बातें विद्यालय में करने के लिए हैं, तो कुछ घरमें करने के लिये हैं। विद्यालय में करने योग्य बातों को अच्छी तरह करवाने की जिम्मेदारी शिक्षकों की है तथा घरमें करने योग्य बातों की जिम्मेदारी मातापिता की है यह अच्छी तरह समझने की आवश्यकता है। |
| + | # शारीरिक शिक्षा पढ़ने व याद रखने के लिए नहीं अपितु समझने व करने के लिए है। अतः इसका स्वरूप क्रियात्मक ही होना चाहिए। |
| + | # शारीरिक शिक्षा की उपेक्षा न करें। उसे कम अहमियत न दें। वर्तमान समय में ऐसा करने के कारण ही हमारे बच्चे दुर्बल व बीमार लगते हैं। परिणाम स्वरूप उनका मन भी बीमार रहता है। |
| + | # छात्र घर पर काम करें यह आवश्यक है। साथ ही उन्हें मैदान पर खेलने के लिए भी समय देना चाहिए व प्रोत्साहित भी करना चाहिए। |
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− | परिणाम स्वरूप उनका मन भी बीमार रहता है। ४. छात्र घर पर काम करें यह आवश्यक है। साथ ही उन्हें मैदान पर
| + | ==References== |
| + | <references /> |
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− | खेलने के लिए भी समय देना चाहिए व प्रोत्साहित भी करना चाहिए।
| + | [[Category:शिक्षा पाठ्यक्रम एवं निर्देशिका]] |
| + | [[Category:Dharmik Jeevan Pratiman (धार्मिक जीवन प्रतिमान)]] |