शिक्षा पाठ्यक्रम एवं निर्देशिका-संगीत
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उद्देश्य
- संगीत नादब्रहा का आविष्कार है [1]। सृष्टि की रचना से अनादिकाल से जुड़ा हुआ है। सृष्टि की छोटीबड़ी प्रत्येक रचना से वह संबंधित है। इस संबंध की अनुभूति के लिए किसी भी शिक्षण क्रम में संगीत तो होना ही चाहिए।
- संगीत 'वाणी' नामक इन्द्रिय की शिक्षा है। स्वरयंत्र के शिक्षण से आवाज मधुर एवं सुरीली बनती है। सुरीली आवाज से अभिव्यक्ति योग्य रूप से होने में सहायता मिलती है।
- गढ़ी हुई आवाज का विचारतंत्र पर, भावनातंत्र पर एवं चित्ततंत्र पर बहुत प्रभाव होता है। उसमें संवादिता एवं सुग्रथितता आती है।
- संगीत से मन शांत होता है, एकाग्र बनता है, जीवन में सुंदरता आती है।
- भाषा की अभिव्यक्ति के लिए भी संगीत बहुत उपकारक सिद्ध होता है।
- संगीत शिक्षित मनुष्य का लक्षण है। सुभाषित में कहा गया है, 'साहित्यसंगीतकलाविहीन, साक्षात्पशुः पुच्छविषाणहीनः ।' अर्थात् 'सचमुच संगीत, साहित्य एवं कलाविहीन मनुष्य पूँछ एवं सींगविहीन पशु के समान है।'
- अतः शुरुआत के किसी भी पाठ्यक्रम में संगीत का स्थान अनिवार्य रूप से होना ही चाहिए।
आलंबन
- संगीत केवल गीतों का लय सीखने के लिए नहीं है। स्वर शुद्ध एवं बलवान बनाने के लिए स्वरसाधना को खूब महत्त्व देना चाहिए।
- संगीत का संबंध केवल संगीत के कालांश या संगीत के क्रियाकलाप के साथ ही नहीं है अपितु अन्य विषयों से भी है। अतः संगीतमय वातावरण का निर्माण करना आवश्यक है।
- संगीत का संबंध बुदि, मन, चित्त, प्राण इत्यादि सभी से है। अतः उसके लिए उत्तम व्यवस्था भी करना चाहिए।
- संगीत के बारे में उपरी दृष्टि से न देखकर विषय के मूल में जाकर आधारभूत बातों पर ध्यान केन्द्रित करना चाहिए। संगीत यह विस्तार या जानकारी का विषय नहीं है अपितु मूल क्षमताओं के विकास का है। अतः शिक्षक, मातापिता एवं छात्रों को मूल क्षमताओं के विकास की ओर अभिमुख करना चाहिए।
पाठ्यक्रम
- स्वर, ताल एवं लय की समझ विकसित करना।
- स्वर शुद्ध बने, बलवान बने, मधुर बने।
- ताल की पहचान करना एवं ताल देना सीखें।
- धीमी व तेज लय को पहचानें एवं अभिव्यक्त करें।
- संगीत अर्थात् गायन, वादन एवं नर्तन। अतः छात्र गायन करना जानें, वाद्य का वादन करना (बजाना) जानें, एवं नृत्य करना भी जानें।
क्रियाकलाप
वाणी कर्मेन्द्रिय है। संगीत का संबंध वाणी से है। कर्मेन्द्रिय की कृति ज्ञानेन्द्रिय के अनुभव पर आधारित होती है। श्रवणेन्द्रिय संगीत की ज्ञानेन्द्रिय है। अतः सबसे पहले छात्रों को संगीत खूब सुनाना चाहिए। सुन सुन कर कान तैयार होंगे तभी गले से स्वर निकलेगा। सुनने का यह अनुभव जितना गहरा होगा उतना ही गाना आसान बनेगा। अतः हमारे यहाँ कहा गया है कि 'कानसेन होंगे तभी तानसेन बनेंगे'।
छात्रों को किस प्रकार संगीत सुनाया जाए
- विद्यालय में संगीत श्रवण की उत्तम व्यवस्था करना चाहिए। उसके लिए ध्वनिमुद्रिकाएँ, उत्तम ध्वनिमुद्रण यंत्र एवं उत्तम प्रसारण व्यवस्था होना चाहिए।
- छात्रों के विद्यालय में आने के समय में, मध्यावकाश के समय में, विद्यालय समय पूर्ण होने के समय में, भोजन के समय में, उद्योग या खेलकूद में मग्न हों तब संगीत सुनवाना चाहिए। इसके अतिरिक्त संगीत बैठकर शांति से भी सुन सकते हैं।
- जो भी संगीत सुनाना हो उसकी गुणवत्ता उत्तम होना चाहिए। साथ ही उसमें विविधता भी होना चाहिए। अनेक राग, अनेक वाद्य, अनेक गायकों का वादन एवं गायन वे सुन पाएँ, ऐसी व्यवस्था करना चाहिए।
- संगीत में शब्द की अपेक्षा स्वर का महत्व अधिक है। अतः स्वर की दृष्टि से विविधता एवं गुणवत्ता होनी चाहिए।
- जो कुछ सुनें उसका आधार धार्मिक शास्त्रीय संगीत होना चाहिए। लोकसंगीत एक अलग विषय है। कानों को तैयार करने के लिए शास्त्रीय संगीत ही अधिक उपयोगी हो सकता है।
- केवल ध्वनिमुद्रिकाएँ ही सुनवाना पर्याप्त नहीं है। जीवंत व्यक्ति प्रत्यक्ष रूप से गाएँ और छात्र सामने बैठकर सुनें ऐसी व्यवस्था करना चाहिए। इस दृष्टि से विद्यालय में संगीताचार्य हों यह आवश्यक है। इसके अतिरिक्त कभी कभी अच्छे गायक, वादक एवं नर्तक विद्यालय में जाएँ, ऐसी योजना भी बनाना चाहिए। इस तरह वातावरण से ही संगीत का अनुभव हो तो छात्रों को आसानी से संगीत अवगत होता है।
गायन
- सरल स्वररचनावाले छोटे गीत: शास्त्रीय संगीत के रागों पर आधारित सरल स्वर रचना वाले छोटे गीत गाना सिखाना चाहिए। सरल स्वररचना अर्थात् जिसमें अधिक तान व लय एवं उतारचढ़ाव न हों। छात्रों का कंठ इस व्यवस्था में बहुत कोमल होता है। उस पर अधिक तनाव न आए यह देखना चाहिए। अतः बहुत ऊँचा स्वर नहीं होना चाहिए। आमतौर पर मध्यसप्तक का 'प' अथवा 'ध' (कभीकभी ही सम्हलकर तार सप्तक के 'सा' तक जाना चाहिए) तक की स्वररचना वाले गीत होने चाहिए। ऐसा करने से वे बेसुरे भी नहीं होंगे एवं गले को अच्छा व्यायाम भी मिलेगा। कक्षा १ एवं २ मिलाकर ऐसे पचीस से तीस गीत वे सीख सकते हैं।
- स्वर साधना: गले के गठन का मुख्य उपाय स्वर का अभ्यास है। इसके लिए सबसे पहले एक ही स्वर घोंटना चाहिए। यह एक स्वर अर्थात् 'सा'। तानपूरे के साथ या हारमोनियम के साथ या आचार्य के साथ 'सा' के गायन का अभ्यास करना चाहिए। अभ्यास अर्थात् रोज थोड़ी थोड़ी मात्रा में रियाज करना। स्वरसाधना का उद्देश्य अपने स्वरका अभ्यास कर दूसरे के स्वर में स्वर मिलाना है। इस दष्टि से प्रथम 'सा' स्वर के लिए एक या दो मास अभ्यास करवाने के बाद ही अन्य स्वरों का अभ्यास करना चाहिए। जिस प्रकार स्वर साधना की शुरुआत 'सा' से करते हैं उसी प्रकार 'ॐ'से भी सकर सकते हैं, क्योंकि ॐकार का स्वर सदैव 'सा' ही होता है।
- अलंकारों का अभ्यास: स्वरसाधना के बाद या स्वर साधना के साथ साथ अलंकारों का अभ्यास हो सकता है। निम्न प्रकार से दस अलंकार सिखाए जाने चाहिए:
1. | त्रिताल | सा रे ग म प ध नि सा
सा नि ध प म ग रे सा |
2. | त्रिताल | सासा रेरे गग मम पप धध निनि सासा
सासा निनि धध पप मम गग रेरे सासा |
3. | दादरा/त्रिताल | सारेग रेगम गमप मपध पधनि धनिसा
सानिध निधप धमप पमग मगरे गरेसा |
4. | त्रिताल | सारेगम रेगमप गमपध मपधनि पधनिसा
सानिधप निधमप धपमग पमगरे मगरेसा |
5. | एकताल | साग रेम गप मध पनि धसा
साध निप धम पग मरे गसा |
6. | झपताल/दादरा | सारेसारेग रेगरेगम गमगमप मपमपध पधपधनि धनिधनिसा
सानिसानिध निधनिधप धपधपम पमपमग मगमगरे गरेगरेसा |
7. | सारेगसारेगम रेगमरेगमप गमपगमपध मपधमपधनि पधनिपधनिसा
सानिधसानिधप निधपनिधपम धपमधपमग पमगपमगरे मगरेमगरेसा | |
8. | दादरा | सासारे रेरेग गगम ममप पपध धधनि निनिसा
सासानि निनिध धधम पपम ममग गगरे रेरेसा |
9. | त्रिताल | सारेसारेसारेग रेगरेगरेगम गमगमगमप मपमपमपध पधपधपधनि धनिधनिधनिसा
सानिसानिसानिध निधनिधनिधप धपधपधपम पमपमपमग मगमगमगरे गरेगरेगरेसा। |
10. | त्रिताल | सारेगग रेगमम गमपप मपधध पधनिनि धनिसासा
सानिधध निधपप धपमम पमगग मगरेरे गरेसासा |
इन अलंकारों को सिखाने में भी जल्दबाजी नहीं करना चाहिए। एक एक अलंकार पक्का बैठ जाए उसके बाद ही दूसरा अलंकार सिखाना चाहिए। अलंकार के अभ्यास से जिस तरह स्वर का अभ्यास होता है, उसी तरह उच्चारण का भी अभ्यास होता है। अतः उच्चारण पर ध्यान देना चाहिए।
- मंत्र, सूत्र एवं श्लोकपाठ: मंत्रों या श्लोकों के शब्द एवं अर्थ का हिस्सा देखें तो उसका समावेश योग में होता है। परंतु श्लोकों में छंद होते हैं एवं छंदों की स्वररचना निश्चित होती है। मंत्रो की भी स्वररचना निश्चित होती है। वैदिक मंत्र की गानपद्धति को स्वरित पद्धति कहते हैं। अतः इसका समावेश संगीत विषय में भी होता है। इस दृष्टि से बहुत से प्रचलित अनुष्टुप एवं शार्दूलविक्रिडित जैसे छंद एवं वेद के कुछ मंत्र शुद्ध एवं बलवान स्वर में गाना सिखाना चाहिए।
- ताली बजाना: ताल सीखने के लिए सबसे पहले ताली बजाना सीखना चाहिए। संख्या के अनुसार ताली बजवाना एवं गीत के साथ ताली बजाकर ताली बजाने का अभ्यास करवाना चाहिए।
- सामान्य ताल एवं बोल: जिस तरह अलंकारों से स्वर का अभ्यास होता है, उसी तरह ताल के बोल से ताल का अभ्यास होता है। अतः प्रचलित तीन ताल का समावेश यहाँ किया गया है।
कहेरवा
मात्रा: ४. खंड २
१ मात्रा पर ताली, ३ मात्रा पर खाली
१ | २ | ३ | ४ |
धा गी | न ति | न क | धी न |
दादरा
मात्रा-६, खंड-२
१ मात्रा पर ताली ४ मात्रा पर खाली
१ | २ | ३ | ४ | ५ | ६ |
धा | धी | ना | धा | ती | ना |
रूपक
मात्रा-७, खंड-३
४-६ मात्रा पर ताली १ पर खाली
१ | २ | ३ | ४ | ५ | ६ | ७ |
ती | ती | ना | धी | ना | धी | ना |
एक समय में एक ताल का अभ्यास करना चाहिए। अतः बोल के साथ ताली बजाकर ताल का अभ्यास करना चाहिए। इस तरह अभ्यास हो जाने के बाद गीत के साथ ताल का अभ्यास करना चाहिए। ऐसे अभ्यास के बाद यदि कोई नया गीत हो तो भी उसके ताल की समझ अपने आप ही हो जाती है।
जिस तरह ताली के साथ बोल बोलकर ताल का अभ्यास किया जाता है, उसी तरह तबले पर बोल के वादन के साथ ताली बजाकर एवं बोल बोलकर अभ्यास किया जा सकता है। तबला बजाने आना हमारा मुख्य उद्देश्य नहीं है। हमारा मुख्य उद्देश्य ताल समझकर कम से कम ताली बजाना आ जाए इतना ही है।
- विविध एवं चित्रविचित्र उच्चारणों के साथ स्वर एवं ताल का अभ्यास ।
उदाहरण के तौर पर:
1 टणणण टणणण टणणण टणणण १ २ ३ ४ 2 टणणट णणटण टणटण टणणण १ २ ३ ४ 3 टणणट णणणण टणणट णणणण १ २ ३ ४ 4 टणटण टणणण टणटण टणणण १ २ ३ ४ 5 छननन छुमछुम छुमछुम छननन १ २ ३ ४ 6 झमकझ मकझम झमकझ मकझम १ २ ३ ४ 7 ता ता थै थै ता ता थै थै १ २ ३ ४ 8 छुमछुम छननन छुम छन छननन १ २ ३ ४ 9 तकधीन तकधीन ताता तकधीन १ २ ३ ४ 10. धीन तक धीन तक धीन तक धीनता १ २ ३ ४ - इन सभी बोल एवं ताल को विविध स्वररचना में गा सकते हैं।
- ताली एवं चुटकी के साथ इन बोलों को पक्का करने के बाद इसमें नृत्य एवं अभिनय भी जोड़ा जा सकता है।
- ऐसी ही अन्य रचनाएँ आचार्य अपनी कल्पनाशक्ति से रच सकते हैं।
- यह सब करने के लिए वातावरण मुक्त एवं उल्लासपूर्ण होना चाहिए।
- वाद्यों का वादन: इन कक्षाओ में वाद्य बिलकुल सामान्य होने चाहिए। वाद्यों के दो प्रकार हैं। स्वरवाद्य एवं तालवाद्य। वंशी, शहनाई, हारमोनियम, सितार, जलतरंग इत्यादि स्वरवाद्य हैं। मंजीरे, खंजरी, धुंघरू, ढोलक, तबला इत्यादि तालवाद्य हैं। स्वरवाद्यों का अभ्यास अभी आवश्यक नहीं है। तालवाद्य ही सिखाना चाहिए। अभी सिखाने योग्य वाद्यों में मंजीरे, खंजरी, एवं धुंघरु का समावेश हो सकता है। __ ताली बजाना आ जाने के बाद मंजीरा बजाना सिखाना चाहिए। मंजीरे को पकड़ने की विधि एवं उसके टंकार से निकलने वाली ध्वनि कैसे निकलती है - यह सब सिखाना चाहिए। ताल तो अब आ ही गया है। अतः इस टंकार की ओर ही ध्यान आकर्षित करना चाहिए। इसी तरह खंजरी पकड़ना एवं थाप मारना भी सिखाना चाहिए। इसके लिए मंजीरे उत्तम टंकार वाले एवं खंजरी का चमड़ा एवं उसमें लगे छल्ले उत्तम प्रकार के होने चाहिए। ताली में जो जो बोला या गाया जा सकता हो वह सब कुछ मंजीरा एवं खंजरी के साथ भी गाया जा सकता है।
- घोषवादन जिस तरह ताली, मंजीरा, खंजरी वगैरह कक्षाकक्ष या भवन के अन्दर बैठकर बजाया जा सकता है, उसी तरह मैदान में बजाए जा सकनेवाले वाद्य शंख (समुद्र से निकला हुआ शंख या बिगुल), झल्लरी (झांझ), आनक, पणव, त्रिभुज इत्यादि हैं। इनमें से शंख स्वरवाद्य है, इसके अतिरिक्त सभी तालवाद्य है। इन वाद्यों में से पहले त्रिभुज बाद में पणव एवं अंत में झल्लरी बजाना सिखाना चाहिए।)
- नर्तन अथवा नृत्य: नृत्य का संबंध केवल गले के साथ ही नहीं अपितु संपूर्ण शरीर के साथ है। शरीर की लयबद्ध, तालबद्ध, लोचपूर्ण, हलचल के कारण नृत्य जन्म लेता है। स्वर एवं ताल के साथ झूमना, डोलना, नाचना, आमतौर पर स्वाभाविक रूप में होता है। संगीत के माध्यम से उसे व्यवस्थित करना ही हमारा उद्देश्य है। नृत्य सिखाने के लिए निम्नक्रम का अनुसरण करना चाहिए।
- ताली या चुटकी बजाते हुए बैठे बैठे ही डोलना। हाथ की दिशा भी भिन्न भिन्न रख सकते है।
- ताल एवं पैर से ठेस लेना।
- ताल के साथ ठुमका लगाना।
- ताल के साथ शरीर की अलग अलग प्रकार से हलचल करना।
- नृत्य प्रयोग का विषय है। अतः उसका वर्णन शब्दों में करना असंभव है। उसे प्रत्यक्ष सिखाना चाहिए। नृत्य सिखाते समय शरीर की मुक्त, तालबद्ध, लयबद्ध एवं लोचपूर्ण हलचल आवश्यक है। शरीर को झटके देना या निरर्थक कूदकांद करना ठीक नहीं है। इसके अतिरिक्त संगीत संस्कारिता एवं भद्रता का लक्षण है। अभद्रता एवं असंस्कारिता युक्त हलचल या कूदकांद करना संगीत नहीं, संगीत की विकृति है।
- इसके बाद गरबा, रास, डांडिया, अभिनयगीत इत्यादि की बारी आती है। इस पर अधिक ध्यान देने एवं करवाने की आवश्यकता नहीं है। तथापि आरम्भआत अवश्य करें।
- शास्त्रीय नृत्य: इस अवस्था में शास्त्रीय नृत्य का मात्र परिचय ही देना चाहिए एवं खूब आसान पदन्यास छात्रों को आएँ इतना ही करना चाहिए। शास्त्रीय नृत्य की कुछ आसान मुद्राएँ भी सिखाना चाहिए। शास्त्रीय नृत्य की विड़ियो केसेट अवश्य दिखाना चाहिए। उसके कारण ही अभिरुचि का निर्माण होता है। एवं इसीका महत्व है।
- योगचाप (लेजिम) एवं मितकाल: योगचाप या लेजिमनृत्य मैदान पर किया जानेवाला नृत्य है। अतः यह नृत्य देखने की आवश्यकता होती है। लेजिम पकड़ना आए, बजाना आए, इसके बाद ही उसका पदन्यास करवाना चाहिए। इसी तरह पणव के साथ मितकाल का अभ्यास भी किया जा सकता है।
- संगीत समारोह: संगीत के लिए जिस तरह सिखाने के लिए कालांश की व्यवस्था होती है, अन्य क्रियाकलापों को करते समय संगीतश्रवण की व्यवस्था होती है, उसी प्रकार विभिन्न समारोह एवं कार्यक्रम भी होते रहते हैं:
- संगीत सभा - महिने में एक बार संगीत सभा का आयोजन करना चाहिए। उसमें नगर के उत्तम गायक, वादक, एवं नर्तकों को आमंत्रित करना चाहिए। सभा का वातावरण अत्यंत प्रसन्न एवं व्यवस्था सौंदर्यपूर्ण हो इसका ध्यान रखकर आयोजन करना चाहिए। इससे छात्रों को उत्तम अनुभव प्राप्त होता है।
- रंगमंच कार्यक्रम : वर्ष में एक बार जो रंगमंच का कार्यक्रम होता है, उसमें भी संगीत का पक्ष ही मुख्य होता है। इस कार्यक्रम का आयोजन अत्यंत सुरुचिपूर्ण ढंग से होना चाहिए।
- बालसभा : प्रत्येक शनिवार को होनेवाली बालसभा में किसी न किसी प्रकार से संगीत की पेशकश की जा सकती है। यह प्रस्तुति व्यक्तिगत रूपसे या सामूहिक कार्यक्रम के रूप में भी हो सकती है।
- वंदना सभा : संगीत वंदना सभा का प्राण है। उत्तम वाद्य, उत्तम वादन, एवं गायन हो इसका ध्यान रखना चाहिए। मंदिर में, सार्वजनिक कार्यक्रमों में, उत्सव में विद्यालय के छात्रों का समूहसंगीत का कार्यक्रम हो, इसका आयोजन करना चाहिए।इस तरह संगीत को विद्यालय के समग्र कार्य के साथ जोड़ना चाहिए।
References
- ↑ प्रारम्भिक पाठ्यक्रम एवं आचार्य अभिभावक निर्देशिका - अध्याय ५, प्रकाशक: पुनरुत्थान प्रकाशन सेवा ट्रस्ट, लेखिका: श्रीमती इंदुमती काटदरे