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− | === क्यों हुआ बाजारीकरण === | + | {{ToBeEdited}}=== क्यों हुआ बाजारीकरण === |
| १. सन १८६० में Indian Charitable Societies Act आया | इस देश की शताब्दियों की दान-धर्म की परम्परा के लिए पंजीकरण (Registration) अनिवार्य हुआ । धर्म के कार्य भी बाजार के तंत्र में आ गए । शिक्षा भी, जो जीवन का अंग थी, इस तंत्र के कारण समिति, संविधान, चुनाव आदि से बंध गई | | | १. सन १८६० में Indian Charitable Societies Act आया | इस देश की शताब्दियों की दान-धर्म की परम्परा के लिए पंजीकरण (Registration) अनिवार्य हुआ । धर्म के कार्य भी बाजार के तंत्र में आ गए । शिक्षा भी, जो जीवन का अंग थी, इस तंत्र के कारण समिति, संविधान, चुनाव आदि से बंध गई | |
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| ३. नवीन पद्धति में शिक्षा डिग्री अवलम्बित हो गई । चूँकि डिग्री से रोजगार मिलता है, शिक्षा का उद्देश्य ज्ञानप्राप्ति के स्थान पर डिग्री प्राप्त करना और उसके माध्यम से रोजगार, जिसका एकमात्र अर्थ “नौकरी' रह गया, प्राप्त करना हो गया । “सा विद्या या विमुक्तये' के स्थान पर “सा विद्या या नियुक्तये' हो गया । डिग्री देने वाली संस्था सरकारी मान्यता से युक्त हो, यह अनिवार्यता हुई । मान्यता देने वाली संस्थाओं - प्राधिकरणों ने जो मानक तय किए उनमें शिक्षा संस्थानों के संचालन के लिए शैक्षिक गुणवता, वातावरण, प्रयोग-नवाचार.. अथवा शिक्षकीय तज्ञता के स्थान पर भूमि-भवन, भौतिक संसाधनों की उपलब्धता को अधिक स्थान दिया गया । प्राचीन भारत के गुरुकुल-आश्रमों और वर्तमान काल के शान्तिनिकेतन आदि को इन मानकों पर नहीं परखा जा सकता । शिक्षा संस्थान संचालन करने वाली संस्थाओं को शैक्षिक गुणवत्ता विकास के स्थान पर भौतिक संसाधन जुटाने की होड़ में सम्मिलित होना पड़ा । | | ३. नवीन पद्धति में शिक्षा डिग्री अवलम्बित हो गई । चूँकि डिग्री से रोजगार मिलता है, शिक्षा का उद्देश्य ज्ञानप्राप्ति के स्थान पर डिग्री प्राप्त करना और उसके माध्यम से रोजगार, जिसका एकमात्र अर्थ “नौकरी' रह गया, प्राप्त करना हो गया । “सा विद्या या विमुक्तये' के स्थान पर “सा विद्या या नियुक्तये' हो गया । डिग्री देने वाली संस्था सरकारी मान्यता से युक्त हो, यह अनिवार्यता हुई । मान्यता देने वाली संस्थाओं - प्राधिकरणों ने जो मानक तय किए उनमें शिक्षा संस्थानों के संचालन के लिए शैक्षिक गुणवता, वातावरण, प्रयोग-नवाचार.. अथवा शिक्षकीय तज्ञता के स्थान पर भूमि-भवन, भौतिक संसाधनों की उपलब्धता को अधिक स्थान दिया गया । प्राचीन भारत के गुरुकुल-आश्रमों और वर्तमान काल के शान्तिनिकेतन आदि को इन मानकों पर नहीं परखा जा सकता । शिक्षा संस्थान संचालन करने वाली संस्थाओं को शैक्षिक गुणवत्ता विकास के स्थान पर भौतिक संसाधन जुटाने की होड़ में सम्मिलित होना पड़ा । |
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− | ४. दुर्योग से १९८६ की नई शिक्षा नीति ने भी शिक्षा के बजाय डिग्री को ही पुष्ट किया । उसके बाद से यह क्रम जारी है । भारतीय विश्वविद्यालयों व तकनीकी संस्थाओं में विदेशी councils से Grade लेने की होड मची हैं । भारत में तकनीकी शिक्षा के विकास के लिए अमेरिकी सरकार तथा अनेक अन्तर्राष्ट्रीय वित्तीय संस्थान सहायता तथा ऋण देने को तैयार हैं । आखिर उन्हें भारत में तकनीकी शिक्षा के विकास में क्या और क्यों रुचि हो सकती है, इसके अतिरिक्त कि उनके तकनीक आधारित बड़े उद्योगों में मानव श्रम की आपूर्ति के लिए भारतीय श्रम शक्ति उपलब्ध हो जायेगी ? | + | ४. दुर्योग से १९८६ की नई शिक्षा नीति ने भी शिक्षा के बजाय डिग्री को ही पुष्ट किया । उसके बाद से यह क्रम जारी है । धार्मिक विश्वविद्यालयों व तकनीकी संस्थाओं में विदेशी councils से Grade लेने की होड मची हैं । भारत में तकनीकी शिक्षा के विकास के लिए अमेरिकी सरकार तथा अनेक अन्तर्राष्ट्रीय वित्तीय संस्थान सहायता तथा ऋण देने को तैयार हैं । आखिर उन्हें भारत में तकनीकी शिक्षा के विकास में क्या और क्यों रुचि हो सकती है, इसके अतिरिक्त कि उनके तकनीक आधारित बड़े उद्योगों में मानव श्रम की आपूर्ति के लिए धार्मिक श्रम शक्ति उपलब्ध हो जायेगी ? |
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| ५. संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम (UNDP) का सर्वेक्षण बताता है कि भारत में ४५ लाख प्रशिक्षित शिक्षकों की आवश्यकता है - वर्तमान में उपलब्धता २२ लाख है, २३ लाख प्रशिक्षित शिक्षक और चाहिए । वर्मा आयोग सुझाव देता है कि इस कार्य के लिए |NGOs का सहयोग लिया जाए । CBSE इस नये तंत्र के क्रियान्वयन की प्रक्रिया प्रारंभ कर चुका है - Expression of interest, technical bid, financial bid आमंत्रित की गई है | यह तो शुद्ध बाजारीकरण की प्रक्रिया है । मजे की बात यह है कि CBSE की शर्त है कि शिक्षक प्रशिक्षण के तंत्र में शामिल होने वाले NGOs को प्राप्त प्रशिक्षण शुल्क में से १० प्रतिशत राशि CBSE को देनी होगी । यह प्रकारान्तर से कमीशनखोरी का सरकारीकरण है, वह भी देश की उस शीर्ष शैक्षिक संस्था द्वारा जो निःशुल्क शिक्षा की पक्षधर होने का दावा करती है । यह सरेआम बाजारीकरण का स्वरूप हैं । | | ५. संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम (UNDP) का सर्वेक्षण बताता है कि भारत में ४५ लाख प्रशिक्षित शिक्षकों की आवश्यकता है - वर्तमान में उपलब्धता २२ लाख है, २३ लाख प्रशिक्षित शिक्षक और चाहिए । वर्मा आयोग सुझाव देता है कि इस कार्य के लिए |NGOs का सहयोग लिया जाए । CBSE इस नये तंत्र के क्रियान्वयन की प्रक्रिया प्रारंभ कर चुका है - Expression of interest, technical bid, financial bid आमंत्रित की गई है | यह तो शुद्ध बाजारीकरण की प्रक्रिया है । मजे की बात यह है कि CBSE की शर्त है कि शिक्षक प्रशिक्षण के तंत्र में शामिल होने वाले NGOs को प्राप्त प्रशिक्षण शुल्क में से १० प्रतिशत राशि CBSE को देनी होगी । यह प्रकारान्तर से कमीशनखोरी का सरकारीकरण है, वह भी देश की उस शीर्ष शैक्षिक संस्था द्वारा जो निःशुल्क शिक्षा की पक्षधर होने का दावा करती है । यह सरेआम बाजारीकरण का स्वरूप हैं । |
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| ६. “विश्व के १०० टॉप विश्वविद्यालयों - संस्थानों में भारत का कोई भी संस्थान नहीं' यह समाचार पर्याप्त प्रचार और बुद्धिजीवी वर्ग की चिन्ता का विषय बनता है । शैक्षिक गुणवत्ता अभिवृद्धि से कोई परहेज नहीं, परन्तु प्रश्न यह है कि यह “टॉप' की सूची तैयार करने वाली संस्था का मानक, उसकी स्वयं की शैक्षिक समझ का प्रकार क्या और कैसा है? प्रत्येक देश की शैक्षिक आवश्यकतायें उसकी. अपनी सामाजिक-राजनैतिक-वित्तीय-औद्योगिक तथा पर्यावरणीय परिस्थितियों के आधार पर निर्धारित होती हैं । UNESCO की प्रख्यात डेलर्स रिपोर्ट कहती है - Education of every nation should be committed to progress, rooted in its culture. ऐसे में शिक्षा के अन्तर्राष्ट्रीय मानक अर्थात् सब देशों के लिए समान मापदण्ड, कहाँ तक उपयुक्त माने जा सकते हैं? कहीं हम मछली की क्षमता का आकलन उसके पेड़ पर चढ़ने की योग्यता के आधार पर करने का प्रयास तो नहीं कर रहे? | | ६. “विश्व के १०० टॉप विश्वविद्यालयों - संस्थानों में भारत का कोई भी संस्थान नहीं' यह समाचार पर्याप्त प्रचार और बुद्धिजीवी वर्ग की चिन्ता का विषय बनता है । शैक्षिक गुणवत्ता अभिवृद्धि से कोई परहेज नहीं, परन्तु प्रश्न यह है कि यह “टॉप' की सूची तैयार करने वाली संस्था का मानक, उसकी स्वयं की शैक्षिक समझ का प्रकार क्या और कैसा है? प्रत्येक देश की शैक्षिक आवश्यकतायें उसकी. अपनी सामाजिक-राजनैतिक-वित्तीय-औद्योगिक तथा पर्यावरणीय परिस्थितियों के आधार पर निर्धारित होती हैं । UNESCO की प्रख्यात डेलर्स रिपोर्ट कहती है - Education of every nation should be committed to progress, rooted in its culture. ऐसे में शिक्षा के अन्तर्राष्ट्रीय मानक अर्थात् सब देशों के लिए समान मापदण्ड, कहाँ तक उपयुक्त माने जा सकते हैं? कहीं हम मछली की क्षमता का आकलन उसके पेड़ पर चढ़ने की योग्यता के आधार पर करने का प्रयास तो नहीं कर रहे? |
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− | ७. सरकारें मध्याह्म भोजन, बस्ते, साइकिल, लैपटॉप बाँट कर शिक्षा में बाजारवाद को बढ़ावा दे रहीं हैं । इसी धनराशि का उपयोग यदि विद्यालयों की स्थितियाँ - व्यवस्थायें सुधारने, शिक्षकों के रिक्त पदों को भरने, श्यामपट्ट जैसी मूलभूल सुविधायें उपलब्ध कराने में किया जाता तो शायद शिक्षा का उद्धार अधिक किया जा सकता था । | + | ७. सरकारें मध्याह्म भोजन, बस्ते, साइकिल, लैपटॉप बाँट कर शिक्षा में बाजारवाद को बढ़ावा दे रहीं हैं । इसी धनराशि का उपयोग यदि विद्यालयों की स्थितियाँ - व्यवस्थायें सुधारने, शिक्षकों के रिक्त पदों को भरने, श्यामपट्ट जैसी मूलभूल सुविधायें उपलब्ध कराने में किया जाता तो संभवतः शिक्षा का उद्धार अधिक किया जा सकता था । |
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| ८. पिछली दो-तीन दृशाब्दी से शिक्षा के क्षेत्र में बढ़ता Privatisation (निजीकरण) धीरे-धीरे Corporatisation की ओर बढ़ा है । लगभग सभी बड़े-छोटे औद्योगिक घराने आज इस दौड़ में शामिल हैं । शुरुआत तकनीकी संस्थाओं से हुई थी, जो कि इस दृष्टि से प्रशंसनीय प्रयास कहा जा सकता था कि वे अपने उद्योग समूहों के लिए ही सही, किन्तु गुणवत्तायुक्त शिक्षा के माध्यम से मेधावी विद्यार्थियों को आगे बढ़ने में सहायता कर रहे हैं । बिड़ला समूह का. पिलानी (राजस्थान) स्थित अभियांत्रिकी महाविद्यालय अनेक वर्षों से इस क्षेत्र में जाने वाले छात्रों के लिए Dream destination रहा है । परन्तु पिछले कुछ वर्षों में निजी विश्वविद्यालयों, महाविद्यालयों, तकनीकी शिक्षा संस्थानों से यह क्रम स्कूली शिक्षा तक पहुंच गया है। तेजी से हुए आर्थिक विकास के कारण भुगतान क्षमता बढ़ी, अभिभावकों में शिक्षा के प्रति जागरूकता के साथ- साथ अगली पीढ़ी को बड़े पैकेज वाली नौकरियों तक पहुंचाकर अपना बुढ़ापा सुरक्षित कर लेने की मानसिकता बढ़ी । इस नव-धनाढ्य वर्ग की इस मानसिकता को भुनाने में ये औद्योगिक घराने सफल भी हुए । Centrally वातानुकूलित परिसर, शानदार कक्ष, आलीशान भवन और शिक्षा से अधिक सुख-सुविधा की व्यवस्था. की चिन्ता, अच्छे शिक्षा संस्थान की पहचान बन गए । | | ८. पिछली दो-तीन दृशाब्दी से शिक्षा के क्षेत्र में बढ़ता Privatisation (निजीकरण) धीरे-धीरे Corporatisation की ओर बढ़ा है । लगभग सभी बड़े-छोटे औद्योगिक घराने आज इस दौड़ में शामिल हैं । शुरुआत तकनीकी संस्थाओं से हुई थी, जो कि इस दृष्टि से प्रशंसनीय प्रयास कहा जा सकता था कि वे अपने उद्योग समूहों के लिए ही सही, किन्तु गुणवत्तायुक्त शिक्षा के माध्यम से मेधावी विद्यार्थियों को आगे बढ़ने में सहायता कर रहे हैं । बिड़ला समूह का. पिलानी (राजस्थान) स्थित अभियांत्रिकी महाविद्यालय अनेक वर्षों से इस क्षेत्र में जाने वाले छात्रों के लिए Dream destination रहा है । परन्तु पिछले कुछ वर्षों में निजी विश्वविद्यालयों, महाविद्यालयों, तकनीकी शिक्षा संस्थानों से यह क्रम स्कूली शिक्षा तक पहुंच गया है। तेजी से हुए आर्थिक विकास के कारण भुगतान क्षमता बढ़ी, अभिभावकों में शिक्षा के प्रति जागरूकता के साथ- साथ अगली पीढ़ी को बड़े पैकेज वाली नौकरियों तक पहुंचाकर अपना बुढ़ापा सुरक्षित कर लेने की मानसिकता बढ़ी । इस नव-धनाढ्य वर्ग की इस मानसिकता को भुनाने में ये औद्योगिक घराने सफल भी हुए । Centrally वातानुकूलित परिसर, शानदार कक्ष, आलीशान भवन और शिक्षा से अधिक सुख-सुविधा की व्यवस्था. की चिन्ता, अच्छे शिक्षा संस्थान की पहचान बन गए । |